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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ अष्टमोऽध्यायः ॥


ब्रह्मोपरि शिवस्यानुग्रहः -
भगवान् शंकरद्वारा ब्रह्मा और केतकी पुष्पको शाप देना और पुनः अनुग्रह प्रदान करना


नन्दिकेश्वर उवाच -
ससर्जाथ महादेवः पुरुषं कञ्चिदद्‌भुतम् ।
भैरवाख्यं भ्रुवोर्मध्याद्‌ब्रह्मदर्पजिघांसया ॥ १ ॥
स वै तदा तत्र पतिं प्रणम्य शिवमङ्‌गणे ।
किं कार्यं करवाण्यत्र शीघ्रमाज्ञापय प्रभो ॥ २ ॥
नन्दिकेश्वर बोले-तदुपरान्त महादेव शिवजीने ब्रह्माके गर्वको मिटानेकी इच्छासे अपनी भृकुटीके मध्यसे भैरव नामक एक अद्‌भुत पुरुषको उत्पन्न किया । उस भैरवने रणभूमिमें अपने स्वामी शिवजीको प्रणाम करके पूछा कि हे प्रभो ! आप शीघ्र आज्ञा दें, मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ? ॥ १-२ ॥

शिव उवाच -
वत्सयोऽयं विधिः साक्षाज्जगतामाद्यदैवतम् ।
नूनमर्चय खड्गं स्वं तिग्मेन जवसा परम् ॥ ३ ॥
शिवजी बोले-हे वत्स ! ये जो ब्रह्मा हैं, वे इस सृष्टिके आदि देवता हैं, तुम वेगपूर्वक तीक्ष्ण तलवारसे इनकी पूजा करो अर्थात् इनका वध कर दो ॥ ३ ॥

स वै गृहीत्वैककरेण केशं
     तत्पञ्चमं दृप्तमसत्यभाषिणम् ।
छित्त्वा शिरो ह्यस्य निहन्तुमुद्यतः
     प्रकम्पयन्खड्गमतिस्फुटं करैः ॥ ४ ॥
तब भैरव एक हाथसे [ब्रह्माके] केश पकड़कर असत्य भाषण करनेवाले उनके उद्धत पाँचवें सिरको काटकर हाथोंमें तलवार भाँजते हुए उन्हें मार डालनेके लिये उद्यत हुए ॥ ४ ॥

पिता तवोत्सृष्टविभूषणाम्बर-
     स्रगुत्तरीयामलकेशसंहतिः ।
प्रवातरम्भेव लतेव चञ्चलः
     पपात वै भैरवपादपङ्‌कजे ॥ ५ ॥
तावद्विधिं तात दिदृक्षुरच्युतः
     कृपालुरस्मत्पतिपादपल्लवम् ।
निषिच्य बाष्पैरवदत्कृताञ्जलि-
     र्यथा शिशुः स्वं पितरं कलाक्षरम् ॥ ६ ॥
[हे सनत्कुमार !] तब आपके पिता अपने आभूषण, वस्त्र, माला, उत्तरीय एवं निर्मल बालोंके बिखर जानेसे आँधीमें झकझोरे हुए केलेके पेड़ और लतागुल्मोंके समान कम्पित होकर भैरवके चरण कमलोंपर गिर पड़े । हे तात ! तब ब्रह्माकी रक्षा करनेकी इच्छासे कृपालु विष्णुने मेरे स्वामी भगवान् शंकरके चरणकमलोंको अपने अश्रु-जलसे भिगोते हुए हाथ जोड़कर इस प्रकार प्रार्थना की, जैसे एक छोटा बालक अपने पिताके प्रति टूटी-फूटी वाणीमें करता है ॥ ५-६ ॥

अच्युत उवाच
त्वया प्रयत्‍नेन पुरा हि दत्तं
     यदस्य पञ्चाननमीश चिह्नम् ।
तस्मात्क्षमस्वाद्यमनुग्रहार्हं
     कुरु प्रसादं विधये ह्यमुष्मै ॥ ७ ॥
अच्युत बोले-[हे ईश !] आपने ही पहले कृपापूर्वक इन ब्रह्माको पंचाननरूप प्रदान किया था । इसलिये ये आपके अनुग्रह करनेयोग्य हैं, इनका अपराध क्षमा करें और इनपर प्रसन्न हों ॥ ७ ॥

इत्यर्थितोऽच्युतेनेशस्तुष्टः सुरगणाङ्‌गणे ।
निवर्तयामास तदा भैरवं ब्रह्मदण्डतः ॥ ८ ॥
अथाह देवः कितवं विधिं विगतकन्धरम् ।
ब्रह्मंस्त्वमर्हणाकाङ्‌क्षी शठेशत्वं समास्थितः ॥ ९ ॥
नातस्ते सत्कृतिर्लोके भूयात्स्थानोत्सवादिकम् ।
भगवान् अच्युतके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर शिवजीने प्रसन्न होकर देवताओंके सामने ही ब्रह्माको दण्डित करनेसे भैरवको रोक |दिया । शिवजीने एक सिरसे विहीन कपटी ब्रह्मासे कहा-हे ब्रह्मन् ! तुम श्रेष्ठता पानेके चक्करमें शठेशत्वको प्राप्त हो गये हो । इसलिये संसारमें तुम्हारा सत्कार नहीं होगा और तुम्हारे मन्दिर तथा पूजनोत्सव आदि नहीं होंगे ॥ ८-९.५ ॥

ब्रह्मोवाच -
स्वामिन्प्रसीदाद्य महाविभूते
     मन्ये वरं मे शिरसः प्रमोक्षम् ॥ १० ॥
नमस्तुभ्यं भगवते बन्धवे विश्वयोनये ।
सहिष्णवे च दोषाणां शम्भवे शैलधन्वने ॥ ११ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे महाविभूतिसम्पन्न स्वामिन् ! आप मुझपर प्रसन्न होइये; मैं [आपकी कृपासे] अपने सिरके कटनेको भी आज श्रेष्ठ समझता हूँ । विश्वके कारण, विश्वबन्धु, दोषोंको सह लेनेवाले और पर्वतके समान कठोर धनुष धारण करनेवाले आप भगवान् शिवको नमस्कार है ॥ १०-११ ॥

ईश्वर उवाच -
अराजभयमेतद्वै जगत्सर्वं विनष्यति ।
ततस्त्वं जहि दण्डार्हं वह लोकधुरं शिशो ॥ १२ ॥
वरं ददामि ते तत्र गृहाण दुर्लभं परम् ।
वैतानिकेषु गृह्येषु यज्ञेषु च भवान्गुरुः ॥ १३ ॥
निष्फलस्त्वदृते यज्ञः साङ्‌गश्च सहदक्षिणः ।
ईश्वर बोले-हे वत्स ! अनुशासनका भय नहीं रहनेसे यह सारा संसार नष्ट हो जायगा । अतः तुम दण्डनीयको दण्ड दो और इस संसारकी व्यवस्था चलाओ । तुम्हें एक परम दुर्लभ वर भी देता हूँ, जिसे ग्रहण करो । अग्निहोत्र आदि वैतानिक और गृह्य यज्ञोंमें आप ही श्रेष्ठ रहेंगे । सर्वांगपूर्ण और पुष्कल दक्षिणावाला यज्ञ भी आपके बिना निष्फल होगा ॥ १२-१३.५ ॥

अथाह देवः कितवं केतकं कूटसाक्षिणम् ॥ १४ ॥
रे रे केतक दुष्टस्त्वं शठ दूरमितो व्रज ।
ममापि प्रेम ते पुष्पे माभूत्पूजास्वितः परम् ॥ १५ ॥
इत्युक्ते तत्र देवेन केतकं देवजातयः ।
सर्वा निवारयामासुस्तत्पार्श्वादन्यतस्तदा ॥ १६ ॥
तब भगवान् शिवने झूठी गवाही देनेवाले कपटी केतक पुष्पसे कहा-अरे शठ केतक ! तुम दुष्ट हो; यहाँसे दूर चले जाओ । मेरी पूजामें उपस्थित तुम्हारा फूल मुझे प्रिय नहीं होगा । शिवजीद्वारा इस प्रकार कहते ही सभी देवताओंने केतकीको उनके पाससे हटाकर अन्यत्र भेज दिया ॥ १४-१६ ॥

केतक उवाच -
नमस्ते नाथ मे जन्म निष्फलं भवदाज्ञया ।
सफलं क्रियतां तात क्षम्यतां मम किल्बिषम् ॥ १७ ॥
ज्ञानाज्ञानकृतं पापं नाशयत्येव ते स्मृतिः ।
तादृशे त्वयि दृष्टे मे मिथ्यादोषः कुतो भवेत् ॥ १८ ॥
केतक बोला-हे नाथ ! आपको नमस्कार है । आपकी आज्ञाके कारण मेरा तो जन्म ही निष्फल हो गया है । हे तात ! मेरा अपराध क्षमा करें और मेरा जन्म सफल कर दें । जाने-अनजानेमें हुए पाप आपके स्मरणमात्रसे नष्ट हो जाते हैं, फिर ऐसे प्रभावशाली आपके साक्षात् दर्शन करनेपर भी मेरे झूठ बोलनेका दोष कैसे रह सकता है ? ॥ १७-१८ ॥

तथा स्तुतस्तु भगवान्केतकेन सभास्थले ।
न मे त्वद्वारणं योग्यं सत्यवागहमीश्वरः ॥ १९ ॥
मदीयास्त्वां धरिष्यन्ति जन्म ते सफलं ततः ।
त्वं वै वितानव्याजेन ममोपरि भविष्यसि ॥ २० ॥
उस सभास्थलमें केतक पुष्पके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् सदाशिवने कहा-मैं सत्य बोलनेवाला है, अतः मेरे द्वारा तुझे धारण किया जाना उचित नहीं है, किंतु मेरे ही अपने (विष्णु आदि देवगण) तुम्हें धारण करेंगे और तुम्हारा जन्म सफल होगा और मण्डप आदिके बहाने तुम मेरे ऊपर भी उपस्थित रहोगे ॥ १९-२० ॥

इत्यनुगृह्य भगवान्केतकं विधिमाधवौ ।
विरराज सभामध्ये सर्वदेवैरभिष्टुतः ॥ २१ ॥
इस प्रकार भगवान् शंकर ब्रह्मा, विष्णु और केतकी पुष्पपर अनुग्रह करके सभी देवताओंसे स्तुत होकर सभामें सुशोभित हुए ॥ २१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
शिवानुग्रहवर्णनं नाम अष्टमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहितामें शिवकी कृपाका वर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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