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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
चतुर्दशोऽध्यायः


सगरोत्पत्तिः -
सगरकी उत्पत्ति और चरित्र तथा सगर-पुत्रोंके उद्योगसे समुद्रका 'सागर' होना


जनमेजय उवाच
कथं स सगरो जातो गरेणैव सहाच्युतः ।
किमर्थं च शकादीनां क्ष्हत्रियाणां महौजसाम् ॥ १ ॥
धर्मं कुलोचितं क्रुद्धो राजा निरसदच्युतः ।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व विस्तरेण तपोधन ॥ २ ॥
जनमेजयने कहा-तपोधन ! वे राजा सगर विषके साथ क्यों उत्पन्न हुए थे ? विषके साथ रहते हुए भी मरे क्यों नहीं ? और मर्यादासे च्युत न होनेवाले उन नरेशने क्रोधमें भरकर महाबली शक आदि क्षत्रियोंके कुलोचित धर्मको क्यों नष्ट कर दिया था ? इसका आप मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १-२ ॥

वैशम्पायन उवाच
बाहोर्व्यसनिनस्तात हृतं राज्यमभूत् किल ।
हैहयैस्तालजङ्घैश्च शकैः सार्धं विशाम्पते ॥ ३ ॥
वैशम्पायनजी बोले-राजन् ! राजा बाहु शिकार और जुए आदि व्यसनोंमें ही पड़ा रहता था । तात ! (इस अवसरसे लाभ उठाकर) बाहुके राज्यको हैहय, तालजक तथा शकोंने छीन लिया ॥ ३ ॥

यवनाः पारदाश्चैव काम्बोजाः पह्लवाः खसाः ।
एते ह्यपि गणाः पञ्च हैहयार्थे पराक्रमम् ॥ ४ ॥
यवन, पारद, काम्बोज, पहब और खस-इन पाँच गणोंने भी हैहय राजाओंके लिये पराक्रम किया था ॥ ४ ॥

हृतराज्यस्तदा राजा स वै बाहुर्वनं ययौ ।
पत्न्या चानुगतो दुःखी वने प्राणानवासृजत् ॥ ५ ॥
राज्यके छिन जानेपर राजा बाहु वनको चला गया और उसकी पत्नी भी उसके पीछे-पीछे गयी । इसके बाद उस राजाने दुःखी होकर वनमें ही अपने प्राणोंको त्याग दिया ॥ ५ ॥

पत्नी तु यादवी तस्य सगर्भा पृष्ठतोऽन्वगात् ।
सपत्न्या च गरस्तस्यै दत्तः पूर्वमभूत् किल ॥ ६ ॥
उसकी पत्नी यदुवंशकी कन्या थी । वह गर्भवती थी, तब भी बाहुके पीछे-पीछे वनमें गयी थी । उसकी सौतने उसे पहले ही विष दे दिया था ॥ ६ ॥

सा तु भर्तुश्चितां कृत्वा वने तामध्यरोहत ।
और्वस्तां भार्गवस्तात कारुण्यात् समवारयत् ॥ ७ ॥
तात ! जब वह स्वामीकी चिता बनाकर उसपर चढ़ने लगी, उसी समय वनमें विराजमान भृगुवंशी और्व ऋषिने दयाके कारण उसे रोका ॥ ७ ॥

तस्याश्रमे च तं गर्भं गरेणैव सहाच्युतम् ।
व्यजायत महाबाहुं सगरं नाम पार्थिवम् ॥ ८ ॥
तब उसने उनके आश्रममें ही विष (गर)-सहित गर्भको, जो आगे चलकर सगर नामक महाबाहु राजाके रूपमें प्रसिद्ध हुआ, उत्पन्न किया । राजा सगर कभी धर्मसे च्युत नहीं हुए थे ॥ ८ ॥

और्वस्तु जातकर्मादि तस्य कृत्वा महात्मनः ।
अध्याप्य वेदशास्त्राणि ततोऽस्त्रं प्रत्यपादयत् ॥ ९ ॥
और्वने महामना सगरके जातकर्म आदि संस्कार कराकर उन्हें वेद और शास्त्र पढ़ाये, फिर अस्त्रविद्या सिखायी ॥ ९ ॥

आग्नेयं तु महाघोरममरैरपि दुःसहम् ।
स तेनास्त्रबलेनाजौ बलेन च समन्वितः ॥ १० ॥
हैहयान्निजघानाशु क्रुद्धो रुद्रः पशूनिव ।
आजहार च लोकेषु कीर्तिं कीर्तिमतां वरः ॥ ११ ॥
उन्होंने सगरको देवताओंके लिये भी असह्य महाघोर आग्नेय अस्त्र दिया था । जब वे अस्वबल और शारीरिक बलसे सम्पन्न हो गये, तब क्रोधमें भरकर रुद्र जैसे शीघ्रतासे पशुओंका संहार करते हैं, उसी प्रकार उन्होंने हैहयोंका संहार कर डाला । इस प्रकार कीर्तिमानोंमें श्रेष्ठ उन वीर पुरुषने संसारमें (अद्भुत) कीर्ति पायी थी ॥ १०-११ ॥

ततः शकान् सयवनान् काम्बोजान् पारदांस्तदा ।
पह्लवांश्चैव निःशेषान् कर्तुं व्यवसितस्तदा ॥ १२ ॥
इसके अनन्तर उन्होंने शक, यवन, काम्बोज, पारद और पहावोंको भी निःशेष (सर्वथा नष्ट) करनेका निश्चय किया ॥ १२ ॥

ते वध्यमाना वीरेण सगरेण महात्मना ।
वसिष्ठं शरणं गत्वा प्रणिपेतुर्मनीषिणम् ॥ १३ ॥
जब वीर और महात्मा सगर उनका सर्वनाश करने लगे, तब वे (शक, यवनादि) बुद्धिमान् वसिष्ठजीकी शरणमें गये और उनके पैरोंमें गिर पड़े ॥ १३ ॥

वसिष्ठस्त्वथ तान् दृष्ट्वा समयेन महाद्युतिः ।
सगरं वारयामास तेषां दत्त्वाभयं तदा ॥ १४ ॥
परम यशस्वी वसिष्ठजीने कुछ विशेष शौपर उनको अभयदान दिया और सगरको (उन्हें मारनेसे) रोका ॥ १४ ॥

सगरः स्वां प्रतिज्ञां च गुरोर्वाक्यं निशम्य च ।
धर्मं जघान तेषां वै वेषान्यत्वं चकार ह ॥ १५ ॥
सगरने अपनी प्रतिज्ञा और गुरुके वाक्यकी ओर ध्यान देकर (उनके प्राण नहीं लिये) उनके धर्मको नष्ट कर दिया; और उनका वेष बदल दिया ॥ १५ ॥

अर्द्धं शकानां शिरसो मुण्डं कृत्वा व्यसर्जयत् ।
यवनानां शिरः सर्वं काम्बोजानां तथैव च ॥ १६ ॥
उन्होंने शकोंके आधे सिरको मुंडकर छोड़ दिया, यवनोंके सारे सिरको मूंड़ दिया और पहबोंक भी सिरको मुंड़वा दिया ॥ १६ ॥

पारदा मुक्तकेशाश्च पह्लवाः श्मश्रुधारिणः ।
निःस्वाध्यायवषट्काराः कृतास्तेन महात्मना ॥ १७ ॥
उन महात्मा नरेशने पारदोंके सिरको मुक्तकेश (खुले हुए केशोंवाला) कर दिया और पहवोंको श्मश्रुधारी (केवल दाढ़ीवाला) बना दिया और सबको स्वाध्याय तथा वषट्कारसे रहित कर दिया ॥ १७ ॥

शका यवनकाम्बोजाः पारदाश्च विशाम्पते ।
कोलिसर्पाः समहिषा दार्द्याश्चोलाः सकेरलाः ॥ १८ ॥
सर्वे ते क्षत्रियास्तात धर्मस्तेषां निराकृतः ।
वसिष्ठवचनाद् राजन् सगरेण महात्मना ॥ १९ ॥
तात ! जनेश्वर ! शक, यवन, काम्बोज, पारद, कोलिसर्प, महिष, दर्द, चोल और केरल-ये सब क्षत्रिय ही थे । वसिष्ठजीके वचनसे महात्मा सगरने (इन सबका संहार न करके केवल) इनके धर्मको ही नष्ट कर दिया था ॥ १८-१९ ॥

खसांस्तु पारांश्चोलांश्च मद्रान् किष्किन्धकांस्तथा ।
कौन्तलांश्च तथा वङ्गान् साल्वान् कौङ्कणकांस्तथा ॥ २० ॥
स धर्मविजयी राजा विजित्येमां वसुन्धराम् ।
अश्वं वै प्रेरयामास वाजिमेधाय दीक्षितः ॥ २१ ॥
उन धर्मविजयी राजाने अश्वमेधकी दीक्षा लेकर खस, तुषार, चोल, मद्र, किष्किन्धक, कौन्तल, वङ्ग, साल्व तथा कौङ्कण देशके राजाओंको जीता । इस प्रकार पृथ्वीका विजय करते हुए उन्होंने अश्वमेधयज्ञके लिये अपना घोड़ा छोड़ा ॥ २०-२१ ॥

तस्य चारयतः सोऽश्वः समुद्रे पूर्वदक्षिणे ।
वेलासमीपेऽपहृतो भूमिं चैव प्रवेशितः ॥ २२ ॥
जब उनका घोड़ा घुमाया जा रहा था, उस समय पूर्व-दक्षिणमें समुद्रके किनारे किसीने उस घोड़ेको चुरा लिया और उसे भूमिमें छिपा दिया ॥ २२ ॥

स तं देशं तदा पुत्रैः खानयामास पार्थिवः ।
आसेदुस्ते ततस्तत्र खन्यमाने महार्णवे ॥ २३ ॥
तमादिपुरुषं देवं हरिं कृष्णं प्रजापतिम् ।
विष्णुं कपिलरूपेण स्वपन्तं पुरुषोत्तमम् ॥ २४ ॥
उस समय राजा (सगर)-ने अपने पुत्रोंसे उस स्थानको खुदवाया । समुद्रके खोदनेपर उनके पुत्रोंने आदिपुरुष, हरि (अविद्याको हरनेवाले), कृष्ण (सच्चिदानन्दस्वरूप) प्रजापति पुरुषोत्तम, कपिलरूपी विष्णुको वहाँ सोते हुए समाधिमें स्थित देखा ॥ २३-२४ ॥

तस्य चक्षुःसमुत्थेन तेजसा प्रतिबुध्यतः ।
दग्धास्ते वै महाराज चत्वारस्त्ववशेषिताः ॥ २५ ॥
बर्हकेतुः सुकेतुश्च तथा धर्मरथो नृपः ।
शूरः पञ्चजनश्चैव तस्य वंशकरो नृपः ॥ २६ ॥
उनके योगनिद्राको त्यागनेपर उनके नेत्रमेंसे निकलते हुए तेजसे वे सब (राजकुमार) भस्म हो गये । महाराज ! केवल बहकेतु, सुकेतु, राजा धर्मरथ और वंशको चलानेवाला शूर पशजन-ये चार राजकुमार ही जीवित बच सके थे ॥ २५-२६ ॥

प्रादाच्च तस्मै भगवान् हरिर्नारायणो वरान् ।
अक्षयं वंशमिक्ष्वाकोः कीर्तिं चाप्यनिवर्तनीम् ॥ २७ ॥
पुत्रं समुद्रं च विभुः स्वर्गवासं तथाक्षयम् ।
पुत्राणां चाक्षयाँलोकाँस्तस्य ये चक्षुषा हताः ॥ २८ ॥
उनें (कपिलरूपी) विभु हरिनारायण भगवान्ने यह वरदान दिया था कि इक्ष्वाकुका वंश अक्षय रहेगा और राजा सगरकी कीर्ति कभी नष्ट नहीं होगी । समुद्र उनका पुत्र कहा जायगा (अर्थात् भविष्यमें यह सागर नामसे प्रसिद्ध होगा) और उन्हें अक्षय स्वर्गवास मिलेगा । कपिलजीने अपने नेत्रके तेजसे भस्म हुए सगर-पुत्रोंको भी अक्षयलोकोंकी प्राप्ति होनेका वर दिया ॥ २७-२८ ॥

समुद्रश्चार्घ्यमादाय ववन्दे तं महीपतिम् ।
सागरत्वं च लेभे स कर्मणा तेन तस्य वै ॥ २९ ॥
(उस समय) समुद्रने अर्घ्य लेकर उन राजा (सगर)को प्रणाम किया और सगरके इस कर्मके कारण समुद्रका सागर नाम पड़ गया ॥ २९ ॥

तं चाश्वमेधिकं सोऽश्वं समुद्रादुपलब्धवान् ।
आजहाराश्वमेधानां शतं स सुमहायशाः ।
पुत्राणां च सहस्राणि षष्ठिस्तस्येति नः श्रुतम् ॥ ३० ॥
उन्होंने अश्वमेधयज्ञके घोड़ेको भी समुद्रसे प्राप्त किया । इस तरह उन महायशस्वी राजाने सौ अश्वमेधयज्ञ किये थे-ऐसा सुना जाता है । इन महाराजके पुत्रोंकी संख्या साठ हजार थी ॥ ३० ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
सगरोत्पत्तिर्नाम चतुर्दशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें सगरकी उत्पत्तिका वर्णनविषयक सौदहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥




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