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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ प्रथमोऽध्यायः ॥


मुनिप्रश्नोत्तरवर्णनम्
प्रयागमें सूतजीसे मुनियोंका शीघ्र पापनाश करनेवाले साधनके विषयमें प्रश्न


आद्यन्तमङ्‍गलमजातसमानभाव-
     मार्यं तमीशमजरामरमात्मदेवम् ।
पञ्चाननं प्रबलपञ्चविनोदशीलं
     सम्भावये मनसि शङ्‍करमम्बिकेशम् ॥ १ ॥

जो आदि और अन्तमें [तथा मध्यमें भी] नित्य मङ्‌गलमय हैं, जिनकी समानता अथवा तुलना कहीं भी नहीं है, जो आत्माके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले देवता (परमात्मा) हैं, जिनके पाँच मुख हैं और जो खेल-ही-खेलमें अनायास जगत्की रचना, पालन, संहार, अनुग्रह एवं तिरोभावरूप-पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर ईश्वर अम्बिकापति भगवान् शंकरका मैं मन ही मन चिन्तन करता हूँ ।

व्यास उवाच
धर्मक्षेत्रे महाक्षेत्रे गङ्‌गाकालिन्दिसङ्‌गमे ।
प्रयागे परमे पुण्ये ब्रह्मलोकस्य वर्त्मनि ॥ १ ॥
मुनयः शंसितात्मानः सत्यव्रतपरायणाः ।
महौजसो महाभागा महासत्रं वितेनिरे ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-जो धर्मका महान् क्षेत्र है, जहाँ गंगा-यमुनाका संगम हुआ है, जो ब्रह्मलोकका मार्ग है, उस परम पुण्यमय प्रयागमें सत्यव्रतमें तत्पर रहनेवाले महातेजस्वी महाभाग महात्मा मुनियोंने एक विशाल ज्ञानयज्ञका आयोजन किया ॥ १-२ ॥

तत्र सत्रं समाकर्ण्य व्यासशिष्यो महामुनिः ।
आजगाम मुनीन् द्रष्टुं सूतः पौराणिकोत्तमः ॥ ३ ॥
उस ज्ञानयज्ञका समाचार सुनकर पौराणिकशिरोमणि व्यासशिष्य महामुनि सूतजी वहाँ मुनियोंका दर्शन करनेके लिये आये ॥ ३ ॥

तं दृष्ट्‍वा सूतमायान्तं हर्षिता मुनयस्तदा ।
चेतसा सुप्रसन्नेन पूजां चक्रुर्यथाविधि ॥ ४ ॥
सूतजीको आते देखकर वे सब मुनि उस समय हर्षसे खिल उठे और अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे उन्होंने उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया ॥ ४ ॥

ततो विनयसंयुक्ता प्रोचुः साञ्जलयश्च ते ।
सुप्रसन्ना महात्मानः स्तुतिं कृत्वा यथाविधि ॥ ५ ॥
तत्पश्चात् उन प्रसन्न महात्माओंने उनकी विधिवत् स्तुति करके विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा- ॥ ५ ॥

रोमहर्षण सर्वज्ञ भवान्वै भाग्यगौरवात् ।
पुराणविद्यामखिलां व्यासात्प्रत्यर्थमीयिवान् ॥ ६ ॥
तस्मादाश्चर्यभूतानां कथानां त्वं हि भाजनम् ।
रत्‍नानामुरुसाराणां रत्‍नाकर इवार्णवः ॥ ७ ॥
हे सर्वज्ञ विद्वान् रोमहर्षणजी ! आपका भाग्य बड़ा भारी है, इसीसे आपने व्यासजीसे यथार्थरूपमें सम्पूर्ण पुराण-विद्या प्राप्त की, इसलिये आप आश्चर्यस्वरूप कथाओंके भण्डार हैं-ठीक उसी तरह, जैसे रत्नाकर समुद्र बड़े-बड़े सारभूत रत्नोंका आगार है ॥ ६-७ ॥

यच्च भूतं च भव्यं च यच्चान्यद्वस्तु वर्तते ।
न त्वयाऽविदितं किञ्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ८ ॥
तीनों लोकोंमें भूत, वर्तमान और भविष्यकी जो बात है तथा अन्य भी जो कोई वस्तु है, वह आपसे अज्ञात नहीं है ॥ ८ ॥

त्वं मद्दिष्टवशादस्य दर्शनार्थमिहागतः ।
कुर्वन्किमपि नः श्रेयो न वृथा गन्तुमर्हसि ॥ ९ ॥
आप हमारे सौभाग्यसे इस यज्ञका दर्शन करनेके लिये यहाँ आ गये हैं और इसी व्याजसे हमारा कुछ कल्याण करनेवाले हैं । क्योंकि आपका आगमन निरर्थक नहीं हो सकता ॥ ९ ॥

तत्त्वं श्रुतं स्म नः सर्वं पूर्वमेव शुभाशुभम् ।
न तृप्तिमधिगच्छामः श्रवणेच्छा मुहुर्मुहुः ॥ १० ॥
हमने पहले भी आपसे शुभाशुभ-तत्त्वका पूरापूरा वर्णन सुना है, किंतु उससे तृप्ति नहीं होती, हमें उसे सुननेकी बार-बार इच्छा होती है ॥ १० ॥

इदानीमेकमेवास्ति श्रोतव्यं सूत सन्मते ।
तद्‌रहस्यमपि ब्रूहि यदि तेऽनुग्रहो भवेत् ॥ ११ ॥
उत्तम बुद्धिवाले हे सूतजी ! इस समय हमें एक ही बात सुननी है; यदि आपका अनुग्रह हो तो गोपनीय होनेपर भी आप उस विषयका वर्णन करें ॥ ११ ॥

प्राप्ते कलियुगे घोरे नराः पुण्यविवर्जिताः ।
दुराचाररताः सर्वे सत्यवार्तापराङ्मुखाः ॥ १२ ॥
परापवादनिरताः परद्रव्याभिलाषिणः ।
परस्त्रीसक्तमनसः परहिंसापरायणाः ॥ १३ ॥
देहात्मदृष्टयो मूढा नास्तिकाः पशुबुद्धयः ।
मातृपितृकृतद्वेषाः स्त्रीदेवाः कामकिङ्‌कराः ॥ १४ ॥
घोर कलियुग आनेपर मनुष्य पुण्यकर्मसे दूर रहेंगे, दुराचारमें फंस जायेंगे, सब-के-सब सत्यभाषणसे विमुख हो जायंगे, दूसरोंकी निन्दामें तत्पर होंगे । पराये धनको हड़प लेनेकी इच्छा करेंगे, उनका मन परायी स्त्रियोंमें आसक्त होगा तथा वे दूसरे प्राणियोंकी हिंसा किया करेंगे । वे अपने शरीरको ही आत्मा समझेंगे । वे मूढ़, नास्तिक तथा पशु-बुद्धि रखनेवाले होंगे, मातापितासे द्वेष रखेंगे तथा वे कामवश स्त्रियोंकी सेवामें लगे रहेंगे ॥ १२-१४ ॥

विप्रा लोभग्रहग्रस्ता वेदविक्रयजीविनः ।
धनार्जनार्थमभ्यस्तविद्यामदविमोहिताः ॥ १५ ॥
त्यक्तस्वजातिकर्माणः प्रायशःपरवञ्चकाः ।
त्रिकालसन्ध्यया हीना ब्रह्मबोधविवर्जिताः ॥ १६ ॥
अदयाः पण्डितम्मन्याः स्वाचारव्रतलोपकाः ।
कृष्युद्यमरताः क्रूरस्वभावा मलिनाशयाः ॥ १७ ॥
ब्राह्मण लोभरूपी ग्रहके ग्रास बन जायेंगे, वेद बेचकर जीविका चलायेंगे, धनका उपार्जन करनेके लिये ही विद्याका अभ्यास करेंगे, मदसे मोहित रहेंगे, अपनी जातिके कर्म छोड देंगे प्राय: दूसरोंको ठगेंगे, तीनों कालकी सन्ध्योपासनासे दूर रहेंगे और ब्रह्मज्ञानसे शून्य होंगे । दयाहीन, अपनेको पण्डित माननेवाले, अपने सदाचार-व्रतसे रहित, कृषिकार्यमें तत्पर, क्रूर स्वभाववाले एवं दूषित विचारवाले होंगे ॥ १५-१७ ॥

क्षत्रियाश्च तथा सर्वे स्वधर्मत्यागशीलिनः ।
असत्सङ्‌गाः पापरता व्यभिचारपरायणाः ॥ १८ ॥
समस्त क्षत्रिय भी अपने धर्मका त्याग करनेवाले, कुसंगी, पापी और व्यभिचारी होंगे ॥ १८ ॥

अशूरा अरणप्रीताः पलायनपरायणाः ।
कुचौरवृत्तयः शूद्राः कामकिङ्‌करचेतसः ॥ १९ ॥
उनमें शौर्यका अभाव होगा, वे युद्धसे विरत अर्थात् रणमें प्रीति न होनेसे भागनेवाले होंगे । वे कुत्सित चौर्यकर्मसे जीविका चलायेंगे, शूद्रोंके समान बरताव करेंगे और उनका चित्त कामका किंकर बना रहेगा ॥ १९ ॥

शस्त्रास्त्रविद्यया हीना धेनुविप्रावनोज्झिताः ।
शरण्यावनहीनाश्च कामिन्यूतिमृगाः सदा ॥ २० ॥
वे शस्त्रास्त्रविद्याको नहीं जाननेवाले, गौ और ब्राह्मणकी रक्षा न करनेवाले, शरणागतकी रक्षा न करनेवाले तथा सदा कामिनीको खोजने में तत्पर रहेंगे ॥ २० ॥

प्रजापालनसद्धर्मविहीना भोगतत्पराः ।
प्रजासंहारका दुष्टा जीवहिंसाकरा मुदा ॥ २१ ॥
प्रजापालनरूपी सदाचारसे रहित, भोगमें तत्पर, प्रजाका संहार करनेवाले, दुष्ट और प्रसन्नतापूर्वक जीवहिंसा करनेवाले होंगे ॥ २१ ॥

वैश्याः संस्कारहीनास्ते स्वधर्मत्यागशीलिनः ।
कुपथाः स्वार्जनरतास्तुलाकर्मकुवृत्तयः ॥ २२ ॥
वैश्य संस्कार-भ्रष्ट, स्वधर्मत्यागी, कुमार्गी, धनोपार्जनपरायण तथा नाप-तौलमें अपनी कुत्सित वृत्तिका परिचय देनेवाले होंगे ॥ २२ ॥

गुरुदेवद्विजातीनां भक्तिहीनाः कुबुद्धयः ।
अभोजितद्विजाः प्रायः कृपणा बद्धमुष्टयः ॥ २३ ॥
कामिनीजारभावेषु सुरता मलिनाशयाः ।
लोभमोहविचेतस्काः पूर्तादिषु वृषोज्झिताः ॥ २४ ॥
वे गुरु, देवता और द्विजातियोंके प्रति भक्तिशून्य, कुत्सित बुद्धिवाले, द्विजोंको भोजन न करानेवाले, प्रायः कृपणताके कारण मुट्ठी बाँधकर रखनेवाले, परायी स्त्रियोंके साथ कामरत, मलिन विचारवाले, लोभ और मोहसे भ्रमित चित्तवाले और वापी-कूपतड़ाग आदिके निर्माण तथा यज्ञादि सत्कर्मोमें धर्मका त्याग करनेवाले होंगे ॥ २३-२४ ॥

तद्वच्छूद्राश्च ये केचिद्‌ब्राह्मणाचारतत्पराः ।
उज्ज्वलाकृतयो मूढाः स्वधर्मत्यागशीलिनः ॥ २५ ॥
इसी तरह कुछ शूद्र ब्राह्मणोंके आचारमें तत्पर होंगे, उनकी आकृति उज्वल होगी अर्थात् वे अपना कर्म धर्म छोड़कर उज्वल वेश भूषासे विभूषित हो व्यर्थ घूमेंगे, वे मूड़ होंगे और स्वभावतः ही अपने धर्मका त्याग करनेवाले होंगे ॥ २५ ॥

कर्तारस्तपसां भूयो द्विजतेजोपहारकाः ।
शिश्वल्पमृत्युकाराश्च मंत्रोच्चारपरायणाः ॥ २६ ॥
शालग्रामशिलादीनां पूजका होमतत्पराः ।
प्रतिकूलविचाराश्च कुटिला द्विजदूषकाः ॥ २७ ॥
वे भौति-भौतिके तप करनेवाले होंगे, द्विजोंको अपमानित करेंगे, छोटे बच्चोंकी अल्पमृत्यु होनेके लिये आभिचारिक कर्म करेंगे, मन्त्रोंके उच्चारण करनेमें तत्पर रहेंगे, शालग्रामकी मूर्ति आदि पूजेंगे, होम करेंगे, किसी-न-किसीके प्रतिकूल विचार सदा करते रहेंगे, कुटिल स्वभाववाले होंगे और द्विजोंसे द्वेष-भाव रखने वाले होंगे ॥ २६-२७ ॥

धनवन्तः कुकर्माणो विद्यावन्तो विवादिनः ।
आख्यानोपासनाधर्मवक्तारो धर्मलोपकाः ॥ २८ ॥
वेयदि धनी हुए तो कुकर्ममें लग जायेंगे, यदि विद्वान् हुए तो विवाद करनेवाले होंगे, कथा और उपासनाधमौके वक्ता होंगे और धर्मका लोप करनेवाले होंगे ॥ २८ ॥

सुभूपाकृतयो दम्भाः सुदातारो महामदाः ।
विप्रादीन् सेवकान् मत्वा मन्यमाना निजं प्रभुम् ॥ २९ ॥
स्वधर्मरहिता मूढाः सङ्‌कराः क्रूरबुद्धयः ।
महाभिमानिनो नित्यं चतुर्वर्णविलोपकाः ॥ ३० ॥
वे सुन्दर राजाओंके समान वेष-भूषा धारण करनेवाले, दम्भी, दानमानी, अतिशय अभिमानी, विप्र आदिको अपना सेवक मानकर अपनेको स्वामी माननेवाले होंगे, वे अपने धर्मसे शून्य, मूह, वर्णसंकर, क्रूरबुद्धिवाले, महाभिमानी और सदा चारों वर्णकि धर्मका लोप करनेवाले होंगे ॥ २९-३० ॥

सुकुलीनान्निजान् मत्वा चतुर्वर्णैर्विवर्तनाः ।
सर्ववर्णभ्रष्टकरा मूढाः सत्कर्मकारिणः ॥ ३१ ॥
वे अपनेको श्रेष्ठ कुलवाला मानकर चारों वर्णोसे विपरीत व्यवहार करनेवाले, सभी वर्गोको भ्रष्ट करनेवाले, मूढ़ और [अनुचित रूपसे] सत्कर्म करनेमें तत्पर होंगे ॥ ३१ ॥

स्त्रियश्च प्रायशो भ्रष्टा भर्त्रवज्ञानकारिकाः ।
श्वशुरद्रोहकारिण्यो निर्भया मलिनासनाः ॥ ३२ ॥
कलियुगकी स्त्रियाँ प्रायः सदाचारसे भ्रष्ट होंगी, पतिका अपमान करनेवाली होंगी, सास-ससुरसे द्रोह करेंगी । किसीसे भय नहीं मानेंगी और मलिन भोजन करेंगी ॥ ३२ ॥

कुहावभावनिरताः कुशीलाः स्मरविह्वलाः ।
जारसङ्‌गरता नित्यं स्वस्वामिविमुखास्तथा ॥ ३३ ॥
वे कुत्सित हाव-भावमें तत्पर होंगी, उनका शील-स्वभाव बहुत बुरा होगा । वे काम विठ्ठल, परपतिसे रति करनेवाली और अपने पतिकी सेवासे सदा विमुख रहेंगी ॥ ३३ ॥

तनया मातृपित्रोश्च भक्तिहीना दुराशयाः ।
अविद्यापाठका नित्यं रोगग्रसितदेहकाः ॥ ३४ ॥
सन्ताने माता-पिताके प्रति श्रद्धारहित, दुष्ट स्वभाववाली, असत् विद्या पढ़नेवाली और सदा रोगग्रस्त शरीरवाली होंगी ॥ ३४ ॥

एतेषां नष्टबुद्धीनां स्वधर्मत्यागशीलिनाम् ।
परलोकेऽपीह लोके कथं सूत गतिर्भवेत् ॥ ३५ ॥
हे सूतजी ! इस तरह जिनकी बुद्धि नष्ट हो गयी है और जिन्होंने अपने धर्मका त्याग कर दिया है, ऐसे लोगोंको इहलोक और परलोकमें उत्तम गति कैसे प्राप्त होगी ? ॥ ३५ ॥

इति चिन्ताकुलं चित्तं जायते सततं हि नः ।
परोपकारसदृशो नास्ति धर्मोऽपरः खलु ॥ ३६ ॥
लघूपायेन येनैषां भवेत्सद्योऽघनाशनम् ।
सर्वसिद्धान्तवित्त्वं हि कृपया तद्वदाधुना ॥ ३७ ॥
इसी चिन्तासे हमारा मन सदा व्याकुल रहता है; परोपकारके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है, अत: जिस छोटे उपायसे इन सबके पापोंका तत्काल नाश हो जाय, उसे इस समय कृपापूर्वक बताइये; क्योंकि आप समस्त सिद्धान्तोंके ज्ञाता हैं ॥ ३६-३७ ॥

व्यास उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां मुनीनां भावितात्मनाम् ।
मनसा शङ्‌करं स्मृत्वा सूतः प्रोवाच तान् मुनीन् ॥ ३८ ॥
व्यासजी बोले-उन भावितात्मा मुनियोंकी यह बात सुनकर सूतजी मन-ही-मन भगवान् शंकरका स्मरण करके उन मुनियोंसे इस प्रकार कहने लगे- ॥ ३८ ॥

इति श्रीशैवे महापुराणे विद्येश्वरसंहितायां
मुनिप्रश्नोत्तरवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विश्वरसंहितामें मुनियोंके प्रानका वर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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