श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
लोकवर्णनम्
ब्रह्मलोकमें भगवान् विष्णुका सत्कार
जनमेजय उवाच ब्रह्मणा देवदेवेन सार्धं सलिलयोनिना । ब्रह्मलोकगतो ब्रह्मन्वैकुण्ठः किं चकार ह ॥ १॥
जनमेजयने पूछा-ब्रह्मन् ! देवाधिदेव कमलयोनि ब्रह्माजीके साथ ब्रह्मलोकमें जाकर भगवान् विष्णुने क्या किया ? ॥ १ ॥
किमर्थे चादिदेवेन नीतः कमलयोनिना । विष्णुर्दैत्यवधे वृत्ते देवैश्च कृतसत्क्रियः ॥ २॥
दैत्योंके संहारका कार्य पूर्ण हो जानेपर देवताओद्वारा जिनका भलीभाँति सत्कार किया गया था, उन भगवान् विष्णुको आदिदेव ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें किसलिये ले गये ? ॥ २ ॥
ब्रह्मलोके च किं स्थानं कं वा योगमुपास्त सः । कं वा दधार नियमं स विभुर्भूतभावनः ॥ ३॥
ब्रह्मलोकमें उनका कौन-सा स्थान है ? वहाँ उन्होंने किस योगका आश्रय लिया अथवा उन भूतभावन सर्वव्यापी श्रीहरिने किस नियमको धारण किया ? ॥ ३ ॥
कथं तस्याऽऽसतस्तत्र विश्वं जगदिदं महत् । श्रियमाप्नोति विपुलां सुरासुरनरार्चिताम् ॥ ४॥
वहाँ रहते हुए भगवान् विष्णुकी विपुल सम्पत्तिको, जिसकी देवता, असुर और मनुष्य सभी पूजा करते हैं, यह सारा विशाल जगत् कैसे पाता है ? ॥ ४ ॥
कथं स्वपिति घर्मान्ते बुध्यते चाम्बुदप्लवे । कथं च ब्रह्मलोकस्थो धुरं वहति लौकिकाम् ॥ ५॥
ग्रीष्म ऋतुके अन्तमें (आषाढ़मासकी शुक्ला एकादशीको) भगवान् कैसे शयन करते हैं ? वर्षाकाल बीतनेपर (कार्तिककी शुक्ला एकादशीको) किस प्रकार जागते हैं ? तथा ब्रह्मलोक (नारायणाश्रम)-में रहकर वे सम्पूर्ण जगत्की रक्षाका भार कैसे वहन करते हैं ? ॥ ५ ॥
चरितं तस्य विप्रेन्द्र दिव्यं भगवतो दिवि । विस्तरेण यथातत्त्वं सर्वमिच्छामि वेदितुम् ॥ ६॥
विप्रवर ! दिव्य धाममें स्थित भगवान् विष्णुका जो दिव्य चरित्र है, वह सब यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ६ ॥
वैशम्पायन उवाच शृणु नारायणस्यादौ विस्तरेण प्रवृत्तयः । ब्रह्मलोकं यथारूढो ब्रह्मणा सह मोदते ॥ ७॥
वैशम्पायनजीने कहा-जनमेजय ! भगवान् नारायणके जो कर्म हैं और जिस प्रकार वे ब्रह्मलोकमें स्थित होकर ब्रह्माजीके साथ आनन्दका अनुभव करते हैं, वह सब पहले मुझसे सुनो ॥ ७ ॥
कामं तस्य गतिः सूक्ष्मा देवैरपि दुरासदा । यत्तु वक्ष्याम्यहं राजंस्तन्मे निगदतः शृणु ॥ ८॥
राजन् ! उनकी गति (लीला या चरित्र) उन्हींकी इच्छाके अनुरूप होती है, वह सूक्ष्म है, उसके तत्त्वको ठीक-ठीक समझ पाना देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन है । इस समय मैं भगवान्के जिस चरित्रका वर्णन करने जा रहा हूँ, उसे तुम मेरे कथनानुसार सुनो ॥ ८ ॥
एष लोकमयो देवो लोकाश्चैतन्मयास्त्रयः । एश देवमयश्चैव देवाश्चैतन्मया दिवि ॥ ९॥
ये श्रीनारायणदेव सर्वलोकमय हैं और ये तीनों लोक भी इन्हींके स्वरूप (विष्णुमय) हैं । ये ही सर्वदेवमय हैं और स्वर्गके सम्पूर्ण देवता एतन्मय (इन्हींके स्वरूप अर्थात् विष्णुमय) हैं ॥ ९ ॥
तस्य पारं न पश्यन्ति बहवः पारचिन्तकाः । एश पारं परं चैव लोकानां वेद माधवः ॥ १०॥
प्रत्येक वस्तुके पार तत्व (अन्त, इयत्ता या चरम सीमा) का चिन्तन करनेवाले बहुत-से विचारक उन भगवान्का पार नहीं देख पाते हैं, परंतु ये भगवान् माधव सम्पूर्ण जगत्के परम पार (अपने-आप)-को भलीभाँति जानते हैं ॥ १० ॥
अस्य देवान्धकारस्य मार्गितव्यस्य दैवतैः । शृणु वै यत् तदा वृत्तं ब्रह्मलोके पुरातनम् ॥ ११॥
ये इन्द्रियोंके अविषय हैं और सम्पूर्ण देवता इन्हींका अनुसंधान करते रहते हैं । इन्हीं भगवान् विष्णुका उस समय ब्रह्मलोकमें घटित हुआ जो प्राचीन वृत्तान्त है, उसे सुनो ॥ ११ ॥
स गत्वा ब्रह्मणो लोकं दृष्ट्वा पैतामहं पदम् । ववन्दे तानृषीन्सर्वान्विष्णुरार्षेण कर्मणा ॥ १२॥
उन भगवान् विष्णुने ब्रह्मलोकमें जाकर पितामहके निवासस्थानका दर्शन करके वेदोक्त विधिसे वहाँकै समस्त ऋषियोंको प्रणाम किया ॥ १२ ॥
सोऽग्निं प्राक्सवने दृष्ट्वा हूयमानं महर्षिभिः । अवन्दत महातेजाः कृत्वा पौर्वाह्निकीं क्रियाम् ॥ १३॥
उन महातेजस्वी श्रीहरिने पूर्वाह्नकालकी क्रिया पूर्ण करके प्रात:सवनके समय महर्षियोंकी दी हुई आहुति ग्रहण करनेवाले अग्निदेवका दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया ॥ १३ ॥
स ददर्श मखेष्वाज्यैरिज्यमानं महर्षिभिः । भागं यज्ञियमश्नानं स्वदेहमपरं स्थितम् ॥ १४॥
उन्होंने वहाँ अपने ही दूसरे विग्रहको विराजमान देखा, जिसका यज्ञोंमें महर्षिगण घीकी आहुतियोंद्वारा यजन (पूजन) कर रहे थे और जो प्राप्त हुए यज्ञभागको स्वयं ही ग्रहण कर रहा था ॥ १४ ॥
अभिवाद्याभिवाद्यानामृषीणां ब्रह्मवर्चसाम् । परिचक्राम सोऽचिन्त्यो ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥ १५ ॥
उन अचिन्त्यस्वरूप भगवान्ने ब्रह्मतेजसे सम्पन्न एवं वन्दनीय ऋषियोंको प्रणाम करके उस सनातन ब्रह्मलोकमें घूमना आरम्भ किया ॥ १५ ॥
स ददर्शोच्छ्रितान् यूपांश्चषालाग्रविभूषितान् । मखेषु च ब्रह्मर्षिभिः शतशः कृतलक्षणान् ॥ १६॥
उन्होंने वहाँ यज्ञोंमें स्थापित किये गये बहुत-से ऊँचे-ऊँचे यूपों (यज्ञ-स्तम्भों)-को देखा, जो सिरेपर काठके बने हुए छल्लोंसे विभूषित थे । ब्रह्मर्षियोंने उनमें सैकड़ों प्रकारके चिह्न अङ्कित किये थे ॥ १६ ॥
आज्यधूमं समाघ्राय शृण्वन् वेदान्द् विजेरितान् । यज्ञैरिज्यन्तमात्मानं पश्यंस्तत्र चचार ह ॥ १७॥
वे घीकी आहुतियोंसे प्रकट हुए धूमकी सुगन्ध लेते, ब्राह्मणोंद्वारा उच्चारित वेदमन्त्रोंको सुनते और यज्ञोंद्वारा होती हुई अपनी ही आराधनाको देखते हुए वहाँ सब ओर विचरने लगे ॥ १७ ॥
ऊचुस्तमृषयो देवाः सदस्याः सदसि स्थिताः । अर्घ्योद्यतभुजाः सर्वे पवित्रान्तरपाणयः ॥ १८॥
जो यज्ञमण्डपमें सदस्यरूपसे विराजमान थे, वे सब देवता और ऋषि हाथोंमें पवित्री धारण करके अर्घ्य देनेके लिये दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर उन भगवान्के विषयमें परस्पर इस प्रकार कह रहे थे- ॥ १८ ॥
देवेषु वर्तते यद्वै तद्धि सर्वं जनार्दनात् । यत्प्रवृत्तं च देवेभ्यस्तद् विद्धि मधुसूदनात् ॥ १९॥
'देवताओंमें जो भी शक्ति-सामर्थ्य आदि है, वह सब उन्हें भगवान् जनार्दनसे ही प्राप्त हुआ है । देवताओंसे भी जो कुछ प्राप्त होता है, उसे भगवान् मधुसूदनका ही प्रसाद समझो ॥ १९ ॥
अग्नीषोममयं लोकं यं विदुर्विदुषो जनाः । तं सोममग्निं लोकं च वेद विष्णुं सनातनम् ॥ २०॥
संसारके मनुष्य विद्वानोंके मुखसे जिस जगत्को अग्नि और सोमका कार्य जानते हैं, उसके कारणभूत वे सोम और अग्नि तथा यह कार्यभूत जगत् भी सनातन विष्णुरूप ही है, यह बात तुम्हें भी विदित है ॥ २० ॥
क्षीराद् यथा दधि भवेद्दध्नः सर्पिर्भवेद्यथा । मथ्यमानेषु भूतेषु तथा लोको जनार्दनात् ॥ २१॥
जैसे दूधसे दही बनता है और दहीसे मन्धन करनेपर घी प्रकट होता है, उसी प्रकार भूतों (देह और इन्द्रिय आदि)-के मथे जानेपर अर्थात् चित्तको एकाग्र करके सूक्ष्म तत्त्वका चिन्तन करनेपर यह ज्ञात हो जाता है कि सारा संसार भगवान् जनार्दनसे ही प्रकट हुआ है ॥ २१ ॥
यथेन्द्रियैश्च भुतैश्च परमात्माभिधीयते । तथा देवैश्च वेदैश्च लोकैश्च विहितो हरिः ॥ २२॥
जैसे चेतनासे व्याप्त भूतों (शरीरों) और इन्द्रियोंद्वारा उनके नियन्ता परमात्माका स्वत: ज्ञापन या प्रतिपादन हो जाता है, उसी प्रकार अनुग्रह आदि गुणोंसे युक्त देवताओं, वेदों और लोकोंद्वारा (उनके अन्तर्यामी आत्मारूपसे) श्रीहरिका बोध हो जाता है ॥ २२ ॥
यथा भूतेन्द्रियावाप्तिर्विहिता भुवि देहिनाम् । तथा प्राणेश्वरावाप्तिर्देवानां दिवि वैष्णवी ॥ २३॥
जैसे भूतलपर देहधारी प्राणियोंको जो देह और इन्द्रियोंकी प्राप्ति हुई है, उनका सम्बन्ध पार्थिव भूतोंसे है, उसी प्रकार स्वर्गलोकमें देवताओंको जो बल और ऐश्वर्य प्राप्त हुए हैं, उनका सम्बन्ध भगवान् विष्णुसे ही है ॥ २३ ॥
सत्रिणां सत्रफलदः पवित्रं परमात्मवान् । लोकतन्त्रधरो ह्येष मन्त्रैर्मन्त्र इवोच्यते ॥ २४॥
ये भगवान् विष्णु ही यज्ञ करनेवाले यजमानोंको उनके यज्ञोंका फल प्रदान करते हैं । ये परम पवित्र और स्वतन्त्र हैं । सम्पूर्ण लोकोंका संचालनसूत्र इन्हींके हाथ में है । जैसे वाणीके माधुर्यका वर्णन वाणीद्वारा ही सम्भव होता है, उसी प्रकार श्रीविष्णुके स्वरूपका प्रतिपादन स्वयं विष्णु ही कर सकते हैं, दूसरों के लिये इनकी महिमा अनिर्वचनीय है' ॥ २४ ॥
ऋषय ऊचुः स्वागतं ते सुरश्रेष्ठ पद्मनाभ महाद्युते । इदं यज्ञियमातिथ्यं मन्त्रतः परिगृह्यताम् ॥ २५॥
तदनन्तर भगवान्को देखकर ऋषियोंने कहासुरश्रेष्ठ ! आपका स्वागत है, महातेजस्वी पद्मनाभ ! आप वेदमन्त्रोद्वारा यह यज्ञसम्बन्धी आतिथ्य-सत्कार ग्रहण करें ॥ २५ ॥
त्वमस्य यज्ञपूतस्य पात्र पाद्यस्य पावनः । अतिथिस्त्वं हि मन्त्रोक्तः स दृष्टः सन्ततं मतः ॥ २६॥
इस यज्ञपूत पाद्यके आप ही उत्तम पात्र हैं, क्योंकि आप ही वेदमन्त्रोंद्वारा पावन अतिथि बताये गये हैं । जिनके विषयमें हम सदा सुनते और जानते आये हैं, उन्हींका आज प्रत्यक्ष दर्शन हुआ (यह हमारे लिये सौभाग्यकी बात है) ॥ २६ ॥
त्वयि योद्धुं गते विष्णौ न प्रावर्तन्त नः क्रियाः । अवैष्णवस्य यज्ञस्य न हि कर्म विधीयते ॥ २७॥
आप सर्वव्यापी श्रीहरि जब युद्धके लिये चले गये थे, तब हमारे यज्ञकर्म ठीक तरहसे हो नहीं पाते थे । जिसका सम्बन्ध भगवान् विष्णुसे न हो अर्थात् जिसमें वे उपस्थित न हों, उस यज्ञका कार्य ठीकसे सम्पन्न नहीं होता है ॥ २७ ॥
सदक्षिणस्य यज्ञस्य त्वत्प्रसूतिः फलं भवेत् । अद्यात्मानमिहास्माभिरिज्यमानं निरीक्ष्यसे ॥ २८॥
(आज आपकी उपस्थितिसे हमारा यज्ञ सफल हो गया । ) आपका प्रकट होना ही दक्षिणाओंसे सम्पन्न यज्ञका प्रमुख फल है । आज आप यहाँ अपने-आपको हमारे द्वारा पूजित देखेंगे ॥ २८ ॥
एवमस्त्विति तान् सर्वान् भगवान् प्रत्यपूजयत् । मुमुदे बह्मलोकस्थो ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ २९॥
तब एवमस्तु' कहकर भगवान् विष्णुने उन सबका सम्मान किया । उनके द्वारा सम्मानित हो लोकपितामह ब्रह्मा भी अपने लोकमें स्थित हो परम आनन्दका अनुभव करने लगे ॥ २९ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि लोकवर्णनं नाम एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाण हरिवंशके अनर्गत हरिवंशपर्व में ब्रह्मलोकका वर्णन गामक उनचासवा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४९ ॥
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