श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व एकादशोऽध्यायः
धुन्धुवधः -
धुन्धुमारकी कथा
जनमेजय उवाच कथं बहुयुगे काले समतीते द्विजोत्तम । न जरा रेवतीं प्राप्ता रैवतं च ककुद्मिनम् ॥ १ ॥
जनमेजयने पूछा-द्विजोत्तम ! बहुत-से युगोंका समय बीत जानेपर भी रेवती और ककुदी रैवतको बुढ़ापा क्यों नहीं व्याप्त हुआ ? ॥ १ ॥
मेरुं गतस्य वा तस्य शर्यातेः संततिः कथम् । स्थिता पृथिव्यामद्यापि श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ २ ॥
शर्यातिके प्रपौत्र रैवत मेरुपर्वतपर चले गये, तब भी उनकी संतान आजतक पृथिवीपर कैसे वर्तमान है ? इस बातको मैं यथार्थ रीतिसे सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥
वैशम्पायन उवाच न जरा क्षुत्पिपासे वा न मृत्युर्भरतर्षभ । ऋतुचक्रं न भवति ब्रह्मलोके सदानघ ॥ ३ ॥
वैशम्पायनजीने उत्तर दिया-निष्पाप भरतश्रेष्ठ ! ब्रह्मलोकमें मृत्यु, भूख-प्यास और बुढ़ापा नहीं होते और वहाँ ऋतुचक्र भी अपना प्रभाव नहीं दिखाता (वहाँ तो सदा एक-सी दशा रहती है) ॥ ३ ॥
ककुद्मिनस्तु तं लोकं रैवतस्य गतस्य ह । हता पुण्यजनैस्तात राक्षसैः सा कुशस्थली ॥ ४ ॥
तात ! जब रैवत ककुयी ब्रह्मलोकको चले गये, तब यक्षों और राक्षसोंने कुशस्थलीको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया ॥ ४ ॥
तस्य भ्रातृशतं चासीद्धार्मिकस्य महात्मनः । तद्वध्यमानं रक्षोभिर्दिशः प्राद्रवदच्युतम् ॥ ५ ॥
धर्मात्मा एवं महात्मा रैवतके सौ भाई थे । वे राक्षसोंसे हारे नहीं, परंतु राक्षसोंके बार-बार आक्रमण करनेके कारण (अनेक) दिशाओंमें भाग गये ॥ ५ ॥
विद्रुतस्य तु राजेन्द्र तस्य भ्रातृशतस्य वै । तेषां तु ते भयाक्रान्ताः क्षत्रियास्तत्र तत्र ह ॥ ६ ॥
राजेन्द्र ! जब उनके सौ भाई भाग गये, तब उस कुलके अन्य क्षत्रिय भी राक्षसोंके भवसे भागकर जहाँ-तहाँ बस गये ॥ ६ ॥
अन्ववायस्तु सुमहांस्तत्र तत्र विशाम्पते । येषामेते महाराज शर्याता इति विश्रुताः ॥ ७ ॥ क्षत्रिया भरतश्रेष्ठ दिक्षु सर्वासु धार्मिकाः । सर्वशः पर्वतगणान्प्रविष्टाः कुरुननदन॥ ८ ॥
प्रजानाथ ! उनका बड़ा भारी वंश जहाँ-तहाँ फैल गया । महाराज ! उनके वंशके ही ये धार्मिक क्षत्रिय सब दिशाओंमें शार्यात नामसे प्रसिद्ध हैं । भरतश्रेष्ठ कुरुनन्दन ! वे सब क्षत्रिय चारों ओरके पर्वतोंकी कन्दराओंमें प्रविष्ट हो गये थे ॥ ७-८ ॥
नाभागारिष्टपुत्रौ द्वौ वैश्यौ ब्राह्मणतां गतौ । करूषस्य तु कारूषाः क्षत्रिया युद्धदुर्मदाः ॥ ९ ॥
नाभाग और अरिष्टके पुत्र ये दोनों वैश्य होकर पुन:* ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो गये । करूषके कारूष नामक युद्धदुर्मद क्षत्रिय उत्पन्न हुए ॥ ९ ॥
प्रांशोरेकोऽभवत्पुत्रः प्रजातिरिति नः श्रुतम् । पृषध्रो हिंसयित्वा तु गुरोर्गां जनमेजय । १० ॥ शापाच्छूद्रत्वमापन्नो नवैते परिकीर्तिताः । वैवस्वतस्य तनया मनोर्वै भरतर्षभ ॥ ११ ॥
हमने सुना है कि (मनुके छठे पुत्र) प्रांशुके प्रजाति नामका एक ही पुत्र उत्पन्न हुआ था । जनमेजय ! गुरुकी गौको मारनेपर (गुरुके) शापसे पृषध्र शूद्रत्वको प्राप्त हो गया था । भरतर्षभ ! यहाँतक वैवस्वत मनुके नौ पुत्रोंका मैंने वर्णन किया ॥ १०-११ ॥
क्षुवतश्च मनोस्तात इक्ष्वाकुरभवत् सुतः । तस्य पुत्रशतं त्वासीदिक्ष्वाकोर्भूरिदक्षिणम् ॥ १२ ॥
तात ! मनुके छींकनेसे इक्ष्वाकु नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई थी । उन इक्ष्वाकुके भी सौ पुत्र उत्पन्न हुए । ये सब-के-सब बड़ी-बड़ी दक्षिणा देनेवाले थे ॥ १२ ॥
तेषां विकुक्षिर्ज्येष्ठस्तु विकुक्षित्वादयोधताम् । प्राप्तः परमधर्मज्ञः सोऽयोध्याधिपतिः प्रभुः ॥ १३ ॥
उनमें सबसे बड़ा पुत्र विकुक्षि था । वह विकुक्षि-विशाल कोख (वक्षःस्थल)-वाला होनेसे सर्वथा अयोध्य था; अर्थात् उसके सामने कोई योद्धा ठहर नहीं सकता था । वही परम धार्मिक राजा विकुक्षि अयोध्याका स्वामी हुआ ॥ १३ ॥
शकुनिप्रमुखास्तस्य पुत्राः पञ्चाशदुत्तमाः । उत्तरापथदेशस्था रक्षितारो महीपते । १४ ॥
राजन् ! उसके शकुनि आदि पचास उत्तम पुत्र थे, वे उत्तरापथ देशमें रहकर उस देशकी रक्षा करते थे ॥ १४ ॥
चत्वारिंशदथाष्टौ च दक्षिणस्यां तथा दिशि । शशादप्रमुखाश्चान्ये रक्षितारो विशाम्पते । १५ ॥
जनेश्वर ! उसके शशाद आदि अड़तालीस पुत्र दक्षिण दिशामें रहकर दक्षिण दिशाकी रक्षा करते थे ॥ १५ ॥
इक्ष्वाकुस्तु विकुक्षिं वै अष्टकायामथादिशत् । मांसमानय श्राद्धार्थं मृगान् हत्वा महाबल ॥ १६ ॥
महाबली इक्ष्वाकुने अष्टका श्राद्धके लिये (अपने पुत्र) विकुक्षिको आज्ञा दी कि तू मृग नामक कन्दविशेषको काटकर श्राद्धके लिये उसका गूदा ला ॥ १६ ॥
श्राद्धकर्मणि चोद्दिष्टमकृते श्राद्धकर्मणि । भक्षयित्वा शशं तात शशादो मृगयां गतः ॥ १७ ॥
परंतु तात ! विकुक्षिने श्राद्धकर्मके लिये नियत किये हुए शश (कन्दविशेष)-को श्राद्ध पूर्ण होनेसे पहले ही खाकर उच्छिष्ट कर दिया और शिकार करके वापस लौट आया ॥ १७ ॥
इक्ष्वाकुणा परित्यक्तो वसिष्ठवचनात् प्रभुः । इक्ष्वाकौ संस्थिते तात शशादः पुरमावसत् ॥ १८ ॥
उस समय इक्ष्वाकुने वसिष्ठजीके कहनेसे शशादको त्याग दिया । तात ! फिर इक्ष्वाकुके मरनेपर शशाद नगरमें आया (और राज्यका स्वामी बनकर राज्य करने लगा) ॥ १८ ॥
शशादस्य तु दायादः ककुत्स्थो नाम वीर्यवान् । इन्द्रस्य वृषभूतस्य ककुत्स्थोऽजयतासुरान् ॥ १९ ॥ पूर्वं देवासुरे युद्धे ककुत्स्थस्तेन हि स्मृतः । अनेनास्तु ककुत्स्थस्य पृथुरानेनसः स्मृतः ॥ २० ॥
शशादके ककुत्स्थ नामवाला वीर्यवान् पुत्र उत्पन्न हुआ, उसे पहले देवासुर-संग्राममें इन्द्रने स्मरण किया था । उस समय उसने इन्द्रको बैल बनाकर उनके ककुद् (पीठ) पर बैठकर असुरोंको जीता था; इसलिये इसका नाम ककुत्स्थ हुआ । ककुत्स्थके अनेना नामक पुत्र हुआ और अनेनाका पुत्र पृथु हुआ ॥ १९-२० ॥
विष्टराश्वः पृथोः पुत्रस्तस्मादार्द्रस्त्वजायत । आर्द्रस्य युवनाश्वस्तु श्रावस्तस्य तु चात्मजः ॥ २१ ॥
पृथुके विष्टराव और विष्टरावके आई नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, आईके युवनाश्व और युवनाश्वका पुत्र श्राव हुआ ॥ २१ ॥
जज्ञे श्रावस्तको राजा श्रावस्ती येन निर्मिता । श्रावस्तस्य तु दायादो बृहदश्वो महयशाः ॥ २२ ॥
वह श्रावस्तक नाम धारण करके राजसिंहासनपर बैठा, उसीने श्रावस्तीपुरी बसायी । श्रावस्तका पुत्र महायशस्वी बृहदश्च हुआ ॥ २२ ॥
कुवलाश्वः सुतस्तस्य राजा परमधार्मिकः । यः स धुन्धुवधाद् राजा धुन्धुमारत्वमागतः ॥ २३ ॥
उसका पुत्र परमधार्मिक राजा कुवलाश्च हुआ, धुन्धु नामक दैत्यको मारनेके कारण वह राजा 'धुन्धुमार' नामसे भी प्रसिद्ध हुआ ॥ २३ ॥
जनमेजय उवाच धुन्धोर्वधमहं ब्रह्मञ्श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः । यदर्थं कुवलाश्वः सन् धुन्धुमारत्वमागतः ॥ २४ ॥
जनमेजयने कहा-ब्रह्मन् ! मैं धुन्धुके वधकी उस कथाको यथार्थ रीतिसे सुनना चाहता हूँ, जिससे कुवलाश्वका नाम धुन्धुमार पड़ गया था ॥ २४ ॥
वैशम्पायन उवाच कुवलाश्वस्य पुत्राणां शतमुत्तमधन्विनाम् । सर्वे विद्यासु निष्णाता बलवन्तो दुरासदाः ॥ २५ ॥
वैशम्पायनजी बोले-कुवलाश्वके धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ सौ पुत्र थे । वे सभी समस्त विद्याओंमें निपुण, बलवान् तथा दुर्दम्य थे ॥ २५ ॥
बभूवुर्धार्मिकाः सर्वे यज्वानो भूरिदक्षिणाः । कुवलाश्वं सुतं राज्ये बृहदश्वो न्ययोजयत् ॥ २६ ॥
वे सभी धार्मिक पुत्र यज्ञ करके बहुत-सी दक्षिणा दिया करते थे । बृहदश्वने अपने ज्येष्ठ पुत्र कुवलाश्वको राजसिंहासनपर बैठाया ॥ २६ ॥
पुत्रसङ्क्रामितश्रीस्तु वनं राजा समाविशत् । तमुत्तङ्कोऽथ विप्रर्षिः प्रयान्तं प्रत्यवारयत् ॥ २७ ॥
अपनी राज्यलक्ष्मीको पुत्रके अधीन करके राजा बृहदश्व स्वयं वनको चले । उस समय ब्रह्मर्षि उत्तङ्कने उन्हें वनमें जानेसे रोका ॥ २७ ॥
उत्तङ्क उवाच भवता रक्षणं कार्यं तत्तावत्कर्तुमर्हसि । निरुद्विग्नस्तपश्चर्तुं न हि शक्नोषि पार्थिव ॥ २८ ॥
उत्तङ्क ऋषिने कहा-राजन् ! हमारी रक्षा करना आपका कर्तव्य है । अत: पहले वही कीजिये । अन्यथा आप निश्चिन्त होकर तप नहीं कर सकते ॥ २८ ॥
त्वया हि पृथिवी राजन् रक्ष्यमाणा महात्मना । भविष्यति निरुद्विग्ना नारण्यं गन्तुमर्हसि ॥ २९ ॥
राजन् ! जब आप-जैसे महात्मा इस पृथ्वीकी रक्षा करेंगे, तभी इस पृथ्वीपर शान्ति होगी; अतः आपका वनमें जाना उचित नहीं है ॥ २९ ॥
पालने हि महान् धर्मः प्रजानामिह दृश्यते । न तथा दृश्यतेऽरण्ये मा तेऽभूद् बुद्धिरीदृशी ॥ ३० ॥
हम देखते हैं कि यहाँ रहकर प्रजाका पालन करनेसे आपको महान् पुण्य होगा । वनमें रहनेपर ऐसे पुण्यकी प्राप्ति आपको हो, यह हमें नहीं दीखता । इसलिये आप ऐसा विचार न करें ॥ ३० ॥
ईदृशो न हि राजेन्द्र धर्मः क्वचन दृश्यते । प्रजानां पालने यो वै पुरा राजर्षिभिः कृतः । रक्षितव्याः प्रजा राज्ञा तास्त्वं रक्षितुमर्हसि ॥ ३१ ॥
राजेन्द्र ! प्राचीन कालमें राजर्षियोंने प्रजाओंका पालन करके जैसा पुण्य-संचय किया है, वैसा पुण्य और कहीं नहीं दिखायी देता । राजाको प्रजाओंकी रक्षा करनी चाहिये; अतः आप प्रजाको रक्षा करें ॥ ३१ ॥
ममाश्रमसमीपे हि समेषु मरुधन्वसु । समुद्रो वालुकापूर्ण उज्जानक इति श्रुतः । देवतानामवध्यश्च महाकायो महाबलः ॥ ३२ ॥ अन्तर्भूमिगतस्तत्र वालुकान्तर्हितो महान् । राक्षसस्य मधोः पुत्रो धुन्धुनामा महासुरः । शेते लोकविनाशाय तप आस्थाय दारुणम् ॥ ३३ ॥
मेरे आश्रमके समीप मरुप्रदेशकी समतल भूमिमें बालूसे भरा हुआ उज्जानक नामवाला समुद्र है । वहीं एक विशालकाय महाबली राक्षस रहता है, जो देवताओंके लिये भी अवध्य है । वह महान् असुर मधु नामक राक्षसका पुत्र है । उसका नाम धुन्धु है । वह वहाँ पृथ्वीके भीतर बालूमें छिपकर सोता है और सम्पूर्ण लोकोंका संहार करनेके लिये कठोर तपस्या कर रहा है ॥ ३२-३३ ॥
संवत्सरस्य पर्यन्ते स निश्वासं प्रमुञ्चति । यदा तदा भूश्चलति सशैलवनकानना ॥ ३४ ॥
वह एक वर्ष बीतनेपर जब बड़े जोरसे साँस छोड़ता है, उस समय पर्वत और वनोंसहित सारी पृथिवी डोलने लगती है ॥ ३४ ॥
तस्य निःश्वासवातेन रज उद्धूयते महत् । आदित्यपथमावृत्य सप्ताहं भूमिकम्पनम् ॥ ३५ ॥
उसके श्वासकी वायुसे बड़ी भारी धूलि उड़ती है, जो सूर्यके मार्गको भी हक लेती है । साथ ही एक सप्ताहतक भूकम्प होता रहता है ॥ ३५ ॥
सविस्फुलिङ्गं साङ्गारं सधूममतिदारुणम् । तेन तात न शक्नोमि तस्मिन्स्थातुं स्वकाश्रमे ॥ ३६ ॥
तात ! (उस समय पृथिवीमेंसे) चिनगारियाँ, अंगारे और अत्यन्त दारुण धुएँ निकलने लगते हैं । इसलिये तात ! मैं अपने आश्रममें (सुखपूर्वक) नहीं रह पाता ॥ ३६ ॥
तं मारय महाकायं लोकानां हितकाम्यया । लोकाः स्वस्था भवन्त्यद्य तस्मिन् विनिहतेऽसुरे ॥ ३७ ॥
आप लोकोंका हित करनेकी इच्छासे उस विशाल शरीरवाले दैत्यका संहार करें, आज उस असुरके मारे जानेपर सब लोग सुखी हो जायें ॥ ३७ ॥
त्वं हि तस्य वधायैकः समर्थः पृथिवीपते । विष्णुना च वरो दत्तो मह्यं पूर्वयुगेऽनघ ॥ ३८ ॥
पृथिवीपते ! एक आप ही उसका वध कर सकते हैं, क्योंकि निष्पाप नरेश ! भगवान् विष्णुने पहले युगमें मुझे एक वर दिया था ॥ ३८ ॥
यस्त्वं महासुरं रौद्रं हनिष्यसि महाबलम् । तस्य त्वं वरदानेन तेज आप्याययिष्यसि ॥ ३९ ॥
भगवान्के उस वरदानके अनुसार जब कि (अयोध्याके राजा) आप इस महाबली भयंकर दानवका संहार करेंगे, अपने तेजको (वैष्णव तेजसे) परिपुष्ट कर लेंगे ॥ ३९ ॥
न हि धुन्धुर्महातेजास्तेजसाल्पेन शक्यते । निर्दग्धुं पृथिवीपाल स हि वर्षशतैरपि । वीर्यं हि सुमहत् तस्य देवैरपि दुरासदम् ॥ ४० ॥
पृथिवीपाल ! महातेजस्वी धुन्धुको अल्प तेजवाला पुरुष सौ वर्ष भी नहीं मार सकता । उसमें इतना अधिक बल है कि देवताओंके लिये भी उसे दबाना कठिन है ॥ ४० ॥
स एवमुक्तो राजर्षिरुत्तङ्केन महात्मना । कुवलाश्वं सुतं प्रादात्तस्मै धुन्धुनिवारणे ॥ ४१ ॥
महात्मा उत्तङ्कने जब उन राजर्षिसे इस प्रकार कहा, तब उन्होंने धुन्धु दैत्यको नष्ट करनेके लिये अपने पुत्र कुवलाश्वको उनकी सेवामें दे दिया ॥ ४१ ॥
बृहदश्व उवाच भगवन्न्यस्तशस्त्रोऽहमयं तु तनयो मम । भविष्यति द्विजश्रेष्ठ धुन्धुमारो न संशयः ॥ ४२ ॥
बृहदश्वने कहा- भगवन् ! मैंने तो शस्त्र त्याग दिये हैं, किंतु द्विजश्रेष्ठ ! यह मेरा पुत्र ( आपको समर्पित) है, यह अवश्य धुन्धुमार होगा ॥ ४२ ॥
स तं व्यादिश्य तनयं राजर्षिर्धुन्धुमारणे । जगाम पर्वतायैव तपसे संशितव्रतः ॥ ४३ ॥
(यह कहकर) प्रशंसनीय व्रतवाले वे राजर्षि अपने पुत्रको धुन्धुका वध करनेकी आज्ञा देकर स्वयं तप करनेके लिये पर्वतपर चले गये ॥ ४३ ॥
वैशम्पायन उवाच कुवलाश्वस्तु पुत्राणां शतेन सह पार्थिवः । प्रायादुत्तङ्कसहितो धुन्धोस्तस्य विनिग्रहे ॥ ४४ ॥
तब राजा कुवलाश्च अपने सौ पुत्रों और उत्तङ्कको साथमें लेकर धुन्धुको दण्ड देनेके लिये चल दिये ॥ ४४ ॥
तमाविशत्तदा विष्णुर्भगवांस्तेजसा प्रभुः । उत्तङ्कस्य नियोगाद् वै लोकस्य हितकाम्यया ॥ ४५ ॥
उस समय भगवान् विष्णु उत्तङ्क ऋषिकी प्रेरणासे लोकोंका हित करनेके लिये अपने तेज:स्वरूपसे उस राजाके शरीरमें प्रविष्ट हो गये ॥ ४५ ॥
तस्मिन् प्रयाते दुर्धर्षे दिवि शब्दो महानभूत् । एष श्रीमानवध्योऽद्य धुन्धुमारो भविष्यति ॥ ४६ ॥
तब उस दुर्धर्ष राजाके प्रस्थान करनेपर आकाशसे गम्भीर वाणी सुनायी दी कि 'ये श्रीमान् राजा अवध्य हैं, आज इनके हाथसे धुन्धु अवश्य मारा जायगा' ॥ ४६ ॥
दिव्यैर्माल्यैश्च तं देवाः समन्तात् समवाकिरन् । देवदुन्दुभयश्चापि प्रणेदुर्भरतर्षभ ॥ ४७ ॥
भरतर्षभ ! तदनन्तर देवताओंने अपनी दुन्दुभियाँ बजाकर उनके ऊपर चारों ओरसे दिव्य पुष्पोंकी वर्षा की ॥ ४७ ॥
स गत्वा जयतां श्रेष्ठस्तनयैः सह वीर्यवान् । समुद्रं खानयामास वालुकार्णवमव्ययम् । ४८ ॥
विजय पानेवालोंमें श्रेष्ठ वह वीर्यवान् राजा अपने पुत्रोंके साथ वहाँ पहुँचकर अपार रेतेसे भरे हुए समुद्रको खुदवाने लगे ॥ ४८ ॥
नारायणेन कौरव्य तेजसाऽऽप्यायितः स वै । बभूव स महातेजाः भूयो बलसमन्वितः ॥ ४९ ॥
कौरव्य ! वे महाबली राजा भगवान् नारायणके तेजसे पुष्ट होनेके कारण और भी अधिक तेजस्वी हो गये ॥ ४९ ॥
तस्य पुत्रैः खनद्भिस्तु वालुकान्तर्हितस्तदा । धुन्धुरासादितो राजन् दिशमावृत्य पश्चिमाम् ॥ ५० ॥
राजन् ! धरती खोदते हुए कुवलाश्वपुत्रोंने बालूके भीतर छिपे हुए धुन्धुका पता लगा लिया । वह पश्चिम दिशाको घेरकर पड़ा था ॥ ५० ॥
मुखजेनाग्निना क्रोधाल्लोकानुद्वर्तयन्निव । वारि सुस्राव वेगेन महोदधिरिवोदये ॥ ५१ ॥ सोमस्य भरतश्रेष्ठ धारोर्मिकलिलं महत् । तस्य पुत्रशतं दग्धं त्रिभिरूनं तु रक्षसा ॥ ५२ ॥
धुन्धु अपने मुखको आगसे सम्पूर्ण लोकोंका संहार-सा करता हुआ जलका स्रोत बहाने लगा । भरत श्रेष्ठ ! जैसे चन्द्रमाके उदयकालमें समुद्रमें ज्वार आता है, उसकी उत्ताल तरङ्गे बढ़ने लगती हैं, उसी प्रकार वहाँ धारा, लहर और कीचड़से युक्त महान् जलस्रोत वेगपूर्वक बढ़ने लगा । उस राक्षसने कुवलाश्चके सौ पुत्रोंमेंसे तीनको छोड़कर शेष सबको अपनी मुखाग्निसे जलाकर भस्म कर दिया ॥ ५१-५२ ॥
ततः स राजा कौरव्य राक्षसं तं महाबलम् । आससाद महातेजा धुन्धुं धुन्धुनिबर्हणः ॥ ५३ ॥
कुरुनन्दन ! तब धुन्धुका संहार करनेके लिये आये हुए वे महातेजस्वी राजा उस महाबली राक्षसके सामने पहुँचे ॥ ५३ ॥
तस्य वारिमयं वेगमापीय स नराधिपः । योगी योगेन वह्निं च शमयामास वारिणा ॥ ५४ ॥
फिर उन योगी नरेशने योगके प्रभावसे उसके जलमय वेगको पी लिया तथा जलसे अग्निको शान्त कर दिया ॥ ५४ ॥
निहत्य तं महाकायं बलेनोदकराक्षसम् । उत्तङ्कं दर्शयामास कृतकर्मा नराधिपः ॥ ५५ ॥
इस प्रकार उस विशाल शरीरवाले जल-राक्षसको बलपूर्वक मारकर राजाने अपना काम पूर्ण करके उस मारे हुए राक्षसको उत्तर ऋषिको दिखाया ॥ ५५ ॥
उत्तङ्कस्तु वरं प्रादात् तस्मै राज्ञे महात्मने । ददौ तस्याक्षयं वित्तं शत्रुभिश्चापराजयम् ॥ ५६ ॥
उस समय उत्तङ्कने उन महात्मा राजाको वरदान दिया कि 'आपके पास अक्षय धन रहेगा तथा शत्रुओंसे आप कभी पराजित नहीं होंगे' ॥ ५६ ॥
धर्मे रतिं च सततं स्वर्गवासं तथाक्षयम् । पुत्राणां चाक्षयाँल्लोकान् स्वर्गे ये रक्षसा हताः ॥ ५७ ॥
'धर्मपर आपकी श्रद्धा सर्वदा बनी रहेगी तथा आप अनन्त कालतक स्वर्गमें रहेंगे । साथ ही राक्षसने आपके जिन पुत्रोंको मार डाला है, उन्हें भी स्वर्गमें अक्षय लोक मिलेंगे' ॥ ५७ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशपर्वणि धुन्धुवधे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें धुन्धुवधविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥
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