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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
दशमोऽध्यायः


वैवस्वतोत्पत्तिः -
वैवस्वत मनुके वंशजोंका वर्णन और पुरूरवाकी उत्पत्ति


वैशम्पायन उवाच
मनोर्वैवस्वतस्यासन् पुत्रा वै नव तत्समाः ।
इक्ष्वाकुश्चैव नाभागो धृष्णुः शर्यातिरेव च ॥ १ ॥
नरिष्यंश्च तथा प्रांशुर्नाभागारिष्टसप्तमाः ।
करूषश्च पृषध्रश्च नवैते भरतर्षभ ॥ २ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतर्षभ ! वैवस्वत मनुके उनके ही समान इक्ष्वाकु, नाभाग, धृष्णु, शांति, नरिष्यन्त, प्रांशु, सातवें नाभागारिष्ट, करूष और पृषध-ये नौ पुत्र हुए ॥ १-२ ॥

अकरोत्पुत्रकामस्तु मनुरिष्टिं प्रजापतिः ।
मित्रावरुणयोस्तात पूर्वमेव विशाम्पते ॥ ३ ॥
अनुत्पन्नेषु नवसु पुत्रेष्वेतेषु भारत ।
तस्यां तु वर्तमानायामिष्ट्यां भरतसत्तम ॥ ४ ॥
मित्रावरुणयोरंशे मुनिराहुतिमाजुहोत् ।
आहुत्यां हूयमानायां देवगन्धर्वमानुषाः ॥ ५ ॥
तुष्टिं तु परमां जग्मुर्मुनयश्च तपोधनाः ।
अहोऽस्य तपसो वीर्यमहोऽस्य श्रुतमद्भुतम् ॥ ६ ॥
प्रजापालक तात ! इन नौ पुत्रोंके उत्पन्न होनेसे पहिले प्रजापति मनुने पुत्रकी कामनासे मित्रावरुणकी इष्टि (यज्ञ) की थी । भारत ! जब यह इष्टि हो रही थी, उस समय मुनिने मित्रावरुणके लिये आहुति दी । भरतश्रेष्ठ । आहुतिके सम्पन्न होनेपर देवता, गन्धर्व, मनुष्य और तपोधन मुनि परम प्रसन्न हुए (और कहने लगे-) 'अहो ! इसका तपोबल आश्चर्यजनक है और इसका शास्त्रीय ज्ञान भी अद्भुत है !' ॥ ३-६ ॥

तत्र दिव्याम्बरधरा दिव्याभरणभूषिता ।
दिव्यसंहनना चैव इला जज्ञ इति श्रुतिः ॥ ७ ॥
उस यज्ञमें दिव्य वस्त्रोंको धारण किये हुए, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित और दिव्य शरीरवाली इला नामक कन्या उत्पन्न हुई थी, ऐसी ख्याति है ॥ ७ ॥

तामिलेत्येव होवाच मनुर्दण्डधरस्तदा ।
अनुगच्छस्व मां भद्रे तमिला प्रत्युवाच ह ।
धर्मयुक्तमिदं वाक्यं पुत्रकामं प्रजापतिम् ॥ ८ ॥
राजा मनुने उस कन्याको 'इला' कहकर पुकारा और कहा-'भद्रे ! तू मेरे पीछे-पीछे आ । ' तब पुत्रकी कामनावाले प्रजापतिको इलाने यह धर्ममय उत्तर दिया ॥ ८ ॥

इलोवाच
मित्रावरुणयोरंशे जातास्मि वदतां वर ।
तयोः सकाशं यास्यामि न मां धर्मो हतोऽवधीत् ॥ ९ ॥
इलाने कहा-वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! मैं धर्मकी हत्या नहीं कर सकती, अन्यथा धर्म मुझे भी मार डालेगा । मैं मित्रावरुणके अंशसे उत्पन्न हुई हूँ, अत: उनके ही पास जाऊँगी ॥ ९ ॥

सैवमुक्त्वा मनुं देवं मित्रावरुणयोरिला ।
गत्वान्तिकं वरारोहा प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १० ॥
श्रेष्ठ नितम्बोंवाली इला राजा मनुसे इस प्रकार कहकर मित्रावरुणके पास गयी और दोनों हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहने लगी- ॥ १० ॥

अंशेऽस्मि युवयोर्जाता देवौ किं करवाणि वाम् ।
मनुना चाहमुक्ता वै अनुगच्छस्व मामिति ॥ ११ ॥
'देवताओ ! मैं आप दोनोंके अंशसे उत्पन्न हुई हूँ; अत: आपलोग बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मनुजीने मुझसे कहा है कि तू मेरे पीछे-पीछे आ' ॥ ११ ॥

तां तथावादिनीं साध्वीमिलां धर्मपरायणाम् ।
मित्रश्च वरुणश्चोभावूचतुर्यन्निबोध तत् ॥ १२ ॥
राजन् ! धर्मपरायणा साध्वी इलाके इस प्रकार कहनेपर मित्र और वरुणने उससे जो कुछ कहा था, उसे सुनो ॥ १२ ॥

अनेन तव धर्मेण प्रश्रयेण दमेन च ।
सत्येन चैव सुश्रोणि प्रीतौ स्वो वरवर्णिनि ॥ १३ ॥
'सुन्दर कटिभागवाली सुन्दरी ! तेरे इस धर्म, विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यसे हम दोनों तुमपर बहुत प्रसन्न हैं ॥ १३ ॥

आवयोस्त्वं महाभागे ख्यातिं कन्येति यास्यसि ।
मनोर्वंशधरः पुत्रस्त्वमेव च भविष्यसि । १४ ॥
महाभागे ! तू हमारी पुत्रीरूपसे प्रसिद्ध होगी और मनुका वंशधर पुत्र भी तू ही होगी ॥ १४ ॥

सुद्युम्न इति विख्यातस्त्रिषु लोकेषु शोभने ।
जगत्प्रियो धर्मशीलो मनोर्वंशविवर्धनः ॥ १५ ॥
शोभने ! (उस समय) तू मनुके वंशको बढ़ानेवाले, जगत्में प्रिय, धर्मशील सुथुमके नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध होगी' ॥ १५ ॥

निवृत्ता सा तु तच्छ्रुत्वा गच्छन्ती पितुरन्तिकम् ।
बुधेनान्तरमासाद्य मैथुनायोपमन्त्रिता ॥ १६ ॥
इस बातको सुनकर वह अपने पिता मनुके पास वापस जा रही थी, इसी बीचमें अवसर देखकर बुधने उसे सहवासके लिये आमन्त्रित किया ॥ १६ ॥

सोमपुत्राद् बुधाद् राजंस्तस्यां जज्ञे पुरूरवाः ।
जनयित्वा सुतं सा तमिला सुद्युम्नतां गता ॥ १७ ॥
राजन् ! चन्द्रमाके पुत्र बुधद्वारा उस इलाके गर्भसे पुरूरवा उत्पन्न हुए और उस पुत्रको उत्पन्न करके वह इला सुद्युम्न हो गयी ॥ १७ ॥

सुद्युम्नस्य तु दायादास्त्रयः परमधार्मिकाः ।
उत्कलश्च गयश्चैव विनताश्वश्च भारत ॥ १८ ॥
भारत ! सुधुम्नके उत्कल, गय और विनताश्व नामक तीन परम धार्मिक पुत्र उत्पन्न हुए ॥ १८ ॥

उत्कलस्योत्कला राजन्विनताश्वस्य पश्चिमा ।
दिक्पूर्वा भरतश्रेष्ठ गयस्य तु गया पुरी । १९ ॥
राजन् ! उत्कलकी राजधानी उत्कला (उड़ीसा) हुई । विनताश्वको पश्चिम दिशाका राज्य मिला और भरतश्रेष्ठ ! गयकी राजधानी पूर्व दिशामें गया नामकी पुरी हुई ॥ १९ ॥

प्रविष्टे तु मनौ तात दिवाकरमरिंदम ।
दशधा तद्दधत्क्षत्रमकरोत् पृथिवीमिमाम् ॥ २० ॥
तात ! शत्रुसूदन ! मनुके सूर्यमें प्रवेश कर जानेपर उनके इक्ष्वाकु आदि दस पुत्रोंने पृथ्वीको दस भागोंमें बाँट लिया ॥ २० ॥

यूपाङ्किता वसुमती यस्येयं सवनाकरा ।
इक्ष्वाकुर्ज्येष्ठदायादो मध्यदेशमवाप्तवान् ॥ २१ ॥
मनुके बड़े पुत्र इक्ष्वाकुको मध्यदेशका राज्य मिला । यजस्तम्भोंसे अलंकृत एवं वन और खानोंसहित यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुकी ही है ॥ २१ ॥

कन्याभावाच्च सुद्युम्नो नैनं गुणमवाप्तवान् ।
वसिष्ठवचनाच्चासीत् प्रतिष्ठाने महात्मनः ॥ २२ ॥
सुद्युम्न कन्याभावके कारण इस सौभाग्यपूर्ण पदको न पा सके । परंतु कुरूद्वह ! वसिष्ठजीके वचनसे महात्मा धर्मराज सुधुम्नको भी प्रतिष्ठानपुर ( सी-प्रयाग)-का | राज्य मिल गया था ॥ २२ ॥

प्रतिष्ठा धर्मराजस्य सुद्युम्नस्य कुरूद्वह ।
तत्पुरूरवसे प्रादाद् राज्यं प्राप्य महायशाः ॥ २३ ॥
सुद्युम्नः कारयामास प्रतिष्ठाने नॄपक्रियाम् ।
उत्कलस्य त्रयः पुत्रास्त्रिषु लोकेषु विश्रुताः ।
धृष्टकश्चाम्बरीषश्च दण्डश्चेति सुतास्त्रयः ॥ २४ ॥
यश्चकार महात्मा वै दण्डकारण्यमुत्तमम् ।
वनं तल्लोकविख्यातं तापसानामनुत्तमम् ॥ २५ ॥
तत्र प्रविष्टमात्रस्तु नरः पापात् प्रमुच्यते ।
सुद्युम्नश्च दिवं यात ऐलमुत्पाद्य भारत ॥ २६ ॥
मानवेयो महाराज स्त्रीपुंसोर्लक्षणैर्युतः ।
धृतवान्य इलेत्येव सुद्युम्नश्चातिविश्रुतः ॥ २७ ॥
महायशस्वी सुद्युम्नने राज्य पानेके बाद प्रतिष्ठानमें (कुछ दिनतक) राज्य किया, फिर उन्होंने अपना राज्य पुरूरवाको दे दिया । उत्कलके तीन पुत्र थे, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध थे । उनके नाम थे-धृष्टक, अम्बरीष और दण्ड । महात्मा दण्डने दण्डकारण्य नामक वनका निर्माण किया, जो तपस्वियोंके लिये परमोत्तम (आश्रम) तथा लोकमें अत्यन्त विख्यात है । उसमें प्रवेश करते ही मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है । भरतवंशी महाराज ! सुद्युम्न कन्यावस्थामें ऐल (पुरुरवा)-को (और पुरुषावस्थामें उत्कल आदि अन्य तीन पुत्रोंको) उत्पन्न करके स्वर्ग चले गये । ये सुद्युम्न स्त्री तथा पुरुष दोनोंके ही लक्षणोंसे संयुक्त हुए थे । इन्होंने इलाके रूपमें रहनेपर गर्भ धारण किया था, फिर ये ही (पुरुषत्व प्राप्त होनेपर) सुद्युम्न नामसे प्रसिद्ध हो गये थे ॥ २३-२७ ॥

नारिष्यतः शकाः पुत्रा नाभागस्य तु भारत ।
अम्बरीषोऽभवत् पुत्रः पार्थिवर्षभसत्तमः ॥ २८ ॥
भारत ! (मनुके पञ्चम पुत्र) नरिष्यन्तके पुत्र शक हुए और (मनुके द्वितीय पुत्र) नाभागके पुत्र राजराजेश्वर अम्बरीष हुए ॥ २८ ॥

धृष्णोस्तु धार्ष्टकं क्षत्रं रणदृष्टं बभूव ह ।
करूषस्य तु कारूषाः क्षत्रिया युद्धदुर्मदाः ॥ २९ ॥
सहस्रं क्षत्रियगणो विक्रान्तः सम्बभूव ह ।
नाभागारिष्टपुत्राश्च क्षत्रिया वैश्यतां गताः ॥ ३० ॥
(मनुके तृतीय पुत्र) धृष्णुके धाटक नामक क्षत्रिय हुए । वे रणमें ढीठ थे । (मनुके आठवें पुत्र) करूषसे कारूष नामवाले युद्धदुर्मद क्षत्रिय हुए । यह हजारों क्षत्रियोंका मण्डल परम पराक्रमी था । (मनुके सप्तम पुत्र) नाभागारिष्टके क्षत्रिय पुत्र वैश्य हो गये थे* ॥ २९-३० ॥

प्रांशोरेकोऽभवत् पुत्रः शर्यातिरिति विश्रुतः ।
नरिष्यतस्य दायादो राजा दण्डधरो दमः ।
शर्यातेर्मिथुनं चासीदानर्तो नाम विश्रुतः ॥ ३१ ॥
पुत्रः कन्या सुकन्याख्या या पत्नी च्यवनस्य ह ।
आनर्तस्य तु दायादो रेवो नाम महाद्युतिः ॥ ३२ ॥
( मनुके छठे पुत्र) प्रांशुके एक पुत्र हुआ, वह शर्याति नामसे प्रसिद्ध था । (मनुके पञ्चम पुत्र) नरिष्यन्तका पुत्र दण्डधारी राजा दम हुआ । (मनुके चौथे पुत्र) शयतिकी दो संतान उत्पन्न हुई; उनमें एक तो पुत्र था, जो आनर्त नामसे प्रसिद्ध हुआ और एक कन्या थी, जिसका नाम सुकन्या था । वह च्यवन ऋषिकी पत्नी हुई । आनर्तके रेव नामका महाकान्तिमान् पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ३१-३२ ॥

आनर्तविषयश्चासीत् पुरी चास्य कुशस्थली ।
रेवस्य रैवतः पुत्रः ककुद्मी नाम धार्मिकः ॥ ३३ ॥
उसका राज्य आनत (जहाँ आज द्वारका है) देशमें था और उसकी पुरी (राजधानी)-का नाम कुशस्थली (आजकी द्वारकापुरी) था । रेवके पुत्र रैवत हुए. इन्हींका दूसरा नाम ककुद्मी था । ये धार्मिक थे ॥ ३३ ॥

ज्येष्ठः पुत्रशतस्यासीद् राज्यं प्राप्य कुशस्थलीम् ।
स कन्यासहितः श्रुत्वा गान्धर्वं ब्रह्मणोऽन्तिके ॥ ३४ ॥
मुहूर्तभूतं देवस्य गतं बहुयुगं प्रभो ।
आजगामयुवैवाथ स्वां पुरीं यादवैर्वृताम् ॥ ३५ ॥
(रेवके) सौ पुत्रोंमें ये सबसे ज्येष्ठ थे । कुशस्थलीका राज्य पानेके अनन्तर एक दिन ये अपनी कन्याके साथ (ब्रह्मलोकमें) गये, वहाँ ब्रह्माजीके समीप गन्धर्वोका गीत सुनने लगे । राजन् । संगीत सुनते-सुनते ये दो घड़ी वहाँ ठहरे रहे । इतने ही समयमें मानवलोकमें अनेक युग बीत गये । तत्पश्चात् ये यादवोंसे घिरी हुई अपनी पुरीमें आये । उस समयतक इनकी युवावस्था ज्योंकी-त्यों बनी हुई थी ॥ ३४-३५ ॥

कृतां द्वारवतीं नाम्ना बहुद्वारां मनोरमाम् ।
भोजवृष्ण्यन्धकैर्गुप्तां वासुदेवपुरोगमैः ॥ ३६ ॥
(उस समय उस पुरीमें) बहुत-से दरवाजे बन गये थे और वासुदेव आदि भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी उस रमणीय पुरीकी रक्षा कर रहे थे । यादवोंने उसका नाम बदलकर द्वारवती रख दिया था ॥ ३६ ॥

ततः स रैवतो ज्ञात्वा यथातत्त्वमरिंदम ।
कन्यां तां बलदेवाय सुव्रतां नाम रेवतीम् ॥ ३७ ॥
दत्त्वा जगाम शिखरं मेरोस्तपसि संस्थितः ।
रेमे रामोऽपि धर्मात्मा रेवत्या सहितः सुखी ॥ ३८ ॥
शत्रुमर्दन ! इन सब बातोंको यथार्थ रीतिसे जानकर राजा रैवत अपनी रेवती नामकी सुव्रता कन्याको बलदेवजीके हाथमें देकर स्वयं मेरुपर्वतके शिखरपर चले गये और वहाँ तपस्या में लग गये । (इधर) धर्मात्मा बलरामजी भी रेवतीके साथ सुखपूर्वक विहार करने लगे ॥ ३७-३८ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
ऐलोत्पत्तिवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥१०॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पुरूरवाको उत्पत्तिका वर्णनविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥




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