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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥ ॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
विद्येश्वरसंहिता
॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥ मुनिप्रश्नानामुत्तराणि -
शिवपुराणका माहात्म्य एवं परिचय सूत उवाच
साधुपृष्टं साधवो वस्त्रैलोक्यहितकारकम् । गुरुं स्मृत्वा भवत्स्नेहाद्वक्ष्ये तच्छृणुतादरात् ॥ १ ॥ सूतजी बोले-हे साधु-महात्माओ ! आप सबने तीनों लोकोंका हित करनेवाली अच्छी बात पूछी है । मैं गुरुदेव व्यासजीका स्मरण करके आपलोगोंकि स्नेहवश इस विषयका वर्णन करूँगा, आपलोग आदरपूर्वक सुनें ॥ १ ॥ वेदान्तसारसर्वस्वं पुराणं शैवमुत्तमम् ।
सर्वाघौघोद्धारकरं परत्र परमार्थदम् ॥ २ ॥ कलिकल्मषविध्वंसि यस्मिञ्च्छिवयशः परम् । विजृम्भते सदा विप्राश्चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥ ३ ॥ सबसे उत्तम जो शिवपुराण है, वह वेदान्तका सारसर्वस्व है तथा वक्ता और श्रोताका समस्त पापराशियोंसे उद्धार करनेवाला है; [इतना ही नहीं] वह परलोकमें परमार्थ वस्तुको देनेवाला है । कलिकी कल्मषराशिका वह विनाशक है । उसमें भगवान् शिवके उत्तम यशका वर्णन है । हे ब्राह्मणो ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थीको देनेवाला वह पुराण सदा ही अपने प्रभावसे विस्तारको प्राप्त हो रहा है ॥ २-३ ॥ तस्याध्ययनमात्रेण पुराणस्य द्विजोत्तमाः ।
सर्वोत्तमस्य शैवस्य ते यास्यन्ति सुसद्गतिम् ॥ ४ ॥ हे विप्रवरो । उस सर्वोत्तम शिवपुराणके अध्ययनमात्रसे वे कलियुगके पापासक्त जीव श्रेष्ठतम गतिको प्राप्त हो जायंगे ॥ ४ ॥ तावद्विजृम्भते पापं ब्रह्महत्यापुरः सरम् ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति जगत्यहो ॥ ५ ॥ अहो ! ब्रह्महत्या आदि महान् पाप तभीतक रहेंगे अर्थात् अपने फलको देने में समर्थ होंगे, जबतक जगत्में शिवपुराणका उदय नहीं होगा । [आशय यह है कि शिवपुराण सुननेके बाद अन्त:करण शिवभक्तिपरायण होकर अतिशय स्वच्छ हो जायगा । अत: किसी भी पापकर्ममें मानवकी प्रवृत्ति ही नहीं होगी, तब ब्रह्महत्या आदि भयंकर पाप न होनेके कारण उस पापके फलभोगकी सम्भावना ही नहीं है] ॥ ५ ॥ तावत्कलिमहोत्पाताः सञ्चरिष्यन्ति निर्भयाः ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति जगत्यहो ॥ ६ ॥ कलियुगके महान् उत्पात तभीतक निर्भय होकर विचरेंगे, जबतक यहाँ जगत्में शिवपुराणका उदय नहीं होगा ॥ ६ ॥ तावत्सर्वाणि शास्त्राणि विवदन्ते परस्परम् ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति जगत्यहो ॥ ७ ॥ सभी शास्त्र परस्पर तभीतक विवाद करेंगे, जबतक जगत्में शिवपुराणका उदय नहीं होगा [अर्थात् शिवपुराणके आ जानेपर किसी प्रकारका विवाद ही नहीं रह जायगा । सभी प्रकारसे भुक्ति-मुक्तिप्रदाता यही रहेगा] ॥ ७ ॥ तावत्स्वरूपं दुर्बोधं शिवस्य महतामपि ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति जगत्यहो ॥ ८ ॥ अहो ! महान् व्यक्तियोंके लिये भी तभीतक शिवका स्वरूप दुर्बोध्य रहेगा, जबतक इस जगत्में शिवपुराणका उदय नहीं होगा ॥ ८ ॥ तावद्यमभटाः क्रूराः सञ्चरिष्यन्ति निर्भयाः ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति जगत्यहो ॥ ९ ॥ अहो । क्रूर यमदूत तभीतक निर्भय होकर पृथ्वीपर घूमेंगे, जबतक जगत्में शिवपुराणका उदय नहीं होगा ॥ ९ ॥ तावत्सर्वपुराणानि प्रगर्जन्ति महीतले ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति जगत्यहो ॥ १० ॥ सभी पुराण पृथिवीपर गर्जन तभीतक करेंगे, जबतक शिवपुराणका जगत्में उदय नहीं होगा ॥ १० ॥ तावत्सर्वाणि तीर्थानि विवदन्ते महीतले ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति जगत्यहो ॥ ११ ॥ तावत्सर्वे मुधा मंत्री विवदन्ते महीतले । यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति महीतले ॥ १२ ॥ इस पृथिवीपर तीर्थोंका विवाद तभीतक रहेगा, जबतक इस जगत्में शिवपुराणका उदय नहीं होगा । [आशय यह है कि मुक्ति प्राप्त्यर्थ एवं पापके नाशके लिये मानव विभिन्न तीर्थोंका सेवन करेंगे, किंतु शिवपुराणके आनेके बाद सभी लोग सभी पापोंके नाशके लिये शिवपुराणका ही सेवन करेंगे] । सभी मन्त्र पृथ्वीपर तभीतक आनन्दपूर्वक विवाद करेंगे, जबतक पृथ्वीपर शिवपुराणका उदय नहीं होगा ॥ ११-१२ ॥ तावत्सर्वाणि क्षेत्राणि विवदन्ते महीतले ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति महीतले ॥ १३ ॥ सभी क्षेत्र तभीतक पृथ्वीपर विवाद करेंगे, जबतक पृथ्वीपर शिवपुराणका उदय नहीं होगा ॥ १३ ॥ तावत्सर्वाणि पीठानि विवदन्ते महीतले ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति महीतले ॥ १४ ॥ सभी पीठ तभीतक पृथ्वीपर विवाद करेंगे, जबतक पृथ्वीपर शिवपुराणका उदय नहीं होगा ॥ १४ ॥ तावत्सर्वाणि दानानि विवदन्ते महीतले ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति महीतले ॥ १५ ॥ सभी दान पृथ्वीपर तभीतक विवाद करेंगे, जबतक शिवपुराणका पृथ्वीपर उदय नहीं होगा ॥ १५ ॥ तावत्सर्वे च ते देवा विवदन्ते महीतले ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति महीतले ॥ १६ ॥ सभी देवगण तभीतक पृथ्वीपर विवाद करेंगे, जबतक शिवपुराणका पृथ्वीपर उदय नहीं होगा ॥ १६ ॥ तावत्सर्वे च सिद्धान्ता विवदन्ते महीतले ।
यावच्छिवपुराणं हि नोदेष्यति महीतले ॥ १७ ॥ सभी सिद्धान्त तभीतक पृथ्वीपर विवाद करेंगे, जबतक शिवपुराणका पृथ्वीपर उदय नहीं होगा ॥ १७ ॥ अस्य शैवपुराणस्य कीर्तनश्रवणाद् द्विजाः ।
फलं वक्तुं न शक्नोमि कार्त्स्न्येन मुनिसत्तमाः ॥ १८ ॥ हे विप्रो ! हे श्रेष्ठ मुनिगण ! इस शिवपुराणके कीर्तन करने और सुननेसे जो-जो फल होते हैं, उन फलोंको मैं सम्पूर्ण रूपसे नहीं कह सकता हूँ. [अर्थात् शब्दोंके द्वारा इसके सभी फलोंको नहीं कहा जा सकता है] ॥ १८ ॥ तथापि तस्य माहात्म्यं वक्ष्ये किञ्चित्तु वोऽनघाः ।
चित्तमाधाय शृणुत व्यासेनोक्तं पुरा मम ॥ १९ ॥ हे निष्पाप मुनिगण ! तथापि शिवपुराणका कुछ माहात्म्य आप लोगोंसे कहता हूँ, जो व्यासजीने पहले मुझसे कहा था, आपलोग चित्त लगाकर ध्यानपूर्वक सुनें ॥ १९ ॥ एतच्छिवपुराणं हि श्लोकं श्लोकार्धमेव च ।
यः पठेद्भक्तिसंयुक्तः स पापान्मुच्यते क्षणात् ॥ २० ॥ जो भक्तिपूर्वक इस शिवपुराणका एक श्लोक या आधा श्लोक भी पढ़ता है, वह उसी क्षण पापसे छुटकारा पा जाता है ॥ २० ॥ एतच्छिवपुराणं हि यः प्रत्यहमतन्द्रितः ।
यथाशक्ति पठेद्भक्त्या स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २१ ॥ जो आलस्यरहित होकर प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस शिवपुराणका यथाशक्ति पाठ करता है, वह जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २१ ॥ एतच्छिवपुराणं हि यो भक्त्यार्चयते सदा ।
दिने दिनेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ २२ ॥ जो इस शिवपुराणकी सदा पूजा करता है, वह निःसन्देह प्रतिदिन अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करता है ॥ २२ ॥ एतच्छिवपुराणं यः साधारणपदेच्छया ।
अन्यतः शृणुयात् सोऽपि मत्तो मुच्येत पातकात् ॥ २३ ॥ जो व्यक्ति साधारण पदकी प्राप्तिकी इच्छासे इस शिवपुराणको मुझसे अथवा अन्य किसीसे सुनता है, वह भी पातकोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २३ ॥ एतच्छिवपुराणं यो नमस्कुर्याददूरतः ।
सर्वदेवार्चनफलं स प्राप्नोति न संशयः ॥ २४ ॥ जो इस शिवपुराणको समीपसे प्रणाम करता है, वह सभी देवोंकी पूजाका फल प्राप्त करता है । इसमें संशय नहीं है ॥ २४ ॥ एतच्छिवपुराणं वै लिखित्वा पुस्तकं स्वयम् ।
यो दद्याच्छिवभक्तेभ्यस्तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ २५ ॥ जो इस शिवपुराणको स्वयं लिखकर शिवभक्तोंको दान करता है, उसके पुण्यफलको सुनें ॥ २५ ॥ अधीतेषु च शास्त्रेषु वेदेषु व्याकृतेषु च ।
यत्फलं दुर्लभं लोके तत्फलं तस्य सम्भवेत् ॥ २६ ॥ शास्त्रोंका अध्ययन करने और वेदोंका पाठ करनेसे जो दुर्लभ फल प्राप्त होता है, वह फल उसको प्राप्त होता है ॥ २६ ॥ एतच्छिवपुराणं हि चतुर्दश्यामुपोषितः ।
शिवभक्तसभायां यो व्याकरोति स उत्तमः ॥ २७ ॥ प्रत्यक्षरं तु गायत्रीपुरश्चर्याफलं लभेत् । इह भुक्त्वाखिलान् कामानन्ते निर्वाणतां व्रजेत् ॥ २८ ॥ जो चतुर्दशी तिथिके दिन उपवास करके इस शिवपुराणका शिवभक्तोंके समाजमें पाठ करता हैवह श्रेष्ठ पुरुष है । वह व्यक्ति शिवपुराणके प्रत्येक अक्षरकी संख्याके अनुरूप गायत्रीके पुरश्चरणका फल प्राप्त करता है और इस लोकमें सभी अभीष्ट सुखोंको भोगकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ॥ २७-२८ ॥ उपोषितश्चतुर्दश्यां रात्रौ जागरणान्वितः ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि तस्य पुण्यं वदाम्यहम् ॥ २९ ॥ जो चतुर्दशीकी रातमें उपवासपूर्वक जागरण करके शिवपुराणका पाठ करता है या इसे सुनता है, उसका पुण्य फल मैं कहता हूँ ॥ २९ ॥ कुरुक्षेत्रादिनिखिलपुण्यतीर्थेष्वनेकशः ।
आत्मतुल्यधनं सूर्यग्रहणे सर्वतोमुखे ॥ ३० ॥ विप्रेभ्यो व्यासमुख्येभ्यो दत्त्वायत्फलमश्नुते । तत्फलं सम्भवेत्तस्य सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ३१ ॥ कुरुक्षेत्र आदि सभी तीर्थोंमें, पूर्ण सूर्यग्रहणमें अपनी शक्तिके अनुसार विप्रोंको और मुख्य कथावाचकोंको धन देनेसे जो फल प्राप्त होता है, वही फल उस व्यक्तिको प्राप्त होता है, यह सत्य है, सत्य है । इसमें कोई संदेह नहीं है । ३०-३१ ॥ एतच्छिवपुराणं हि गायते योऽप्यहर्निशम् ।
आज्ञां तस्य प्रतीक्षेरन् देवा इन्द्रपुरोगमाः ॥ ३२ ॥ जो व्यक्ति इस शिवपुराणका दिन-रात गान करता है, इन्द्र आदि देवगण उसकी आज्ञाकी प्रतीक्षा करते रहते हैं ॥ ३२ ॥ एतच्छिवपुराणं यः पठञ्छृण्वन्हि नित्यशः ।
यद्यत्करोति सत्कर्म तत्कोटिगुणितं भवेत् ॥ ३३ ॥ इस शिवपुराणका पाठ करनेवाला और सुननेवाला व्यक्ति जो-जो श्रेष्ठ कर्म करता है, वह कोटिगुना हो जाता है [अर्थात् कोटिगुना फल देता है] ॥ ३३ ॥ समाहितः पठेद्यस्तु तत्र श्रीरुद्रसंहिताम् ।
स ब्रह्मघ्नोऽपि पूतात्मा त्रिभिरेव दिनैर्भवेत् ॥ ३४ ॥ जो भलीभाँति ध्यानपूर्वक उसमें भी श्रीरुद्रसंहिताका पाठ करता है, वह यदि ब्रह्मघाती भी हो तो तीन दिनोंमें पवित्रात्मा हो जाता है ॥ ३४ ॥ तां रुद्रसंहितां यस्तु भैरवप्रतिमान्तिके ।
त्रिः पठेत् प्रत्यहं मौनी स कामानखिलांल्लभेत् ॥ ३५ ॥ जो भैरवकी मूर्तिके पास मौन धारणकर श्रीरुद्रसंहिताका प्रतिदिन तीन बार पाठ करता है, वह सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ॥ ३५ ॥ तां रुद्रसंहितां यस्तु सम्पठेद्वटबिल्वयोः ।
प्रदक्षिणां प्रकुर्वाणो ब्रह्महत्या निवर्तते ॥ ३६ ॥ जो व्यक्ति वट और बिल्ववृक्षकी प्रदक्षिणा करते हुए उस रुद्रसंहिताका पाठ करता है, वह ब्रह्महत्याके दोषसे भी छुटकारा पा जाता है ॥ ३६ ॥ कैलाससंहिता तत्र ततोऽपि परमा स्मृता ।
ब्रह्मस्वरूपिणी साक्षात्प्रणवार्थप्रकाशिका ॥ ३७ ॥ प्रणवके अर्थको प्रकाशित करनेवाली ब्रह्मरूपिणी साक्षात् कैलाससंहिता रुद्रसंहितासे भी श्रेष्ठ कही गयी है । ३७ ॥ कैलाससंहितायास्तु माहात्म्यं वेत्ति शङ्करः ।
कृत्स्नं तदर्धं व्यासश्च तदर्धं वेद्म्यहं द्विजाः ॥ ३८ ॥ हे द्विजो ! कैलाससंहिताका सम्पूर्ण माहात्म्य तो शंकरजी ही जानते हैं, उससे आधा माहात्म्य व्यासजी जानते हैं और उसका भी आधा मैं जानता हूँ ॥ ३८ ॥ तत्र किञ्चित् प्रवक्ष्यामि कृत्स्नं वक्तुं न शक्यते ।
यज्ज्ञात्वा तत्क्षणाल्लोकश्चित्तशुद्धिमवाप्नुयात् ॥ ३९ ॥ उसके सम्पूर्ण माहात्म्यका वर्णन तो मैं नहीं कर सकता, कुछ ही अंश कहूँगा, जिसको जानकर उसी क्षण चित्तकी शुद्धि प्राप्त हो जायगी ॥ ३९ ॥ न नाशयति यत्पापं सा रौद्री संहिता द्विजाः ।
तन्न पश्याम्यहं लोके मार्गमाणोऽपि सर्वदा ॥ ४० ॥ हे द्विजो ! लोकमें ढूँढनेपर भी मैंने ऐसे किसी पापको नहीं देखा, जिसे वह रुद्रसंहिता नष्ट न कर सके ॥ ४० ॥ शिवेनोपनिषत्सिन्धुमन्थनोत्पादितां मुदा ।
कुमारायार्पितां तां वै सुधां पीत्वाऽमरो भवेत् ॥ ४१ ॥ उपनिषद्पी सागरका मन्थन करके शिवने आनन्दपूर्वक इस रुद्रसंहितारूपी अमृतको उत्पन्न किया और कुमार कार्तिकेयको समर्पित किया; जिसे पीकर मानव अमर हो जाता है ॥ ४१ ॥ ब्रह्महत्यादिपापानां निष्कृतिं कर्तुमुद्यतः ।
मासमात्रं संहितां तां पठित्वा मुच्यते ततः ॥ ४२ ॥ ब्रह्महत्या आदि पापोंको निष्कृति करनेके लिये तत्पर मनुष्य महीनेभर रुद्रसंहिताका पाठ करके उन पापोंसे मुक्त हो जाता है । ॥ ४२ ॥ दुष्प्रतिग्रहदुर्भोज्यदुरालापादिसम्भवम् ।
पापं सकृत्कीर्तनेन संहिता सा विनाशयेत् ॥ ४३ ॥ दुष्प्रतिग्रह, दुर्भोज्य, दुरालापसे जो पाप होता है; वह इस रौद्रीसंहिताका एक बार कीर्तन करनेसे नष्ट हो जाता है ॥ ४३ ॥ शिवालये बिल्ववने संहितां तां पठेत्तु यः ।
स यत्फलमवाप्नोति तद्वाचोऽपि न गोचरे ॥ ४४ ॥ जो व्यक्ति शिवालयमें अथवा बेलके वनमें इस संहिताका पाठ करता है, वह उससे जो फल प्राप्त करता है, उसका वर्णन वाणीसे नहीं किया जा सकता । ॥ ४४ ॥ संहितां तां पठन्भक्त्या यः श्राद्धे भोजयेद् द्विजान् ।
तस्य ये पितरः सर्वे यान्ति शम्भोः परं पदम् ॥ ४५ ॥ जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस संहिताका पाठ करते हुए श्राद्धके समय ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, उसके सभी पितर शम्भुके परम पदको प्राप्त करते हैं ॥ ४५ ॥ चतुर्दश्यां निराहारो यः पठेत् संहितां च ताम् ।
बिल्वमूले शिवः साक्षात्स देवैश्च प्रपूज्यते ॥ ४६ ॥ चतुर्दशीके दिन निराहार रहकर जो बेलके वृक्षके नीचे इस संहिताका पाठ करता है, वह साक्षात् शिव होकर सभी देवोंसे पूजित होता है ॥ ४६ ॥ अप्यन्याः संहितास्तत्र सर्वकामफलप्रदा ।
उभे विशिष्टे विज्ञेये लीलाविज्ञानपूरिते ॥ ४७ ॥ उसमें अन्य संहिताएँ सभी कामनाओंके फलको पूर्ण करनेवाली हैं, किंतु लीला और विज्ञानसे परिपूर्ण इन दोनों संहिताओंको विशिष्ट समझना चाहिये ॥ ४७ ॥ तदिदं शैवमाख्यातं पुराणं वेदसम्मितम् ।
निर्मितं तच्छिवेनैव प्रथमं ब्रह्मसम्मितम् ॥ ४८ ॥ | इस शिवपुराणको वेदके तुल्य माना गया है । इस वेदकल्प पुराणका सबसे पहले भगवान् शिवने ही प्रणयन किया था ॥ ४८ ॥ विद्येशं च तथा रौद्रं वैनायकमथौमिकम् ।
मात्रं रुद्रैकादशकं कैलासं शतरुद्रकम् ॥ ४९ ॥ कोटिरुद्रसहस्राद्यं कोटिरुद्रं तथैव च । वायवीयं धर्मसञ्ज्ञं पुराणमिति भेदतः ॥ ५० ॥ विद्येश्वरसंहिता, रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता, मातृसंहिता, एकादशरुद्रसंहिता, कैलाससंहिता, शतरुद्रसंहिता, कोटिरुद्रसंहिता, सहस्रकोटिन्द्रसंहिता, वायवीयसंहिता तथा धर्मसंहिताइस प्रकार इस पुराणके बारह भेद हैं ॥ ४९-५० ॥ संहिता द्वादशमिता महापुण्यतरा मता ।
तासां संख्यां ब्रुवे विप्राः शृणुतादरतोऽखिलम् ॥ ५१ ॥ विद्येशं दशसाहस्रं रुद्रं वैनायकं तथा । औमं मातृपुराणाख्यं प्रत्येकाष्टसहस्रकम् ॥ ५२ ॥ ये बारहों संहिताएँ अत्यन्त पुण्यमयी मानी गयी हैं । ब्राह्मणो ! अब मैं उनके श्लोकोंकी संख्या बता रहा हूँ । आपलोग वह सब आदरपूर्वक सुनें । विद्येश्वरसंहितामें दस हजार श्लोक हैं । रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता और मातृसंहिता-इनमेंसे प्रत्येकमें आठ-आठ हजार श्लोक हैं ॥ ५१-५२ ॥ त्रयोदशसहस्रं हि रुद्रैकादशकं द्विजाः ।
षट्सहस्रं च कैलासं शतरुद्रं तदर्धकम् ॥ ५३ ॥ कोटिरुद्रं त्रिगुणितमेकादशसहस्रकम् । सहस्रकोटिरुद्राख्यमुदितं ग्रंथसंख्यया ॥ ५४ ॥ वायवीयं खाब्धिशतं धर्मं रविसहस्रकम् । तदेवं लक्षसंख्याकं शैवं संख्याविभेदतः ॥ ५५ ॥ हे ब्राह्मणो ! एकादशरुद्रसंहितामें तेरह हजार, कैलाससंहितामें छः हजार, शतरुद्रसंहितामें तीन हजार, कोटिरुद्रसंहितामें नौ हजार, सहस्रकोटिरुद्रसंहितामें ग्यारह हजार, वायवीयसंहितामें चार हजार तथा धर्मसंहितामें बारह हजार श्लोक हैं । इस प्रकार संख्याके अनुसार मूल शिवपुराणकी श्लोकसंख्या एक लाख है ॥ ५३-५५ ॥ व्यासेन तत्तु सङ्क्षिप्तं चतुर्विंशत्सहस्रकम् ।
शैवं तत्र चतुर्थं वै पुराणं सप्तसंहितम् ॥ ५६ ॥ परंतु व्यासजीने उसे चौबीस हजार श्लोकोंमें संक्षिप्त कर दिया है । पुराणोंकी क्रमसंख्याक विचारसे इस शिवपुराणका स्थान चौथा है । इसमें सात संहिताएँ हैं ॥ ५६ ॥ शिवेन कल्पितं पूर्वं पुराणं ग्रन्थसंख्यया ।
शतकोटिप्रमाणं हि पुरा सृष्टौ सुविस्मृतम् ॥ ५७ ॥ पूर्वकालमें भगवान् शिवने श्लोकसंख्याकी दृष्टिसे |सौ करोड़ श्लोकोंका एक ही पुराणग्रन्थ बनाया था । सृष्टिके आदिमें निर्मित हुआ वह पुराणसाहित्य अत्यन्त विस्तृत था ॥ ५७ ॥ व्यस्तेऽष्टादशधा चैव पुराणे द्वापरादिषु ।
चतुर्लक्षेण सङ्क्षिप्ते कृते द्वैपायनादिभिः ॥ ५८ ॥ तत्पश्चात् द्वापर आदि युगोंमें द्वैपायना व्यास आदि महर्षियोंने जब पुराणका अठारह भागोंमें विभाजन कर दिया, उस समय सम्पूर्ण पुराणोंका संक्षिप्त स्वरूप केवल चार लाख श्लोकोंका रह गया ॥ ५८ ॥ प्रोक्तं शिवपुराणं हि चतुर्विंशत्सहस्रकम् ।
श्लोकानां संख्यया सप्तसंहितं ब्रह्मसंमितम् ॥ ५९ ॥ श्लोकसंख्याके अनुसार यह शिवपुराण चौबीस हजार श्लोकोंवाला कहा गया है । यह वेदतुल्य पुराण |सात संहिताओंमें विभाजित है ॥ ५९ ॥ विद्येश्वराख्या तत्राद्या रौद्री ज्ञेया द्वितीयिका ।
तृतीया शतरुद्राख्या कोटिरुद्रा चतुर्थिका ॥ ६० ॥ पञ्चमी चैवमौम्याख्या षष्ठी कैलाससंज्ञिका । सप्तमी वायवीयाख्या सप्तैवं संहिता मताः ॥ ६१ ॥ इसकी पहली संहिताका नाम विद्येश्वरसंहिता है, दूसरी रुद्रसंहिता समझनी चाहिये, तीसरीका नाम शतरुद्रसंहिता, चौथीका कोटिरुद्रसंहिता, पाँचवींका नाम उमासंहिता, छठीका कैलाससंहिता और सातवींका नाम वायवीयसंहिता है । इस प्रकार ये सात संहिताएँ मानी गयी हैं । ६०-६१ ॥ ससप्तसंहितं दिव्यं पुराणं शिवसंज्ञकम् ।
वरीवर्ति ब्रह्मतुल्यं सर्वोपरि गतिप्रदम् ॥ ६२ ॥ इन सात संहिताओंसे युक्त दिव्य शिवपुराण वेदके तुल्य प्रामाणिक तथा सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करनेवाला है ॥ ६२ ॥ एतच्छिवपुराणं हि सप्तसंहितमादरात् ।
परिपूर्णं पठेद्यस्तु स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६३ ॥ सात संहिताओंसे समन्वित इस सम्पूर्ण शिवपुराणको जो आद्योपान्त आदरपूर्वक पढ़ता है, वह जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ६३ ॥ श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासागमशतानि च ।
एतच्छिवपुराणस्य नार्हन्त्यल्पां कलामपि ॥ ६४ ॥ वेद, स्मृति, पुराण, इतिहास तथा सैकड़ों आगम इस शिवपुराणकी अल्प कलाके समान भी नहीं हैं ॥ ६४ ॥ शैवं पुराणममलं शिवकीर्तितं त-
द्व्यासेन शैवप्रवणेन च सङ्गृहीतम् । सङ्क्षेपतः सकलजीवगुणोपकारं तापत्रयघ्नमतुलं शिवदं सतां हि ॥ ६५ ॥ यह निर्मल शिवपुराण भगवान् शिवके द्वारा ही प्रतिपादित है । शैवशिरोमणि भगवान् व्यासने इसे संक्षेपकर संकलित किया है । यह समस्त जीवसमुदायके लिये उपकारक, त्रिविध तापोंका नाशक, तुलनारहित एवं सत्पुरुषोंको कल्याण प्रदान करनेवाला है ॥ ६५ ॥ विकैतवो धर्म इह प्रगीतो
वेदान्तविज्ञानमयः प्रधानः । अमत्सरान्तर्बुधवेद्यवस्तु सत्संकॢप्तमंत्रौघत्रिवर्गयुक्तम् ॥ ६६ ॥ इसमें वेदान्त-विज्ञानमय, प्रधान तथा निष्कपट धर्मका प्रतिपादन किया गया है । यह पुराण ईर्ष्यारहित अन्त:करणवाले विद्वानोंके लिये जाननेकी वस्तु है, इसमें श्रेष्ठ मन्त्रसमूहोंका संकलन है और यह धर्म, अर्थ तथा कामसे समन्वित है अर्थात्- इस त्रिवर्गकी प्राप्तिके साधनका भी इसमें वर्णन है ॥ ६६ ॥ शैवं पुराणतिलकं खलु सत्पुराणं
वेदान्तवेदविलसत्परवस्तुगीतम् । यो वै पठेच्च शृणुयात् परमादरेण शम्भुप्रियः स हि लभेत्परमां गतिं वै ॥ ६७ ॥ यह उत्तम शिवपुराण समस्त पुराणों में श्रेष्ठ है । वेद-वेदान्तमें वेद्यरूपसे विलसित परम वस्तु-परमात्माका इसमें गान किया गया है । जो बड़े आदरसे इसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान् शिवका प्रिय होकर परम गति प्राप्त कर लेता है ॥ ६७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
मुनिप्रश्नोत्तरवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विश्वरसंहितामें मुनिप्रश्नोत्तर-वर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |