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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥ ॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
विद्येश्वरसंहिता
॥ द्वादशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] शिवक्षेत्रवर्णनम् -
मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रोंका वर्णन, कालविशेषमें विभिन्न नदियोंके जलमें स्नानके उत्तम फलका निर्देश तथा तीर्थों में पापसे बचे रहनेकी चेतावनी सूत उवाच -
शृणुध्वमृषयः प्राज्ञाः शिवक्षेत्रं विमुक्तिदम् । तदागमांस्ततो वक्ष्ये लोकरक्षार्थमेव हि ॥ १ ॥ पञ्चाशत्कोटिविस्तीर्णा सशैलवनकानना । शिवाज्ञया हि पृथिवी लोकं धृत्वा च तिष्ठति ॥ २ ॥ तत्र तत्र शिवक्षेत्रं तत्र तत्र निवासिनाम् । मोक्षार्थं कृपया देवः क्षेत्रं कल्पितवान्प्रभुः ॥ ३ ॥ सूतजी बोले-हे बुद्धिमान् महर्षियो ! मोक्षदायक शिवक्षेत्रोंका वर्णन सुनिये । तत्पश्चात् मैं लोकरक्षाके लिये शिवसम्बन्धी आगमोंका वर्णन करूँगा । पर्वत, वन और काननोंसहित इस पृथ्वीका विस्तार पचास करोड़ योजन है । भगवान् शिवकी आज्ञासे पृथ्वी सम्पूर्ण जगत्को धारण करके स्थित है । भगवान् शिवने भूतलपर विभिन्न स्थानों में वहाँके निवासियोंको कृपापूर्वक मोक्ष देनेके लिये शिवक्षेत्रका निर्माण किया है ॥ १-३ ॥ परिग्रहादृषीणां च देवानां च परिग्रहात् ।
स्वयम्भूतान्यथान्यानि लोकरक्षार्थमेव हि ॥ ४ ॥ तीर्थे क्षेत्रे सदा कार्यं स्नानदानजपादिकम् । अन्यथा रोगदारिद्र्यमूकत्वाद्याप्नुयान्नरः ॥ ५ ॥ अथास्मिन्भारते वर्षे प्राप्नोति मरणं नरः । स्वयम्भूस्थानवासेन पुनर्मानुष्यमाप्नुयात् ॥ ६ ॥ क्षेत्रे पापस्य करणं दृढं भवति भूसुराः । पुण्यक्षेत्रे निवासे हि पापमण्वपि नाचरेत् ॥ ७ ॥ येन केनाप्युपायेन पुण्यक्षेत्रे वसेन्नरः । कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिन्हें देवताओं तथा ऋषियोंने अपना वासस्थान बनाकर अनुगृहीत किया है । इसीलिये उनमें तीर्थत्व प्रकट हो गया है तथा अन्य बहुत-से तीर्थक्षेत्र ऐसे हैं, जो लोकोंकी रक्षाके लिये स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं । तीर्थ और क्षेत्रमें जानेपर मनुष्यको सदा स्नान, दान और जप आदि करना चाहिये । अन्यथा वह रोग, दरिद्रता तथा मूकता आदि दोषोंका भागी होता है । जो मनुष्य इस भारतवर्षके भीतर स्वयम्भू तीर्थोमें वास करके मरता है, उसे पुनः मनुष्ययोनि ही प्राप्त होती है । हे ब्राह्मणो ! पुण्यक्षेत्रमें पापकर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता है । अत: पुण्यक्षेत्रमें निवास करते समय थोड़ा सा भी पाप न करे । जिस किसी भी उपायसे मनुष्यको पुण्यक्षेत्रमें वास करना चाहिये ॥ ४-७ १/२ ॥ सिन्धोः शतनदीतीरे सन्ति क्षेत्राण्यनेकशः ॥ ८ ॥
सरस्वती नदी पुण्या प्रोक्ता षष्टिमुखा तथा । तत्तत्तीरे वसेत्प्राज्ञः क्रमाद्ब्रह्मपदं लभेत् ॥ ९ ॥ हिमवद् गिरिजा गङ्गा पुण्या शतमुखा नदी । तत्तीरे चैव काश्यादिपुण्यक्षेत्राण्यनेकशः ॥ १० ॥ तत्र तीरं प्रशस्तं हि मृगे मृगबृहस्पतौ । शोणभद्रो दशमुखः पुण्योभीष्टफलप्रदः ॥ ११ ॥ तत्र स्नानोपवासेन पदं वैनायकं लभेत् । चतुर्वींशमुखा पुण्या नर्मदा च महानदी ॥ १२ ॥ तस्यां स्नानेन वासेन पदं वैष्णवमाप्नुयात् । तमसा द्वादशमुखा रेवा दशमुखा नदी ॥ १३ ॥ गोदावरी महापुण्या ब्रह्मगोवधनाशिनी । एकविंशमुखा प्रोक्ता रुद्रलोकप्रदायिनी ॥ १४ ॥ कृष्णवेणी पुण्यनदी सर्वपापक्षयावहा । साष्टादशमुखा प्रोक्ता विष्णुलोकप्रदायिनी ॥ १५ ॥ तुङ्गभद्रा दशमुखा ब्रह्मलोकप्रदायिनी । सुवर्णमुखरी पुण्या प्रोक्ता नवमुखा तथा ॥ १६ ॥ तत्रैव सुप्रजायन्ते ब्रह्मलोकच्युतास्तथा । सरस्वती च पम्पा च कन्या श्वेतनदी शुभा ॥ १७ ॥ एतासां तीरवासेन इन्द्रलोकमवाप्नुयात् । सह्याद्रिजा महापुण्या कावेरीति महानदी ॥ १८ ॥ सप्तविंशमुखा प्रोक्ता सर्वाभीष्टप्रदायिनी । तत्तीराः स्वर्गदाश्चैव ब्रह्मविष्णुपदप्रदाः ॥ १९ ॥ शिवलोकप्रदा शैवास्तथाऽभीष्टफलप्रदाः । सिन्धु और गंगा नदीके तटपर बहुत से पुण्यक्षेत्र हैं । सरस्वती नदी परम पवित्र और साठ मुखवाली कही गयी है अर्थात् उसकी साठ धाराएँ हैं । जो विद्वान् पुरुष सरस्वतीकी उन-उन धाराओंके तटपर निवास करता है, वह क्रमशः ब्रह्मपदको पा लेता है । हिमालय पर्वतसे निकली हुई पुण्यसलिला गंगा सौ मुखवाली नदी है, उसके तटपर काशी आदि अनेक पुण्यक्षेत्र हैं । वहाँ मकरराशिके सूर्य होनेपर गंगाकी तटभूमि पहलेसे भी अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती है । शोणभद्र नदकी दस धाराएँ हैं, वह बृहस्पतिके मकरराशिमें आनेपर अत्यन्त पवित्र तथा अभीष्ट फल देनेवाला हो जाता है । उस समय वहाँ स्नान और उपवास करनेसे विनायकपदकी प्राप्ति होती है । पुण्यसलिला महानदी नर्मदाके चौबीस मुख (स्रोत) हैं । उसमें स्नान तथा उसके तटपर निवास करनेसे मनुष्यको वैष्णवपदकी प्राप्ति होती है । तमसा नदीके बारह तथा रेवाके दस मुख हैं । परम पुण्यमयी गोदावरीके इक्कीस मुख बताये गये हैं । वह ब्रह्महत्या तथा गोवधके पापका भी नाश करनेवाली एवं रुद्रलोक देनेवाली है । कृष्णवेणी नदीका जल बड़ा पवित्र है । वह नदी समस्त पापोंका नाश करनेवाली है । उसके अठारह मुख बताये गये हैं तथा वह विष्णुलोक प्रदान करनेवाली है । तुंगभद्राके दस मुख हैं, वह ब्रह्मलोक देनेवाली है । पुण्यसलिला सुवर्णमुखरीके नौ मुख कहे गये हैं । ब्रह्मलोकसे लौटे हुए जीव उसीके तटपर जन्म लेते हैं । सरस्वती, पम्पा, कन्याकुमारी तथा शुभकारक श्वेत नदी-ये सभी पुण्यक्षेत्र हैं । इनके तटपर निवास करनेसे इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है । सह्य पर्वतसे निकली हुई महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है । उसके सत्ताईस मुख बताये गये हैं । वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली है । उसके तट स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाले तथा ब्रह्मा और विष्णुका पद देनेवाले हैं । कावेरीके जो तट शैवक्षेत्रके अन्तर्गत हैं, वे अभीष्ट फल देनेके साथ ही शिवलोक प्रदान करनेवाले भी हैं ॥ ८-१९ १/२ ॥ नैमिषे बदरे स्नायान्मेषगे च गुरौ रवौ ॥ २० ॥
ब्रह्मलोकप्रदं विद्यात्ततः पूजादिकं तथा । सिन्धुनद्यां तथा स्नानं सिंहे कर्कटगे रवौ ॥ २१ ॥ केदारोदकपानं च स्नानं च ज्ञानदं विदुः । नैमिषारण्य तथा बदरिकाश्रममें सूर्य और बृहस्पतिके मेषराशिमें आनेपर यदि स्नान करे तो उस समय वहाँ किये हुए स्नान-पूजन आदिको ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला जानना चाहिये । सिंह और कर्कराशिमें सूर्यकी संक्रान्ति होनेपर सिन्धुनदीमें किया हुआ स्नान तथा केदारतीर्थके जलका पान एवं स्नान ज्ञानदायक माना गया है ॥ २०-२१ १/२ ॥ गोदावर्यां सिंहमासे स्नायात्सिंहबृहस्पतौ ॥ २२ ॥
शिवलोकप्रदमिति शिवेनोक्तं तथा पुरा । यमुनाशोणयोः स्नायाद् गुरौ कन्यागते रवौ ॥ २३ ॥ धर्मलोके दन्तिलोके महाभोगप्रदं विदुः । कावेर्यां च तथा स्नायात्तुलागे तु रवौ गुरौ ॥ २४ ॥ विष्णोर्वचनमाहात्म्यात्सर्वाभीष्टप्रदं विदुः । वृश्चिके मासि सम्प्राप्ते तथार्के गुरुवृश्चिके ॥ २५ ॥ नर्मदायां नदीस्नानाद्विष्णुलोकमवाप्नुयात् । सुवर्णमुखरीस्नानां चापगे च गुरौ रवौ ॥ २६ ॥ शिवलोकप्रदमिति ब्राह्मणो वचनं यथा । मृगमासि तथा स्नायाज्जाह्नव्यां मृगगे गुरौ ॥ २७ ॥ शिवलोकप्रदमिति ब्रह्मणो वचनं यथा । ब्रह्मविष्ण्वोः पदे भुक्त्वा तदन्ते ज्ञानमाप्नुयात् ॥ २८ ॥ जब बृहस्पति सिंहराशिमें स्थित हों, उस समय सिंहकी संक्रान्तिसे युक्त भाद्रपदमासमें यदि गोदावरीके जलमें स्नान किया जाय, तो वह शिवलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है-ऐसा पूर्वकालमें स्वयं भगवान् शिवने कहा था । जब सूर्य और बृहस्पति कन्याराशिमें स्थित हों, तब यमुना और शोणभद्र में स्नान करे । वह स्नान धर्मराज तथा गणेशजीके लोकमें महान् भोग प्रदान करानेवाला होता है-यह महर्षियोंकी मान्यता है । जब सूर्य और बृहस्पति तुलाराशिमें स्थित हों, उस समय कावेरी नदीमें स्नान करे । वह स्नान भगवान् विष्णुके वचनकी महिमासे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला माना गया है । जब सूर्य और बृहस्पति वृश्चिक राशिपर आ जायें, तब मार्गशीर्षके महीनेमें नर्मदामें स्नान करनेसे विष्णुलोककी प्राप्ति होती है । सूर्य और बृहस्पतिके धनुराशिमें स्थित होनेपर सवर्णमुखरी नदीमें किया हुआ स्नान शिवलोक प्रदान करानेवाला होता है, यह ब्रह्माजीका वचन है । जब सूर्य और बृहस्पति मकरराशिमें स्थित हों, उस समय माघमासमें गंगाजीके जलमें स्नान करना चाहिये । ब्रह्माजीका कथन है कि वह स्नान शिवलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है । शिवलोकके पश्चात् ब्रह्मा और विष्णुके स्थानोंमें सुख भोगकर अन्तमें मनुष्यको ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है ॥ २२-२८ ॥ गङ्गायां माघमासे तु तथाकुम्भगते रवौ ।
श्राद्धं वा पिंडदानं वा तिलोदकमथापि वा ॥ २९ ॥ वंशद्वयपितॄणां च कुलकोट्युद्धरं विदुः । कृष्णवेण्यां प्रशंसन्ति मीनगे च गुरौ रवौ ॥ ३० ॥ तत्तत्तीर्थे च तन्मासि स्नानमिन्द्रपदप्रदम् । गङ्गां वा सह्यजां वापि समाश्रित्य वसेद्बुधः ॥ ३१ ॥ तत्कालकृतपापस्य क्षयो भवति निश्चितम् । माघमासमें तथा सूर्यके कुम्भराशिमें स्थित होनेपर फाल्गुनमासमें गंगाजीके तटपर किया हुआ श्राद्ध, पिण्डदान अथवा तिलोदकदान पिता और नाना दोनों कुलॉके पितरोंकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार करनेवाला माना गया है । सूर्य और बृहस्पति जब मीनराशिमें स्थित हों, तब कृष्णवेणी नदीमें किये गये स्नानकी ऋषियोंने प्रशंसा की है । उन-उन महीनोंमें पूर्वोक्त तीथों में किया हुआ स्नान इन्द्रपदकी प्राप्ति करानेवाला होता है । विद्वान् पुरुष गंगा अथवा कावेरी नदीका आश्रय लेकर तीर्थवास करे । ऐसा करनेसे उस समयमें किये हुए पापका निश्चय ही नाश हो जाता है ॥ २९-३१ १/२ ॥ रुद्रलोकप्रदान्येव सन्ति क्षेत्राण्यनेकशः ॥ ३२ ॥
ताम्रपर्णी वेगवती ब्रह्मलोकफलप्रदे । तयोस्तीरे हि सन्त्येव क्षेत्राणि स्वर्गदानि च ॥ ३३ ॥ सन्ति क्षेत्राणि तन्मध्ये पुण्यदानि च भूरिशः । तत्र तत्र वसन्प्राज्ञस्तादृशं च फलं लभेत् ॥ ३४ ॥ सदाचारेण सद्वृत्त्या सदा भावनयापि च । वसेद्दयालुः प्राज्ञो वै नान्यथा तत्फलं लभेत् ॥ ३५ ॥ पुण्यक्षेत्रे कृतं पुण्यं बहुधा ऋद्धिमृच्छति । पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं महदण्वापि जायते ॥ ३६ ॥ तत्कालं जीवनार्थश्चेत्पुण्येन क्षयमेष्यति । पुण्यमैश्वर्यदं प्राहुः कायिकं वाचिकं तथा ॥ ३७ ॥ मानसं च तथा पापं तादृशं नाशयेद्द्विजाः । मानसं वज्रलेपं तु कल्पकल्पानुगं तथा ॥ ३८ ॥ रुद्रलोक प्रदान करनेवाले बहुत-से क्षेत्र हैं । ताम्रपर्णी और वेगवती-ये दोनों नदियाँ ब्रह्मलोककी प्राप्तिरूप फल देनेवाली हैं । उन दोनोंके तटपर अनेक स्वर्गदायक क्षेत्र हैं । उन दोनोंके मध्यमें बहुत-से पुण्यप्रद क्षेत्र हैं । वहाँ निवास करनेवाला विद्वान् पुरुष वैसे फलका भागी होता है । सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावनाके साथ मनमें दयाभाव रखते हुए विद्वान् पुरुषको तीर्थमें निवास करना चाहिये, अन्यथा उसका फल नहीं मिलता । पुण्यक्षेत्रमें किया हुआ थोड़ा-सा पुण्य भी अनेक प्रकारसे वृद्धिको प्राप्त होता है तथा वहाँ किया हुआ छोटा-सा पाप भी महान् हो जाता है । यदि पुण्यक्षेत्रमें रहकर ही जीवन बितानेका निश्चय हो, तो उस पुण्यसंकल्पसे उसका पहलेका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जायगा; क्योंकि पुण्यको ऐश्वर्यदायक कहा गया है । हे ब्राह्मणो ! तीर्थवासजनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापोंका नाश कर देता है । तीर्थमें किया हुआ मानसिक पाप वज्रलेप हो जाता है । वह कई कल्पोंतक पीछा नहीं छोड़ता है ॥ ३२-३८ ॥ ध्यानादेव हि तन्नश्येन्नान्यथा नाशमृच्छति ।
वाचिकं जपजालेन कायिकं कायशोषणात् ॥ ३९ ॥ दानाद्धनकृतं नश्येन्नाऽन्यथा कल्पकोटिभिः । क्वचित्पापेन पुण्यं च वृद्धिपूर्वेण नश्यति ॥ ४० ॥ बीजांशश्चैव वृद्ध्यंशो भोगांशः पुण्यपापयोः । ज्ञाननाश्यो हि बीजांशो वृद्धिरुक्तप्रकारतः ॥ ४१ ॥ भोगांशो भोगनाश्यस्तु नान्यथा पुण्यकोटिभिः । बीजप्ररोहे नष्टे तु शेषो भोगाय कल्पते ॥ ४२ ॥ देवानां पूजया चैव ब्रह्मणानां च दानतः । तपोधिक्याच्च कालेन भोगः सह्यो भवेन्नृणाम् । तस्मात्पापमकृत्वैव वस्तव्यं सुखमिच्छता ॥ ४३ ॥ वैसा पाप केवल ध्यानसे ही नष्ट होता है, अन्यथा नष्ट नहीं होता । वाचिक पाप जपसे तथा कायिक पाप शरीरको सुखाने जैसे कठोर तपसे नष्ट होता है । धनोपार्जनमें हुए पाप दानसे नष्ट होते हैं अन्यथा करोड़ों कल्पोंमें भी उनका नाश नहीं होता । कभी-कभी अतिशय मात्रामें बढ़े पापोंसे पुण्य भी नष्ट हो जाते हैं । पुण्य और पाप दोनोंका बीजांश, वृद्ध्यंश और भोगांश होता है । बीजांशका नाश ज्ञानसे, वृद्ध्यंशका ऊपर लिखे प्रकारसे तथा भोगांशका नाश भोगनेसे होता है । अन्य किसी प्रकारसे करोड़ों पुण्य करके भी पापके भोगांश नहीं मिट सकते । पापबीजके अंकुरित हो जानेपर उसका अंश नष्ट होनेपर भी शेष पाप भोगना ही पड़ता है । देवताओंकी पूजा, ब्राह्मणोंको दान तथा अधिक तप करनेसे समय पाकर पापभोग मनुष्योंके सहनेयोग्य हो जाते हैं । इसलिये सुख चाहनेवाले व्यक्तिको पापोंसे बचकर ही तीर्थवास करना चाहिये ॥ ३९-४३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
शिवक्षेत्रवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्यश्वरसंहितामें शिवक्षेत्रका वर्णन नामक बारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |