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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ सप्तमोऽध्यायः ॥


समरे शम्भोरनलस्तम्भाविष्कारः -
भगवान् शंकरका ब्रह्मा और विष्णुके युद्ध में अग्निस्तम्भरूपमें प्राकट्य, स्तम्भके आदि और अन्तकी जानकारीके लिये दोनोंका प्रस्थान


ईश्वर उवाच
वत्सकाः स्वस्ति वः कच्चिद्वर्तते मम शासनात् ।
जगच्च देवतावंशः स्वस्वकर्मणि किं न वा ॥ १ ॥
प्रागेव विदितं युद्धं ब्रह्मविष्ण्वोर्मया सुराः ।
भवतामभितापेन पौनरुक्तेन भाषितम् ॥ २ ॥
इति सस्मितया माध्व्या कुमारपरिभाषया ।
समतोषयदम्बायाः स पतिस्तत्सुरव्रजम् ॥ ३ ॥
शिवजी बोले-हे पुत्रो ! आपकी कुशल तो है ? मेरे अनुशासनमें जगत् तथा देवश्रेष्ठ अपने अपने कार्योंमें लगे तो हैं ? हे देवताओ ! ब्रह्मा और विष्णुके बीच होनेवाले युद्धका वृत्तान्त तो मुझे पहलेसे ही ज्ञात था; आपलोगोंने [यहाँ आनेका] परिश्रम करके उसे पुनः बताया है । हे सनत्कुमार ! उमापति शंकरने इस प्रकार मुसकराते हुए मधुर वाणीमें उन देवगणोंको सन्तुष्ट किया ॥ १-३ ॥

अथ युद्धाङ्‌गणं गन्तुं हरिधात्रोरधीश्वरः ।
आज्ञापयद्‌गणेशानां शतं तत्रैव संसदि ॥ ४ ॥
ततो वाद्यं बहुविधं प्रयाणाय परेशितुः ।
गणेश्वराश्च सन्नद्धा नानावाहनभूषणाः ॥ ५ ॥
इसके बाद महादेवजीने ब्रह्मा और विष्णुकी बुद्धस्थलीमें जानेके लिये अपने सैकड़ों गणोंको वहीं सभामें आज्ञा दी । तब महादेवजीके प्रयाणके लिये अनेक प्रकारके बाजे बजने लगे और उनके गणाध्यक्ष भी अनेक प्रकार से सज-धजकर वाहनोंपर सवार होकर जानेके लिये तैयार हो गये ॥ ४-५ ॥

प्रणवाकारमाद्यन्तं पञ्चमण्डलमण्डितम् ।
आरुरोह रथं भद्रमम्बिकापतिरीश्वरः ।
ससूनुगणमिन्द्राद्याः सर्वेऽप्यनुययुः सुराः ॥ ६ ॥
चित्रध्वजव्यजनचामरपुष्पवर्ष-
     सङ्‌गीतनृत्यनिवहैरपि वाद्यवर्गैः ।
संमानितः पशुपतिः परया च देव्या
     साकं तयोः समरभूमिमगात्ससैन्यः ॥ ७ ॥
भगवान् उमापति पाँच मण्डलोंसे सुशोभित आगेसे पीछेतक प्रणव (ॐ) की आकृतिवाले सुन्दर रथपर आरूढ़ हो गये । इस प्रकार पुत्रों और गणोंसहित प्रस्थान किये हुए शिवजीके पीछे-पीछे इन्द्र आदि सभी देवगण भी चल पड़े । विचित्र ध्वजाएँ, पंखे, बँवर, पुष्पवृष्टि, संगीत, नृत्य और वाद्योंसे सम्मानित पशुपति भगवान् शिव भगवती उमाके साथ सेनासहित उन दोनों (ब्रह्मा और विष्णु)-की युद्धभूमिमें आ पहुँचे ॥ ६-७ ॥

समीक्ष्यं तु तयोर्युद्धं निगूढोऽभ्रं समास्थितः ।
समाप्तवाद्यनिर्घोषः शान्तोरुगणनिःस्वनः ॥ ८ ॥
अथ ब्रह्माच्युतौ वीरौ हन्तुकामौ परस्परम् ।
माहेश्वरेण चाऽस्त्रेण तथा पाशुपतेन च ॥ ९ ॥
अस्त्रज्वालैरथो दग्धं ब्रह्मविष्ण्वोर्जगत्त्रयम् ।
ईशोपि तं निरीक्ष्याथ ह्यकालप्रलयं भृशम् ॥ १० ॥
महानलस्तम्भविभीषणाकृति-
     र्बभूव तन्मध्यतले स निष्कलः ॥ ११ ॥
उन दोनोंका युद्ध देखकर शिवजीने गणोंका कोलाहल तथा वाद्योंकी ध्वनि बन्द करा दी तथा वे छिपकर आकाशमें स्थित हो गये । उधर शूरवीर ब्रह्मा और विष्णु एक-दूसरेको मारनेकी इच्छासे माहेश्वरास्त्र और पाशुपतास्त्रका परस्पर सन्धान कर रहे थे । ब्रह्मा और विष्णुके अस्त्रोंकी ज्वालासे तीनों लोक जलने लगे । निराकार भगवान् शंकर इस अकाल प्रलयको आया देखकर एक भयंकर विशाल अग्निस्तम्भके रूपमें उन दोनोंके बीच प्रकट हो गये ॥ ८-११ ॥

ते अस्त्रे चापि सज्वाले लोकसंहरणक्षमे ।
निपतेतुः क्षणेनैव ह्याविर्भूते महानले ॥ १२ ॥
दृष्ट्‍वा तदद्‌भुतं चित्रमस्त्रशान्तिकरं शुभम् ।
किमेतदद्‌भुताकारमित्यूचुश्च परस्परम् ॥ १३ ॥
संसारको नष्ट करनेमें सक्षम वे दोनों दिव्यास्त्र अपने तेजसहित उस महान् अग्निस्तम्भके प्रकट होते ही तत्क्षण शान्त हो गये । दिव्यास्त्रोंको शान्त करनेवाले इस आश्चर्यकारी तथा शुभ (आग्निस्तम्भ)को देखकर सभी लोग परस्पर कहने लगे कि यह अद्‌भुत आकारवाला (स्तम्भ) क्या है ? ॥ १२-१३ ॥

अतीन्द्रियमिदं स्तम्भमग्निरूपं किमुत्थितम् ।
अस्योर्ध्वमपि चाधश्च आवयोर्लक्ष्यमेव हि ॥ १४ ॥
इति व्यवस्थितौ वीरौ मिलितौ वीरमानिनौ ।
तत्परौ तत्परीक्षार्थं प्रतस्थातेऽथ सत्वरम् ॥ १५ ॥
आवयोर्मिश्रयोस्तत्र कार्यमेकं न सम्भवेत् ।
इत्युक्त्वा सूकरतनुर्विष्णुस्तस्यादिमीयिवान् ॥ १६ ॥
तथा ब्रह्माहं हंसतनुस्तदन्तं वीक्षितुं ययौ ।
भित्त्वा पातालनिलयं गत्वा दूरतरं हरिः ॥ १७ ॥
नापश्यत्तस्य संस्थानं स्तम्भस्यानलवर्चसः ।
श्रान्तः स सूकरहरिः प्राप पूर्वं रणाङ्‌गणम् ॥ १८ ॥
यह दिव्य अग्निस्तम्भ कैसे प्रकट हो गया ? इसकी ऊँचाईकी और इसकी जड़की हम दोनों जाँच करेंऐसा एक साथ निश्चय करके वे दोनों अभिमानी वीर उसकी परीक्षा करनेको तत्पर हो गये और शीघ्रतापूर्वक चल पड़े । हम दोनोंके साथ रहनेसे यह कार्य सम्पन्न नहीं होगा-ऐसा कहकर विष्णने सकरका रूप धारण किया और उसकी जड़की खोजमें चले । उसी प्रकार ब्रह्मा भी हंसका रूप धारण करके उसका अन्त खोजनेके लिये चल पड़े । पाताललोकको खोदकर बहुत दूरतक जानेपर भी विष्णुको उस अग्निके समान तेजस्वी स्तम्भका आधार नहीं दीखा । तब थक हारकर सूकराकृति विष्णु रणभूमिमें वापस आ गये ॥ १४-१८ ॥

अथ गच्छंस्तु व्योम्ना च विधिस्तात पिता तव ।
ददर्श केतकीपुष्पं किञ्चिद्विच्युतमद्‌भुतम् ॥ १९ ॥
अतिसौरभ्यमम्लानं बहुवर्षच्युतं तथा ।
अन्वीक्ष्य च तयोः कृत्यं भगवान् परमेश्वरः ॥ २० ॥
परिहासं तु कृतवान् कम्पनाच्चलितं शिरः ।
तस्मात्तावनुगृह्णातुं च्युतं केतकमुत्तमम् ॥ २१ ॥
हे तात ! आकाशमार्गसे जाते हुए आपके पिता ब्रह्माजीने मार्गमें अद्‌भुत केतकी (केवड़े)-के पुष्पको गिरते देखा । अनेक वर्षोंसे गिरते रहनेपर भी वह ताजा और अति सुगन्धयुक्त था । ब्रह्मा और विष्णुके इस विग्रहपूर्ण कृत्यको देखकर भगवान् परमेश्वर हँस पड़े, जिससे कम्पनके कारण उनका मस्तक हिला और वह श्रेष्ठ केतकी पुष्प उन दोनोंके ऊपर कृपा करनेके लिये गिरा ॥ १९-२१ ॥

किं त्वं पतसि पुष्पेश पुष्पराट् केन वा धृतः ।
आदिमस्याप्रमेयस्य स्तम्भमध्याच्च्युतिश्चिरम् ॥ २२ ॥
न सम्पश्यामि तस्मात्त्वं जह्याशामन्तदर्शने ।
[ब्रह्माजीने उससे पूछा-] हे पुष्पराज ! तुम्हें किसने धारण कर रखा था और तुम क्यों गिर रहे हो ? [केतकीने उत्तर दिया-] इस पुरातन और अप्रमेय स्तम्भके बीचसे मैं बहुत समयसे गिर रहा हूँ । फिर भी इसके आदिको नहीं देख सका । अतः आप भी इस स्तम्भका अन्त देखनेकी आशा छोड़ दें ॥ २२ १/२॥

अस्यान्तस्य च सेवार्थं हंसमूर्तिरिहागतः ॥ २३ ॥
इतः परं सखे मेऽद्य त्वया कर्तव्यमीप्सितम् ।
मया सह त्वया वाच्यमेतद्विष्णोश्च सन्निधौ ॥ २४ ॥
स्तम्भातो वीक्षितो धात्रा तत्र साक्ष्यहमच्युत ।
इत्युक्त्वा केतकं तत्र प्रणनाम पुनः पुनः ।
असत्यमपि शस्त्रं स्यादापदीत्यनुशासनम् ॥ २५ ॥
ब्रह्माजीने कहा- मैं तो हंसका रूप लेकर इसका अन्त देखनेके लिये यहाँ आया हूँ । अब हे मित्र ! मेरा एक अभिलषित काम तुम्हें करना पड़ेगा । विष्णुके पास मेरे साथ चलकर तुम्हें इतना कहना है कि 'ब्रह्माने इस स्तम्भका अन्त देख लिया है । हे अच्युत ! मैं इस बातका साक्षी हूँ । ' केतकीसे ऐसा कहकर ब्रह्माने उसे बार-बार प्रणाम किया और कहा कि आपत्कालमें तो मिथ्या भाषण भी प्रशस्त माना गया है-यह शास्त्रकी आज्ञा है ॥ २३-२५ ॥

समीक्ष्य तत्राऽच्युतमायतश्रमं
     प्रनष्टहर्षं तु ननर्त हर्षात् ।
उवाच चैनं परमार्थमच्युतं
षण्ढात्तवादः स विधिस्ततोऽच्युतम् ॥ २६ ॥
स्तम्भाग्रमेतत्समुदीक्षितं हरे
     तत्रैव साक्षी ननु केतकं त्विदम् ।
ततोऽवदत् तत्र हि केतकं मृषा
     तथेति तद्धातृवचस्तदन्तिके ॥ २७ ॥
वहाँ अति परिश्रमसे थके और [स्तम्भका अन्त न मिलनेसे] उदास विष्णुको देखकर ब्रह्मा प्रसन्नतासे नाच उठे और षण्ड (नपुंसक) के समान पूर्ण बातें बनाकर अच्युत विष्णुसे इस प्रकार कहने लगे-हे हरे ! मैंने इस स्तम्भका अग्रभाग देख लिया है । इसका साक्षी यह केतकी पुष्प है । तब उस केतकीने भी झूठ ही विष्णुके समक्ष कह दिया कि ब्रह्माकी वात यथार्थ है ॥ २६-२७ ॥

हरिश्च तत्सत्यमितीव चिन्तयं-
     श्चकार तस्मै विधये नमः स्वयम् |
षोढशैरुपचारैश्च पूजयामास तं विधिम् ॥ २८ ॥
विष्णुने उस बातको सत्य मानकर ब्रह्माको स्वयं प्रणाम किया और उनका षोडशोपचार पूजन किया ॥ २८ ॥

विधिं प्रहर्तुं शठमग्नलिङ्‌गतः
     स ईश्वरस्तत्र बभूव साकृतिः ।
समुत्थितः स्वामि विलोकनात् पुनः
     प्रकम्पपाणिः परिगृह्य तत्पदम् ॥ २९ ॥
आद्यन्तहीनवपुषि त्वयि मोहबुद्ध्या
     भूयाद्विमर्श इह नावति कामनोत्थः ।
स त्वं प्रसीद करुणाकर कश्मलं नौ
     मृष्टं क्षमस्व विहितं भवतैव केल्या ॥ ३० ॥
उसी समय कपटी ब्रह्माको दण्डित करनेके लिये उस प्रज्वलित स्तम्भ लिंगसे महेश्वर प्रकट हो गये । तब परमेश्वरको प्रकट हुआ देखकर विष्णु उठ खड़े हुए और काँपते हाथोंसे उनका चरण पकड़कर कहने लगे । हे करुणाकर ! आदि और अन्तसे रहित शरीरवाले आप परमेश्वरके विषयमें मैंने मोहबुद्धिसे बहुत विचार किया; किंतु कामनाओंसे उत्पन्न वह विचार सफल नहीं हुआ । अतः आप हमपर प्रसन्न हों, हमारे पापको नष्ट करें और हमें क्षमा करें; यह सब आपकी लीलासे ही हुआ है ॥ २९-३० ॥

ईश्वर उवाच
वत्सप्रसन्नोऽस्मि हरे यतस्त्व-
     मीशत्वमिच्छन्नपि सत्यवाक्यम् ।
ब्रूयास्ततस्ते भविता जनेषु
     साम्यं मया सत्कृतिरप्यलब्धाः ॥ ३१ ॥
इतः परं ते पृथगात्मनश्च
     क्षेत्रप्रतिष्ठोत्सवपूजनं च ॥ ३२ ॥
ईश्वर बोले-हे वत्स ! मैं तुमपर प्रसन्न हैं क्योंकि श्रेष्ठताकी कामना होनेपर भी तुमने सत्य वचनका पालन किया, इसलिये लोगोंमें तुम मेरे समान ही प्रतिष्ठा और सत्कार प्राप्त करोगे । हे हरे अबसे आपकी पृथक् मूर्ति बनाकर पुण्य क्षेत्रोंमें प्रतिष्ठित की जायगी और उसका उत्सवपूर्वक पूजन होगा ॥ ३१-३२ ॥

इति देवः पुरा प्रीतः सत्येन हरये परम् ।
ददौ स्वसाम्यमत्यर्थं देवसङ्‌घे च पश्यति ॥ ३३ ॥
इस प्रकार परमेश्वरने विष्णुकी सत्यनिष्ठासे प्रसन्न होकर देवताओंके सामने उन्हें अपनी समानता प्रदान की थी ॥ ३३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां
अनलस्थम्भाविष्कारवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्यश्वरसंहितामें अग्निस्तम्भके प्राकटाका वर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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