श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व षट्चत्वारिंशोऽध्यायः
दैत्यपराजयः
इन्द्रद्वारा चन्द्रमाकी स्तुति, चन्द्रदेव और वरुणदेवके द्वारा दैत्यसेनाका संहार, मयदानवद्वारा मायाका प्रयोग, पवन और अग्निदेवका दैत्यसेनाके साथ संग्राम और कालनेमिका रणमें आगमन
वैशंपायन उवाच एवमस्त्विति संहृष्टः शक्रस्त्रिदशवर्द्धनः । संदिदेशाग्रतः सोमं युद्धाय शिशिरायुधम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तब देवताओंकी उन्नति करनेवाले इन्द्र अति प्रसन्न होकर बोल उठे-'अच्छा, ऐसा ही होगा । ' तदनन्तर वे अपने सामने ही स्थित, हिमसे आयुधका काम लेनेवाले चन्द्रमाको समझाने लगे ॥ १ ॥
शक्र उवाच गच्छ सोम सहायत्वं कुरु पाशधरस्य वै । असुराणां विनाशाय जयाय च दिवौकसाम् ॥ २ ॥
इन्द्रने कहा-सोम ! आप जाइये और पाशधारी वरुणकी सहायता कीजिये । ऐसा करनेसे असुरोंका संहार और देवताओंकी विजय होगी ॥ २ ॥
त्वमप्रतिमवीर्यश्च ज्योतिषां चेश्वरेश्वरः । त्वन्मयं सर्वलोकानां रसं रसविदो विदुः ॥ ३ ॥
आपका पराक्रम अनुपम है । आप ग्रह-नक्षत्रोंके अधिपतियोंके भी अधिपति हैं । रसके तत्त्वको जाननेवाले विद्वानोंका यह अनुभब है कि सब प्राणियोंमें जो रस है, वह आपका ही है ॥ ३ ॥
क्षयवृद्धी तवाव्यक्ते सागरस्येव मण्डले । परिवर्तस्यहोरात्रं कालं जगति योजयन् ॥ ४ ॥
समुद्रके समान आपके मण्डलकी क्षय-वृद्धि सदा अव्यक्त रहती है । आप संसारमें कालको प्रवर्तित करते हुए दिन और रात्रिका परिवर्तन करते रहते हैं ॥ ४ ॥
लोकच्छायामयं लक्ष्म तवाङ्के शशसंज्ञितम् । न विदुः सोमदेवापि ये च नक्षत्रयोगिनः ॥ ५ ॥
सोम ! आपके अङ्क (मण्डलके मध्य)-में पृथ्वीलोकको छाया (प्रतिबिम्ब) ही शश नामक चिह्न है । नक्षत्रोंका विचार करनेवाले विद्वान् और चन्द्रोपासक भी आपको (वास्तविक रूपमें) नहीं जान सकते ॥ ५ ॥
त्वमादित्यपथादूर्ध्वं ज्योतिषां चोपरि स्थितः । तमश्चोत्सार्य वपुषा भासयस्यखिलं जगत् ॥ ६ ॥
आप आदित्यपथसे भी ऊर्ध्वदेशमें और सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डलोंक भी ऊपर स्थित रहते हैं । आप अपने (तेजोमय) शरीरके द्वारा अन्धकारको दूर कर समस्त संसारको प्रकाशित करते हैं । ६ ॥
श्वेतभानुर्हिमतनुर्ज्योतिषामधिपः शशी । अब्दकृत् कालयोगात्मा ईज्यो यज्ञरसोऽव्ययः ॥ ७ ॥
आपकी किरणें श्वेतवर्णकी हैं । आपका शरीर हिममय है । आप नक्षत्रोंके स्वामी, शशके चिहसे युक्त, संवत्सररूप (काल)-के रचयिता, कालयोगस्वरूप, पूजनीय, (वर्षा आदिके रूपमें) यज्ञके रस और अव्यय (प्रवाहरूपसे नित्य)हैं ॥ ७ ॥
ओषधीशः क्रियायोनिरम्भोयोनिरनुष्णभाक् । शीतांशुरमृताधारश्चपलः श्वेतवाहनः ॥ ८ ॥
आप (अनादि) ओषधियोंके स्वामी, क्रियाओं और जलके उत्पत्तिस्थान तथा स्वभावसे ही शीतलता धारण करनेवाले हैं । आपकी किरणें शीतल हैं । आप अमृतके आधार हैं, चपल हैं । आपका वाहन श्वेतवर्णका है ॥ ८ ॥
त्वं कान्तिः कान्तवपुषां त्वं सोमः सोमवृत्तिनाम् । सौम्यस्त्वं सर्वभूतानां तिमिरघ्नस्त्वमृक्षराट् ॥ ९ ॥
आप ही कान्तिमान् शरीरवाले नरनारियों और देवताओंकी कान्ति हैं और सोमसे जीविका चलानेवाले देवसमूहके लिये आप ही सोम हैं । आप सभी प्राणियोंके लिये सौम्य हैं, अन्धकारका नाश करनेवाले हैं तथा नक्षत्रोंके राजा हैं ॥ ९ ॥
तद्गच्छ त्वं सहानेन वरुणेन वरूथिना । शमयस्वासुरीं मायां यया दह्याम संगरे ॥ १० ॥
अत: आप सेना लेकर (बुद्धके लिये) तैयार खड़े हुए इन वरुणदेवके साथ जाइये और समराङ्गणमें जिससे हम जल रहे हैं, उस आसुरी मायाको शान्त कीजिये ॥ १० ॥
सोम उवाच न्मां वदसि युद्धार्थे देवराज जगत्पते । एष वर्षामि शिशिरं दैत्यमायापकर्षणम् ॥ ११ ॥
सोमने कहा-देवराज ! जगत्पते ! आप युद्धके लिये मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, उसके अनुसार मैं अभी दैत्योंकी मायाको नष्ट करनेके लिये हिमकी वर्षा करता हूँ ॥ ११ ॥
एतान्मच्छीतनिर्दग्धान् पश्य त्वं हिमवेष्टितान् । विमायान्विमदांश्चैव दानवांस्त्वं महामृधे ॥ १२ ॥
देखिये, इस महासमरमें ये दानव किस प्रकार मेरे बरसाये हुए ओलोंसे दग्ध होते हैं । हिमसे आवेष्टित होनेपर कैसे इनकी माया नष्ट होती है और किस तरह इनका सारा मद उतर जाता है ॥ १२ ॥
वैशंपायन उवाच ततो हिमकरोत्सृष्टाः सबाष्पा हिमवृष्टयः । वेष्टयन्ति स्म तान् घोरान् दैत्यान् मेघगणा इव ॥ १३ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर चन्द्रमाकी छोड़ी हुई सुन्दर भापसहित ओलोंकी वर्षाने मेघोंकी भाँति उन भयंकर दैत्योंको जकड़ना आरम्भ कर दिया ॥ १३ ॥
तौ पाशशुक्लांशुधरौ वरुणेन्दू महारणे । जघ्नतुर्हिमपातैश्च पातघातैश्च दानवान् ॥ १४ ॥
उस महायुद्धमें पाशधारी वरुण और श्वेत किरणोंवाले चन्द्रमा पाशसे मारकर और ओले गिराकर दानवोंका संहार करने लगे ॥ १४ ॥
द्वावम्बुनाथौ समरे तौ पाशहिमयोधिनौ । मृधे चेरतुरम्भोभिः क्षुब्धाविव महार्णवौ ॥ १५ ॥
पाश और हिमका प्रहार करनेवाले वे दोनों जलके स्वामी वरुण और सोम जलकी वर्षा करते हुए क्षोभमें भरे हुए दो समुद्रोंके समान संग्राममें विचरने लगे ॥ १५ ॥
ताभ्यामाप्लावितं सैन्यं तद्दानवमदृश्यत । जगत् संवर्तकाम्भोधैः प्रवृष्टैरिव संवृतम् ॥ १६ ॥
उन दोनोंके द्वारा की गयीं जलवर्षासे आप्लावित हुई वह दानवोंकी सेना प्रलयकालमें प्रबल वर्षा करनेवाले संवर्तक मेघोंके द्वारा अनन्त जलराशिमें डुबाये गये जगत्के समान दीखने लगी ॥ १६ ॥
तावुद्यतांशुपाशौ द्वौ शशाङ्कवरुणौ रणे । शमयामासतुर्मायां देवौ दैतेयनिर्मिताम् ॥ १७ ॥
(इस प्रकार) चन्द्रदेव और वरुणदेव दोनों उस युद्ध में अपनी किरणों और पाशोंका प्रयोग करके दैत्योंकी रची हुई मायाका शमन करने लगे ॥ १७ ॥
शीतांशुजलनिर्दग्धाः पाशैश्च प्रसिता रणे । न शेकुश्चलितुं दैत्या विशिरस्का इवाद्रयः॥ १८ ॥
शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाके (हिम) जलसे अकड़े हुए और (वरुणके) पाशोंसे जकड़े हुए दैत्य रणमें शिखरहीन पर्वतोंकी भाँति हिल-डुल भी न सके ॥ १८ ॥
शीतांशुनिहतास्ते तु पेतुर्दैत्या हिमार्दिताः । हिमप्रावृतसर्वाङ्गा निरूष्माण इवाग्नयः ॥ १९ ॥
शीतरश्मि चन्द्रमाकी मार खाकर हिमसे पीड़ित हुए दैत्य पृथ्वीपर गिरने लगे । उनके सारे अङ्ग बर्फसे ढक गये थे । उस समय वे उष्णतारहित अग्निके समान जान पड़ते थे ॥ १९ ॥
तेषां तु दिवि दैत्यानां विपरीतप्रभाणि च । विमानानि विचित्राणि निपतन्त्युत्पतन्ति च ॥ २० ॥
फिर तो स्वर्गमें दैत्योंके विचित्र विमान प्रभाहीन होकर गिरने और गिरकर उछलने लगे ॥ २० ॥
तान् पाशहस्तग्रथिताञ्च्छादितान् हिमरश्मिना । मयो ददर्श मायावी दानवान्दिवि दानवः ॥ २१ ॥
मायावी दानव मयने देखा कि स्वर्गमें बहुत-से दानवोंको पाशधारी वरुणने जकड़ लिया है और बहुतोंको शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाने बर्फसे ढक दिया है ॥ २१ ॥
स शिलाजालविततां गण्डशैलाट्टहासिनीम् । पादपोत्कटकूटाग्रां कन्दराकीर्णकाननाम् ॥ २२ ॥ सिंहव्याघ्रगजाकीर्णां नदन्तीमिव यूथपैः । ईहामृगगणाकीर्णां पवनाघूर्णितद्रुमाम् ॥ २३ ॥ निर्मितां स्वेन पुत्रेण क्रौञ्चेन दिवि कामगाम् । प्रसृतां पार्वतीं मायां ससृजे दानवोत्तमः ॥ २४ ॥
तब उस दानव-शिरोमणिने स्वर्गमें अपने पुत्र क्रौचके द्वारा निर्मित सुप्रसिद्ध पार्वती मायाको प्रकट किया, जो इच्छानुसार सर्वत्र पहुँच जानेवाली थी । वह शिलाओंका विशाल जाल-सा बिछा देती थी, भारीभारी चट्टानोंको गिराकर उनके धमाकेकी आवाजके रूपमें मानो अट्टहास करती थी । उन शिलाओंके शिरोभाग वृक्षोंके कारण खुरदरे हो रहे थे । उस पार्वती मायाके काननप्रान्त गुफाओंसे व्याप्त थे । वहाँ सिंह, व्याघ्र और बड़े-बड़े गजराज भरे हुए थे । यूथपतियोंके चिम्घाड़ने या दहाड़नेके शब्दसे मानो वह माया सिंहनाद-सा करती प्रतीत होती थी । उस मायामयी पर्वतमालामें सब ओर भेड़िये भरे थे । वहाँके वृक्ष प्रचण्ड वायुके झोंके खाकर झूम रहे थे ॥ २२-२४ ॥
साश्मशब्दैः शिलावर्षैः संपतद्भिश्च पादपैः । निजघ्ने देवसङ्घांस्तान् दानवांश्चाप्यजीवयत् ॥ २५ ॥
उस पार्वती मायाने चट्टानोंके टकरानेकी आवाजसे, पत्थरोंकी वर्षासे और गिरते हुए वृक्षसमूहोंसे देवसमुदायको मारना आरम्भ किया । इससे दैत्योंके जीमें-जी आया ॥ २५ ॥
नैशाकरी वारुणी च मायेन्तर्दधतस्ततः । अश्मभिश्चायसघनैः किर्णा देवगणा रणे ॥ २६ ॥
उस दैत्यकी मायाके प्रभावसे वरुण और चन्द्रमा-दोनोंकी मायाएँ अदृश्य हो गयीं । रणभूमिमें देवताओंपर प्रस्तर और लोहेके घन बरसने लगे ॥ २६ ॥
साश्मसङ्घातविषमा द्रुमपर्वतसङ्कटा । अभवद्घोरसञ्चारा पृथिवी पर्वतैरिव ॥ २७ ॥
जैसे पर्वतोंके कारण वहाँकी भूमिपर चलना कठिन हो जाता है, उसी प्रकार वहाँ गिरे हुए शिलाखण्डोंके समूहसे विषम और वृक्ष एवं पर्वतोंके बिछ जानेसे संकीर्ण हुई उस रणभूमिमें चलना-फिरना दूभर हो गया था ॥ २७ ॥
नानाहतोऽश्मभिः कश्चिच्छिलाभिश्चाप्यताडितः । नानिरुद्धो द्रुमगणैर्देवोऽदृश्यत संयुगे ॥ २८ ॥
उस युद्ध में ऐसा कोई देवता नहीं दिखायी देता था, जिसके शरीरपर पत्थरोंसे चोट न आयी हो, जिसपर शिलाओंकी मार न पड़ी हो तथा जो सब ओर गिरे हुए वृक्षसमूहोंसे अवरुद्ध न हो गया हो ॥ २८ ॥
तदपभ्रष्टधनुषं भग्नप्रहरणाविलम् । निष्प्रयत्नं सुरानीकं वर्जयित्वा गदाधरम् ॥ २९ ॥
उस समय भगवान् गदाधरको छोड़कर शेष देवताओंकी वह सारी सेना निरुपाय एवं निशेष्ट हो गयी थी । सबके हाथसे धनुष नीचे गिर गये थे और आयुधोंक टूट जानेसे सबके मुखपर मलिनता छा गयी थी ॥ २९ ॥
स हि युद्धगतः श्रीमानीशो न स्म व्यकम्पत । सहिष्णुत्वाज्जगत्स्वामी न चुक्रोध गदाधरः ॥ ३० ॥
अवश्य ही युद्धमें विराजमान श्रीमान् भगवान् विष्णु उस समय भी कम्पित नहीं हुए और सहनशील होनेके कारण उन जगत्पति भगवान् गदाधरको क्रोध भी नहीं आया ॥ ३० ॥
कालज्ञः कालमेघाभः समैक्षत् कालमाहवे । देवासुरविमर्दं स द्रष्टुकामो जनार्दनः ॥ ३१ ॥
श्याम मेघकी-सी कान्तिवाले और समयको पहचाननेवाले भगवान् जनार्दन युद्धमें समयको बाट देखने लगे । वे देवता और असुरोंकी मुठभेड़ देखना चाहते थे ॥ ३१ ॥
ततो भगवताऽऽदिष्टौ रणे पावकमारुतौ । शमनार्थं प्रवृद्धाया मायाया मयसृष्टया ॥ ३२ ॥
उधर मयदानवकी रची हुई माया रणभूमिमें उत्तरोत्तर बढ़ रही थी । उसे शान्त करनेके लिये भगवान्ने अग्नि और वायुको आज्ञा दी (कि तुम दोनों इस मायाको नष्ट करो) ॥ ३२ ॥
ततः प्रवृद्धावन्योन्यं प्रवृद्धौ ज्वालवाहिनौ । चोदितौ विष्णुवाक्येन तां मायां व्यपकर्षताम् ॥ ३३ ॥
तब एक-दूसरेके सहयोगसे बढ़े हुए तथा प्रबुद्ध होकर ज्वालाओंका भार वहन करनेवाले वे दोनों देवता भगवान् विष्णुकी आज्ञासे प्रेरित होकर उस मायाको दूर करने लगे ॥ ३३ ॥
ताभ्यामुद्भ्रान्तवेगाभ्यां प्रवृद्धाभ्यां महाहवे । दग्धा सा पार्वती माया भस्मीभूता ननाश ह ॥ ३४ ॥
प्रवृद्ध होकर महायुद्धमें बवंडरकी तरह वेगसे घूमते हुए पावक और पवनदेवने उस पार्वती मायाको भस्म कर डाला । अत: वह नष्ट हो गयी ॥ ३४ ॥
सोऽनिलोऽनलसंयुक्तः सोऽनलश्चानिलाकुलः । दैत्यसेनां ददहतुर्युगान्तेष्विव मूर्च्छितौ ॥ ३५ ॥
प्रलयकालकी भाँति वायुका संयोग पाकर प्रबल हुए अग्निदेवने और अग्निका संयोग पाकर बढ़े हुए वायुदेवने दानवसेनाको भस्म करना आरम्भ किया ॥ ३५ ॥
वायुः प्रधावितस्तत्र पश्चादग्निश्च मारुतात् । चेरतुर्दानवानीके क्रीडन्तावनलानिलौ ॥ ३६ ॥
रणभूमिमें पहले तो वेगसे आँधी चली और फिर वायुसे प्रज्वलित होकर अग्नि वेगपूर्वक फैलने लगी । (इस प्रकार) अग्निदेव और पवनदेव दोनों दानवोंकी सेनामें क्रीड़ा करते हुए विचरने लगे ॥ ३६ ॥
भस्मावयवभूतेषु प्रपतत्सूत्पतत्सु च । दानवेषु विनष्टेषु कृतकर्मणि पावके ॥ ३७ ॥
(फिर क्या था ?) दानवलोग भस्म हो-होकर गिरने लगे और (वायुके वेगसे) उनकी राख उड़ने लगी । इस प्रकार अग्निका काम पूरा हुआ ॥ ३७ ॥
वातस्कन्धापविद्धेषु विमानेषु समन्ततः । मायाबन्धे विनिर्वृत्ते स्तूयमाने गदाधरे ॥ ३८ ॥
(इधर) वायुके प्रचण्ड वेगसे आहत हो विमान सब ओर टूट-टूटकर गिरने लगे । मायाका बन्धन नष्ट हो गया तथा भगवान् विष्णुको स्तुति होने लगी ॥ ३८ ॥
निष्प्रयत्नेषु दैत्येषु त्रैलोक्ये मुक्तबन्धने । संप्रहृष्टेषु देवेषु साधु साध्विति सर्वशः ॥ ३९ ॥
दानवोंके प्रयत्र निष्फल हो गये, त्रिलोकीका बन्धन जाता रहा और देवता सब ओर अत्यन्त हर्षमें भरकर 'साधु-साधु' कहने लगे ॥ ३९ ॥
जये दशशताक्षस्य मयस्य च पराजये । दिक्षु सर्वासु शुद्धासु प्रवृत्ते धर्मसंस्तरे ॥ ४० ॥
सहस्त्रनेत्रधारी इन्द्रकी विजय हुई और मय दानवकी पराजय । सम्पूर्ण दिशाएँ शुद्ध हो गयीं और सब ओर धर्मका विस्तार होने लगा ॥ ४० ॥
अपावृत्ते चन्द्रपथे अयनस्थे दिवाकरे । प्रकृतिस्थेषु लोकेषु नृषु चारित्रबन्धुषु ॥ ४१ ॥
चन्द्रमाका मार्ग प्रशस्त हो गया । सूर्य अपने मार्गमें स्थित हुए । तीनों लोक अपनी स्वाभाविक स्थितिमें स्थित हो गये और मनुष्य सदाचारको ही अपना बन्धु (सहायक) मानने लगे ॥ ४१ ॥
अभिन्नबन्धने मृत्यौ हूयमाने हुताशने । यज्ञभागिषु देवेषु स्वर्गार्थं दर्शयत्सु च ॥ ४२ ॥
मृत्युकी मर्यादा नियत हो गयी । अग्रिहोत्रका कार्य ठीक दंगसे चलने लगा । देवता यज्ञोंमें भाग पाने तथा स्वर्गका मार्ग दिखाने लगे ॥ ४२ ॥
लोकपालेषु सर्वेषु दिक्षु संयानवर्तिषु । भावे तपसि शुद्धानामभावे दुष्टकर्मिणाम् ॥ ४३ ॥
समस्त लोकपाल अपनी-अपनी दिशामें निर्भय होकर विचरने लगे । शद्वात्मा पुरुष तपस्या में प्रवृत्त हो अभ्युदयके भागी होने लगे तथा दुराचारी मनुष्योंका विनाश होने लगा ॥ ४३ ॥
देवपक्षे प्रमुदिते दैत्यपक्षे विषीदति । त्रिपादविग्रहे धर्मे अधर्मे पादविग्रहे ॥ ४४ ॥
देवताओंका दल प्रसन्न रहने लगा । दैत्योंके समुदायपर विषाद छा गया । धर्मके तीन पैर जम गये और अधर्मका एक ही पैर शेष रह गया ॥ ४४ ॥
अपावृते महाद्वारे वर्तमाने च सत्पथे । स्वधर्मस्थेषु वर्णेषु लोकेऽस्मिन्नाश्रमेषु च ॥ ४५ ॥
जिसपर चलनेवाले पुरुषोंके लिये मोक्षका महान् द्वार खुल जाता है, वह सत्पुरुषोंका मार्ग पुनः चालू हो गया । इस जगत्में चारों वर्णों और चारों आश्रमोंके लोग अपने-अपने धर्मका पालन करने लगे ॥ ४५ ॥
प्रजारक्षणयुक्तेषु भ्राजमानेषु राजसु । गीयमानासु गाथासु देवसंस्तवनादिषु ॥ ४६ ॥
सभी नरेश प्रजापालनमें तत्पर रहकर विशेष शोभा पाने लगे । देवताओंकी स्तुतिसे युक्त गाथाओंका सब ओर गान होने लगा ॥ ४६ ॥
प्रशान्तकलुषे लोके शान्ते तपसि दारुने । अग्निमारुतयोस्तस्मिन् वृत्ते संग्रामकर्मणि ।
सब लोगोंका कलुष शान्त हो गया, दारुण या कठोर तपस्या शान्त एवं मृदुल तपके रूपमें परिणत हो गयी । अग्नि और वायुदेवका वह युद्धविषयक महान पराक्रम जब पूर्ण हो गया, तब निर्मल (प्रसन) हुए जगत्में उन्हींकी प्रधानता हो गयी क्योंकि उनकी विजयने लोगोंका प्रिय कार्य किया था ॥ ४७ ॥
तन्मया विमला लोकास्ताभ्यां जयकृतप्रियाः ॥ ४७ ॥ पूर्वदेवभयं श्रुत्वा मारुताग्निकृतं महत् ॥ ॥
अग्नि और वायुने दैत्योंपर महान् भय उपस्थित कर दिया है-यह सुनकर 'कालनेमि' नामसे विख्यात दानव उनके सामने आया ॥ ४८ ॥
कालनेमिरिति ख्यातो दानवः प्रत्यदृश्यत ॥ ४८ ॥ भास्कराकारमुकुटः शिञ्जिताभरणाङ्गदः ।
उसके मस्तकपर सूर्यके समान तेजस्वी मुकुट शोभा दे रहा था । उसने पैर आदिमें खन-खन शब्द करनेवाले नूपुर आदि आभूषण तथा भुजाओंमें बाजूबन्द धारण कर रखे थे । बहुमूल्य चाँदीके कवचसे आवृत होनेके कारण वह मन्दराचलसा प्रतीत हो रहा था ॥ ४९ ॥
मन्दराचलसंकाशो महारजतसंवृतः ॥ ४९ ॥ शतप्रहरणोदग्रः शतबाहुः शताननः ।
उसने अपनी सौ भुजाओंमें उतने ही आयुध धारण किये थे, इसलिये वह अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था । उसके मुख भी सौ ही थे । सौं मस्तकोंसे युक्त वह तेजस्वी दानव जब खड़ा होता था, उस समय सौ शिखरोंसे सुशोभित पर्वतके समान जान पड़ता था ॥ ५० ॥
शतशीर्षा स्थितः श्रीमाञ्चतशृङ्ग इवाचलः ॥ ५० ॥ कक्षे महति संवृद्धो हिमान्त इव पावकः ॥ ५१ ॥
इतना ही नहीं, वह ग्रीष्म ऋतुमें सूखे वृक्षोंसे भरे हुए विशाल वनके भीतर प्रचलित हुए दावानलके समान देदीप्यमान हो रहा था ॥ ५१ ॥
धूम्रकेशो हरिच्छ्मश्रुर्दंष्ट्रालोष्टपुटाननः । त्रैलोक्यान्तरविस्तारो धारयन्विपुलं वपुः ॥ ५२ ॥
उसके केश धूम्रवर्णके थे; किंतु मूंछे हरे रंगकी दिखायी देती थीं । उसकी दाढ़ें ओठोंसे बाहर निकली हुई थी, जिससे उसके मुखकी अद्भुत शोभा होती थी । उसने ऐसा विशाल शरीर धारण कर रखा था, जो तीनों लोकोंमें फैला हुआसा प्रतीत होता था ॥ ५२ ॥
बाहुभिस्तुलयन् व्योम क्षिपन् पद्भ्यां महीधरान् । ईरयन्मुखनिःश्वासैर्वृष्टिमन्तो बलाहकाः ॥ ५३ ॥
वह अपनी भुजाओंसे आकाशको तौल रहा था, पैरोंकी ठोकरोंसे कितने ही पर्वतोंको दूर फेंक देता था और मुखके निःश्वासोंसे वर्षा करनेवाले बादलोंको उड़ा देता था ॥ ५३ ॥
तिर्यगायतरक्ताक्षं मन्दरोदग्रवर्चसम् । दिधक्षन्तमिवायान्तं सर्वान् देवगणान् मृधे ॥ ५४ ॥
उसके नेत्र विशाल और लाल थे । वह तिरछी दृष्टि से देखा करता था । मन्दर अर्थात् स्वर्गलोकके सर्वश्रेष्ठ देवता देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी जान पड़ता था । उसे देखकर ऐसा लगता था, मानो वह युद्धमें सम्पूर्ण देवताओंको भस्म कर डालनेकी इच्छासे आ रहा हो ॥ ५४ ॥
तर्जयन्तं सुरगणांश्छादयन्तं दिशो दश । संवर्तकाले क्षुधितं दृप्तं मृत्युमिवोत्थितम् ॥ ५५ ॥
वह देवताओंको डाँट बताता और दसों दिशाओंको आच्छादित करता आ रहा था । ऐसा जान पड़ता था मानो प्रलयकालमें दर्पसे भरा हुआ भूखा काल उठ खड़ा हुआ हो ॥ ५५ ॥
सुतलेनोच्छ्रितवता विपुलाङ्गुलिपर्वणा । माल्याभरणपूर्णेन किञ्चिच्चलितवर्मणा ॥ ५६ ॥ उच्छ्रितेनाग्रहस्तेन दक्षिणेन वपुष्मता । दानवान् देवनिहतानुत्तिष्ठध्वमिति ब्रुवन् ॥ ५७ ॥
जिसकी हथेली बहुत सुन्दर थी, अँगुलियोंके पर्व पुष्ट थे, जो मालाकार आभूषण (बलय)-से सुशोभित था तथा जिसका कवच कुछ खिसक गया था, ऐसे ऊँचे उठाये हुए मोटे-ताजे दाहिने हाथके अग्रभागसे वह देवताओंकी मार खाकर गिरे हुए दानवोंको उठनेका संकेत करके कह रहा था, कि (वीरो !) उठकर खड़े हो जाओ ॥ ५६-५७ ॥
तं कालनेमिं समरे द्विषतां कालसन्निभम् । वीक्षन्ति स्म सुराः सर्वे भयविक्लवमानसाः ॥ ५८ ॥
शत्रुओंके लिये कालके समान भयंकर वह कालनेमि नामक दानव जब समरभूमिमें आया, उस समय वहाँ खड़े हुए समस्त देवता भयभीत चित्तसे उसकी ओर देखने लगे ॥ ५८ ॥
तं स्म वीक्षन्ति भूतानि क्रमन्तं कालनेमिनम् । त्रिविक्रमं विक्रमन्तं नारायणमिवापरम् ॥ ५९ ॥
ऊँचे-ऊंचे पग उठाकर आक्रमण करते हुए उस कालनेमिको समस्त प्राणियोंने त्रिविक्रमरूपसे तीनों लोकोंको नापनेके लिये पैर बढ़ाते हुए दूसरे नारायणके समान देखा ॥ ५९ ॥
सोच्छ्रयन् प्रथमं पादं मारुताघूर्णिताम्बरः । प्राक्रामदसुरो युद्धे त्रासयन् सर्वदेवताः ॥ ६० ॥
सम्पूर्ण देवताओंको त्रास देते हुए उस असुरने जब बुद्धमें अपना पहला कदम उठाकर रखा, उस समय हवाके झोंकेसे उसके वस्त्र फहराने लगे ॥ ६० ॥
समयेनासुरेन्द्रेण परिष्वक्तः क्रमन् रणे । कलनेमिर्बभौ दैत्यः विष्णुनेव पुरन्दरः ॥ ६१ ॥
रणभूमिमें विचरते हुए उस दानवराजको असुरराज मयने आगे बढ़कर हृदयसे लगा लिया । उस समय मयके साथ कालनेमि दैत्यकी वैसे ही शोभा हुई, जैसे भगवान् विष्णुसे देवराज इन्द्र सुशोभित होते हैं ॥ ६१ ॥
अथ विव्यथिरे देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः । दृष्ट्वा कालमिवायान्तं कालनेमिं भयावहम् ॥ ६२ ॥
कालके समान भयंकर कालनेमिको आते देख इन्द्र आदि सब देवता भयसे व्यथित हो उठे ॥ ६२ ॥
इति श्रीमन्महाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि कालनेमिप्रक्रमणे षड्चत्वारिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशले अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें कालनेमिका आक्रमणविषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४६ ॥
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