श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व द्वितीयोऽध्यायः
दक्षोत्पत्तिकथनम् -
स्वायम्भुव मनुके वंश और दक्ष प्रजापतिकी उत्पत्तिका वर्णन
वैशम्पायन उवाच - स सृष्टासु प्रजास्वेवमापवो वै प्रजापतिः । लेभे वै पुरुषः पत्नीं शतरूपामयोनिजाम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजीने कहा-जनमेजय ! इस प्रकार (अयोनिज-मानसिक) प्रजाओंकी रचना हो जानेपर वह आपव प्रजापति (ब्रह्मा) ही (अपनी देहके दो भाग करके एक भागसे मनु नामक) पुरुष बन गये और उन्होंने देहके दूसरे भागसे बनी हुई अयोनिजा शतरूपाको पत्नीरूपमें स्वीकार किया ॥ १ ॥
आपवस्य महिम्ना तु दिवमावृत्य तिष्ठतः । धर्मेणैव महाराज शतरूपा व्यजायत ॥ २ ॥
महाराज ! अपनी महिमासे धुलोकको व्याप्त करके स्थित हुए मनुके धर्मसे ही उनकी पत्नी शतरूपाकी उत्पत्ति हुई ॥ २ ॥
सा तु वर्षायुतं तप्त्वा तपः परमदुश्चरम् । भर्तारं दीप्ततपसं पुरुषं प्रत्यपद्यत ॥ ३ ॥
वह शतरूपा दस हजार वर्षोंतक परम दुष्कर तप करके (संतानकी कामनासे) तपसे चमकते हुए अपने स्वामी वैराज पुरुषके पास आयीं ॥ ३ ॥
स वै स्वायम्भुवस्तात पुरुषो मनुरुच्यते । तस्यैकसप्ततियुगं मन्वन्तरमिहोच्यते ॥ ४ ॥
तात ! वे पुरुष ही स्वायम्भुव मनु कहे जाते हैं । उन (-के अधिकार)-का (सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगरूप) इकहत्तर चतुर्युगोंका समय इस संसारमें मन्वन्तर कहलाता है (यह मन्वन्तर संध्या और संध्यांशके कारण इकहत्तर चतुर्युगोंसे भी कुछ अधिक समयका होता है । ) ॥ ४ ॥
वैराजात् पुरुषाद् वीरं शतरूपा व्यजायत । प्रियव्रतोत्तानपादौ वीरात्काम्या व्यजायत ॥ ५ ॥
वैराज पुरुष मनुसे उनकी पत्नी शतरूपाने वीर नामक पुत्रको जन्म दिया और वीरसे उनकी पत्नी काम्याने प्रियव्रत तथा उत्तानपादको उत्पन्न किया ॥ ५ ॥
काम्या नाम महाबाहो कर्दमस्य प्रजापतेः । काम्यापुत्रास्तु चत्वारः सम्राट् कुक्षिर्विराट् प्रभुः । प्रियव्रतं समासाद्य पतिं सा सुषुवे सुतान् ॥ ६ ॥
महाबाहो ! कर्दम प्रजापतिकी एक काम्या नामवाली पुत्री थी, उस काम्याके सम्राट्, कुक्षि, विराट् और प्रभु नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए । उस काम्याने प्रियव्रतको पतिरूपमें पाकर इन पुत्रोंको उत्पन्न किया था ॥ ६ ॥
उत्तानपादं जग्राह पुत्रमत्रिः प्रजापतिः । उत्तानपादाच्चतुरः सूनृताजनयत् सुतान् ॥ ७ ॥
प्रजापति अत्रिने उत्तानपादको पुत्ररूपमें ग्रहण कर लिया । उत्तानपादसे उनकी पत्नी सूनृताने चार पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ ७ ॥
धर्मस्य कन्या सुश्रोणी सूनृता नाम विश्रुता । उत्पन्ना वाजिमेधेन ध्रुवस्य जननी शुभा ॥ ८ ॥
धर्मकी एक सूनृता नामसे प्रसिद्ध सुन्दर कटिवाली पुत्री थी, वह धर्मके यहाँ अश्वमेध यज्ञसे प्रकट हुई थी, यही कल्याणकारिणी सूनृता ध्रुवकी माता थी ॥ ८ ॥
ध्रुवं च कीर्तिमन्तं च शिवं शान्तमयस्पतिम् । उत्तानपादोऽजनयत् सूनृतायां प्रजापतिः ॥ ९ ॥
प्रजापति उत्तानपादने सून्ता नामवाली पत्नीसे ध्रुव, कीर्तिमान्, शान्तस्वरूप शिव और अयस्पति नामक पुत्रको उत्पन्न किया था ॥ ९ ॥
ध्रुवो वर्षसहस्राणि त्रीणि दिव्यानि भारत । तपस्तेपे महाराज प्रार्थयन् सुमहद् यशः ॥ १० ॥
भरतवंशी महाराज ! ध्रुवने जिनका नाम महायश* है, उन भगवान् नारायणको पानेकी इच्छासे | तीन हजार दिव्या वर्षातक तप किया था ॥ १० ॥
तस्मै ब्रह्मा ददौ प्रीतः स्थानमप्रतिमं भुवि । अचलं चैव पुरतः सप्तर्षीणां प्रजापतिः ॥ ११ ॥
प्रजापालक भगवान् ब्रह्मा (विष्णु)-ने ध्रुवपर प्रसन्न होकर उनको सप्तर्षियोंके सम्मुख एक अलौकिक, अचल स्थान प्रदान किया ॥ ११ ॥
तस्यातिमात्रामृद्धिं च महिमानं निरीक्ष्य च । देवासुराणामाचार्यः श्लोकमप्युशना जगौ ॥ १२ ॥
ध्रुवकी बड़ी भारी समृद्धि और महिमाको देखकर देवता और असुरोंके आचार्य शुक्राचार्यने* इस श्लोकका गान किया- ॥ १२ ॥
अहोऽस्य तपसो वीर्यमहो श्रुतमहो बलम् । यदेनं पुरतः कृत्वा ध्रुवं सप्तर्षयः स्थिताः ॥ १३ ॥
'इन ध्रुवके तपोबलको देखकर आश्चर्य होता है, इनका शास्त्रज्ञान भी विस्मयविमुग्ध कर देता है और इनकी शक्ति भी अद्भुत है, तभी तो ये सप्तर्षि भी इनको अपने आगे स्थापित करके स्थित हैं' ॥ १३ ॥
तस्माच्छ्लिष्टिं च भव्यं च ध्रुवाच्छम्भुर्व्यजायत । श्लिष्टेराधत्त सुच्छाया पञ्च पुत्रानकल्मषान् ॥ १४ ॥ रिपुं रिपुञ्जयं पुण्यं वृकलं वृकतेजसम् । रिपोराधत्त बृहती चाक्षुषं सर्वतेजसम् ॥ १५ ॥
उन ध्रुवसे शम्भु नामवाली स्त्रीने श्लिष्टि और भव्य नामक पुत्रोंको उत्पन्न किया । श्लिष्टिसे सुच्छाया (नामकी पत्नी)-ने रिपु, रिपुञ्जय, पुण्य, वृकल और वृकतेजा-पाँच निष्पाप पुत्रोंको उत्पन्न किया । रिपुसे उनकी बृहती नामकी पत्नीने सब देवताओंके तेजसे परिपूर्ण चाक्षुष नामक पुत्रको उत्पन्न किया ॥ १४-१५ ॥
अजीजनत् पुष्करिण्यां वीरण्यां चाक्षुषो मनुम् । प्रजापतेरात्मजायामरण्यस्य महात्मनः ॥ १६ ॥ मनोरजायन्त दश नड्वलायां महौजसः । कन्यायामभवञ्छ्रेष्ठा वैराजस्य प्रजापतेः ॥ १७ ॥
चाक्षुषने वीरणकी पुत्री पुष्करिणीके गर्भसे मनु नामक पुत्रको उत्पन्न किया । वैराज प्रजापतिके वंशमें उत्पन्न हुए इन परम तेजस्वी मनुसे महात्मा अरण्यकी पुत्री नवलाद्वारा दस श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए ॥ १६-१७ ॥
ऊरुः पुरुः शतद्युम्नस्तपस्वी सत्यवान्कविः । अग्निष्टुदतिरात्रश्च सुद्युम्नश्चेति ते नव ॥ १८ ॥ अभिमन्युश्च दशमो नड्वलायाः सुताः स्मृताः । ऊरोरजनयत् पुत्रान् षडाग्नेयी महाप्रभान् । अङ्गं सुमनसं ख्यातिं क्रतुमङ्गिरसं गयम् ॥ १९ ॥
ऊरु, पुरु, शतधुम्र, तपस्वी, सत्यवान्, कवि, अग्निष्टुत्, अतिरात्र और सुधुन-ये नौ और दसवाँ अभिमन्यु-ये नड्वलाके पुत्र कहे जाते हैं । ऊरुसे अग्निकी कन्याने अङ्ग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अङ्गिरा और गय नामक उत्तम कान्तिवाले छः पुत्रोंको उत्पन्न किया था ॥ १८-१९ ॥
अङ्गात् सुनीथापत्यं वै वेनमेकमजायत । अपचारात् तु वेनस्य प्रकोपः सुमहानभूत् ॥ २० ॥
अङ्गसे (मृत्युकी पुत्री) सुनीथाने वेन नामक एक पुत्रको उत्पन्न किया था । वेन अत्याचारी था (देवता, धर्म आदिसे द्रोह रखता था), अतएव ऋषियोंको उसपर बड़ा क्रोध आया ॥ २० ॥
प्रजार्थमृषयो यस्य ममन्थुर्दक्षिणं करम् । वेनस्य पाणौ मथिते बभूव मुनिभिः पृथुः ॥ २१ ॥
(ऋषियोंके कोपसे नष्ट हुए) वेनके दाहिने हाथको मुनियोंने संतान उत्पन्न करनेके लिये मथा, तब मुनियोंके मथे हुए वेनके दाहिने हाथसे पृथुकी उत्पत्ति हुई ॥ २१ ॥
तं दृष्ट्वा ऋषयः प्राहुरेष वै मुदिताः प्रजाः । करिष्यति महातेजा यशश्च प्राप्स्यते महत् ॥ २२ ॥
ऋषियोंने उसको देखकर कहा-'यह पृथु प्रजाओंको प्रसन्न करेगा और इस महातेजस्वीको उत्तम यशकी प्राप्ति होगी' ॥ २२ ॥
स धन्वी कवची खड्गी तेजसा निर्दहन्निव । पृथुर्वैन्यस्तदा चेमां ररक्ष क्षत्रपूर्वजः ॥ २३ ॥
तब वे क्षत्रिय-जातिमें प्रथम उत्पन्न हुए वनके पुत्र पृथु धनुष, कवच और तलवार धारणकर अपने तेजसे (डाकू, अधर्मी आदि दुष्ट पुरुषोंको) भस्म-सा करते हुए इस पृथ्वीकी रक्षा करने लगे ॥ २३ ॥
राजसूयाभिषिक्तानामाद्यः स वसुधाधिपः । तस्माच्चैव समुत्पन्नौ निपुणौ सूतमागधौ ॥ २४ ॥
पृथु राजसूय यज्ञमें अभिषिक्त होनेवाले राजाओंमें प्रथम भूपति हैं । (उन्हींके यज्ञमें अग्निसे राजाओंकी स्तुति करनेमें) चतुर सूत तथा (राजाओंकी वंशावली पढ़नेमें) प्रवीण मागध प्रकट हुए थे ॥ २४ ॥
तेनेयं गौर्महाराज दुग्धा सस्यानि भारत । प्रजानां वृत्तिकामेन देवैः सर्षिगणैः सह ॥ २५ ॥
भरतवंशी महाराज ! प्रजाओंको आजीविका देनेकी इच्छावाले पृथुने देवता और ऋषियोंकी मण्डलियोंको साथमें ले गौरूपिणी पृथ्वीसे अन्न (आदि सकल वस्तुओं)-को दुहा था ॥ २५ ॥
पितृभिर्दानवैश्चैव गन्धर्वैः साप्सरोगणैः । सर्पैः पुण्यजनैश्चैव वीरुद्भिः पर्वतैस्तथा ॥ २६ ॥ तेषु तेषु च पात्रेषु दुह्यमाना वसुन्धरा । प्रादाद्यथेप्सितं क्षीरं तेन प्राणानधारयन् ॥ २७ ॥
(पृथुके समय) पितर, दानव, गन्धर्व, अप्सरा, सर्प, यक्ष, वृक्ष और पर्वतोंने अपने-अपने पात्रोंमें' दुहा था । पृथ्वीने उनको इच्छानुसार दूध दिया था और उस दूधसे उन सबने अपने प्राणोंको धारण किया था ॥ २६-२७ ॥
पृथुपुत्रौ तु धर्मज्ञौ जज्ञातेऽन्तर्द्धिपालितौ । शिखण्डिनी हविर्धानमन्तर्धानाद् व्यजायत ॥ २८ ॥
पृथुके अन्तर्धान और पालित-ये दो धर्मज्ञ पुत्र हुए और अन्तर्धानसे शिखण्डिनीने हविर्धान नामक पुत्रको उत्पन्न किया ॥ २८ ॥
हविर्धानात् षडाग्नेयी धिषणाजनयत् सुतान् । प्राचीनबर्हिषं शुक्लं गयं कृष्णं व्रजाजिनौ ॥ २९ ॥
हविर्धानसे अग्निकी पुत्री धिषणाने प्राचीनबर्हि, शुक्ल, गय, कृष्ण, व्रज और अजिन नामवाले छः पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ २९ ॥
प्राचीनबर्हिर्भगवान् महानासीत् प्रजापतिः । हविर्धानान्महाराज येन संवर्द्धिताः प्रजाः ॥ ३० ॥
महाराज ! भगवान् । प्राचीनबर्हि, जिन्होंने प्रजाओंका पालन एवं संवर्धन किया था, अपने पिता हविर्धानसे बढ़कर प्रजापालक हुए ॥ ३० ॥
प्राचीनाग्राः कुशास्तस्य पृथिव्यां जनमेजय । प्राचीनबर्हिर्भगवान् पृथिवीतलचारिणः ॥ ३१ ॥
जनमेजय ! उनके यज्ञ करते समय बिछे हुए प्राचीनान कुश समस्त भूमण्डलपर फैलकर उनके महत्त्वको प्रकट कर रहे थे, अतएव उनका नाम भगवान् प्राचीनबर्हि है ॥ ३१ ॥
समुद्रतनयायां तु कृतदारोऽभवत् प्रभुः । महतस्तपसः पारे सवर्णायां महीपतिः ॥ ३२ ॥
महीपति प्रभु प्राचीनबर्हिने बड़ा भारी तप करनेके पश्चात् समुद्रकी पुत्री सवर्णाके साथ विवाह किया ॥ ३२ ॥
सवर्णाऽऽधत्त सामुद्री दश प्राचीनबर्हिषः । सर्वे प्रचेतसो नाम धनुर्वेदस्य पारगाः ॥ ३३ ॥
प्राचीनबर्हिसे समुद्रकी पुत्री सवर्णाने दस पुत्र उत्पन्न किये, उन दसोंका 'प्रचेता' यह एक ही नाम था । वे सब धनुर्वेदके पारगामी थे ॥ ३३ ॥
अपृथग्धर्मचरणास्तेऽतप्यन्त महत्तपः । दशवर्षसहस्राणि समुद्रसलिलेशयाः ॥ ३४ ॥
वे सब प्रचेतागण एक साथ समान धर्म-कर्मका आचरण करते थे और एक-से शीलवाले थे, उन्होंने समुद्रके जलमें प्रवेश करके दस हजार वर्षांतक बड़ी भारी तपस्या की ॥ ३४ ॥
तपश्चरत्सु पृथिवीं प्रचेतस्सु महीरुहाः । अरक्ष्यमाणामावव्रुर्बभूवाथ प्रजाक्षयः ॥ ३५ ॥
जब प्रचेतागण तप कर रहे थे, तब अरक्षित पड़ी हुई पृथ्वीको वृक्षोंने चारों ओरसे ढक | दिया, इससे प्रजाओंका नाश होने लगा ॥ ३५ ॥
नाशकन्मारुतो वातुं वृतं खमभवद् द्रुमैः । दशवर्षसहस्राणि न शेकुश्चेष्टितुं प्रजाः ॥ ३६ ॥
दस हजार वर्षों में वृक्षोंने आकाशतकको घेर लिया, तब वायुका चलना बंद हो गया और प्रजाओंका चेष्टा करना (हाथ-पैर हिलाना) भी बंद होने लगा ॥ ३६ ॥
तदुपसृत्य तपसा युक्ताः सर्वे प्रचेतसः । मुखेभ्यो वायुमग्निं च तेऽससृजञ्जातमन्यवः ॥ ३७ ॥
अपनी तपस्या (ज्ञानदृष्टि)-से इन सब बातोंको जानकर सब प्रचेता इसका उपाय करनेके लिये उद्यत हो गये और उन्होंने क्रोधमें भरकर अपने मुखोंसे वायु और अग्निको प्रकट किया ॥ ३७ ॥
उन्मूलानथ तान् कृत्वा वृक्षान् वायुरशोषयत् । तानग्निरदहद्घोरं एवमासीद् द्रुमक्षयः ॥ ३८ ॥
वायुने वृक्षोंको जड़से उखाड़कर उनको सुखा दिया, तब अग्नि प्रचण्ड होकर उन वृक्षोंको जलाने लगी, इस प्रकार वृक्षोंका नाश होने लगा ॥ ३८ ॥
द्रुमक्षयमथो बुद्ध्वा किञ्चिच्छिष्टेषु शाखिषु । उपगम्याब्रवीदेतान् राजा सोमः प्रजापतीन् ॥ ३९ ॥
इस प्रकार जलते-जलते जब कुछ ही वृक्ष बाकी बचे, तब वृक्षोंके संहारकी बातको जानकर इन वृक्षोंके राजा सोम प्रजापति प्रचेताओंके पास जाकर बोले- ॥ ३९ ॥
कोपं यच्छत राजानः सर्वे प्राचीनबर्हिषः । वृक्षशून्या कृता पृथ्वी शाम्येतामग्निमारुतौ ॥ ४० ॥
'प्राचीनबर्हिके पुत्र प्रचेताओ ! तुमने तो पृथ्वीको वृक्षोंसे शून्य ही कर डाला । राजाओ ! अब अपने क्रोधको रोको तथा इन अग्नि और पवनको शान्त करो ॥ ४० ॥
रत्नभूता च कन्येयं वृक्षाणां वरवर्णिनी । भविष्यं जानता तत्त्वं धृता गर्भेण वै मया ॥ ४१ ॥
यह वृक्षोंकी रत्नस्वरूपा सुन्दरी कन्या है । मैंने भविष्यके तत्त्वको जानकर इसे अपने गर्भमें स्थापित कर लिया था* ॥ ४१ ॥
मारिषा नाम कन्येयं वृक्षाणामिति निर्मिता । भार्या वोऽस्तु महाभागाः सोमवंशविवर्द्धिनी ॥ ४२ ॥
यह मारिषा नामवाली कन्या वृक्षोंके वीर्य अर्थात् सारांशसे रची गयी है । महाभाग ! इस सोमवंशकी वृद्धि करनेवाली वृक्षोंकी कन्याको तुम भार्यारूपमें ग्रहण करो ॥ ४२ ॥
युष्माकं तेजसोऽर्द्धेन मम चार्द्धेन तेजसः । अस्यामुत्पत्स्यते पुत्रो दक्षो नाम प्रजापतिः ॥ ४३ ॥
तुम्हारे और मेरे दोनोंके तेजके आधे-आधे भागके द्वारा इस कन्याके गर्भसे एक पुत्र उत्पन्न होगा, जिसका नाम होगा-दक्ष प्रजापति ॥ ४३ ॥
य इमां दग्धभूयिष्ठां युष्मत्तेजोमयेन वै । अग्निनाग्निसमो भूयः प्रजाः संवर्धयिष्यति ॥ ४४ ॥
तुम्हारे तपरूपी अग्निसे अग्निके समान ही प्रतापी वह दक्ष अधिकांश जली हुई इस पृथ्वीपर फिर प्रजाओंकी वृद्धि करेगा' ॥ ४४ ॥
ततः सोमस्य वचनाज्जगृहुस्ते प्रचेतसः । संहृत्य कोपं वृक्षेभ्यः पत्नीं धर्मेण मारिषाम् ॥ ४५ ॥
चन्द्रमाके इस प्रकार कहनेपर उन प्रचेताओंने वृक्षोंकी ओरसे अपने क्रोधको समेट लिया और मारिषाको विवाहरूपी धर्मके द्वारा पत्नीरूपमें ग्रहण कर लिया ॥ ४५ ॥
मारिषायां ततस्ते वै मनसा गर्भमादधुः । दशभ्यस्तु प्रचेतोभ्यो मारिषायां प्रजापतिः । दक्षो जज्ञे महातेजाः सोमस्यांशेन भारत ॥ ४६ ॥
तदनन्तर उन प्रचेताओंने अपने मनसे मारिषामें गर्भ स्थापित किया । भरतवंशी राजन् ! इस प्रकार चन्द्रमाके अंशसे दस प्रचेताओंके द्वारा मारिषाके गर्भसे महातेजस्वी दक्ष प्रजापति उत्पन्न हुए ॥ ४६ ॥
पुत्रानुत्पादयामास सोमवंशविवर्धनान् । अचरांश्च चरांश्चैव द्विपदोऽथ चतुष्पदः । स दृष्ट्वा मनसा दक्षः पश्चादप्यसृजत् स्त्रियः ॥ ४७ ॥
तब उन दक्षप्रजापतिने चन्द्रमाके वंशको बढ़ानेवाले पुत्र उत्पन्न किये और स्थावर, जङ्गम, दो पैरवाले, चार पैरवाले रचनेयोग्य प्राणियोंकी सृष्टि के लिये मनमें विचारकर पीछे स्त्रियोंकी भी रचना की ॥ ४७ ॥
ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश । शिष्टाः सोमाय राज्ञेऽथ नक्षत्राख्या ददौ प्रभुः ॥ ४८ ॥
प्रभु दक्षने उनमेंसे दस कन्याएँ धर्मको, तेरह कन्याएँ कश्यपको और शेष बची हुई नक्षत्रसम्बन्धी नामवाली सत्ताईस कन्याएँ राजा चन्द्रमाको दे दी ॥ ४८ ॥
तासु देवाः खगा नागा गावो दितिजदानवाः । गन्धर्वाप्सरसश्चैव जज्ञिरेऽन्याश्च जातयः ॥ ४९ ॥
उन कन्याओंसे देवता, पक्षी, सर्प, गौएँ, दैत्य-दानव-गन्धर्व, अप्सराएँ तथा अन्य जातियोंके प्राणी उत्पन्न हुए ॥ ४९ ॥
ततः प्रभृति राजेन्द्राः प्रजा मैथुनसम्भवाः । सङ्कल्पाद् दर्शनात् स्पर्शात् पूर्वेषां सृष्टिरुच्यते ॥ ५० ॥
राजेन्द्र ! तभीसे प्रजाएँ मैथुनद्वारा उत्पन्न होने लगी । इससे पहले प्राणियोंकी उत्पत्ति संकल्प, दर्शन और स्पर्शसे होती थी-ऐसा कहा जाता है ॥ ५० ॥
जनमेजय उवाच देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम् । सम्भवः कथितः पूर्वं दक्षस्य च महात्मनः ॥ ५१ ॥
जनमेजयने कहा-मुने ! आपने पहले भी देवता, दानव, गन्धर्व, सर्प और राक्षस तथा महात्मा दक्षकी उत्पत्तिका वर्णन किया है ॥ ५१ ॥
अङ्गुष्ठाद् ब्रह्मणो जातो दक्षः प्रोक्तस्त्वयानघ । वामाङ्गुष्ठात् तथा चैव तस्य पत्नी व्यजायत ॥ ५२ ॥
निष्पाप महर्षे ! वहाँ आपने कहा है कि ब्रह्माजीके (दाहिने) अंगूठेसे दक्ष प्रजापति उत्पन्न हुए और ब्रह्माजीके बायें अंगूठेसे दक्षकी पली उत्पन्न हुई ॥ ५२ ॥
कथं प्राचेतसत्वं स पुनर्लेभे महातपाः । एतन्मे संशयं विप्र सम्यगाख्यातुमर्हसि । दौहित्रश्चैव सोमस्य कथं श्वशुरतां गतः ॥ ५३ ॥
वे महातपस्वी दक्ष फिर प्रचेताओंके पुत्र कैसे हुए ? चन्द्रमाके नाती दक्ष फिर उनके श्वशुर कैसे बन गये ? विप्रवर ! मेरे इन संदेहोंको भली प्रकार व्याख्या करके आप दूर कर दीजिये ॥ ५३ ॥
वैशम्पायन उवाच उत्पत्तिश्च निरोधश्च नित्यौ भूतेषु पार्थिव । ऋषयोऽत्र न मुह्यन्ति विद्वांसश्चैव ये जनाः ॥ ५४ ॥
वैशम्पायनजीने कहा-पृथ्वीनाथ ! जन्म और मृत्यु-ये समस्त प्राणियोंके लिये नित्य (स्वाभाविक) हैं । इस विषयमें ऋषियोंको कभी मोह नहीं होता । जो विद्वान् पुरुष हैं, वे भी इस विषयमें मोहित नहीं होते ॥ ५४ ॥
युगे युगे भवन्त्येते सर्वे दक्षादयो नृप । पुनश्चैव निरुध्यन्ते विद्वांस्तत्र न मुह्यति ॥ ५५ ॥
नरेश्वर ! ये दक्ष आदि सब लोग प्रत्येक युगमें उत्पन्न होते और मरते रहते हैं, अत: विद्वान् पुरुष इस विषयमें मोहको नहीं प्राप्त होते हैं ॥ ५५ ॥
ज्यैष्ठ्यं कानिष्ठ्यमप्येषां पूर्वं नासीज्जनाधिप । तप एव गरीयोऽभूत् प्रभावश्चैव कारणम् ॥ ५६ ॥
राजन् ! पहले इनमें ज्येष्ठता और कनिष्ठताका अर्थात् पहले-पीछे उत्पन्न होनेका कोई विचार नहीं था, तप ही इनकी दृष्टि में गरिष्ठ था और प्रभाव ही इनमें सम्बन्ध होनेका कारण होता था ॥ ५६ ॥
इमां विसृष्टिं दक्षस्य यो विद्यात् सचराचराम् । प्रजावानापदुत्तीर्णः स्वर्गलोके महीयते ॥ ५७ ॥
जो मनुष्य चर तथा अचर प्राणियोसहित इस दक्ष प्रजापतिकी सृष्टि के तत्त्वको जानता है, वह संतानवान् होता है और आपत्तियोंके पार हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठापूर्वक रहता है ॥ ५७ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेशु हरिवंशपर्वणि प्रजासर्गे दक्षोत्पत्तिकथने द्वितीयोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें प्रजासकि प्रसंगमें दक्षको उत्पत्तिका वर्णन विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥
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