श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व त्रयोदशोऽध्यायः
त्रिशङ्कुचरितम् -
त्रिशङ्कुके चरित्रका वर्णन तथा उनके वंशमें हरिश्चन्द्र आदिका उत्पन्न होना
वैशम्पायन उवाच सत्यव्रतस्तु भक्त्या च कृपया च प्रतिज्ञया । विश्वामित्रकलत्रं तद् बभार विनये स्थितः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! विश्वामित्रजीके प्रति श्रद्धा-भक्ति, उनके असहाय कुटुम्बके प्रति दयाभाव तथा अपनी की हुई प्रतिज्ञासे प्रेरित हो सत्यव्रत विनयपूर्वक विश्वामित्रजीकी स्त्रीका पालन करने लगा ॥ १ ॥
हत्वा मृगान् वराहांश्च महिषांश्च वनेचरान् । विश्वामित्राश्रमाभ्याशे मांसं वृक्षे बबन्ध सः ॥ २ ॥
वह ढूँढ़नेसे मिलनेवाले कंदविशेष, बराही कंद तथा महिष कंद आदि जंगली कंद-मूलोंको काटकर उनका गूदा विश्वामित्रके आश्रमके पासके वृक्षोंमें बाँध देता था ॥ २ ॥
उपांशुव्रतमास्थाय दीक्षां द्वादशवार्षिकीम् । पितुर्नियोगादवसत् तस्मिन्वनगते नृपे ॥ ३ ॥
पिता (राजा)-के वन चले जानेपर बारह वर्षोंके लिये वह चुपचाप (किसीको विदित न हो इस प्रकार) व्रत करने लगा ॥ ३ ॥
अयोध्यां चैव राष्ट्रं च तथैवान्तःपुरं मुनिः । याज्योपाध्यायसंबन्धाद् वसिष्ठः पर्यरक्षत ॥ ४ ॥
इधर पुरोहिताई और यजमानीके सम्बन्धके कारण मुनि वसिष्ठ अयोध्याकी, राज्यकी और रनिवासकी रक्षा करने लगे ॥ ४ ॥
सत्यव्रतस्तु बाल्याच्च भाविनोऽर्थस्य वा बलात् । वसिष्ठेऽभ्यधिकं मन्युं धारयामास वै तदा ॥ ५ ॥
इधर सत्यव्रत अपनी मूर्खता या होनहारके कारण वसिष्ठजीके ऊपर अधिक कुपित रहने लगा ॥ ५ ॥
पित्रा हि तं तदा राष्ट्रात् त्यज्यमानं स्वमात्मजम् । न वारयामास मुनिर्वसिष्ठः कारणेन ह ॥ ६ ॥
परंतु मुनि वसिष्ठने तो उसके पिताको, उनके द्वारा अपने पुत्रके राज्यसे निकाले जाते समय विशेष कारणवश ही नहीं रोका था ॥ ६ ॥
पाणिग्रहणमन्त्राणां निष्ठा स्यात् सप्तमे पदे । न च सत्यव्रतस्तस्य तमुपांशुमबुद्ध्यत ॥ ७ ॥
पाणिग्रहण अर्थात् विवाहके मन्त्र सप्तपदीके पूर्ण होनेपर पूर्ण हुए माने जाते हैं । (इसके पहले स्त्रीमें कन्यात्व ही रहता है । अतः वसिष्ठजी सत्यव्रतसे बारह वर्षातक कन्याहरणका प्रायश्चित्त कराना चाहते थे । ) परंतु वसिष्ठजीके इस गूढ आशयको सत्यव्रत समझ न सका ॥ ७ ॥
जानन्धर्मं वसिष्ठस्तु न मां त्रातीति भारत । सत्यव्रतस्तदा रोषं वसिष्ठे मनसाकरोत् ॥ ८ ॥
वसिष्ठजी धर्मको जानते हैं, तब भी मेरी रक्षा नहीं करते हैं । ' भारत ! यह विचारकर सत्यव्रत अपने मनमें उनपर कुपित रहने लगा ॥ ८ ॥
गुणबुद्ध्या तु भगवान् वसिष्ठः कृतवांस्तथा । न च सत्यव्रतस्तस्य तमुपांशुमबुध्यत ॥ ९ ॥
भगवान् वसिष्ठजीने तो गुणवृद्धिसे ऐसा किया था, परंतु सत्यव्रत उनके इस गुप्त अभिप्रायको समझ न सका ॥ ९ ॥
तस्मिन्नपरितोषो यः पितुरासीन्महात्मनः । तेन द्वादश वर्षाणि नावर्षत् पाकशासनः ॥ १० ॥
उसके महात्मा पिताको सत्यव्रतके ऊपर जो असंतोष उत्पन्न हो गया, इस कारण इन्द्रने उसके राज्यमें बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं की ॥ १० ॥
तेन त्विदानीं वहता दीक्षां तां दुर्वहां भुवि । कुलस्य निष्कृतिस्तात कृता सा वै भवेदिति ॥ ११ ॥ न तं वसिष्ठो भगवान् पित्रा त्यक्तं न्यवारयत् । अभिषेक्ष्याम्यहं पुत्रमस्येत्येवं मतिर्मुनेः ॥ १२ ॥
तात ! यदि (सत्यव्रत) भूतलपर कठिनतासे पूर्ण होनेवाली इस दीक्षाको पूर्ण कर लेगा तो इसके कुलका उद्धार हो जायगा' । यह विचारकर भगवान् वसिष्ठने उसके पिताद्वारा त्यागे गये सत्यव्रतको नहीं रोका था, उनका विचार था कि '(प्रायश्चित्तके अनन्तर) इसके पुत्रको ही मैं राज्यपर अभिषिक्त कर दूंगा' ॥ ११-१२ ॥
स तु द्वादश वर्षाणि दीक्षां तामुद्वहद् बली । उपांशुव्रतमास्थाय महत्सत्यव्रतो नृप ॥ १३ ॥
राजन् ! बलवान् सत्यव्रतने भी चुपचाप दीक्षा लेकर बारह वर्षतक इस महाव्रतको धारण किया ॥ १३ ॥
अविद्यमाने मांसे तु वसिष्ठस्य महात्मनः । सर्वकामदुघां दोग्ध्रीं ददर्श स नृपात्मजः ॥ १४ ॥
एक समय कंद-मूलके गूदेके न रहनेपर उस राजकुमारकी दृष्टि सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाली महात्मा वसिष्ठकी दुधार गौके ऊपर पड़ी ॥ १४ ॥
तां वै क्रोधाच्च मोहाच्च श्रमाच्चैव क्षुधार्दितः । दशधर्मान्गतो राजा जघान जनमेजय ॥ १५ ॥
जनमेजय ! राजकुमार सत्यव्रतने उस गौको क्रोध, मोह और कामके कारण तथा भूखसे पीड़ा पानेके कारण दस अनिष्ट धर्मों (अवस्थाओं)* -को प्राप्त होनेकी दशामें मार डाला ॥ १५ ॥
तच्च मांसं स्वयं चैव विश्वामित्रस्य चात्मजान् । भोजयामास तच्छ्रुत्वा वसिष्ठोऽप्यस्य चुक्रुधे । क्रुद्धस्तु भ्गवान् वाक्यमिदमाह नृपात्मजम् ॥ १६ ॥
उस मांसको उसने विश्वामित्रके पुत्रोंको खिलाया और अपने-आप भी खाया । यह सुनकर वसिष्ठजी भी क्रोधमें भर गये और क्रोधमें भरे हुए वसिष्ठजीने राजाके पुत्रसे यह बात कही ॥ १६ ॥
वसिष्ठ उवाच पातयेयमहं क्रूर तव शङ्कुमसंशयम् । यदि ते द्वाविमौ शङ्कू न स्यातां वै कृतौ पुनः ॥ १७ ॥
वसिष्ठजीने कहा-क्रूर ! यदि तुझमें फिर किये हुए ये दो शङ्क (पाप) न होते तो मैं तेरे प्रथम शङ्क (पाप)-को अवश्य नष्ट कर देता ॥ १७ ॥
पितुश्चापरितोषेण गुरोर्दोग्ध्रीवधेन च । अप्रोक्षितोपयोगाच्च त्रिविधस्ते व्यतिक्रमः ॥ १८ ॥
पिताको संतुष्ट न रखने, गुरुकी दूध देनेवाली गौकी हत्या कर डालने और अप्रोक्षित मांस खानेसे तुम्हारे द्वारा तीन प्रकारके पाप बन गये ॥ १८ ॥
वैशंपायन उवाच एवं त्रीण्यस्य शङ्कूनि तानि दृष्ट्वा महातपाः । त्रिशङ्कुरिति होवाच त्रिशङ्कुरिति स स्मृतः ॥ १९ ॥
वैशम्पायनजी बोले-इस प्रकार उसके तीन शङ्कओंको देखकर महातपस्वी वसिष्ठजीने जो उसे त्रिशङ्ख कहा, इसके कारण वह त्रिशङ्क ही कहलाने लगा ॥ १९ ॥
विश्वामित्रस्तु दाराणामागतो भरणे कृते । स तु तस्मै वरं प्रादान्मुनिः प्रीतस्त्रिश्ङ्कवे ॥ २० ॥
जब विश्वामित्रजी लौटे, तब अपनी स्त्री आदिका भरण-पोषण करनेके कारण प्रसन्न होकर त्रिशङ्कको वर देने लगे ॥ २० ॥
छन्द्यमानो वरेणाथ वरं वव्रे नृपात्मजः । सशरीरो व्रजे स्वर्गमित्येवं याचितो मुनिः ॥ २१ ॥
जब विश्वामित्रजीने राजकुमारसे इच्छानुसार वर माँगनेके लिये कहा, तब उसने मुनिसे वर माँगा कि 'मैं सदेह स्वर्गमें जाऊँ' ॥ २१ ॥
अनावृष्टिभये तस्मिन् गते द्वादशवार्षिके । राज्येऽभिषिच्य पित्र्ये तु याजयामास तं मुनिः ॥ २२ ॥
(विश्वामित्रके प्रसादमात्रसे) बारह वर्षोंकी अनावृष्टिका भय दूर हो जानेपर विश्वामित्र (मुनि अपने तपसे उसके पापोंको भस्म करके) उसका पिताके राज्यपर अभिषेक कर उसका यज्ञ कराने लगे ॥ २२ ॥
मिषतां देवतानां च वसिष्ठस्य च कौशिकः । सशरीरं तदा तं तु दिवमारोपयत् प्रभुः ॥ २३ ॥
तदनन्तर तपकी शक्तिसे सम्पन्न कौशिकगोत्री विश्वामित्र वसिष्ठ और देवताओंके देखते-देखते ही त्रिशङ्कको सशरीर स्वर्गमें भेज दिया ॥ २३ ॥
तस्य सत्यरथा नाम भार्या कैकेयवंशजा । कुमारं जनयामास हरिश्चन्द्रमकल्मषम् ॥ २४ ॥
त्रिशङ्कके कैकयवंशमें उत्पन्न हुई एक सत्यरथा नामकी भार्या थी । उसमें उसने हरिश्चन्द्र नामवाले निष्पाप पुत्रको उत्पन्न किया ॥ २४ ॥
स वै राजा हरिश्चन्द्रस्त्रैशङ्कव इति स्मृतः । आहर्ता राजसूयस्य स सम्राडिति विश्रुतः ॥ २५ ॥
वे राजा हरिश्चन्द्र त्रैशङ्कव नामसे प्रसिद्ध थे, उन्होंने राजसूय यज्ञ किया था, अतएव वे सम्राट् कहलाते थे ॥ २५ ॥
हरिश्चन्द्रस्य पुत्रोऽभूद् रोहितो नाम वीर्यवान् । येनेदं रोहितपुरं कारितं राज्यसिद्धये ॥ २६ ॥
हरिश्चन्द्रके रोहित नामवाला वीर्यवान् पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसने अपने राज्यकार्यकी सिद्धिके लिये रोहितपुर बसाया था ॥ २६ ॥
कृत्वा राज्यं स राजर्षिः पालयित्वा त्वथ प्रजाः । संसारासारतां ज्ञात्वा द्विजेभ्यस्तत्पुरं ददौ ॥ २७ ॥
उस राजर्षिने राज्य तथा प्रजाका पालन करनेके अनन्तर संसारकी असारताको जानकर अपना नगर ब्राह्मणों को दे दिया था ॥ २७ ॥
हरितो रोहितस्याथ चञ्चुर्हारीत उच्यते । विजयश्च सुदेवश्च चञ्चुपुत्रौ बभूवतुः ॥ २८ ॥
रोहितका पुत्र हरित और हरितका पुत्र चक्षु हुआ-यह प्रसिद्ध है । चक्षुके विजय और सुदेव नामवाले दो पुत्र हुए ॥ २८ ॥
जेता क्षत्रस्य सर्वस्य विजयस्तेन संस्मृतः । रुरुकस्तनयस्तस्य राजधर्मार्थकोविदः ॥ २९ ॥
उस (विजय)-ने सम्पूर्ण क्षत्रियोंको जीत लिया था, इसलिये वह विजय कहलाता था । उसके राजकार्य, धर्मकार्य और आर्थिक विषयोंमें चतुर रुरुक नामवाला पुत्र हुआ ॥ २९ ॥
रुरुकस्य वृकः पुत्रो वृकाद् बाहुस्तु जज्ञिवान् । शकैयवनकाम्बोजैः पारदैः पह्लवैः सह ॥ ३० ॥ हैहयास्तालजङ्घाश्च निरस्यन्ति स्म तं नृपम् । नात्यर्थं धार्मिकस्तात स हि धर्मयुगेऽभवत् । ३१ ॥
रुरुकका पुत्र वृक हुआ और वृकके बाहु नामवाला पुत्र उत्पन्न हुआ । वह राजा उस (राज) धर्मक युगमें अति धार्मिक नहीं था, इसलिये हैहय और तालजङ्घ वंशके राजाओंने शक, यवन, काम्बोज, पारद और पहव (आदि) राजाओंका साथ देकर बाहुकको उसके राज्यसे भ्रष्ट कर दिया ॥ ३०-३१ ॥
सगरस्तु सुतो बाहोर्जज्ञे सह गरेण च । और्वस्याश्रममागम्य भार्गवेणाभिरक्षितः । ॥ ३२ ॥
बाहुकका जो पुत्र उत्पन्न हुआ वह गर अर्थात् विषके साथ ही उत्पन्न हुआ था । इससे वह सगर कहलाने लगा । (उसकी माताके) और्वके आश्रममें आनेपर भृगुवंशी और्वने उसकी रक्षा की थी ॥ ३२ ॥
आग्नेयमस्त्रं लब्ध्वा च भार्गवात् सगरो नृपः । जिगाय पृथिवीं हत्वा तालजङ्घान् सहैहयान् ॥ ३३ ॥
सगरने भृगुवंशी और्वसे आग्नेय अस्त्रको सीखकर तालजङ्घ और हैहय राजाओंको मारकर पृथिवीको जीत लिया ॥ ३३ ॥
शकानां पह्लवानां च धर्मं निरसदच्युतः । क्षत्रियाणां कुरुश्रेष्ठ पारदानां स धर्मवित् ॥ ३४ ॥
कुरुश्रेष्ठ ! धर्मको जाननेवाले पूर्णशक्तिसम्पन्न सगरने शक, पहव और पारद क्षत्रियोंको धर्मभ्रष्ट कर दिया था ॥ ३४ ॥
इति श्री महाभारते खिलेषु हरिवंशपर्वणि त्रिशङ्कुचरितं नाम त्रयोदशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें जिसके चरित्रका वनविषयक तेरहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥
GO TOP
|