श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
कालनेमिवधः
कालनेमि और भगवान् विष्णुका संवाद, श्रीविष्णुद्वारा कालनेमिका वध तथा देवताओंको आश्वासन देकर ब्रह्मलोकको प्रस्थान
वैशंपायन उवाच पञ्च तं नाभ्यवर्तन्त विपरीतेन कर्मणा । वेदो धर्मः क्षमा सत्यं श्रीश्च नारायणाश्रया ॥ १॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय | कालनेमिके द्वारा शास्त्रविपरीत कर्म किये जानेके कारण वेद, धर्म, क्षमा, सत्य और भगवान् नारायणके आश्रयमें रहनेवाली लक्ष्मी-ये पाँचों उसके पास नहीं आये ॥ १ ॥
स तेषामनुपस्थानात् सक्रोधो दानवेशवरः । वैष्णवं पदमन्विच्छन् ययौ नारायणान्तिकम् ॥ २॥
उनके उपस्थित न होनेसे दानवराज कालनेमिको बड़ा क्रोध हुआ । वह भगवान् विष्णुके पद एवं वैकुण्ठधामको अपने अधीन कर लेनेकी इच्छासे उन श्रीनारायणदेवके निकट गया ॥ २ ॥
स ददर्श सुपर्णस्थं शङ्खचक्रगदाधरम् । दानवानां विनाशाय भ्रामयन्तं गदां शुभाम् ॥ ३॥
उसने देखा-शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् नारायण गरुड़की पीठपर विराजमान हैं और दानवोंका विनाश करनेके लिये अपनी कल्याणमयी कौमोदकी गदाको घुमा रहे हैं ॥ ३ ॥
सजलाम्भोदसदृशं विद्युत्सदृशवाससम् । स्वारूढं स्वर्णपत्राढ्यं शिखिनं काश्यपं खगम् ॥ ४॥
उनके श्रीअङ्गोंकी कान्ति सजल जलधरके समान श्याम है । उनपर विद्युत्कीसी दीप्तिसे दमकता हुआ रेशमी पीताम्बर शोभा पा रहा है । वे भगवान् विष्णु जिन कश्यपकुमार आकाशचारी गरुड़पर आरूढ़ हैं, उनके दोनों पंख सुवर्णके समान सुशोभित हैं और मस्तकपर शिखा शोभा दे रही है ॥ ४ ॥
दृष्त्वा दैत्यविनाशाय रणे स्वस्थमवस्थितम् । दानवो विष्णुमक्षोभ्यं बभाषे क्षुब्धमानसः ॥ ५॥
जिन्हें कोई भी क्षोभमें नहीं डाल सकता, उन भगवान् विष्णुको दैत्योंके विनाशके लिये रणक्षेत्रमें स्वस्थभावसे खड़ा देख दानव कालनेमिका हृदय ओभसे भर गया और वह इस प्रकार कहने लगा- ॥ ५ ॥
अयं स रिपुरस्माकं पूर्वेषां दानवर्षिणाम् । अर्णवावासिनश्चैव मधोर्वै कैटभस्य च ॥ ६॥
'यही हमारे पूर्ववर्ती दानवर्षियोंका तथा एकार्णववासी मधु एवं कैटभका सुप्रसिद्ध शत्रु है ॥ ६ ॥
अयं स विग्रहोऽस्माकमशाम्यः किल कथ्यते । येन नः संयुगेष्वाद्या बहवो दानवा हताः ॥ ७॥
कहते हैं, यही हमलोगोंका वह मूर्तिमान् विग्रह (युद्ध) है, जिसे शान्त करना सर्वथा असम्भव है । इसने अनेक संग्रामों में हमारे बहुत-से पूर्वज दानवोंका वध किया है ॥ ७ ॥
अयं स निर्घृणो युद्धेऽस्त्री बालनिरपत्रपः । येन दानवनारीणां सीमन्तोद्धरणं कृतम् ॥ ८॥
यह वही निर्दयी है, जो युद्धमें अस्त्र धारण करके बालकोंके समान निर्लज्ज होता है । इसीने दानवनारियोंके सीमन्तका सौभाग्यचिह्न सदाके लिये उतार दिया है ॥ ८ ॥
अयं स विष्णुर्देवानां वैकुण्ठश्च दिवौकसाम् । अनन्तो भोगिनामप्सु स्वयंभूश्च स्वयम्भुवः ॥ ९॥
यही वह देवताओंका पक्षपाती विष्णु और स्वर्गवासियोंका वैकुण्ठ है । यही जलमें रहनेवाले सर्पाका अनन्त और स्वयम्भू ब्रह्माका भी ब्रह्मा है ॥ ९ ॥
अयं स नाथो देवानामस्माकं विप्रिये स्थितः । अस्य क्रोधेन महता हिरण्यकशिपुर्हतः ॥ १०॥
यही वह देवताओंका रक्षक है, जो सदा हमारा अप्रिय करने में ही लगा रहता है । इसीके महान् क्रोधसे दैत्यराज हिरण्यकशिपु मारे गये थे' ॥ १० ॥
अस्यच्छायां समासाद्य देवा मखमुखे स्थिताः । आज्यं महर्षिभिर्दत्तमश्नुवन्ति त्रिधा हुतम् ॥ ११॥
'इसीकी छायामें रहकर देवता यज्ञके मुखभागमें स्थित हो महर्षियोद्वारा तीन प्रकारसे हवन करके अर्पित किये गये हविष्यका उपभोग करते हैं ॥ ११ ॥
अयं स निधने हेतुः सर्वेषां देवविद्विषाम् । यस्य तेजःप्रविष्टानि कुलान्यस्माकमाहवे ॥ १२ ॥
यही समस्त देवद्रोही दैत्योंकी मृत्युमें प्रधान कारण है । समराङ्गणमें हमारे कितने ही कुल इसके तेजमें प्रविष्ट होकर भस्म हो गये ॥ १२ ॥
अयं स किल युद्धेषु सुरार्थे त्यक्तजीवितः । सवितुस्तेजसा तुल्यं चक्रं क्षिपति शत्रुषु ॥ १३॥
कहते हैं, यह वही सुविख्यात विष्णु है, जो युद्ध में देवताओंके लिये अपना जीवन निछावर किये रहता है । यह शत्रुओंपर सूर्यके समान तेजस्वी चक्र चलाया करता है ॥ १३ ॥
अयं स कालो दैत्यानां कालभूते मयि स्थिते । अतिक्रान्तस्य कालस्य फलं प्राप्स्यति दुर्मतिः ॥ १४॥
यही वह दैत्योंका काल है, परंतु आज इसका भी काल होकर मैं खड़ा हूँ । मेरे रहते हुए ही यह दुर्बुद्धि अपने पूर्वकालकी करतूतोंका फल पायेगा ॥ १४ ॥
दिष्ट्येदानीं समक्षं मे विष्णुरेष समागतः । अद्य मद्बाणनिष्पिष्टो मामेव प्रणमिष्यति ॥ १५॥
सौभाग्यकी बात है कि इस समय यह विष्णु मेरे सामने आ गया । आज यह मेरे बाणोंसे पिस जायगा और धरतीपर गिरकर मुझे ही प्रणाम करेगा ॥ १५ ॥
यास्याम्यपचितिं दिष्ट्या पूर्वेषामद्य संयुगे । इमं नारायणं हत्वा दानवानां भयावहम् ॥ १६॥ क्षिप्रमेव वधिष्यामि रणे नारायणाश्रितान् । जात्यन्तरगतोऽप्येष मृधे बाधति दानवान् ॥ १७॥ एषोऽनन्थः पुरा भूत्वा पद्मनाभ इति स्मॄतः । जघानैकार्णवे घोरे तावुभौ मधुकैटभौ । विनिवेश्य स्वके ऊरौ निहतौ दानवेश्वरौ ॥ १८॥
आज समराङ्गणमें दानवोंको भय देनेवाले इस नारायणका वध करके मैं शीघ्र ही इसके आश्रित रहनेवाले देवताओंका भी संहार कर डालगा । ऐसा करके अपने पूर्वजोंके ऋणसे उऋण हो सकूँगा, यह मेरे लिये बड़े सौभाग्यकी बात होगी । (मत्स्य, वराह आदि) दूसरी-दूसरी योनियोंमें जन्म धारण करके भी यह युद्ध में दानवोंको ही सताया करता है । यद्यपि यह अनन्त (आकाशकी भाँति असीम एवं व्यापक) है तो भी पूर्वकालमें मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ । उस समय इसकी पद्मनाभ नामसे प्रसिद्धि हुई । इसने भयंकर एकार्णवमें विचरनेवाले दोनों भाई दानवराज मधु और कैटभको अपनी जाँघपर सुलाकर मार डाला था ॥ १६-१८ ॥
द्विधाभूतं वपुः कृत्वा सिंहार्धं नरसंस्थितम् । पितरं मे जघानैको हिरण्यकशिपुं पुरा ॥ १९॥
इसीने पूर्वकालमें आधे नर और आधे सिंहके रूपमें दो प्रकारका शरीर धारण करके अकेले ही मेरे पिता हिरण्यकशिपुका वध किया था ॥ १९ ॥
शुभं गर्भमधत्तेममदितिर्देवतारणिः । यज्ञकाले बलेर्यो वै कृत्वा वामनरूपताम् । त्रीँल्लोकानाजहारैकः क्रममाणस्त्रिभिः क्रमैः ॥ २०॥
जो देवतारूपी अग्निको प्रकट करनेके लिये अरणिके समान हैं, उन अदिति देवीने शुभ गर्भके रूपमें इसे धारण किया था । वही गर्भ बलिके यज्ञके समय अपनेको वामनरूपमें प्रकट करके आया । उस समय इसने अकेले ही तीन पोंसे तीनों लोकोंको नापकर उन्हें बलिके अधिकारसे छीन लिया ॥ २० ॥
भूयस्त्विदानीं समरे सम्प्राप्ते तारकामये । मया सह समागम्य सह देवैर्विनङ्क्ष्यति ॥ २१॥
'अब पुनः इस समय इस तारकामय संग्रामका अवसर प्राप्त होनेपर इसने पदार्पण किया है, किंतु अब मेरे साथ भिड़कर यह देवताओंसहित नष्ट हो जायगा' ॥ २१ ॥
स एवमुक्त्वा बहुधा क्षिपन्नारायणं रणे । वाग्भिरप्रतिरूपाभिर्युद्धमेवाभ्यरोचयत् ॥ २२॥
ऐसा कहकर रणभूमिमें भगवान् नारायणपर अयोग्य वचनोंद्वारा नाना प्रकारके आक्षेप करते हुए कालनेमिने उनके साथ युद्ध करना ही पसंद किया ॥ २२ ॥
क्षिप्यमाणोऽसुरेन्द्रेण न चुकोप गदाधरः । क्षमाबलेन महता सस्मितं वाक्यमब्रवीत् ॥ २३॥
असुरराज कालनेमिके इस प्रकार आक्षेप करनेपर भी भगवान् गदाधरने उसपर क्रोध नहीं किया; क्योंकि वे महान् आमाबलसे सम्पन्न थे । ' उन्होंने मुसकराते हुए कहा- ॥ २३ ॥
अल्पदर्पबलो दैत्य स्थितः क्रोधादसद्वदन् । हतस्त्वमात्मनो दोषैः क्षमां योऽतीत्य भाषसे ॥ २४ ॥
'दैत्य ! तुझमें दर्प और बल तो बहुत थोड़ा है, किंतु तू क्रोधके कारण ओछी बातें बकता हुआ यहाँ खड़ा है । अरे ! तू क्षमा अथवा सहनशीलताका उल्लङ्घन करके बढ़-बड़कर बातें बना रहा है, इसलिये अपने ही दोषोंसे मारा जा चुका है ॥ २४ ॥
अधमस्त्वं मम मतो धिगेतत् तव वाग्बलम् । न तत्र पुरुषाः सन्ति यत्र गर्जन्ति योषितः ॥ २५॥
मेरे विचारसे तो तू अधम है ! तेरे इस वाग्बलको धिक्कार है । अरे । जहाँ पुरुष न हों, केवल स्त्रियाँ ही हों, वहाँ लोग इस तरहकी गर्जना करते हैं, जहाँ वीर पुरुष हों वहाँ नहीं' (क्योंकि वहाँ गर्जना करनेसे वे उन वीर पुरुषोंद्वारा मार डाले जाते हैं) ॥ २५ ॥
अहं त्वां दैत्य पश्यामि पूर्वेषां मार्गगामिनम् । प्रजापतिकृतं सेतुं को भित्त्वा स्वस्तिमान्भवेत् ॥ २६॥
'दैत्य ! मैं तो देखता हूँ, तू अपने पूर्वजोंके ही मार्गपर जानेवाला है । भला ! प्रजापतिद्वारा नियत की हुई मर्यादाको भङ्ग करके कौन सकुशल रह सकता है ॥ २६ ॥
अद्य त्वां नाशयिष्यामि देवव्यापारकारकम् । स्वेषु स्वेषु च स्थानेषु स्थापयिष्यामि देवताः ॥ २७॥
तू दानव होकर देवताओंका कार्य स्वयं कर रहा है-तूने उनका अधिकार उनसे छीन लिया है, इसलिये आज मैं तेरा विनाश कर डालूँगा और देवताओंको पुनः अपने-अपने स्थानों (पदों)-पर स्थापित कर दूंगा' ॥ २७ ॥
वैशंपायन उवाच एवं ब्रुवति तद्वाक्यं मृधे श्रीवत्सधारिणि । जहास दानवः क्रोधाद्धस्तांश्चक्रे च सायुधान् ॥ २८॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न धारण करनेवाले भगवान् नारायण जब उस रणभूमिमें ऐसी बातें कर रहे थे, उस समय वह दानव वहाँ क्रोधपूर्वक हँसने लगा । उसने तुरंत ही अपने हाथोंमें हथियार ले लिये ॥ २८ ॥
स बाहुशतमुद्यम्य सर्वास्त्रग्रहणं रणे । क्रोधाद् द्विगुणरक्ताक्षो विष्णुं वक्षस्यताडयत् ॥ २९॥
उसने समरभूमिमें सब प्रकारके अस्त्रोंको ग्रहण करनेवाली अपनी सौ भुजाओंको ऊपर उठाकर भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें प्रहार किया । उस समय उसकी आँखें क्रोधके कारण दुगुनी लाल हो रही थीं ॥ २९ ॥
दानवाश्चापि समरे मयतारपुरोगमाः । उद्यतायुधनिस्त्रिंशा दृष्ट्वा विष्णुमथाद्रवन् ॥ ३०॥
मय और तार आदि दानव भी रणभूमिमें भगवान् विष्णुको उपस्थित देख हाथोंमें भाँति-भौतिके आयुध और तलवार लिये उनकी ओर दौड़े ॥ ३० ॥
स ताड्यमानोऽतिबलैर्दैत्यैः सर्वायुधोद्यतैः । न चचाल हरिर्युद्धेऽकम्प्यमान इवाचलः ॥ ३१॥
सब प्रकारके आयुध लेकर उद्यत हुए अत्यन्त बलशाली दैत्योंके प्रहार करनेपर भी भगवान् श्रीहरि युद्धभूमिमें कभी कम्पित न होनेवाले पर्वतके समान विचलित नहीं हुए (अविचलभावसे खड़े रहे) ॥ ३१ ॥
संसक्तश्च सुपर्णेन कालनेमी महासुरः । सर्वप्राणेन महतीं गदामुद्यम्य बाहुभिः ॥ ३२॥ मुमोच ज्वलितां घोरां संरब्धो गरुडोपरि । कर्मणा तेन दैत्यस्य विष्णुर्विस्मयमागतः ॥ ३३॥
इतनेहीमें महान् असुर कालनेमि गरुड़के साथ उलझ गया । उसने अपनी भुजाओं द्वारा सारी शक्ति लगाकर एक विशाल गदा उठायी, जो तेजसे प्रज्वलित हो रही थी । उस भयंकर गदाको उसने रोषमें भरकर गरुड़पर छोड़ दिया । उस दैत्यके इस कर्मसे भगवान् विष्णुको भी बड़ा विस्मय हुआ ॥ ३२-३३ ॥
यदा तस्य सुपर्णस्य पतिता मूर्ध्नि सा गदा । तदाऽऽगमत् पदा भूमिं पक्षी व्यथितविग्रहः ॥ ३४॥
जिस समय गरुड़के मस्तकपर वह गदा गिरी, उस समय वह पंजोंके बलसे पृथ्वीपर आकर टिक गये । उनका सारा शरीर व्यथित हो गया था ॥ ३४ ॥
सुपर्णं व्यथितं दृष्ट्वा क्षतं च वपुरात्मनः । क्रोधात् संरक्तनयनो वैकुण्ठश्चक्रमाददे ॥ ३५ ॥
गरुड़को गदाके आघातसे पीड़ित और अपने शरीरको भी क्षत-विक्षत देखकर भगवान् विष्णुके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये । उन्होंने चक्र हाथमें ले लिया ॥ ३५ ॥
व्यवर्धत च वेगेन सुपर्णेन समं प्रभुः । भुजाश्चास्य व्यवर्धन्त व्याप्नुवन्तो दिशो दश ॥ ३६॥
तदनन्तर भगवान् नारायणका वेग गरुड़के समान ही बढ़ने लगा । उनकी चारों भुजाएँ दसों दिशाओंको व्याप्त करती हुई बढ़ने लगीं ॥ ३६ ॥
स दिशः प्रदिशश्चैव खं च गां चैव पूरयन् । ववृधे स पुनर्लोकान् क्रान्तुकाम इवौजसा ॥ ३७॥
वे दिशाओं, अवान्तर दिशाओं, आकाश और पृथ्वीको परिपूर्ण करते हुए इस प्रकार बढ़ने लगे, मानो पुनः बलपूर्वक तीनों लोकोंको आक्रान्त करना चाहते हो ॥ ३७ ॥
तं जयाय सुरेन्द्राणां वर्धमानं नभस्तले । ऋषयः सह गन्धर्वैस्तुष्टुवुर्मधुसूदनम् ॥ ३८॥
देवेश्वरोंकी विजयके लिये आकाशमें बढ़ते हुए उन भगवान् मधुसूदनको गन्धर्वोसहित ऋषि स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥
स द्यां किरीटेन लिखन् साभ्रमम्बरमम्बरैः । ॥ पद्भ्यामाक्रम्य वसुधां दिशः प्रच्छाद्य बाहुभिः ॥ ३९॥
वे अपने मस्तकके किरीटसे स्वर्गलोककी भूमिपर रेखा-सी खींचते, फहराते हुए वस्त्रोद्वारा बादलोंसहित आकाशको ढकते और चारों बाहोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित करते हुए अपने दोनों पैरोंसे पृथ्वीको दबाकर खड़े हो गये ॥ ३९ ॥
सूर्यस्य रश्मितुल्याभं सहस्रारमरीक्षयम् । दीप्ताग्निसदृशं घोरं दर्शनीयं सुदर्शनम् ॥ ४०॥ सुवर्णनेमिपर्यन्तं वज्रनाभं भयावहम् । मेदोमज्जास्थिरुधिरैर्दिग्धं दानवसंभवैः ॥ ४१॥ अद्वितीयं प्रहारेषु क्षुरपर्यन्तमण्डलम् । स्रग्दाममालविततं कामगं कामरूपिणम् ॥ ४२॥
जिसकी प्रभा सूर्यको किरणोंके समान उद्भासित होती है, जिसमें एक सहस्र अरे लगे हुए हैं, जो शत्रुओंका विनाश करने में समर्थ है, जिसे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी बताया गया है, जो भयंकर होनेपर भी दर्शनीय है, इसीलिये जिसे सुदर्शन कहते हैं, जिसके किनारेपर सुवर्णमयी नेमि (हाल) लगी हुई है, जिसकी नाभि वज्रके समान सुदृढ़ है, जो शत्रुओंको भय देनेवाला है, दानवोंके मेद, मजा, अस्थि तथा रुधिरसे जिसकी पुष्टि हुई है, जो प्रहारके साधनोंमें अद्वितीय (अनुपम) है, उसके प्रान्तभागमें मण्डलाकार छुरे लगे हुए हैं, जो फूल-मालाकी लड़ियोंके समान विस्तृत है, इच्छानुसार चलने और मनमाना रूप धारण करनेमें समर्थ है ॥ ४०-४२ ॥
स्वयं स्वयंभुवा सृष्टं भयदं सर्वविद्विषाम् । महर्षिरोषैराविष्टं नित्यमाहवदर्पितम् ॥ ४३॥ क्षेपणाद् यस्य मुह्यन्ति लोकाः सस्थाणुजङ्गमाः । क्रव्यादानि च भूतानि तृप्तिं यान्ति महाहवे ॥ ४४॥ तमप्रतिमकर्माणं समानं सूर्यवर्चसा । चक्रमुद्यम्य समरे क्रोधदीप्तो गदाधरः ॥ ४५ ॥
समस्त शत्रुओंको भय देनेवाले जिस दिव्य अस्त्रकी साक्षात् ब्रह्माजीने सृष्टि की है, अत्याचारी असुरोंके प्रति महर्षियोंके मनमें जो रोष होते हैं, उनसे जो सदा आविष्ट रहता है, युद्धके अवसरोंपर जो दर्पसे भरा होता है, जिसके प्रहारसे चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोक मोहमें पड़ जाते हैं और महासमरमें जिसके प्रभावसे मांसभक्षी प्राणियोंको तृप्ति प्राप्त होती है, उस अनुपम कर्म करनेवाले सूर्यतुल्य तेजस्वी चक्रको हाथमें उठाकर भगवान् गदाधर समराङ्गणमें क्रोधसे उद्दीप्त हो उठे ॥ ४३-४५ ॥
सम्मुष्णन्दानवं तेजः समरे स्वेन तेजसा । चिच्छेद बाहुं चक्रेण श्रीधरः कालनेमिनः ॥ ४६ ॥
लक्ष्मीको वक्षःस्थलमें धारण करनेवाले श्रीहरिने समरभूमिमें अपने तेजसे दानवोंके तेजका अपहरण करके उस चक्रसे कालनेमिकी भुजाओंको काट डाला ॥ ४६ ॥
तच्च वक्त्रशतं घोरं साग्निचूर्णाट्टहासिनम् । तस्य दैत्यस्य चक्रेण प्रममाथ बलाद्धरिः ॥ ४७॥
साथ ही जिनके अट्टहास करनेपर अग्निचूर्ण प्रकट होते थे, उस दैत्यके उन सौ भयंकर मुखोंको भी भगवान् विष्णुने उस चक्रके द्वारा बलपूर्वक मथ डाला ॥ ४७ ॥
स च्छिन्नबाहुर्विशिरा न प्राकम्पत दानवः । कबन्धोऽवस्थितः संख्ये विशाख इव पादपः ॥ ४८॥
भुजाओं और मस्तकोंके कट जानेपर भी वह दानव कम्पित नहीं हुआ । उसका धड़ युद्धस्थलमें शाखारहित वृक्षके समान खड़ा रहा ॥ ४८ ॥
तं वितत्य महापक्षौ वायोः कृत्वा समं जवम् । उरसा पातयामास गरुडः कालनेमिनम् ॥ ४९॥
तब महापक्षी गरुड़ने अपने पंख फैलाकर वायुके समान वेग प्रकट करके कालनेमिको अपनी छातीके धक्केसे गिरा दिया ॥ ४९ ॥
स तस्य देहो विमुखो विशाखः खात्परिभ्रमन् । निपपात दिवं त्यक्त्वा शोभयन् धरणीतलम् ॥ ५०॥
उसका वह मस्तक और भुजाओंसे रहित शरीर स्वर्गलोकको त्यागकर आकाशसे चक्कर काटता और भूतलको क्षुब्ध करता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ५० ॥
तस्मिन्निपतिते दैत्ये देवाः सर्षिगणास्तदा । साधुसाध्विति वैकुण्ठं समेताः प्रत्यपूजयन् ॥ ५१॥
उस दैत्यके धराशायी होनेपर ऋषियोसहित सम्पूर्ण देवता साधु-साधु कहते हुए वहाँ आये और भगवान् विष्णुको पूजा एवं प्रशंसा करने लगे ॥ ५१ ॥
अपरे ये तु दैत्या वै युद्धे दुष्टपराक्रमाः । ते सर्वे बाहुभिर्व्याप्ता न शेकुश्चलितुं रणे ॥ ५२॥
उसके सिवा जो दूसरे दुष्ट पराक्रमी दैत्य थे, वे सब भगवान् विष्णुको भुजाओंसे अवरुद्ध होकर रणभूमिमें हिल-डुल भी न सके ॥ ५२ ॥
कांश्चित्केशेषु जग्राह कांश्चित्कण्ठेऽभ्यपीडयत् । पाटयत्कस्यचिद् वक्त्रं मध्ये कांश्चिदथाग्रहीत् ॥ ५३॥
भगवान्ने किन्हींके केश पकड़कर उन्हें टाँग लिया, किन्हींके गले दबा दिये, किन्हींके मुख फाड़ दिये और कुछ दैत्योंकी कमर पकड़कर तोड़ डाली ॥ ५३ ॥
ते गदाचक्रनिर्दग्धा गतसत्त्वा गतासवः । गगनाद् भ्रष्टसर्वाङ्गा निपेतुर्धरणीतले ॥ ५४॥
वे दैत्य गदा और चक्रके तेजसे दग्ध हो अपने धैर्य और प्राण खो बैठे । उनके सारे अङ्ग आकाशसे भ्रष्ट होकर भूतलपर गिर पड़े ॥ ५४ ॥
तेषु सर्वेषु दैत्येषु हतेषु पुरुषोत्तमः । तस्थौ शक्रप्रियं कृत्वा कृतकर्मा गदाधरः ॥ ५५ ॥
उन सब दैत्योंके मारे जानेपर इन्द्रका प्रिय करके कृतकृत्य हुए गदाधारी भगवान् पुरुषोत्तम वहाँ चुपचाप खड़े हो गये ॥ ५५ ॥
तस्मिन्विमर्दे निर्वृत्ते संग्रामे तारकामये । तं देशमाजगामाशु ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ ५६॥ सर्वैर्ब्रह्मर्भिः सार्धं गन्धर्वैः साप्सरोगणैः । देवदेवो हरिं देवं पूजयन् वाक्यमब्रवीत् ॥ ५७॥
तारकामय संग्रामकी वह मार-काट समाप्त होनेपर देवाधिदेव लोकपितामह ब्रह्मा समस्त ब्रह्मर्षियों, गन्धों और अप्सराओंके साथ शीघ्र ही उस प्रदेशमें आ पहुंचे और श्रीनारायणदेवकी पूजा करते हुए बोले- ॥ ५६-५७ ॥
ब्रह्मोवाच कृतं देव महत्कर्म सुराणां शल्यमुद्धृतम् । वधेनानेन दैत्यानां वयं हि परितोषिताः ॥ ५८॥
ब्रह्माजीने कहा-देव ! आपने यह बहुत बड़ा कार्य किया । देवताओंका काँटा निकाल दिया । दैत्योंके इस वधसे हमें बड़ा संतोष हुआ है ॥ ५८ ॥
योऽयं हतस्त्वया विष्णो कालनेमी महासुरः । त्वमेकोऽस्य मृधे हन्ता नान्यः कश्चन विद्यते ॥ ५९॥
विष्णो ! आपके द्वारा जो वह कालनेमि नामक महान् असुर मारा गया है, इसे एकमात्र आप ही युद्धमें मार सकते थे; दूसरा कोई ऐसा नहीं है ॥ ५९ ॥
एष देवान् परिभवँल्लोकाश्च सचराचरान् । ऋषीणां कदनं कृत्वा मामपि प्रतिगर्जति ॥ ६०॥
यह देवताओं तथा चराचर प्राणियोसहित समस्त लोकोंका तिरस्कार करता था और ऋषियोंका संहार करके मेरे सामने भी गर्जना किया करता था ॥ ६० ॥
तदनेन तवोग्रेण परितुष्टोऽस्मि कर्मणा । यदयं कालतुल्याभः कालनेमी निपातितः ॥ ६१ ॥
अतः आपने जो कालके समान प्रतीत होनेवाले इस कालनेमि नामक दैत्यको मार गिराया है, आपके इस उग्र पराक्रमसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ ॥ ६१ ॥
तदागच्छस्व भद्रं ते गच्छाम दिवमुत्तमम् । ब्रह्मर्षयस्त्वां तत्रस्थाः प्रतीक्षन्ते सदोगताः ॥ ६२॥
इसलिये आइये, आपका कल्याण हो । अब हमलोग उत्तम दिव्य लोकको चलें । वहाँ दिव्य सभामें बैठे हुए वहाँके निवासी ब्रह्मर्षि आपकी प्रतीक्षा करते हैं ॥ ६२ ॥
अहं महर्षयश्चैव तत्र त्वां वदतां वर । विधिवच्चार्चयिष्यामो गीर्भिर्दिव्याभिरच्युत ॥ ६३॥
वक्ताओं में श्रेष्ठ अच्युत ! वहाँ मैं तथा महर्षिगण दिव्य वाणीद्वारा आपकी विधिवत् अर्चना करेंगे ॥ ६३ ॥
किं चाहं तव दास्यामि वरं वरभृतां वर । सुरेष्वपि सदैत्येषु वराणां वरदो भवान् ॥ ६४॥
वर धारण करनेवालोंमें श्रेष्ठ नारायण ! मैं आपको क्या वर दूंगा । दैत्यों और देवताओंमें जितने भी वर (श्रेष्ठ मनोरथ) हैं, उन सबके दाता तो आप ही हैं ॥ ६४ ॥
निर्यातयैतत् त्रैलोक्यं स्फीतं निहतकण्टकम् । अस्मिन्नेव मृधे विष्णो शक्राय सुमहात्मने ॥ ६५ ॥
विष्णो ! इस युद्धस्थलमें ही आप महात्मा इन्द्रको त्रिलोकीका यह समृद्धिशाली और अकण्टक राज्य लौटा दीजिये ॥ ६५ ॥
एवमुक्तो भगवता ब्रह्मणा हरिरव्ययः । देवाञ्छक्रमुखान् सर्वानुवाच शुभया गिरा ॥ ६६॥
भगवान् ब्रह्माके ऐसा कहनेपर अविनाशी श्रीहरिने अपनी कल्याणमयी वाणीद्वारा इन्द्र आदि समस्त देवताओंसे इस प्रकार कहा- ॥ ६६ ॥
विष्णुरुवाच श्रूयतां त्रिदशाः सर्वे यावन्तोऽत्र समागताः । श्रवणावहितैर्देहैः पुरस्क्रित्य पुरन्दरम् ॥ ६७॥
भगवान् विष्णु बोले-जितने देवता यहाँ आये हैं, वे सब लोग अपने शरीर और इन्द्रियोंको मेरी बात सुननेके लिये सावधान रखते हुए इन्द्रको आगे करके मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनें ॥ ६७ ॥
अस्मिन्नः समरे सर्वे कालनेमिमुखा हताः । दानवा विक्रमोपेताः शक्रादपि महत्तराः ॥ ६८॥
इस युद्ध में हमने इन्द्रसे भी बहुत बड़े-चड़े पराक्रमशाली कालनेमि आदि समस्त दानवोंको मार डाला है ॥ ६८ ॥
तस्मिन् महति संक्रन्दे द्वावेव तु विनिस्सृतौ । वैरोचनश्च दैत्येन्द्रः स्वर्भानुश्च महाग्रहः ॥ ६९॥
इस महासंग्रामसे दो ही दैत्य बचकर निकले हैं-विरोचनकुमार दैत्यराज बलि और महान् ग्रह राहु ॥ ६९ ॥
तदिष्टां भजतां शक्रो दिशं वरुण एव च । याम्यां यमः पालयतामुत्तरां च धनाधिपः ॥ ७०॥
अतः इन्द्र और वरुण अब अपनी-अपनी अभीष्ट दिशाको पुनः ग्रहण करें । यम दक्षिण दिशाका और धनाध्यक्ष कुबेर उत्तर दिशाका पालन करें ॥ ७० ॥
ऋक्षैः सह यथायोगं काले चरतु चन्द्रमाः । अब्दं चतुर्मुखं सूर्यो भजतामयनैः सह ॥ ७१॥
चन्द्रमा समयानुसार नक्षत्रोंके साथ यथायोग्य विचरें और सूर्य अयनोंसहित ऋतुप्रधान वर्षका आश्रय लें । ७१ ॥
आज्यभागाः प्रवर्तन्तां सदस्यैरभिपूजिताः । हूयन्तामग्नयो विप्रैर्वेददृष्टेन कर्मणा ॥ ७२॥
(यज्ञमें) सदस्योंद्वारा सब ओरसे पूजित आज्यभाग देवताओंको अर्पित किये जायें और ब्राह्मणलोग वेदोक्त विधिसे अग्नियोंमें आहुति दें ॥ ७२ ॥
देवाश्च बलिहोमेन स्वाध्यायेन महर्षयः । श्राद्धेन पितरश्चैव तृतिं यान्तु यथा पुरा ॥ ७३॥
अब पुन: पहलेकी ही भाँति बलि और होमकर्मके द्वारा देवताओंको, स्वाध्यायके द्वारा महर्षियोंको तथा श्राद्धकर्मके सम्पादनसे पितरोंको संतुष्ट किया जाय और वे पूर्णतः तृप्त हों ॥ ७३ ॥
वायुश्चरतु मार्गस्थस्त्रिधा दीप्यतु पावकः । त्रयो वर्णाश्च लोकांस्त्रीन् वर्धयन्त्वात्मजैर्गुणैः ॥ ७४॥
वायुदेव अपने मार्गपर रहकर विचरण करें, अग्निदेव (गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि तथा आहवनीय-इन) तीन-तीन रूपोंमें सदा प्रकाशित होते रहें तथा तीनों वर्गों के लोग अपने (शम, दम, तप एवं शौच आदि) सहज गुणोंसे तीनों लोकोंकी वृद्धि करें ॥ ७४ ॥
क्रतवः सम्प्रवर्तन्तां दीक्षणीयैर्द्विजातिभिः । दक्षिणाश्चोपवर्तन्तां यथार्हं सर्वसत्रिणाम् ॥ ७५॥
यज्ञदीक्षाके अधिकारी द्विजातियोंद्वारा यज्ञोंका अनुष्ठान होता रहे और समस्त यजमानोंके यज्ञोंमें यथायोग्य दक्षिणाएँ दी जाय ॥ ७५ ॥
गाश्च सूर्यो रसान् सोमो वायुः प्राणांश्च प्राणिषु । तर्पयन्तः प्रवर्तन्तां शिवैः सौम्यैश्च कर्मभिः ॥ ७६॥
सूर्यदेव सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी, चन्द्रदेव रसोंकी तथा वायुदेव प्राणियोंके प्राणोंकी तृसि एवं पुष्टि करते हुए अपने कल्याणकारी एवं सौम्य कोद्वारा लोकहितमें प्रवृत्त हो ॥ ७६ ॥
यथावदानुपूर्व्येण महेन्द्रसलिलोद्भवाः । त्रैलोक्यमातरः सर्वाः सागरं यान्तु निम्नगाः ॥ ७७॥
देवराज इन्द्रद्वारा पर्वतोंपर बरसाये हुए जलसे प्रकट होनेवाली सम्पूर्ण सरिताएँ, जो सबको जलरूपी दुग्ध पिलानेके कारण तीनों लोकोंके प्राणियोंके लिये माताके समान हैं, यथोचित गतिसे बहती हुई क्रमशः समुद्रमें मिल जाय ॥ ७७ ॥
दैत्येभ्यस्त्यज्यतां भीश्च शान्तिं व्रजत देवताः । स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥ ७८॥
देवताओ ! अब तुम दैत्योंसे होनेवाले भयको त्याग दो और मनमें शान्ति धारण करो । तुम सब लोगोंका कल्याण हो । अब मैं सनातन ब्रह्मलोकको जाऊँगा ॥ ७८ ॥
स्वगृहे सर्वलोके वा संग्रामे वा विशेषतः । विश्रम्भो वो न मन्तव्यो नित्यं क्षुद्रा हि दानवाः ॥ ७९॥
अपने घरमें अथवा समस्त जगत्में या विशेषतः संग्राममें तुम्हें दानवोंका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे सदा ही नीचतापूर्ण बर्ताव करनेवाले होते हैं ॥ ७९ ॥
छिद्रेषु प्रहरन्त्येते न चैषां संस्थितिर्ध्रुवा । सौम्यानामृजुभावानां भवतां चार्जवे मतिः ॥ ८०॥
ये मौका पाते ही प्रहार कर बैठते हैं । इनकी मर्यादा सदा स्थिर रहनेवाली नहीं होती । तुमलोग सौम्य और सरल स्वभावके हो, अत: तुम्हारी बुद्धि सरलतापूर्ण बर्तावमें लगती है ॥ ८० ॥
अहं तु दुष्टभावानां युष्मासु सुदुरात्मनाम् । असम्यग्वर्तमानानां मोहं दास्यामि देवताः ॥ ८१॥
देवताओ ! तुम्हारे प्रति दुर्भाव रखकर अनुचित बर्ताव करनेवाले दुरात्मा दैत्योंको मैं अवश्य ही मोहमें डाल दूंगा ॥ ८१ ॥
यदा च सुदुराधर्षं दानवेभ्यो भयं भवेत् । तदा समुपगम्याशु विधास्ये वस्ततोऽभयम् ॥ ८२॥
जब दानवोंकी ओरसे तुमलोगोंको दुर्निवार्य भय प्राप्त होगा, तब शीघ्र ही आकर मैं तुम्हें उनकी ओरसे निर्भय कर दूंगा ॥ ८२ ॥
वैशंपायन उवाच एवमुक्त्वा सुरगणान् विष्णुः सत्यपराक्रमः । जगाम ब्रह्मणा सार्धं ब्रह्मलोकं महायशाः ॥ ८३॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! देवताओंसे ऐसा कहकर महायशस्वी तथा सत्यपराक्रमी भगवान् विष्णु ब्रह्माजीके साथ ब्रह्मलोकको चले गये ॥ ८३ ॥
एतदाश्चर्यमभवत् संग्रामे तारकामये । दानवानां च विष्णोश्च यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ८४॥
राजन् ! तुमने मुझसे जो बात पूछी थी, उसका उत्तर मैंने दे दिया । तारकामय संग्रामके अवसरपर दानवों और भगवान् विष्णुके बीचमें यही आश्चर्यजनक घटना घटित हुई थी ॥ ८४ ॥
इति श्रीमन्महाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि कालनेमिवधेऽष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें कालनेमिका वधविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४८ ॥
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