श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः
देवासुरसङ्ग्रामवर्णनम्
देवासुर-संग्राम एवं और्व अग्निकी उत्पत्ति
वैशंपायन उवाच ताभ्यां बलाभ्यां संजज्ञे तुमुलो विग्रहस्तदा । सुराणामसुराणां च परस्परजयैषिणाम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! एक-दूसरेपर विजय पानेकी इच्छावाले देवताओं और असुरोंकी उन सेनाओंमें उस समय घोर युद्ध आरम्भ हो गया ॥ १ ॥
दानवा दैवतैः सार्धं नानाप्रहरणोद्यताः । समीयुर्युध्यमाना वै पर्वताः पर्वतैरिव ॥ २ ॥
दानव-सैनिक नाना प्रकारके हथियार उठाये देवताओंके साथ युद्ध करते हुए उनसे भिड़ गये, मानो एक श्रेणीके पर्वत दूसरी श्रेणीके पर्वतोंसे टकरा रहे हैं ॥ २ ॥
तत्सुरासुरसंयुक्तं युद्धमत्यद्भुतं बभौ । धर्माधर्मसमायुक्तं दर्पेण विनयेन च ॥ ३ ॥
देवताओं और असुरोंका वह तुमुल युद्ध अत्यन्त अद्भुत प्रतीत होता था, मानो धर्म और अधर्म परस्पर जूझ रहे हों, दर्प और विनय एक-दूसरेसे लड़ रहे हों ॥ ३ ॥
ततो रथैः प्रजविभिर्वाहनैश्च प्रचोदितैः । उत्पतद्भिश्च गगनं सासिहस्तैः समन्ततः ॥ ४ ॥ विक्षिप्यमाणैर्मुसलैः सं प्रेष्यद्भिश्च सायकैः । चापैर्विस्फार्यमाणैश्च पात्यमानैश्च मुद्गरैः ॥ ५ ॥ तद्युद्धमभवद्घोरं देवदानवसंकुलम् । जगतस्त्रासजननं युगसंवर्तकोपमम् ॥ ६ ॥
तदनन्तर रथोंके वेगपूर्वक दौड़ने, घोड़ोंके एड लगाकर भगाये जाने, चारों ओर तलवार हाथमें लिये योद्धाओंके आकाशमें उछलने, मुसलोंके फेंके जाने, बाणोंके चलाने, धनुषोंके खींचे जाने और मुद्रोंके गिराये जानेसे देवताओं और दानवोंसे भरा हुआ बह घोर युद्ध प्रलयकालकी अग्रिके समान सम्पूर्ण जगत्को त्रास देने लगा ॥ ४-६ ॥
स्वहस्तमुक्तैः परिघैः क्षिप्यमाणैश्च पर्वतैः । दानवा समरे जघ्नुर्देवानिन्द्रपुरोगमान् ॥ ७ ॥
उस समराङ्गणमें समस्त दानव अपने हाथोंसे छोड़े गये परिषों और फेंके जाते हुए पर्वतशिखरोंकी चोटसे इन्द्र आदि देवताओंको घायल करने लगे ॥ ७ ॥
ते वध्यमाना बलिभिर्दानवैर्जितकाशिभिः । विषण्णमनसो देवा जग्मुरार्तिं पराम् मृधे ॥ ८ ॥
युद्धस्थलमें अपनी विजयसे उल्लसित एवं सुशोभित होनेवाले महाबली दानवोंकी मार खाकर समस्त देवता मन-ही-मन खिन्न हो उठे, उन्हें बड़ी पीड़ा हुई ॥ ८ ॥
तेऽस्त्रजालैः प्रमथिताः परिघैर्भिन्नमस्तकाः । भिन्नोरस्का दितिसुतैर्वेमू रक्तं व्रणैर्बहु ॥ ९ ॥
दैत्योंने अपने अस्त्रसमूहोंसे देवताओंको मथ डाला, परिघोंकी मारसे उनके मस्तक फोड़ डाले और वक्षःस्थल विदीर्ण कर दिये । उस समय देवता अपने घावोंसे बहुत रक्त बहा रहे थे ॥ ९ ॥
स्पन्दिताः पाशजालैश्च नियत्नाश्च शरैः कृताः । प्रविष्ट दानवीं मायां न शेकुस्ते विचेष्टितुम् ॥ १० ॥
दैत्योंने फन्दोंके जाल बिछाकर देवताओंको निरुपाय कर दिया और बाणोंके प्रहारसे उन्हें इतना घायल कर दिया कि वे अपने अङ्गोंसे रक्तकी धारा बहाने लगे । दानवोंकी मायाके वशीभूत होकर वे हिलने-डुलनेकी भी शक्ति खो बैठे ॥ १० ॥
संस्तम्भितमिवाभाति निष्प्राणसदृशाकृति । बलं सुराणामसुरैर्निष्प्रयत्नायुधं कृतम् ॥ ११ ॥
असुरोंने देवताओंकी सेनाके सारे प्रयत्न और आयुध निष्फल कर दिये । उस समय वह सेना मन्त्रशक्तिसे स्तम्भित की हुई-सी प्रतीत होती थी, प्राणशून्य मुर्देजैसे दिखायी देती थी ॥ ११ ॥
मायापाशान् विकर्षंश्च भिन्दन् वज्रेण ताञ्शरान् । शक्रो दैत्यबलं घोरं विवेश बहुलोचनः ॥ १२ ॥
तब बहुसंख्यक नेत्रोंसे सुशोभित होनेवाले देवराज इन्द्रने अपने वजसे दैत्योंके माया-पाशोंको हटाते और उनके चलाये हुए बाणोंको काटते हुए उनकी घोर सेनामें प्रवेश किया ॥ १२ ॥
स दैत्यान् प्रमुखे हत्वा तद् दानवबलं महत् । तामसेनास्त्रजालेन तमोभूतमथाकरोत् ॥ १३ ॥
उन्होंने सामने खड़े हुए दैत्योंको मारकर दानवोंकी उस विशाल वाहिनीपर तामसास्त्रका जाल-सा बिछा दिया और उसे अन्धकारसे अभिभूत कर डाला ॥ १३ ॥
तेऽन्योन्यं नावबुध्यन्त देवान् वा दानवानपि । घोरेण तमसाऽऽविष्टाः पुरुहूतस्य तेजसा ॥ १४ ॥
इन्द्रके प्रभावसे घोर अन्धकारमें डूबे हुए दैत्य न तो आपसमें ही किसीको जान पाते थे और न देवताओं अथवा दानवोंको ही पहचान पाते थे ॥ १४ ॥
मायापाशैर्विमुक्ताश्च यत्नवन्तः सुरोत्तमाः । वपूंषि दैत्यसङ्घानां तमोभूतान्यपातयन् ॥ १५ ॥
दैत्योंके मायापाशसे मुक्त हुए श्रेष्ठ देवताओंने प्रयत्नशील होकर उन दैत्यसमूहोंके अन्धकारसे आच्छन हुए शरीरोंको धरतीपर गिराना आरम्भ किया ॥ १५ ॥
अपध्वस्ता विसंज्ञाश्च तमसा नीलवर्चसः । पेतुस्ते दानवगणाश्छिन्नपक्षा इवाचलाः ॥ १६ ॥
अन्धकारसे नीली कान्ति धारण करनेवाले वे दानव देवताओंकी मार खाकर मूञ्छित हो पंख कटे हुए पर्वतोंके समान धराशायी होने लगे ॥ १६ ॥
दैत्यानां तद्घनीभूतमन्धकारमहार्णवम् । प्रविष्टं बलमुत्त्रस्तं तमोभूतमिवाबभौ ॥ १७ ॥
अन्धकारके महासागरमें डूबी हुई दैत्योंकी वह घनीभूत सेना अत्यन्त भयभीत हो गयी और स्वयं तमोमयी-सी प्रतीत होने लगी ॥ १७ ॥
तदासृजन्महामायां मयस्तां तामसीं दहन् । युगान्ताग्निमिवात्युग्रां सृष्टामौर्वेण वह्निना ॥ १८ ॥
तब मय नामक दानवने इन्द्रके द्वारा फैलायी हुई उस तामसी मायाको नष्ट करते हुए एक महामायाकी सृष्टि की, जो और्व नामक अग्नि (बड़वानल)-के द्वारा रची गयी थी और प्रलयकालकी अग्निके समान अत्यन्त भयंकर थी ॥ १८ ॥
सा ददाह तमः सर्वं माया मयविकल्पिता । दैत्याश्च दीप्तवपुषः सद्य उत्तस्थुराहवे ॥ १९ ॥
मयके द्वारा फैलायी हुई उस मायाने सारे अन्धकारको जलाकर भस्म कर दिया; फिर तो दैत्योंके शरीर दमक उठे और वे तत्काल युद्धके लिये खड़े हो गये ॥ १९ ॥
मायामौर्वीं समासाद्य दह्यमाना दिवौकसः । भेजिरे चन्द्रविषयं शीतांशुसलिलेशयात् ॥ २० ॥
अब तो देवतालोग और्वी मायाके सम्पर्कमें आकर दग्ध होने लगे और ठंढे जलमें शयन करनेके लिये चन्द्रमाके समीप गये ॥ २० ॥
ते दह्यमाना ह्यौर्वेण तेजसा भ्रष्टतेजसः । शशंसुर्वज्रिणे देवाः संतप्ताः शरणैषिणः ॥ २१ ॥
वे सब देवता और्वके तेजसे झुलसकर अपना तेज खो बैठे । उन्होंने अत्यन्त संतप्त होकर शरण पानेकी इच्छासे इन्द्रके पास जाकर पुकार की ॥ २१ ॥
संतप्ते मायया सैन्ये दह्यमाने च दानवैः । चोदितो देवराजेन वरुणो वाक्यमब्रवीत् ॥ २२ ॥
जब मयासुरको मायासे सारी सेना संतप्त हो उठी और दानव भी उसे जलाने लगे, तब देवराजके द्वारा उसकी शान्तिके लिये प्रेरित होनेपर वरुणने इस प्रकार कहा ॥ २२ ॥
वरुण उवाच पुरा ब्रह्मर्षिजः शक्र तपस्तेपेऽतिदारुणम् । ऊर्वो मुनिः स तेजस्वी सदृशो ब्रह्मणो गुणैः ॥ २३ ॥
वरुण बोले-देवेन्द्र ! पूर्वकालमें ऊर्व नामसे प्रसिद्ध एक तेजस्वी मुनि थे, जो ब्रह्मर्षि भृगुके पुत्र थे । वे गुणोंमें ब्रह्माजीके समान थे । उन्होंने अत्यन्त दारुणा तप करना आरम्भ किया ॥ २३ ॥
तं तपन्तमिवादित्यं तपसा जगदव्ययम् । उपतस्थुर्मुनिगणा देवा ब्रह्मर्षिभिः सह ॥ २४ ॥
जैसे सूर्य इस अव्यय (प्रवाहरूपसे सदा रहनेवाले) जगत्को सदा तपाते रहते हैं, उसी प्रकार वे भी अपनी तपस्यासे सबको ताप देने लगे । तब ब्रह्मर्षियोसहित देवता और मुनिगण उनके पास आये ॥ २४ ॥
हिरण्यकशिपुश्चैव दानवो दानवेश्वरः । ऋषिं विज्ञापयामास पुरा परमतेजसम् ॥ २५ ॥
दानव हिरण्यकशिपु भी, जो समस्त दानवोंका स्वामी था, किसी समय उन परम तेजस्वी महर्षिके पास आया और उनसे शान्तिके लिये प्रार्थना करता रहा; यह प्राचीन कालकी बात है ॥ २५ ॥
तमूचुर्ब्रह्मऋषयो वचनं ब्रह्मसंमितम् । ऋषिवंशेषु भगवञ्छिन्नमूलमिदं कुलम् ॥ २६ ॥
ब्रह्मर्षियोंने उनसे यह वेदतुल्य बात कही-'भगवन ! ऋषियोंके वंशोंमें आपके इस कुलकी जड़ कट-सी गयी है' ॥ २६ ॥
एकस्त्वमनपत्यश्च गोत्रं यन्नानुवर्तसे । कौमारं व्रतमास्थाय क्लेशमेवानुवर्तसे ॥ २७ ॥
एकमात्र आप ही अपने कुलमें बचे हैं और आपके कोई संतान नहीं है तो भी आप गोत्रका अनुसरण नहीं करते हैं-उसकी परम्पराको बनाये रखनेके लिये कोई प्रयत्न नहीं करते हैं । केवल नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका व्रत धारण करके तपस्याजनित क्लेशका ही अनुगमन कर रहे हैं ॥ २७ ॥
बहूनि विप्रगोत्राणि मुनीनां भावितात्मनाम् । एकदेहानि तिष्ठन्ति विभक्तानि विना प्रजाः ॥ २८ ॥
'विप्रवर ! विशुद्ध अन्त:करणवाले मुनियों के बहुत से ऐसे गोत्र या कुल हैं, जो एक शरीर (एक व्यक्ति)-पर ही अवलम्बित रहे हैं और संतान न होनेके कारण जड़से अलग होकर नष्ट हो गये हैं ॥ २८ ॥
कुलेषु छिन्नमूलेषु तेषु नो नास्ति कारणम् । भवांस्तु तपसा श्रेष्ठः प्रजापतिसमद्युतिः ॥ २९ ॥
मूलके ही नष्ट हो जानेसे उन कुलोंकी वृद्धिका हमारे देखनेमें कोई कारण नहीं रह गया है, परंतु आप तो (अपनी भावी वंशपरम्पराके मूलरूपमें विद्यमान ही हैं । आपके रहते इस कुलका उच्छेद नहीं होना चाहिये । आप) तपकी दृष्टिसे श्रेष्ठ हैं और तेज एवं कान्तिमें भी प्रजापतियोंके तुल्य हैं ॥ २९ ॥
तत्प्रवर्तस्व वंशाय वर्धयात्मानमात्मना । त्वमाधत्स्वोर्जितं तेजो द्वितीयां वै तनुं कुरु ॥ ३० ॥
अत: आप अपने वंशको चलानेका उद्योग कीजिये और अपने द्वारा अपने-आपको बढ़ाइये । अपने ओजस्वी तेज (वीर्य) का (योग्य पत्नीमें) आधान कीजिये और ऐसा करके पुत्ररूपमें अपने दूसरे शरीरको प्रकट कीजिये ॥ ३० ॥
स एवमुक्तो मुनिभिर्मुनिर्मनसि ताडितः । जगर्हे ताणृषिगणान् वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३१ ॥
उन महर्षियोंके ऐसा कहनेपर ऊर्व मुनिके हृदयमें गहरा धक्का लगा । वे उन ऋषियोंकी निन्दा करने लगे और इस प्रकार बोले- ॥ ३१ ॥
यथायं शाश्वतो धर्मो मुनीनां विहितः पुरा । सदाऽऽर्षं सेवतां कर्म वन्यमूलफलाशिनाम् ॥ ३२ ॥
महात्माओ ! जो वनके फलमूल खाकर रहते हैं और सदा आर्षशास्त्रोंमें बताये हुए सत्कर्मका सेवन करते हैं, उन हम जैसे ऋषि-मुनियोंके लिये तो प्राचीन कालसे इस तप एवं ब्रह्मचर्यरूप सनातनधर्मका ही विधान किया गया है ॥ ३२ ॥
ब्रह्मयोनौ प्रसूतस्य ब्राह्मणस्यानुवर्तिनः । ब्रह्मचर्यं सुचरितं ब्रह्माणमपि चालयेत् ॥ ३३ ॥
ब्राहाणकुलमें उत्पन्न होकर ब्राह्मण-धर्मका अनुसरण करनेवाले द्विजके द्वारा इस ब्रह्मचर्य-व्रतका यदि भलीभाँत आचरण किया जाय तो यह ब्रह्माजीको भी विचलित कर सकता है ॥ ३३ ॥
द्विजानां वृत्तयस्तिस्रो ये गृहाश्रमवासिनः । अस्माकं तु वनं वृत्तिर्वनाश्रमनिवासिनाम् ॥ ३४ ॥
'जो गृहस्थ-आश्रममें निवास करते हैं, उन ब्राह्मणों के लिये ही शास्त्रमें यज्ञ कराना, वेद पढ़ाना और दान ग्रहण करना-ये तीन वृत्तियाँ बतायी गयी हैं । हम-जैसे कध्वरेता वनवासियोंके लिये तो वनके फल-मूल ही जीविकाके साधन हैं ॥ ३४ ॥
अम्बुभक्षा वायुभक्षा दन्तोलूखलिकास्तथा । अश्मकुट्टा दशनपाः पञ्चातपतपाश्च ये ॥ ३५ ॥
कुछ लोग केवल जल या वायु पीकर ही रहते हैं, कुछ दाँतोंसे ही ओखली और मूसलका काम लेते हैं अर्थात् दाँत रहनेपर भूसीसहित नीवार आदिको चबा लेते हैं । ये ही 'दशनप' कहलाते हैं । परंतु जिनके दाँत नहीं हैं, वे पत्थरोंसे ही कूटपीसकर वन्य वस्तुओंको खाते हैं । कुछ पञ्चाग्रिके तापका सेवन करते हैं । ॥ ३५ ॥
एते तपसि तिष्ठन्तो व्रतैरपि सुदुष्करैः । ब्रह्मचर्यं पुरस्कृत्य प्रार्थयन्ते परां गतिम् ॥ ३६ ॥
ये अत्यन्त दुष्कर व्रतोंका आचरण करते हुए भी तपस्यामें लगे रहते और मुख्यतः ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करके उत्कृष्ट गतिको पाना चाहते हैं ॥ ३६ ॥
ब्रह्मचर्याद् ब्राह्मणस्य ब्राह्मणत्वं विधीयते । एवमाहुः परे लोके ब्रह्ह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ ३७ ॥
ब्रह्मचर्यके पालनसे ही ब्राह्मणको ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति होती है । इसी तरह ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंका कहना है कि ब्रह्मचर्वका पालन ही परलोकमें ब्रह्मकी प्राप्तिका मुख्य साधन है ॥ ३७ ॥
ब्रह्मचर्ये स्थितं धैर्यं ब्रह्मचर्ये स्थितं तपः । ये स्थिता ब्रह्मचर्येषु ब्राह्मणास्ते दिवि स्थिताः ॥ ३८ ॥
ब्रह्मचर्यमें धैर्यकी स्थिति है और ब्रह्मचर्यमें ही तप प्रतिष्ठित है । जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य में दृढ़तापूर्वक स्थित हैं, वे ब्रह्मलोकमें ही विराजमान हैं ॥ ३८ ॥
नास्ति योगं विना सिद्धिः नास्ति सिद्धिं विना यशः । नास्ति लोके यशोमूलं ब्रह्मचर्यात् परं तपः ॥ ३९ ॥
योगके बिना सिद्धि नहीं मिलती और सिद्धिके बिना यश नहीं प्राप्त होता है । यशका मूल कारण है तप; परंतु इस जगत्में ब्रह्मचर्यसे बढ़कर दूसरा कोई तप नहीं है ॥ ३९ ॥
तन्निगृह्येन्द्रियग्रामं भूतग्रामं च पञ्चमम् । ब्रह्मचर्येण वर्तेत किमतः परमं तपः ॥ ४० ॥
अतः इन्द्रिय-समुदायको तथा शब्द आदि सूक्ष्म भूतरूप उसके विषयसमूहको वशमें करके ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक रहे । इससे बढ़कर और कौन-सा तप हो सकता है ? ॥ ४० ॥
अयोगे केशहरणमसङ्कल्पे व्रतक्रिया । अब्रह्मचर्ये चर्या च त्रयं स्याद् दम्भसंज्ञितम् ॥ ४१ ॥
अवश्यकर्तव्य ध्यानरूप योगके अभावमें भी सिर मुड़ा लेना, परलोक सुधारनेका संकल्प न रहनेपर भी केवल लोकरंजनके लिये कृच्छ्र आदि व्रतोंका आचरण करना तथा ब्रह्मकी प्राप्तिको लक्ष्य बनाकर नियमित वेदाध्ययनके बिना ही ब्रह्मचर्यक नियमोंका आश्रय लेना-ये तीनों दम्भ कहलाते हैं ॥ ४१ ॥
क्व दाराः क्व च संयोगः क्व च भावविपर्ययः । यदेयं ब्रह्मणा सृष्टा मनसा मानसी प्रजा ॥ ४२ ॥
जब ब्रह्माजीने मनके द्वारा मानसी प्रजा (सनत्कुमार आदि)की सृष्टि की थी, उस समय स्त्री कहाँ थी ? स्त्रीपुरुषका संयोग कहाँ था ? और चित्तकी विकृति (कामातुरता) भी कहाँ थी ? ॥ ४२ ॥
यद्यस्ति तपसो वीर्यं युष्माकममितात्मनाम् । सृजध्वं मानसान् पुत्रान् प्राजापत्येन कर्मणा ॥ ४३ ॥
महर्षियो ! आपलोग अमेय आत्मवलसे सम्पन्न हैं, यदि आपमें तपस्याकी शक्ति हो तो आप प्रजापतिके समान कर्म करके मानसिक पुत्र उत्पन्न करें' ॥ ४३ ॥
मनसा निर्मिता योनिराधातव्या तपस्विना । न दारयोगं बीजं वा व्रतमुक्तं तपस्विनाम् ॥ ४४ ॥
'तपस्वीको तो अपने मनसे कल्पित योनिमें ही मानसिक संकल्पसे गर्भाधान करना चाहिये । स्त्रीके साथ संयोग अथवा वीर्यका आधान-यह तपस्वी पुरुषोंका नियम नहीं बताया गया है ॥ ४४ ॥
यदिदं लुप्तधर्मार्थं युष्माभिरिह निर्भयैः । व्याहृतं सद्भिरत्यर्थमसद्भिरिव मे मतिः ॥ ४५ ॥
आपलोग सज्जन हैं तो भी निरे असजनोंके समान आपने निःशङ्क होकर यहाँ यह धर्म और अर्थसे शून्य बात कह डाली है, ऐसा मेरा विचार है ॥ ४५ ॥
वपुर्दीप्तान्तरात्मानमेष कृत्वा मनोमयम् । दारयोगं विना स्रक्ष्ये पुत्रमात्मतनूरुहम् ॥ ४६ ॥
अच्छा ! देखिये, मैं अभी मनोमय वपु (योनि)-का निर्माण करके स्त्री सहवासके बिना ही अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाले ऐसे पुत्रकी सृष्टि कर रहा हूँ, जिसकी अन्तरात्मा अत्यन्त उद्दीप्त होगी ॥ ४६ ॥
एवमात्मानमात्मा मे द्वितीयं जनयिष्यति । वन्येनानेन विधिना दिधक्षन्तमिव प्रजाः ॥ ४७ ॥
इस प्रकार मेरा यह शरीर वनवासीके लिये उचित इस विधानके द्वारा ही मेरे दूसरे स्वरूप (पुत्र)-को जन्म देगा, जो समस्त प्रजाको जलाकर भस्म कर देनेकी इच्छा रखता होगा ॥ ४७ ॥
ऊर्वस्तु तपसाऽऽविष्टो निवेश्योरुं हुताशने । ममन्थैकेन दर्पेण पुत्रस्य प्रभवारणिम् ॥ ४८ ॥
ऐसा कहकर तपके आवेशमें भरे हुए ऊर्व मुनिने अपनी जाँघको अग्निमें डाल दिया और पुत्रकी उत्पत्तिके लिये अरणिरूप उस जाँघको एक कुशसे मथने लगे ॥ ४८ ॥
तस्योरुं सहसा भित्त्वा ज्वालामाली निरिन्धनः । जगतो निधनाकाङ्क्षी पुत्रोऽग्निः समपद्यत ॥ ४९ ॥
उस समय सहसा उनके करु (जाँघ) का भेदन करके एक अग्निस्वरूप पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बिना ईंधनके ही ज्वालामालाओंसे अलंकृत था । वह समस्त संसारके विनाशकी इच्छा रखता था ॥ ४९ ॥
ऊर्वस्योरुं विनिर्भिद्य और्वो नामान्तकोऽनलः । ॥ दिधक्षन्निव लोकांस्त्रीञ्जज्ञे परमकोपनः ॥ ५० ॥
ऊर्वकी जाँघको चीरकर जो वह लोक-विनाशक परम क्रोधी अनल प्रकट हुआ था, वह और्वके नामसे विख्यात हुआ । उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह तीनों लोकोंको दग्ध कर डालना चाहता हो ॥ ५० ॥
उत्पन्नमात्रश्चोवाच पितरं दीप्तया गिरा । क्षुधा मे बाधते तात जगद् भक्षे त्यजस्व माम् ॥ ५१ ॥
उसने उत्पन्न होते ही प्रदीप्त वाणीमें अपने पितासे कहा-'तात ! मुझे भूख सता रही है, मेरे आहारके लिये यह सम्पूर्ण जगत् मुझे अर्पित कर दीजिये' ॥ ५१ ॥
त्रिदिवारोहिभिर्ज्वालैर्जृम्भमाणो दिशो दश । निर्दहन्निव भूतानि ववृधे सोऽन्तकोऽनलः ॥ ५२ ॥
वह कालरूप अनि समस्त प्राणियोंको दग्ध-सा करता हुआ बढ़ने लगा । अपनी स्वर्गतक पहुँचनेवाली चालाओंके द्वारा वह दसों दिशाओंमें फैलता जा रहा था ॥ ५२ ॥
एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा सर्वलोकपतिः प्रभुः । आजगाम मुनिर्यत्र व्यसृजत् पुत्रमुत्तमम् ॥ ५३ ॥
इसी बीचमें सब लोकोंके स्वामी भगवान् ब्रह्मा उस स्थानपर आ पहुंचे, जहाँ ऊर्व मुनिने अपने श्रेष्ठ पुत्रको उत्पन्न किया था ॥ ५३ ॥
स ददर्शोरुपूर्वस्य दीप्यमानं सुताग्निना । और्वकोपाग्निसंतप्ताँल्लोकांश्च ऋषिभिः सह । तमुवाच ततो ब्रह्मा मुनिमूर्वं सभाजयन् ॥ ५४ ॥
उन्होंने देखा कि ऊर्वकी जाँघ पत्ररूप अग्रिसे देदीप्यमान हो रही है और और्वको क्रोधाग्निसे ऋषियोंसहित तीनों लोक संतप्त हो उठे हैं ॥ ५४ ॥
धार्यतां पुत्रजं तेजो लोकानां हितकाम्यया । अस्यापत्यस्य ते विप्र करिष्ये साह्यमुत्तमम् ॥ ५५ ॥
तब ब्रह्मा ऊर्व मुनिका सत्कार करते हुए उनसे कहने लगे-'विप्रवर ! तुम लोकोंका हित करनेकी इच्छासे अपने पुत्रके तेजको रोके रहो । मैं तुम्हारे इस पुत्रकी उत्तम सहायता करूँगा' ॥ ५५ ॥
वासं चास्य प्रदास्यामि प्राशनं चामृतोपमम् । तथ्यमेतन्मम वचः शृणु त्वं वदतां वर ॥ ५६ ॥
'वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! तुम मेरे इस तथ्य वचनको भी सुनो । मैं इसे अमृतके समान भोजन और रहनेके लिये स्थान भी दूंगा' ॥ ५६ ॥
ऊर्व उवाच धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यन्ममाद्य भवाञ्छिशोः । मतिमेतां ददातीह परमानुग्रहाय वै ॥ ५७ ॥
ऊर्वने कहा-'आज मैं धन्य हूँ । मेरे ऊपर आपका बड़ा अनुग्रह है, जो आप यहाँ पधारकर मेरे पुत्रपर परम अनुग्रह करनेके लिये ऐसी सलाह दे रहे हैं ॥ ५७ ॥
प्रभावकाले संप्राप्ते काङ्क्षितव्ये समागमे । भगवंस्तर्पितः पुत्रः कैर्हव्यैः प्राप्स्यते सुखं ॥ ५८ ॥ कुत्र चास्य निवासो वै भोजनं च किमात्मकम् । विधास्यति भवानस्य वीर्यतुल्यं महौजसः ॥ ५९ ॥
भगवन् । जब इसका यौवनकाल उपस्थित होगा और इसके लिये भोजनकी व्यवस्था वाञ्छनीय होगी, तब यह किस हविसे तृप्त होकर सुख पायेगा ? इसका निवासस्थान कहाँ होगा ? इस महान् शक्तिशाली पुत्रकी शक्तिके अनुरूप आप किस भोजनकी व्यवस्था करेंगे ?' ॥ ५८-५९ ॥
ब्रह्मोवाच वडवामुखेऽस्य वसतिः समुद्रास्ये भविष्यति । मम योनिर्जलं विप्र तच्च तोयमयं वपुः ॥ ६० ॥
ब्रह्माजीने कहा-विप्रवर ! जिसकी आकृति घोड़ीके मुखके समान है, समुद्रके उस मुखमें इसका निवास होगा । जल मेरी योनि (उत्पत्तिका स्थान) है और उस (समुद्र एवं उसके मुख)-का स्वरूप भी जलमय ही है ॥ ६० ॥
तद्धविस्तव पुत्रस्य विसृजाम्यालयं तु तत् । तत्रायमास्तां नियतः पिबन्वारिमयं हविः ॥ ६१ ॥
उसी जलको मैं तुम्हारे पुत्रके लिये हविष्यरूपमें अर्पित करता हूँ और उसके लिये रहनेका स्थान भी वही होगा । यह जलमय हविष्यका पान करता हुआ सदा वहीं रहे ॥ ६१ ॥
ततो युगान्ते भूतानामेष चाहं च सुव्रत । सहितौ विचरिष्यावो लोकानिति पुनः पुनः ॥ ६२ ॥
सुव्रत ! तदनन्तर प्राणियोंका प्रलयकाल आनेपर यह और मैं दोनों साथ-साथ सम्पूर्ण लोकोंमें बारम्बार विचरेंगे ॥ ६२ ॥
एषोऽग्निरन्तकाले तु सलिलाशी मया कृतः । दहनः सर्वभूतानां सदेवासुररक्षसाम् ॥ ६३ ॥
इस अग्निको मैंने जलाहारी बना दिया । यह प्रलयके समय देवता, राक्षस और असुर आदि समस्त प्राणियोंको भस्म करनेवाला होगा ॥ ६३ ॥
एवमस्त्विति सोऽप्यग्निः संवृतज्वालमण्डलः । प्रविवेशार्णवमुखं निक्षिप्य पितरि प्रभाम् ॥ ६४ ॥
तब 'एवमस्तु' कहकर उस और्व नामक अग्निने अपनी ज्वालाओंको समेट लिया और पिताके शरीरमें यशरूपी तेजको स्थापित करके उसी क्षण समुद्रके मुख में प्रवेश किया ॥ ६४ ॥
प्रतियातस्ततो ब्रह्मा ते च सर्वे महर्षयः । और्वस्याग्नेः प्रभावज्ञाः स्वां स्वां गतिमुपाश्रिताः ॥ ६५ ॥
तब ब्रह्माजी लौट गये तथा और्व अग्निके प्रभावको जाननेवाले वे सब महर्षि भी अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ६५ ॥
हिरण्यकशिपुर्दृष्ट्वा तदद्भुतमपूजयत् । ऊर्वं प्रणतसर्वाङ्गो वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ ६६ ॥
इस अद्भुत घटनाको देखकर हिरण्यकशिपुने ऊर्वको साष्टाङ्ग प्रणाम करके उनका पूजन किया और यह बात कही- ॥ ६६ ॥
भगवन्नद्भुतमिदं निवृत्तं लोकसाक्षिकम् । तपसा ते मुनिश्रेष्ठ परितुष्टः पितामहः ॥ ६७ ॥
'भगवन् ! आपने समस्त लोकोंके सामने यह अद्भुत बात कर दिखायी । मुनिश्रेष्ठ ! आपकी तपस्यासे पितामह ब्रह्मा भी बहुत संतुष्ट हैं ॥ ६७ ॥
अहं तु तव पुत्रस्य तव चैव महाव्रत । भृत्य इत्यवगन्तव्यः श्लाघ्योऽस्मि यदि कर्मणा ॥ ६८ ॥
महाव्रत ! यदि आप मेरे कर्मोको देखकर मुझे प्रशंसाके योग्य समझते हों तो मुझे अपने पुत्रका और अपना किङ्कर समझें ॥ ६८ ॥
तन्मां पश्य समापन्नं तवैआराधने रतम् । यदि सीदे मुनिश्रेष्ठ तवैव स्यात् पराजयः ॥ ६९ ॥
'अतः मुनिश्रेष्ठ ! मैं शरणमें आकर आपकी ही आराधनामें तत्पर हूँ । आप मुझपर कृपादृष्टि कीजिये । यदि मैं कष्टमें पड़ा तो यह आपकी ही पराजय होगी' ॥ ६९ ॥
ऊर्व उवाच धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य तेऽहं गुरुर्मतः । नास्ति ते तपसानेन भयमद्येह सुव्रत ॥ ७० ॥
ऊर्व मुनिने कहा-सुव्रत ! तुम मुझे अपना गुरु या पिता मान रहे हो, अत: मैं धन्य हूँ, यह तुम्हारा मुझपर महान् अनुग्रह है । मेरी इस तपस्याके प्रभावसे अब तुम्हें यहाँ कोई भय नहीं होगा ॥ ७० ॥
इमां च मायां गृह्णीष्व मम पुत्रेण निर्मिताम् । निरिन्धनामग्निमयीं दुःस्पर्शां पावकैरपि ॥ ७१ ॥
साथ ही तुम मेरे पुत्रके द्वारा रची हुई इस मायाको ग्रहण करो । इस ईधनरहित अग्रिमयी मायाका स्पर्श करना साक्षात् अग्निके लिये भी कठिन होगा ॥ ७१ ॥
एषा ते स्वस्य वंशस्य वशगारिविनिग्रहे । रक्षिष्यत्यात्मपक्षं सा परांश्च प्रहरिष्यति ॥ ७२ ॥
यह (माया) तुम्हारे जीवनकालतक सदा तुम्हारे वंशजोंके वशमें होकर रहेगी और शत्रुओंका दमन करते समय यह अपने पक्षवालोंकी रक्षा तथा शत्रुओंका संहार करेगी ॥ ७२ ॥
एवमस्त्विति तां गृह्य प्रणम्य मुनिपुङ्गवम् । जगाम त्रिदिवं हृष्टः कृतार्थो दानवेश्वरः ॥ ७३ ॥
तब ‘एवमस्तु' कहकर दानवराजने उस मायाको ग्रहण कर लिया और प्रसन्न हो कृतार्थताका अनुभव करता हुआ उन मुनिवरको प्रणाम करके स्वर्गको चला गया ॥ ७३ ॥
वरुण उवाच सैषा दुर्विषहा माया देवैरपि दुरासदा । और्वेण निर्मिता पूर्वं पावकेनोर्वसूनुना ॥ ७४ ॥
वरुण कहते हैं-इस प्रकार प्राचीन कालमें ऊर्व ऋषिके पुत्र और्व नामक अग्निने इस मायाको रचा था, जो देवताओंके लिये भी दुःसह एवं दुर्जय है ॥ ७४ ॥
तस्मिंस्तु व्युत्थिते दैत्ये निर्वीर्यैषा न संशयः । शापो ह्यस्याः पुरा दत्तः सृष्टा येनैव तेजसा ॥ ७५ ॥
यह दैत्य अब संसारसे उठ गया है । अतः यह माया निर्बल हो गयी है, इसमें कोई संदेह नहीं है क्योंकि जिन्होंने अपने तेजसे इसको रचा था, उन्होंने ही इसको शाप भी दिया था (कि यह माया हिरण्यकशिपुके जीवनतक ही बलवती रहेगी) ॥ ७५ ॥
यद्येषा प्रतिहन्तव्या कर्तव्यो भगवान् सुखी । दीयतां मे सखा शक्र तोययोनिर्निशाकरः ॥ ७६ ॥
इन्द्रदेव ! यदि आपको इस मायाका संहार करना है और अपनेको प्रसन्न करना है तो आप मुझे जलके उत्पत्तिस्थान चन्द्रमाको मेरी सहायताके लिये दीजिये ॥ ७६ ॥
तेनाहं सह संगम्य यादोभिश्च समावृतः । मायामेतां हनिष्यामि त्वत्प्रसादान्न संशयः ॥ ७७ ॥
मैं चन्द्रमाके सहयोगसे और (अपने अधीनस्थ) जलचर जीवोंसे घिरा रहकर आपकी कृपासे इस मायाका अवश्य ही नाश कर डालूँगा ॥ ७७ ॥
इति श्रीमन्महाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि और्वाग्निसंभवोनाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें और्व अनिके उत्पत्तिविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४५ ॥
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