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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः


कृष्णवंशवर्णनम्
श्रीकृष्णका अवतार लेना, श्रीकृष्णके अन्य भाई-बहिनों और कुटुम्बियोंका वर्णन तथा कालयवनकी उत्पत्ति


वैशम्पायन उवाच
याः पत्न्यो वसुदेवस्य चतुर्दश वराङ्गनाः ।
पौरवी रोहिणी नाम इन्दिरा च तथा वरा ॥ १ ॥
वैशाखी च तथा भद्रा सुनाम्नी चैव पञ्चमी ।
सहदेवा शान्तिदेवा श्रीदेवा देवरक्षिता ॥ २ ॥
वृकदेव्युपदेवी च देवकी चैव सप्तमी ।
सुतनुर्बडवा चैव द्वे एते परिचारिके ॥ ३ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! वसुदेवजीकी जो चौदह सुन्दराङ्गी पत्नियाँ थीं, उनमें रोहिणी और रोहिणीसे छोटी इन्दिरा, वैशाखी, भद्रा तथा पाँचवीं सुनाम्नी-ये पाँच पौरववंशकी थीं तथा सहदेवा, शान्तिदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, वृकदेवी, उपदेवी तथा सातवी देवकीये सात देवककी पुत्रियाँ थी तथा सतनु और वडवाये दो उनकी परिचर्या करनेवाली स्त्रियाँ थीं ॥ १-३ ॥

पौरवी रोहिणी नाम बाह्लिकस्यात्मजाभवत् ।
ज्येष्ठा पत्नी महाराज दयिताऽऽनकदुन्दुभेः ॥ ४ ॥
महाराज ! पौरववंशकी कुमारी रोहिणी (महाराज शन्तनुके बड़े भाई) बाहिककी पुत्री थीं, वे वसुदेवजीकी प्रियतमा बड़ी पत्नी थीं ॥ ४ ॥

लेभे ज्येष्ठं सुतं रामं सारणं शठमेव च ।
दुर्दमं दमनं श्वभ्रं पिण्डारकमुशीनरम् ॥ ५ ॥
चित्रां नाम कुमारीं च रोहिणी तनया दश ।
चित्रा सुभद्रेति पुनर्विख्याता कुरुनन्दन ॥ ६ ॥
कुरुनन्दन ! रोहिणीके ज्येष्ठ पुत्र बलराम और (उनसे छोटे) सारण, शठ, दुर्दम, दमन अभ्र, पिण्डारक और उशीनर हुए तथा चित्रा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । (यह चित्रा एक अप्सरा थी, जो रोहिणीके गर्भसे उत्पन्न होते ही मर गयी थी । इसने मरते समय अपनेको धिक्कारा था कि मैं यादवकुलमें जन्म धारण करके भी यदुवंशमें उत्पन्न होनेवाले भगवान्की लीलाको न देख सकी । इस वासनाके कारण) यह चित्रा ही दूसरी बार सुभद्रा बनकर उत्पन्न हुई । इस प्रकार रोहिणीके दस संतानें उत्पन्न हुई ॥ ५-६ ॥

वसुदेवाच्च देवक्यां जज्ञे शौरिर्महायशाः ।
रामाच्च निशठो जज्ञे रेवत्यां दयितः सुतः ॥ ७ ॥
वसुदेवसे देवकीद्वारा महायशस्वी श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए और बलरामजीसे रेवतीके द्वारा उनके प्रिय पुत्र निशठ उत्पन हुए ॥ ७ ॥

सुभद्रायां रथी पार्थादभिमन्युरजायत ।
अक्रूरात्काशिकन्यायां सत्यकेतुरजायत ॥ ८ ॥
अर्जुनसे सुभद्राद्वारा रथी अभिमन्यु उत्पन्न हुए और अक्रूरसे काशिराजकुमारीद्वारा सत्यकेतु उत्पन्न हुए ॥ ८ ॥

वसुदेवस्य भार्यासु महाभागासु सप्तसु ।
ये पुत्रा जज्ञिरे शूरा नामतस्तान्निबोध मे ॥ ९ ॥
वसुदेवजीकी सात महाभाग्यवती पजियोंसे जो शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए, उनके नाम मैं आपसे कहता है, सुनिये ॥ ९ ॥

भोजश्च विजयश्चैव शान्तिदेवासुतावुभौ ।
वृकदेवः सुनामायां गदश्चास्तां सुतावुभौ ॥ १० ॥
भोज और विजय-ये दो शान्तिदेवाके पुत्र थे तथा वृकदेव और गद-ये दो सुनाम्नीके पुत्र थे ॥ १० ॥

उपासङ्गवरं लेभे तनयं देवरक्षिता ।
अगावहं महात्मानं वृकदेवी व्यजायत ॥ ११ ॥
देवरक्षिताके पुत्र उपासङ्गवर हुए और वृकदेवीके पुत्र महात्मा अगावह हुए ॥ ११ ॥

कन्या त्रिगर्तराजस्य भर्ता वै शैशिरायणः ।
जिज्ञासां पौरुषे चक्रे न चस्कन्देऽथ पौरुषम् ॥ १२ ॥
वृकदेवी त्रिगर्तराजकी कन्या थीं । त्रिगर्तराजका भर्ता (पुरोहित) गर्गगोत्री शैशिरायण था । उसके सालेने, जो यादवोंका पुरोहित था, यह जानना चाहा कि इसमें पुंस्त्व है अथवा नहीं, परंतु (व्रतधारी होनेसे) उसका वीर्य स्खलित नहीं हुआ (इसपर उसके सालेने हास्यवश उसको मिथ्या ही नपुंसक घोषित कर दिया) ॥ १२ ॥

कृष्णायससमप्रख्यो वर्षे द्वादशमे तथा ।
मिथ्याभिशप्तो गार्ग्यस्तु मन्युनाभिसमीरितः ॥ १३ ॥
बारह वर्षका नियम पूर्ण होनेपर मिथ्या ही नपुंसकताका दोष लगाये जानेके कारण गर्गगोत्री शैशिरायण क्रोधमें भर गये, इससे उनके शरीरका वर्ण लोहेके समान काला दीखने लगा ॥ १३ ॥

गोपकन्यामुपादाय मैथुनायोपचक्रमे ।
गोपाली त्वप्सरास्तस्य गोपस्त्रीवेषधारिणी ॥ १४ ॥
उन्होंने एक गोपकन्याके साथ सहवास किया । वह स्त्री गोप-स्त्रीका वेश धारण करनेवाली गोपाली नामकी अप्सरा थी ॥ १४ ॥

धारयामास गार्ग्यस्य गर्भं दुर्धरमच्युतम् ।
मानुष्यां गार्ग्यभार्यायां नियोगाच्छूलपाणिनः ॥ १५ ॥
स कालयवनो नाम जज्ञे राजा महाबलः ।
वृषपूर्वार्धकायास्तमवहन् वाजिनो रणे ॥ १६ ॥
उसने गार्य शैशिरायणके अच्युत और दुर्धर वीर्यको धारण कर लिया । उस मनुष्यका वेश धारण करनेवाली गार्ग्यकी भार्यासे शिवजीकी आज्ञासे कालयवन नामक प्रसिद्ध महाबली राजा उत्पन्न हुआ था, बैलोंके समान आधे शरीरवाले घोड़े युद्धमें उसके वाहन बनते थे ॥ १५-१६ ॥

अपुत्रस्य स राज्ञस्तु ववृधेऽन्तःपुरे शिशुः ।
यवनस्य महाराज स कालयवनोऽभवत् ॥ १७ ॥
महाराज ! एक यवन राजा संतानहीन था, उसके अन्तः पुरमें वह बालक पलने लगा । इस प्रकार वह कालयवनके नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ १७ ॥

स युद्धकामी नृपतिः पर्यपृच्छद् द्विजोत्तमान् ।
वॄष्णन्धककुलं तस्य नारदोऽकथयद् विभुः ॥ १८ ॥
वह राजा युद्ध करनेकी इच्छासे प्रेरित हो ब्राह्मणोंसे (अपने समान योद्धाओंको) पूछने लगा । सब जगह पहुँचनेवाले नारदजीने उसे वृष्णि और अन्धककुलके वीरोंको उसके समान योद्धा बताया ॥ १८ ॥

अक्षौहिण्या तु सैन्यस्य मथुरामभ्ययात् तदा ।
दूतं सम्प्रेषयामास वृष्ण्यन्धकनिवेशनम् ॥ १९ ॥
तब वह एक अक्षौहिणी सेना लेकर मथुरापुरीपर चढ़ आया । उसने वृष्णि और अन्धकोंके भवनमें दूतको भेजा ॥ १९ ॥

ततो वॄष्ण्यन्धकाः कृष्णं पुरस्कृत्य महामतिम् ।
समेता मन्त्रयामासुर्यवनस्य भयात् तदा ॥ २० ॥
तब कालयवनके डरसे वृष्णि और अन्धकोंने महामति श्रीकृष्णके सभापतित्वमें इकट्ठे होकर मन्त्रणा की ॥ २० ॥

कृत्वा च निश्चयं सर्वे पलायनपरायणाः ।
विहाय मथुरां रम्यां मानयन्तः पिनाकिनम् ॥ २१ ॥
कुशस्थलीं द्वारवतीं निवेशयितुमीप्सवः ।
इति कृष्णस्य जन्मेदं यः शुचिर्नियतेन्द्रियः ।
पर्वसु श्रावयेद् विद्वाननृणः स सुखी भवेत् ॥ २२ ॥
तब वे सब निश्चय करके शिवजीकी मनौती मानते हुए कुशस्थली द्वारकाको बसानेकी इच्छासे रमणीय मथुरापुरीको त्यागकर भाग खड़े हुए । जो विद्वान् पुरुष इन्द्रियोंको वशमें करके पवित्र होकर श्रीकृष्णके जन्मको इस कथाको पर्वके समय सुनाता है, उसका ऋण चुक जाता है और उसको परम सुखकी प्राति होती है ॥ २१-२२ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
श्रीकृष्णजन्मानुकीर्तनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अनात हरिवंशपर्वमें श्रीकृष्णजन्मकीर्तनविषयक पैतीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५ ॥




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