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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः


यदुवंशवर्णनं कार्तवीर्योत्पत्तिश्च
यदुवंशका वर्णन, कार्तवीर्यकी उत्पत्ति एवं चरित्र तथा पाँचों ययाति-पुत्रोंके वंश-वर्णनके श्रवणकी महिमा


वैशम्पायन उवाच
बभूवुस्तु यदोः पुत्राः पञ्च देवसुतोपमाः ।
सहस्रदः पयोदश्च क्रोष्टा नीलोऽञ्जिकस्तथा ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! यदुके पाँच देवोपम पुत्र हुए-सहनद, पयोद, क्रोष्टा, नील और अजिक ॥ १ ॥

सहस्रदस्य दायादास्त्रयः परमधार्मिकाः ।
हैहयश्च हयश्चैव राजन् वेणुहयस्तथा ॥ २ ॥
राजन् ! सहस्रदके तीन परम धर्मात्मा पुत्र हुए-हैहय, हय और वेणुहय ॥ २ ॥

हैहस्याभवत् पुत्रो धर्मनेत्र इति स्मृतः ।
धर्मनेत्रस्य कार्तस्तु साहञ्जस्तस्य चात्मजः ॥ ३ ॥
हैहयका पुत्र धर्मनेत्र हुआ । धर्मनेत्रके कार्त और कार्तके साहज नामक पुत्र हुए ॥ ३ ॥

साहञ्जनी नाम पुरी येन राज्ञा निवेशिता ।
साहञ्जस्य तु दायादो महिष्मान्नाम पार्थिवः ॥ ४ ॥
माहिष्मती नाम पुरी येन राज्ञा निवेशिता ।
आसीन्माहिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान् ॥ ५ ॥
वाराणस्यधिपो राजा कतिथः पूर्वमेव तु ।
भद्रश्रेण्यस्य पुत्रस्तु दुर्दमो नाम विश्रुतः ॥ ६ ॥
दुर्दमस्य सुतो धीमान्कनको नाम वीर्यवान् ।
कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः ॥ ७ ॥
कृतवीर्यः कृतौजाश्च कृतवर्मा तथैव च ।
कृताग्निस्तु चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्यात् तथार्जुनः ॥ ८ ॥
राजा साहाने साहञ्जनी नामक पुरी बसायी । साह के पुत्र राजा महिष्मान् हुए, जिन्होंने माहिष्मती नामक नगरी बसायी थी । महिष्मानके पुत्र प्रतापी भद्रश्रेण्य थे, जो वाराणसीपुरीके अधिपति कहे गये हैं । राजा भद्रश्रेण्यका परिचय तुम्हें पहले ही दे दिया गया है । भद्रश्रेण्यके पुत्रका नाम दुर्दम था, जो भूमण्डलके विख्यात राजा थे । दुर्दमके पुत्र कनक हुए. जो बुद्धिमान् और बलवान् थे । कनकके चार पुत्र हुए. जो सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात थे । उनके नाम इस प्रकार हैं-कृतवीर्य, कृतौजा, कृतवर्मा और कृताग्नि । कृताग्नि कनकके चौथे पुत्र थे । कतवीर्यसे अर्जुनकी उत्पत्ति हुई ॥ ४-८ ॥

यस्तु बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत् ।
जिगाय पृथिवीमेको रथेनादित्यवर्चसा ॥ ९ ॥
अर्जुन सहस्र भुजाओंसे युक्त हो सातों द्वीपोंका राजा हुआ । उसने अकेले ही सूर्यके समान तेजस्वी रथद्वारा सम्पूर्ण पृथ्वीको जीत लिया था ॥ ९ ॥

स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः परमदुश्चरम् ।
दत्तमाराधयामास कार्तवीर्योऽत्रिसम्भवम् ॥ १० ॥
कृतवीर्यकुमार अर्जुनने दस हजार वर्षांतक अत्यन्त दुष्कर तपस्या करके अत्रिपुत्र दत्त (दत्तात्रेय)-की आराधना की ॥ १० ॥

तस्मै दत्तो वरान् प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः ।
पूर्वं बाहुसहस्रं तु प्रार्थितं सुमहद्वरम् ॥ ११ ॥
दत्तात्रेयजीने उसे परम तेजस्वी चार वर प्रदान किये । पहले तो उसने बहुत बड़ा वर यह माँगा था कि 'युद्धमें मेरी सहस्र भुजाएँ हो जायें' ॥ ११ ॥

अधर्मे वर्तमानस्य सद्भिस्तत्र निवारणम् ।
उग्रेण पृथिवीं जित्वा स्वधर्मेणानुरञ्जनम् ॥ १२ ॥
दूसरा वर यह था कि यदि कभी मैं अधर्म-कार्यमें प्रवृत्त होऊँ तो वहाँ साधु पुरुष आकर मुझे रोक दें । ' तीसरे वरके रूपमें उसने यह प्रार्थना की कि 'मैं युद्धके द्वारा पृथ्वीको जीतकर स्वधर्म-पालनके द्वारा प्रजाको प्रसन्न रखू' ॥ १२ ॥

संग्रामान् सुबहून् कृत्वा हत्वा चारीन् सहस्रशः ।
संग्रामे वर्तमानस्य वधं चाप्यधिकाद् रणे ॥ १३ ॥
चौथा वर इस प्रकार है-'मैं बहुत-से संग्राम करके सहस्रों शत्रुओंको मौतके घाट उतारकर संग्राममें ही रहते समय जो युद्धमें मुझसे अधिक शक्तिशाली हो, उसके द्वारा वधको प्राप्त होऊँ' ॥ १३ ॥

तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल भारत ।
योगाद् योगेश्वरस्यैव प्रादुर्भवति मायया ॥ १४ ॥
भरतनन्दन ! युद्ध करते समय किसी योगेश्वरकी भाँति योगबल और संकेतमात्रसे उसके एक सहस भुजाएँ प्रकट हो जाती थीं ॥ १४ ॥

तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपत्तना ।
ससमुद्रा सनगरा उग्रेण विधिना जिता ॥ १५ ॥
राजा अर्जुनने साताद्वीप, समुद्र, पत्तन और नगरोंसहित सारी पृथ्वीको उग्रकर्म (युद्ध)-के द्वारा जीता था ॥ १५ ॥

तेन सप्तसु द्वीपेषु सप्त यज्ञशतानि वै ।
प्राप्तानि विधिना राज्ञा श्रूयन्ते जनमेजय ॥ १६ ॥
जनमेजय ! उस राजाने सातों द्वीपोंमें विधिपूर्वक सात सौ यज्ञ किये थे, ऐसा सुना जाता है ॥ १६ ॥

सर्वे यज्ञा महाबाहोस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः ।
सर्वे काञ्चनयूपाश्च सर्वे काञ्चनवेदयः ॥ १७ ॥
महाबाहु अर्जुनके वे समस्त यज्ञ प्रचुर दक्षिणा देकर सम्पन्न किये गये थे । सबमें सोनेके यूप गड़े थे और सोनेकी ही वेदियाँ बनायी गयी थीं ॥ १७ ॥

सर्वैर्देवैर्महाराजा विमानस्थैरलङ्कृताः ।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः ॥ १८ ॥
महाराज विमानोंपर बैठे हुए सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ सदा ही उन यज्ञोंको अलंकृत एवं सुशोभित करती थीं ॥ १८ ॥

यस्य यज्ञे जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा ।
वरीदासात्मजो विद्वान् महिम्ना तस्य विस्मितः ॥ १९ ॥
कार्तवीर्यके यज्ञमें उसकी महिमासे चकित होकर वरीदासके विद्वान् पुत्र नारद नामक गन्धर्वने इस गाथाका गान किया था ॥ १९ ॥

नारद उवाच
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यान्ति पार्थिवाः ।
यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा विक्रमेण श्रुतेन च ॥ २० ॥
नारद बोले-अन्य राजालोग यज्ञ, दान, तपस्या, पराक्रम और शास्त्रज्ञानमें कार्तवीर्य अर्जुनकी स्थितिको नहीं पहुँच सकते ॥ २० ॥

स हि सप्तसु द्वीपेषु खड्‌गी चर्मी शरासनी ।
रथी द्वीपाननुचरन् योगी संदृश्यते नृभिः ॥ २१ ॥
वह योगी था, इसलिये मनुष्योंको सातों द्वीपोंमें ढाल-तलवार, धनुष-बाण और रथ लिये सदा सब और विचरता दिखायी देता था ॥ २१ ॥

अनष्टद्रव्यता चैव न शोको न च विभ्रमः ।
प्रभावेण महाराज्ञः प्रजा धर्मेण रक्षतः ॥ २२ ॥
धर्मपूर्वक प्रजाको रक्षा करनेवाले महाराज कार्तवीर्यके प्रभावसे किसीका धन नष्ट नहीं होता था । न तो किसीको शोक होता और न कोई भ्रममें ही पड़ता था ॥ २२ ॥

पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां वै नराधिपः ।
स सर्वरत्नभाक् सम्राट् चक्रवर्ती बभूव ह ॥ २३ ॥
वह पचासी हजार वर्षांतक सब प्रकारके रत्नोंसे सम्पन्न चक्रवर्ती सम्राट् रहा ॥ २३ ॥

स एव यज्ञपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव च ।
स एव वृष्ट्यां पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोऽभवत् ॥ २४ ॥
योगी होनेके कारण राजा अर्जुन ही यज्ञों और खेतोंकी रक्षा करता था और वही वर्षाकालमें मेघ बन जाता था ॥ २४ ॥

स वै बाहुसहस्रेण ज्याघातकठिनत्वचा ।
भाति रश्मिसहस्रेण शरदीव दिवाकरः ॥ २५ ॥
जैसे शरद्-ऋतुमें भगवान् भास्कर अपनी सहलों किरणोंसे शोभा पाते हैं, उसी प्रकार राजा कार्तवीर्य अर्जुन प्रत्यञ्चाकी रगणसे जिनकी त्वचा कठोर हो गयी थी, उन सहसों भुजाओंसे सुशोभित होता था ॥ २५ ॥

स हि नागान् मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः ।
कर्कोटकसुताञ्जित्वा पुर्यां तस्यां न्यवेशयत् ॥ २६ ॥
महातेजस्वी अर्जुनने कर्कोटकनागके पुत्रोंको जीतकर उन्हें अपनी नगरी माहिष्मतीपुरीमें मनुष्योंके बीच बसाया था ॥ २६ ॥

स वै वेगं समुद्रस्य प्रावृट्कालेऽम्बुजेक्षणः ।
क्रीडन्निव भुजोद्भिन्नं प्रतिस्रोतश्चकार ह ॥ २७ ॥
कमलनयन कार्तवीर्य वर्षाकालमें जल-क्रीडा करते समय समुद्रकी जलराशिके वेगोंको अपनी भुजाओंके आघातसे रोककर पीछेकी ओर लौटा देता था ॥ २७ ॥

लुण्ठिता क्रीडिता तेन फेनस्रग्दाममालिनी ।
चलदूर्मिसहस्रेण शङ्किताभ्येति नर्मदा ॥ २८ ॥
फेनरूपी पुष्पहारोंसे अलंकृत नमंदाकी जलराशिमें जब वह लोटता और क्रीड़ा करता था, तब वह परपुरुषके उपभोगमें आयी हुई नारीके समान शङ्कित-सी होकर अपनी सहस्रों चञ्चल लहरोंके साथ अपने पति समुद्रके निकट जाती थी ॥ २८ ॥

तस्य बाहुसहस्रेण क्षुभ्यमाणे महोदधौ ।
भयान्निलीना निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः ॥ २९ ॥
महासागरमें घुसकर जब वह अपनी सहस्रों भुजाएँ पटकता, उस समय समुद्र विक्षुब्ध हो उठता था और पातालनिवासी महादैत्य निशेष्ट होकर भयसे छिप जाते थे ॥ २९ ॥

चूर्णीकृतमहावीचिं चलमीनमहातिमिम् ।
मारुताविद्धफेनौघमावर्तक्षोभदुःसहम् ॥ ३० ॥
प्रावर्तयत् तदा राजा सहस्रेण च बाहुना ।
देवासुरसमाक्षिप्तः क्षीरोदमिव मन्दरः ॥ ३१ ॥
जब राजा अर्जुन अपनी सहस भुजाओंसे समुद्रको मथने लगता, उस समय उसकी उठती हुई उत्ताल तरंगें चूर-चूर हो जाती थीं । बड़े-बड़े तिमि और मीन आदि जल-जन्तु छरपटाने लगते थे । भजाऑक वेगसे उठी हुई वायुसे टकराकर उसकी फेनराशि छिन्नभिन्न हो जाती थी और समुद्र बड़ी-बड़ी भंवरोंके कारण क्षुब्ध एवं दुःसह दिखायी देता था । देवताओं और असुरोंके द्वारा डाले हुए मन्दराचलने क्षीरसमुद्रकी जो दशा कर दी थी, वैसी ही दशा उसकी भुजाओंसे मथित हुए महासागरकी हो रही थी ॥ ३०-३१ ॥

मन्दरक्षोभचकिता अमृतोद्भवशङ्किताः ।
सहसोत्पतिता भीता भीमं दृष्ट्वा नृपोत्तमम् ॥ ३२ ॥
नता निश्चलमूर्धानो बभूवुस्ते महोरगाः ।
सायाह्ने कदलीखण्डैः कम्पितास्तस्य वायुना ॥ ३३ ॥
उस समय मन्दराचलके द्वारा समुद्रमन्थनकी आशङ्कासे चकित और अमृतकी उत्पत्तिसे भयभीत हुए बड़ेबड़े नाग सहसा उछलकर देखते और भयंकर नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यपर दृष्टि पड़ते ही मस्तक झुकाकर पत्थरके समान निश्चेष्ट हो जाते थे । जैसे संध्याके समय वायुके झोंकेसे कदली-खण्ड (केलोंके बगीचे) काँपने लगते हैं, उसी प्रकार उसके शरीरसे उठी हुई वायुके द्वारा वे नाग भी हिलने लगते थे ॥ ३२-३३ ॥

स वै बद्ध्वा धनुर्ज्याभिरुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः ।
लङ्केशं मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात् ।
निर्जित्यैव समानीय माहिष्मत्यां बबन्ध तम् ॥ ३४ ॥
राजा कार्तवीर्यने अभिमानसे भरे हुए लङ्कापति रावणको अपने पाँच ही बाणोंद्वारा सेनासहित मूर्छित एवं पराजित करके धनुषकी प्रत्यञ्चासे बाँध लिया और माहिष्मतीपुरीमें लाकर बंदी बना लिया ॥ ३४ ॥

श्रुत्वा तु बद्धं पौलस्त्यं रावणं त्वर्जुनेन तु ।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तमर्जुनं ददृशे स्वयम् ।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनानुयाचितः ॥ ३५ ॥
अर्जुनने मेरे वंशज रावणको कैद कर लिया है, यह सुनकर महर्षि पुलस्त्य स्वयं वहाँ गये और अर्जुनसे मिले । पुलस्त्यके प्रार्थना करनेपर उसने उनके पौत्र राक्षस रावणको मुक्त कर दिया ॥ ३५ ॥

यस्य बाहुसहस्रस्य बभूव ज्यातलस्वनः ।
युगान्ते त्वम्बुदस्येव स्फुटतो ह्यशनेरिव ॥ ३६ ॥
अर्जुनकी हजार भुजाओंमें धारण किये गये धनुषोंकी प्रत्यञ्चाका ऐसा घोर शब्द होता था, मानो प्रलयकालके मेघ गरजते हों अथवा वन फट पड़ा हो ॥ ३६ ॥

अहो बत मृधे वीर्यं भार्गवस्य यदच्छिनत् ।
राज्ञो बाहुसहस्रं तु हैमं तालवनं यथा ॥ ३७ ॥
अहो ! भृगुवंशी परशुरामजीका पराक्रम धन्य है, जिससे उन्होंने युद्धमें सुवर्णमय तालवनके समान राजा कार्तवीर्यकी सहस्रों भुजाओंको काट डाला था ॥ ३७ ॥

तृषितेन कदाचित् स भिक्षितश्चित्रभानुना ।
स भिक्षामददाद् वीरः सप्तद्वीपान्विभावसोः ॥ ३८ ॥
पुराणि ग्रामघोषांश्च विषयांश्चैव सर्वशः ।
जज्वाल तस्य सर्वाणि चित्रभानुर्दिधक्षया ॥ ३९ ॥
स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेन महात्मनः ।
ददाह कार्तवीर्यस्य शैलांश्चैव वनानि च ॥ ४० ॥
एक दिनकी बात है-भूखे-प्यासे अग्निदेवने राजा कार्तवीर्यसे भिक्षा माँगी । तब उस वीर राजाने सातों द्वीप, नगर, गाँव, गोष्ठ तथा सारा राज्य अग्निदेवको भिक्षामें दे दिये । अग्निदेव सर्वत्र प्रज्वलित हो उठे और पुरुषप्रवर महात्मा कार्तवीर्यके प्रभावसे समस्त पर्वतों एवं वनोंको जलाने लगे ॥ ३८-४० ॥

स शून्यमाश्रमं रम्यं वरुणस्यात्मजस्य वै ।
ददाह वनवद् भीतश्चित्रभानुः सहैहयः ॥ ४१ ॥
कार्तवीर्यकी सहायतासे अग्निने दूसरे साधारण वनोंकी भौति वरुणपुत्रके रमणीय आश्रमको भी सूना पाकर डरते-डरते जला दिया ॥ ४१ ॥

यं लेभे वरुणः पुत्रं पुरा भास्वन्तमुत्तमम् ।
वसिष्ठं नाम स मुनिः ख्यात आपव इत्युत ॥ ४२ ॥
पूर्वकालमें वरुणने जिन तेजस्वी एवं श्रेष्ठ महर्षिको पुत्ररूपमें प्राप्त किया था, उनका नाम वसिष्ठ है । वे ही मुनि आपव नामसे भी विख्यात हैं ॥ ४२ ॥

यत्रापवस्तु तं क्रोधाच्छप्तवानर्जुनं विभुः ।
यस्मान्न वर्जितमिदं वनं ते मम हैहय ॥ ४३ ॥
तस्मात् ते दुष्करं कर्म कृतमन्यो हनिष्यति ।
रामो नाम महाबाहुर्जामदग्न्यः प्रतापवान् ॥ ४४ ॥
छित्त्वा बहुसहस्रं ते प्रमथ्य तरसा बली ।
तपस्वी ब्राह्मणश्च त्वां वधिष्यति स भार्गवः ॥ ४५ ॥
महर्षि वसिष्ठका सूना आश्रम जलाया गया था, इसलिये उन ऐश्वर्यशाली आपवने अर्जुनको क्रोधपूर्वक शाप दिया-'हैहय ! तूने मेरे इस वनको भी जलाये बिना न छोड़ा, इसलिये तेरे द्वारा जो विश्वविजय आदि यशोवर्द्धक दुष्कर कर्म किया गया है, उसे दूसरा वीर (तुझे पराजित करके) नष्ट कर डालेगा । 'जमदग्निके प्रतापी पुत्र महाबाहु परशुराम बलवान् और तपस्वी ब्राह्मण हैं । वे भृगुवंशी वीर तुझे बलपूर्वक मथ डालेंगे और तेरी इन सहस्र भुजाओंको काटकर तुझे भी मौतके घाट उतार देंगे' ॥ ४३-४५ ॥

वैशम्पायन उवाच
अनष्टद्रव्यता यस्य बभूवामित्रकर्शन ।
प्रभावेण नरेन्द्रस्य प्रजा धर्मेण रक्षतः ॥ ४६ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-शत्रुसूदन जनमेजय ! धर्मपूर्वक प्रजाकी रक्षा करनेवाले राजा कार्तवीर्यके प्रभावसे उसके राज्यमें किसीकी धन-सम्पत्ति या दूसरी कोई वस्तु नष्ट नहीं होती थी ॥ ४६ ॥

रामात् ततोऽस्य मृत्युर्वै तस्य शापान्मुनेर्नृप ।
वरश्चैव हि कौरव्य स्वयमेव वृतः पुरा ॥ ४७ ॥
कुरुवंशी नरेश ! वसिष्ठ मुनिके शापसे ही परशुरामके हाथसे उसकी मृत्यु हुई थी । उसने स्वयं ही पहले इसी तरहका वर माँगा था ॥ ४७ ॥

तस्य पुत्रशतस्यासन्पञ्च शेषा महात्मनः ।
कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्मात्मानो यशस्विनः ॥ ४८ ॥
महामना कार्तवीर्यके सौ पुत्र थे, किंतु उनमें पाँच ही शेष बचे । वे सभी अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता, बलवान्, शूर, धर्मात्मा और यशस्वी थे ॥ ४८ ॥

शूरसेनश्च शूरश्च धृष्टोक्तः कृष्ण एव च ।
जयध्वजश्च नाम्नाऽऽसीदावन्त्यो नृपतिर्महान् ॥ ४९ ॥
उनके नाम ये हैं-शूरसेन, शूर, धृष्ट, कृष्ण और जयध्वज । इनमें जयध्वज अवन्तीदेशके महाराज थे ॥ ४९ ॥

कार्तवीर्यस्य तनया वीर्यवन्तो महारथाः ।
जयध्वजस्य पुत्रस्तु तालजङ्घो महाबलः ॥ ५० ॥
कार्तवीर्यक ये सभी पुत्र बलवान् और महारथी थे । जयध्वजके पुत्र महाबली तालजङ्घ हुए ॥ ५० ॥

तस्य पुत्राः शतं ख्यातास्तालजङ्घा इति श्रुताः ।
तेषां कुले महाराज हैहयानां महात्मनाम् ॥ ५१ ॥
वीतिहोत्राः सुजाताश्च भोजाश्चावन्तयः स्मृताः ।
तौण्डिकेरा इति ख्यातास्तालजङ्घास्तथैव च ॥ ५२ ॥
भरताश्च सुता जाता बहुत्वान्नानुकीर्तिताः ।
वृषप्रभृतयो राजन् यादवाः पूर्णकर्मिणः ॥ ५३ ॥
तालजङ्कके सौ पुत्र थे, जो तालजङ्घ नामसे ही विख्यात थे । महाराज ! महामनस्वी हैहयोंके कुलमें वौतिहोत्र, सुजात, भोज, अवन्ति, तौण्डिकेर, तालजङ्ग तथा भरत आदि क्षत्रियोंके समुदाय उत्पन्न हुए । इनकी संख्या बहुत होनेके कारण इनके पृथक्-पृथक् नाम नहीं बताये गये । राजन् ! वृष आदि बहुत-से पुण्यात्मा यादव इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे ॥ ५१-५३ ॥

वृषो वंशधरस्तत्र तस्य पुत्रोऽभवन्मधुः ।
मधोः पुत्रशतं त्वासीद् वृषणस्तस्य वंशभाक् ॥ ५४ ॥
उनमें वृष वंशप्रवर्तक हुए । वृषके पुत्र मधु थे । मधुके सौ पुत्र हुए, जिनमें वृषण वंश चलानेवाले हुए ॥ ५४ ॥

वृषणाद् वृष्णयः सर्वे मधोस्तु माधवाः स्मृताः ।
यादवा यदुना चाग्रे निरुच्यन्ते च हैहयाः ॥ ५५ ॥
वृषणसे जो संतान-परम्परा चली, उसके अन्तर्गत सभी क्षत्रिय वृष्णि कहलाये और मधुके वंशज माधव नामसे प्रसिद्ध हुए । इसी प्रकार यदुके नामपर उस वंशके लोग यादव कहलाते हैं तथा आगे होनेवाले हैहयके वंशज हैहय कहे जाते हैं ॥ ५५ ॥

न तस्य वित्तनाशोऽस्ति नष्टं प्रतिलभेच्च सः ।
कार्तवीर्यस्य यो जन्म कीर्तयेदिह नित्यशः ॥ ५६ ॥
जो यहाँ प्रतिदिन कार्तवीर्य अर्जुनके जन्मका वृत्तान्त कहता या सुनता है, उसके धनका नाश नहीं होता और उसकी खोयी हुई वस्तु भी उसे मिल जाती है ॥ ५६ ॥

एते ययातिपुत्राणां पञ्च वंशा विशाम्पते ।
कीर्तिता लोकवीराणां ये लोकान् धारयन्ति वै ॥ ५७ ॥
भूतानीव महाराज पञ्च स्थावरजङ्गमान् ।
श्रुत्वा पञ्चविसर्गं तु राजा धर्मार्थकोविदः ॥ ५८ ॥
वशी भवति पञ्चानामात्मजानां तथेश्वरः ।
लभेत्पञ्च वरांश्चैव दुर्लभानिह लौकिकान् ॥ ५९ ॥
आयुः कीर्तिं तथा पुत्रानैश्वर्यं भूमिमेव च ।
धारणाच्छ्रवणाच्चैव पञ्चवर्गस्य भारत ॥ ६० ॥
प्रजानाथ ! इस प्रकार ये विश्वविख्यात वीर ययातिपुत्रों के पाँच वंश यहाँ बतलाये गये हैं । महाराज ! जैसे पाँचों भूत स्थावर, जङ्गम प्राणियोंके शरीरोंको धारण करते हैं, उसी प्रकार ये पाँचों वंश समस्त लोकोंको धारण करते हैं । इन पाँचों वंशोंकी सृष्टिका वर्णन सुनकर राजा धर्म और अर्थके तत्त्वका ज्ञाता होता है, अपनी पाँचों इन्द्रियोंको वशमें रखता है तथा अपने पुत्रोंपर प्रभुत्व स्थापित कर लेता है । भरतनन्दन ! इन पाँचों वंशोंके श्रवण और धारणसे मनुष्य इस जगत्में आयु, कीर्ति, पुत्र, ऐश्वर्य तथा भूमि-इन पाँच लोकोपयोगी दुर्लभ वरोंको प्राप्त कर लेता है ॥ ५७-६० ॥

क्रोष्टोस्तु शृणु राजेन्द्र वंशमुत्तमपौरुषम् ।
यदोर्वंशधरस्याथ यज्वनः पुण्यकर्मणः ॥ ६१ ॥
क्रोष्टुर्हि वंशं श्रुत्वेमं सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
यस्यान्ववायजो विष्णुर्हरिर्वृष्णिकुलोद्वहः ॥ ६२ ॥
राजेन्द्र ! अब तुम उत्तम पुरुषार्थसे युक्त क्रोष्टुवंशका वर्णन सुनो । राजा क्रोष्टु यदुके वंशधर, यज्ञ करनेवाले तथा पुण्यकर्मा थे । उनके इस वंशका वर्णन सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । राजा क्रोष्ट वे ही हैं, जिनके कुलमें सर्वव्यापी भगवान् श्रीहरिने वृष्णिवंशावतंस श्रीकृष्णके रूपमें अवतार लिया था ॥ ६१-६२ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे
हरिवंशपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें तैतीसर्वा अध्याय पूरा हुआ




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