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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
षट्त्रिंशोऽध्यायः


क्रोष्टुवंशवर्णनम्
क्रोष्टाके वंशका वर्णन, पुरोहितके गोत्रसे क्षत्रियोंके गोत्रका बदल जाना


वैशम्पायन उवाच
क्रोष्टोरेवाभवत् पुत्रो वृजिनीवान् महायशाः ।
वृजिनीवत्सुतश्चापि स्वाहिः स्वाहाकृतं वरः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! (यदुके पुत्र) क्रोष्टाके ही एक वृजिनीवान् नामक महायशस्वी पुत्र हुए: वृजिनीवान्के पुत्र स्वाहि हुए, वे स्वाहा अर्थात् होम करनेवालोंमें श्रेष्ठ थे (जिस प्रकार क्रोष्टाके वंशमें श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए. उसी प्रकार क्रोष्टाके वंशमें सत्यभामा आदि भी हुई क्षत्रियों में एक कुलके होनेपर भी सात पीढ़ियाँ बीत जानेके बाद पुरोहितके गोत्रसे यजमान क्षत्रियका भी गोत्र बदल जाता है और इस प्रकार गोत्रभेदसे उनमें विवाह हो जाते हैं । इस अध्याबमें क्रोष्टाके वंशकी उस शाखाका वर्णन किया जायगा, जिसमें महालक्ष्मीको अवताररूपा ईश्वरी शक्ति श्रीरुक्मिणीजी उत्पन्न हुई थी) ॥ १ ॥

स्वाहिपुत्रोऽभवद् राजा रुषद्गुर्वदतां वरः ।
महाक्रतुभिरीजे यो विविधैर्भूरिदक्षिणैः ॥ २ ॥
सुतप्रसूतिमन्विच्छन् रुषद्गुः सोऽग्र्यमात्मजम् ।
जज्ञे चित्ररथस्तस्य पुत्रः कर्मभिरन्वितः ॥ ३ ॥
स्वाहिके पुत्र रुषद्गु हुए, वे अच्छे बोलनेवाले थे और बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अनेक प्रकारके महायज्ञ करते रहते थे । उनकी यह इच्छा थी कि मेरे यहाँ पुत्र-पौत्रोंबाला श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हो; इस प्रकार पुत्रेष्टि आदि यज्ञकर्म करते-करते उनके यहाँ चित्ररथ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ २-३ ॥

आसीच्चैत्ररथिर्वीरो यज्वा विपुलदक्षिणः ।
शशबिन्दुः परं वृत्तं राजर्षीणामनुष्ठितः ॥ ४ ॥
चित्ररथके पुत्र वीर शशबिन्दु हुए, वे बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञ करके राजर्षियोंके श्रेष्ठ आचरणका पालन करते रहते थे ॥ ४ ॥

पृथुश्रवाः पृथुयशा राजासीऽऽच्छशबिन्दुजः ।
शंसन्ति च पुराणज्ञाः पार्थश्रवसमुत्तरम् ॥ ५ ॥
शशबिन्दुके पुत्र महायशस्वी राजा पृथुश्रवा हुए, पुराणोंके जाननेवाले कहते हैं कि पृथु अवाके पुत्र उत्तर हुए ॥ ५ ॥

अनन्तरं सुयज्ञस्तु सुयज्ञतनयोऽभवत् ।
उशतो यज्ञमखिलं स्वधर्ममुशतां वरः ॥ ६ ॥
उत्तरके पुत्र सुयज्ञ हुए, सुयज्ञके पुत्र उशत हुए, कामना करनेवालोंमें श्रेष्ठ उशत अपने सम्पूर्ण धर्मों और यज्ञोंका अनुष्ठान सदा करना चाहते थे ॥ ६ ॥

शिनेयुरभवत् सूनुरुशतः शत्रुतापनः ।
मरुत्तस्तस्य तनयो राजर्षिरभवन्नृप ॥ ७ ॥
राजन् ! उशतके पुत्र शत्रुओंको संतप्त करनेवाले शिनेयु हुए, उनके पुत्र राजर्षि मरुत्त हुए ॥ ७ ॥

मरुत्तोऽलभत ज्येष्ठं सुतं कम्बलबर्हिषम् ।
चचार विपुलं धर्मममर्षात् प्रेत्यभागपि ॥ ८ ॥
मरुत्तके ज्येष्ठ पुत्र कम्बलबर्हिष हुए । जो धर्म मरणके अनन्तर फल देता है, अपने जीवनमें ही वह उस महान् धर्मका आचरण करने लगे ॥ ८ ॥

सुतप्रसूतिमिच्छन्वै सुतं कम्बलबर्हिषः ।
बभूव रुक्मकवचः शतप्रसवतः सुतः ॥ ९ ॥
कम्बलबर्हिष बेटों-पोतोंसे समृद्ध पुत्र पाना चाहते थे, उस धर्मानुष्ठानके फलरूप उनके रुक्मकवच नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सौ बालकोंमें अकेला बचा था ॥ ९ ॥

निहत्य रुक्मकवचः शतं कवचिनां रणे ।
धन्विनां निशितैर्बाणैरवाप श्रियमुत्तमाम् ॥ १० ॥
रुक्मकवचने युद्ध में धनुष और कवचको धारण करनेवाले सौ योद्धाओंको मारकर बड़ी भारी कीर्ति पायी थी ॥ १० ॥

जज्ञेऽथ रुक्मकवचात् पराजित् परवीरहा ।
जज्ञिरे पञ्च पुत्रास्तु महावीर्याः पराजितः ॥ ११ ॥
रुक्मकवचके पुत्र शत्रुवीरनाशक पराजित् हुए, पराजितके महावीर्यवान् पाँच पुत्र हुए ॥ ११ ॥

रुक्मेषुः पृथुरुक्मश्च ज्यामघः पलितो हरिः ।
पालितं च हरिं चैव विदेहेभ्यः पिता ददौ ॥ १२ ॥
(उनके नाम इस प्रकार हैं-) रुक्मेषु, पृथुरुक्म, ज्यामध, पालित और हरि । उनके पिता पराजित्ने पालित और हरिको विदेह देशका पालन करनेके लिये वहाँके राजाको दे दिया था ॥ १२ ॥

रुक्मेषुरभवद् राजा पृथुरुक्मस्य संश्रितः ।
ताभ्यां प्रव्राजितो राज्याज्ज्यामघोऽवसदाश्रमे ॥ १३ ॥
रुक्मेषु पृथुरुक्मका आश्रय लेकर राजा बन गया था, उन दोनोंने ज्यामघको राज्यसे निकाल दिया, तब ज्यामघ आश्रममें रहने लगा ॥ १३ ॥

प्रशान्तः स वनस्थस्तु ब्राह्मणैश्चावबोधितः ।
जिगाय रथमास्थाय देशमन्यं ध्वजी रथी ॥ १४ ॥
वह (वृद्ध होनेसे) शान्त होकर वनमें पड़ा रहता था, परंतु ब्राह्मणोंने तप आदिके द्वारा उसको बलवान् बना दिया; तब रथी ज्यामघने एक ध्वजावाले रथमें बैठकर एक दूसरे देशको जीत लिया ॥ १४ ॥

नर्मदाकूलमेकाकी नगरीं मृत्तिकावतीम् ।
ऋक्षवन्तं गिरिं जित्वा शुक्तिमत्यामुवास सः ॥ १५ ॥
उसने अकेले ही नर्मदाके किनारेकी मृत्तिकावती और ऋक्षवान् पर्वतको जीतकर शुक्तिमतीपुरीमें अपना निवास स्थान बनाया ॥ १५ ॥

ज्यामघस्याभवद् भार्या शैब्या बलवती सती ।
अपुत्रोऽपि च राजा स नान्यां भार्यामविन्दत ॥ १६ ॥
ज्यामघकी भार्या सती शैब्या बड़ी बलवती थी, इसलिये ज्यामघने पुत्रहीन होनेपर भी दूसरा विवाह नहीं किया ॥ १६ ॥

तस्यासीद् विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप सः ।
भार्यामुवाच संत्रस्तः स्नुषेति स नरेश्वरः ॥ १७ ॥
उसने एक युद्धमें विजय होनेपर एक कन्या प्राप्त की, उस नरेश्वरने डरकर अपनी भार्यासे उस कन्याको मुषा (पुत्रवधू) कह दिया ॥ १७ ॥

एतच्छ्रुत्वाब्रवीद् देवी कस्य चेयं स्नुषेति वै ।
अब्रवीत् तदुपश्रुत्य ज्यामघो राजसत्तमः ॥ १८ ॥
यह सुनकर पत्नीने पूछा-'यह किसकी पुत्रवधू है ?' तब राजसत्तम ज्यामघने प्रतिज्ञा करके कहा- ॥ १८ ॥

यस्ते जनिष्यते पुत्रः तस्य भार्योपदानवी ।
उग्रेण तपसा तस्याः कन्यायाः स व्यजायत ।
पुत्रं विदर्भं सुभगा शैब्या परिणता सती ॥ १९ ॥
तेरे जो पुत्र उत्पन्न होगा, यह उपदानवी कन्या उसकी भार्या होगी । उस उपदानवी कन्याकी उग्र तपस्याके प्रभावसे सौभाग्यवती शैब्याके बूड़ी होनेपर भी उसके विदर्भ नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १९ ॥

राजपुत्र्यां तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथकौशिकौ ।
पश्चाद्विदर्भोऽजनयच्छूरौ रणविशारदौ ॥ २० ॥
तदनन्तर विदर्भने उस राजकुमारीसे शूरवीर एवं रणविशारद क्रथ और कौशिक नामके दो विद्वान् पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ २० ॥

लोमपादं त्रितीयं तु पुत्रं परमधार्मिकम् ।
लोमपादात्मजो बभ्रुराह्वतिस्तस्य चात्मजः ॥ २१ ॥
तथा लोमपाद नामक एक तीसरे परम धार्मिक पुत्रको भी उत्पन्न किया । लोमपादके पुत्र बभ्रु हुए और उनके पुत्र हुए आइति ॥ २१ ॥

आह्वतेः कौशिकश्चैव विद्वान्परमधार्मिकः ।
चेदिः पुत्रः कौशिकस्य तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः ॥ २२ ॥
आह्वतिके पुत्र कौशिक हुए, वे विद्वान् और परम धार्मिक थे । कौशिकके पुत्र चेदि हुए, इस कारण उनके वंशके राजा वैद्य कहलाते हैं ॥ २२ ॥

भीमो विदर्भस्य सुतः कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् ।
कुन्तेर्धृष्टसुतो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान् ।
धृष्टस्य जज्ञिरे शूरास्त्रयः परमधार्मिकाः ॥ २३ ॥
आवन्तश्च दशार्हश्च बली विषहरश्च यः ।
दशार्हस्य सुतो व्योमा व्योम्नो जीमूत उच्यते ॥ २४ ॥
विदर्भका (चौथा) पुत्र भीम हुआ, भीमके पुत्र कुन्ति हुए, कुन्तिके रणमें ढीठ एवं प्रतापवान् धृष्ट नामक पुत्र हुए । धृष्टके शूरवीर एवं परम धार्मिक आवन्त, दशाह और बलवान् विषहर नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए । दशार्हके पुत्र व्योम हुए और व्योमके पुत्र जीमूत हुए ॥ २३-२४ ॥

जीमूतपुत्रो बृहतिस्तस्य भीमरथः सुतः ।
अथ भीमरथस्यासीत् पुत्रो नवरथस्तथा ॥ २५ ॥
जीमूतके पुत्र बृहति और उनके पुत्र भीमरथ हुए; भीमरथके पुत्र नवस्थ हुए ॥ २५ ॥

तस्य चासीद् दशरथाः शकुनिस्तस्य चात्मजः ।
तस्मात्करम्भः कारम्भिर्देवरातोऽभवन्नृपः ॥ २६ ॥
नवरथके पुत्र दशरथ हुए और दशरथके पुत्र शकुनि हुए । शकुनिके पुत्र करम्भ हुए और करम्भके पुत्र राजा देवरात हुए ॥ २६ ॥

देवक्षत्रोऽभवत् तस्य दैवक्षत्रिर्महायशाः ।
देवगर्भसमो जज्ञे देवक्षत्रस्य नन्दनः ॥ २७ ॥
मधूनां वंशकृद् राजा मधुर्मधुरवागपि ।
मधोर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां पुत्रो मरुवसास्तथा ॥ २८ ॥
देवरातके पुत्र देवक्षत्र हुए । देवक्षत्रको आनन्द देनेवाले महायशस्वी दैवक्षत्रि हुए, वे देवताओंके बालकोंके समान तेजस्वी थे । उनका नाम मधु था, उनकी वाणी भी मधुर थी, वे मधुवंशके प्रवर्तक राजा थे । मधुके वैदर्भीसे मरुवस नामक पुत्र उत्पन्न हुए ॥ २७-२८ ॥

आसीन्मरुवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।
मधुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रवत्यां कुरूद्वहः ॥ २९ ॥
ऐक्ष्वाकी चाभवद् भार्या सत्त्वांस्तस्यामजायत ।
सत्त्वान् सर्वगुणोपेतः सात्त्वतां कीर्तिवर्धनः ॥ ३० ॥
मरुतसके पुत्र पुरुषोत्तम पुरुद्वान् हुए । उन्हींके विदर्भ-राजकुमारी भद्रवतीसे कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाला मधु नामक पुत्र हुआ और इक्ष्वाकुवंशकी भार्यासे सत्त्वान् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । सत्त्वान् सर्वगुणसम्पत्र थे और अपने वंशमें सात्वतोंकी कीर्तिको बढ़ानेवाले थे ॥ २९-३० ॥

इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः ।
युज्यते परया कीर्त्या प्रजावांश्च भवेन्नरः ॥ ३१ ॥
मनुष्य महात्मा ज्यामपके इस वंशका परिचय प्राप्त कर परम कीर्ति पाता है और संतानवान् हो जाता है ॥ ३१ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे
हरिवंशपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें (ज्यामघके वंशका वर्णनविषयक) छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६ ॥




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