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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥ ॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
विद्येश्वरसंहिता
॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] सदाचारवर्णनम् -
सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, सन्ध्यावन्दन, प्रणव-जप, गायत्री-जप, दान, न्यायत: धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदिकी विधि एवं उनकी महिमाका वर्णन ऋषय ऊचुः -
सदाचारं श्रावयाशु येन लोकाञ्जयेद्बुधः । धर्माधर्ममयान्ब्रूहि स्वर्गनारकदांस्तथा ॥ १ ॥ ऋषिगण बोले-[हे सूतजी !] अब आप शीघ्र ही हमें वह सदाचार सुनाइये, जिससे विद्वान् पुरुष पुण्यलोकोंपर विजय प्राप्त कर लेता है । स्वर्ग प्रदान करनेवाले धर्ममय आचारों तथा नरकका कष्ट देनेवाले अधर्ममय आचारोंका भी वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ सूत उवाच
सदाचारयुतो विद्वान्ब्राह्मणो नाम नामतः । वेदाचारयुतो विप्रो ह्येतैरेकैकवान्द्विजः ॥ २ ॥ अल्पाचारोल्पवेदश्च क्षत्रियो राजसेवकः । किञ्चिदाचारवान्वैश्यः कृषिवाणिज्यकृत्तथा ॥ ३ ॥ शूद्रब्राह्मण इत्युक्तः स्वयमेव हि कर्षकः । असूयालुः परद्रोही चंडालद्विज उच्यते ॥ ४ ॥ सूतजी बोले-[हे ऋषियो !] सदाचारका पालन करनेवाला विद्वान् ब्राह्मण ही वास्तवमें 'ब्राह्मण' नाम धारण करनेका अधिकारी है । जो केवल वेदोक्त आचारका पालन करनेवाला है, उस ब्राह्मणकी 'विप्र' संज्ञा होती है । सदाचार, वेदाचार तथा विद्या-इनमें से एक एक गुणसे ही युक्त होनेपर उसे 'द्विज' कहते हैं । जिसमें स्वल्पमात्रामें ही आचारका पालन देखा जाता है, जिसने वेदाध्ययन भी बहुत कम किया है तथा जो राजाका सेवक (पुरोहित, मन्त्री आदि) है, उसे क्षत्रियब्राह्मण' कहते हैं । जो ब्राह्मण कृषि तथा वाणिज्य कर्म करनेवाला है और कुछ कुछ ब्राह्मणोचित आचारका भी पालन करता है, वह वैश्यब्राह्मण' है तथा जो स्वयं ही खेत जोतता (हल चलाता) है, उसे 'शूद्रब्राह्मण' कहा गया है । जो दूसरोंके दोष देखनेवाला और परद्रोही है, उसे 'चाण्डालद्विज' कहते हैं ॥ २-४ ॥ पृथिवीपालको राजा हीतरे क्षत्रिया मताः ।
धान्यादिक्रयवान्वैश्य इतरो वणिगुच्यते ॥ ५ ॥ ब्रह्मक्षत्रियवैश्यानां शुश्रूषुः शूद्र उच्यते । कर्षको वृषलो ज्ञेय इतरे चैव दस्यवः ॥ ६ ॥ इसी तरह क्षत्रियोंमें भी जो पृथ्वीका पालन करता है, वह राजा है । दूसरे लोग राजत्वहीन क्षत्रिय माने गये हैं । वैश्योंमें भी जो धान्य आदि वस्तुओंका क्रय-विक्रय करता है, वह वैश्य है । दूसरोंको वणिक् कहते हैं । जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्योंकी सेवामें लगा रहता है, वह शूद्र कहलाता है । जो शूद्र हल जोतनेका काम करता है, उसे वृषल समझना चाहिये । शेष शूद्र दस्यु कहलाते हैं ॥ ५-६ ॥ सर्वो ह्युषः प्राङ्मुखश्च चिन्तयेद्देवपूर्वकान् ।
धर्मानर्थांश्च तत्क्लेशानायं च व्ययमेव च ॥ ७ ॥ इन सभी वर्गोंके मनुष्योंको चाहिये कि वे उष:कालमें उठकर पूर्वाभिमुख हो सबसे पहले देवताओंका, फिर धर्मका, पुनः अर्थका, तदनन्तर उसकी प्राप्तिके लिये उठाये जानेवाले क्लेशोंका तथा आय और व्ययका भी चिन्तन करें ॥ ७ ॥ आयुर्द्वेषश्च मरणं पापं भाग्यं तथैव च ।
व्याधिः पुष्टिस्तथा शक्तिः प्रातरुत्थानदिक्फलम् ॥ ८ ॥ प्रात:काल उठकर [पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण आदि] आठ दिशाओंकी ओर मुख करके बैठनेपर क्रमशः आयु, द्वेष, मरण, पाप, भाग्य, व्याधि, पुष्टि और शक्ति प्राप्त होती है ॥ ८ ॥ निशान्त्ययामुषा ज्ञेया यामार्धं सन्धिरुच्यते ।
तत्काले तु समुत्थाय विण्मूत्रे विसृजेद्द्विजः ॥ ९ ॥ गृहाद्दूरं ततो गत्वा बाह्यतः प्रावृतस्तथा । उदङ्मुखः समाविश्य प्रतिबन्धेऽन्यदिङ्मुखः ॥ १० ॥ जलाग्निब्राह्मणादीनां देवानां नाभिमुख्यतः । लिङ्गं पिधाय वामेन मुखमन्येन पाणिना ॥ ११ ॥ मलमुत्सृज्य चोत्थाय न पश्येच्चैव तन्मलम् । उद्धृतेन जलेनैव शौचं कुर्याज्जलाद्बहिः ॥ १२ ॥ अथवा देवपित्रर्षितीर्थावतरणं विना । सप्त वा पञ्च वा तिस्रो गुदं संशोधयेन्मृदा ॥ १३ ॥ लिङ्गे कर्कोटमात्रं तु गुदे प्रसृतिरिष्यते । तत उत्थाय पद्धस्तशौचं गण्डूषमष्टकम् ॥ १४ ॥ रातके पिछले पहरको उषःकाल जानना चाहिये । उस अन्तिम पहरका जो आधा या मध्यभाग है, उसे सन्धि कहते हैं । उस सन्धिकालमें उठकर द्विजको मल. मूत्र आदिका त्याग करना चाहिये । घरसे दूर जाकर बाहरसे अपने शरीरको ढके रखकर दिनमें उत्तराभिमुख बैठकर मल-मूत्रका त्याग करे । यदि उत्तराभिमुख बैठनेमें कोई रुकावट हो तो दूसरी दिशाकी ओर मुख करके बैठे । जल, अग्नि, ब्राह्मण आदि तथा देवताओंका सामना बचाकर बैठे । बायें हाथसे उपस्थको इँककर तथा दाहिने हाथसे मुखको ढककर मलत्याग करे और उठनेपर उस मलको न देखे । तदनन्तर जलाशयसे बाहर निकाले हुए जलसे ही गुदाकी शुद्धि करे; अथवा देवताओं, पितरों तथा ऋषियोंके तीथोंमें उतरे बिना ही प्राप्त हुए जलसे शुद्धि करनी चाहिये । गुदामें सात, पाँच या तीन बार मिट्टीसे उसे धोकर शुद्ध करे । लिंगमें ककोड़ेके फलके बराबर मिट्टी लेकर लगाये और उसे धो दे । परंतु गुदामें लगानेके लिये एक पसर मिट्टीकी आवश्यकता होती है । लिंग और गुदाकी शुद्धिके पश्चात् उठकर अन्यत्र जाय और हाथ-पैरोंकी शुद्धि करके आठ बार कुल्ला करे ॥ ९-१४ ॥ येन केन च पत्रेण काष्ठेन च जलाद्बहिः ।
कार्यं सन्त्यज्य तर्जनीं दन्तधावनमीरितम् ॥ १५ ॥ जलदेवान्नमस्कृत्य मन्त्रेण स्नानमाचरेत् । अशक्तः कण्ठदघ्नं वा कटिदघ्नमथापि वा ॥ १६ ॥ आजानुजलमासिच्य मन्त्रस्थानं समाचरेत् । देवादींस्तर्पयेद्विद्वांस्तत्र तीर्थजलेन च ॥ १७ ॥ जिस किसी वृक्षके पत्तेसे अथवा उसके पतले काष्ठसे जलके बाहर दातुन करना चाहये । उस समय तर्जनी अंगुलीका उपयोग न करे । यह दन्तशुद्धिका विधान बताया गया है । तदनन्तर जल-सम्बन्धी देवताओंको नमस्कार करके मन्त्रपाठ करते हुए स्नान करे । यदि कण्ठतक या कमरतक पानीमें खड़े होनेकी शक्ति न हो तो घुटनेतक जलमें खड़ा होकर अपने ऊपर जल छिड़ककर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नानकार्य सम्पन्न करे । विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वहाँ तीर्थजलसे देवता आदिका स्नानांग तर्पण भी करे ॥ १५-१७ ॥ धौतवस्त्रं समादाय पञ्चकच्छेन धारयेत् ।
उत्तरीयं च किञ्चैव धार्यं सर्वेषु कर्मसु ॥ १८ ॥ नद्यादितीर्थस्थाने तु स्नानवस्त्रं न शोधयेत् । वापीकूपगृहादौ तु स्नानादूर्ध्वं नयेद्बुधः ॥ १९ ॥ शिलादार्वादिके वापि जले वापि स्थलेऽपि वा । संशोध्य पीडयेद्वस्त्रं पितॄणां तृप्तये द्विजाः ॥ २० ॥ इसके बाद धौतवस्त्र लेकर पाँच कच्छ करके उसे धारण करे । साथ ही कोई उत्तरीय भी धारण कर ले; क्योंकि सन्ध्या-वन्दन आदि सभी कर्मों में उसकी आवश्यकता होती है । नदी आदि तीर्थोमें स्नान करनेपर स्नान-सम्बन्धी उतारे हुए वस्त्रको वहाँ न धोये । स्नानके पश्चात् विद्वान् पुरुष उस वस्त्रको बावड़ीमें, कुएंके पास अथवा घर आदिमें ले जाय और वहाँ पत्थरपर, लकड़ी आदिपर, जलमें या स्थलमें अच्छी तरह धोकर उस वस्त्रको निचोड़े । हे द्विजो ! वस्त्रको निचोड़नेसे जो जल गिरता है, वह पितरोंकी तृप्तिके लिये होता है ॥ १८-२० ॥ जाबालकोक्तमन्त्रेण भस्मना च त्रिपुण्ड्रकम् ।
अन्यथा चेज्जले पातस्ततो नरकमृच्छति ॥ २१ ॥ आपोहिष्ठेति शिरसि प्रोक्षयेत्पापशान्तये । यस्येति मन्त्रं पादे तु सन्धिप्रोक्षणमुच्यते ॥ २२ ॥ हृदये मूर्ध्नि पादे च मूर्ध्नि हृत्पाद एव च । हृत्पादमूर्ध्नि सम्प्रोक्ष्य मन्त्रस्नानं विदुर्बुधाः ॥ २३ ॥ इसके बाद जाबालि-उपनिषदें बताये गये [अग्निरिति] मन्त्रसे भस्म लेकर उसके द्वारा त्रिपुण्ड लगाये । * इस विधिका पालन न किया जाय, इसके पूर्व ही यदि जलमें भस्म गिर जाय तो कर्ता नरकमें जाता है । 'आपो हि ष्ठा' इस मन्त्रसे पाप-शान्तिके लिये सिरपर जल छिड़के तथा 'यस्य क्षयाय'-इस मन्त्रको पढ़कर पैरपर जल छिड़के; इसे सन्धिप्रोक्षण कहते हैं । 'आपो हि ष्ठा' इत्यादि मन्त्रमें तीन ऋचाएँ हैं और प्रत्येक ऋचामें गायत्री छन्दके तीन| तीन चरण हैं । इनमेंसे प्रथम ऋचाके तीन चरणोंका पाठ करते हुए क्रमश: पैर, मस्तक और हदयमें जल छिड़के दूसरी ऋचाके तीन चरणोंको पढ़कर क्रमशः मस्तक, हृदय और पैरमें जल छिड़के तथा तीसरी ऋचाके तीन चरणोंका पाठ करते हुए क्रमश: हृदय, पैर और मस्तकका जलसे प्रोक्षण करे-इसे विद्वान् पुरुष मन्त्रस्नान मानते हैं ॥ २१-२३ ॥ ईषत्स्पर्शे च दोः स्वास्थ्ये राजराष्ट्रभयेऽपि च ।
अगत्या गतिकाले च मन्त्रस्नानं समाचरेत् ॥ २४ ॥ प्रातः सूर्यानुवाकेन सायमग्न्यनुवाकतः । अपः पीत्वा तथामध्ये पुनः प्रोक्षणमाचरेत् ॥ २५ ॥ किसी अपवित्र वस्तुसे किंचित् स्पर्श हो जानेपर, अपना स्वास्थ्य ठीक न रहनेपर, राजभय या राष्ट्रभय उपस्थित होनेपर तथा यात्राकालमें जलकी उपलब्धि न होनेकी विवशता आ जानेपर मन्त्रस्नान करना चाहिये । प्रात:काल [सूर्यश्च मा मन्युश्च-इस] सूर्यानुवाकसे तथा सायंकाल [अग्निश्च मा मन्युश्चइस] अग्नि-सम्बन्धी अनुवाकसे जलका आचमन करके पुन: जलसे अपने अंगोंका प्रोक्षण करे । मध्याह्नकालमें भी [आप: पुनन्तु-इस] मन्त्रसे आचमन करके पूर्ववत् प्रोक्षण करना चाहिये ॥ २४-२५ ॥ गायत्र्या जपमन्त्रान्ते त्रिरूर्ध्वं प्राग्विनिक्षिपेत् ।
मन्त्रेण सह चैकं वै मध्येऽर्घ्यं तु रवेर्द्विजाः ॥ २६ ॥ अथ जाते च सायाह्ने भुवि पश्चिमदिङ्मुखः । उद्धृत्य दद्यात्प्रातस्तु मध्याह्नेऽङ्गुलिभिस्तथा ॥ २७ ॥ अङ्गुलीनां च रन्ध्रेण लम्बं पश्येद्दिवाकरम् । आत्मप्रदक्षिणं कृत्वा शुद्धाचमनमाचरेत् ॥ २८ ॥ प्रात:कालकी सन्ध्योपासनामें गायत्रीमन्त्रका जप करके तीन बार ऊपरकी ओर सूर्यदेवको अर्घ्य देना चाहिये । हे ब्राह्मणो ! मध्याह्नकालमें गायत्रीमन्त्रके उच्चारणपूर्वक सूर्यको एक ही अर्घ्य देना चाहिये । फिर सायंकाल आनेपर पश्चिमकी ओर मुख करके बैठ जाय और पृथ्वीपर ही सूर्यके लिये अर्घ्य दे [ऊपरकी ओर नहीं] प्रातःकाल और मध्याह्नकालके समय अंजलिमें अर्घ्यजल लेकर अँगुलियोंकी ओरसे सूर्यदेवके लिये अर्घ्य दे । अँगुलियोंके छिद्रसे ढलते हुए सूर्यको देखे तथा उनके लिये आत्म-प्रदक्षिणा करके शुद्ध आचमन करे ॥ २६-२८ ॥ सायं मुहूर्तादर्वाक् तु कृता सन्ध्या वृथा भवेत् ।
अकालात्काल इत्युक्तो दिनेऽतीते यथाक्रमम् ॥ २९ ॥ दिवाऽतीते च गायत्रीं शतं नित्ये क्रमाज्जपेत् । आदर्शाहात्परातीतं गायत्रीं लक्षमभ्यसेत् ॥ ३० ॥ मासातीते तु नित्ये हि पुनश्चोपनयं चरेत् । सायंकालमें सूर्यास्तसे दो घड़ी पहले की हुई सन्ध्या निष्फल होती है । क्योंकि वह सायं सन्ध्याका समय नहीं है । ठीक समयपर सन्ध्या करनी चाहियेऐसी शास्त्रकी आज्ञा है । यदि सन्ध्योपासना किये "बिना दिन बीत जाय तो प्रत्येक समयके लिये क्रमश: प्रायश्चित करना चाहिये । यदि एक दिन बीते तो प्रत्येक बीते हुए सन्ध्याकालके लिये नित्य-नियमके अतिरिक्त सौ गायत्री मन्त्रका अधिक जप करे । यदि नित्यकर्मके लुप्त हुए दस दिनसे अधिक बीत जाय तो उसके प्रायश्चित्तरूपमें एक लाख गायत्रीका जप करना चाहिये । यदि एक मासतक नित्यकर्म छूट जाय तो पुन: अपना उपनयनसंस्कार कराये ॥ २९-३० १/२ ॥ ईशो गौरी गुहो विष्णुर्ब्रह्मा चेन्द्रश्च वै यमः ॥ ३१ ॥
एवं रूपांश्च वै देवांस्तर्पयेदर्थसिद्धये । ब्रह्मार्पणं ततः कृत्वा शुद्धाचमनमाचरेत् ॥ ३२ ॥ तीर्थे दक्षिणतः शस्ते मठे मन्त्रालये बुधः । तत्र देवालये वापि गृहे वा नियतस्थले ॥ ३३ ॥ सर्वान्देवान्नमस्कृत्य स्थिरबुद्धिः स्थिरासनः । प्रणवं पूर्वमभ्यस्य गायत्रीमभ्यसेत्ततः ॥ ३४ ॥ अर्थसिद्धिके लिये ईश, गौरी, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, चन्द्रमा और यमका तथा ऐसे ही अन्य देवताओंका भी शुद्ध जलसे तर्पण करे । तत्पश्चात् तर्पण कर्मको ब्रह्मार्पण करके शुद्ध आचमन करे । तीर्थक दक्षिण भागमें, प्रशस्त मठमें, मन्त्रालयमें, देवालयमें, घरमें अथवा अन्य किसी नियत स्थानमें आसनपर स्थिरतापूर्वक बैठकर विद्वान् पुरुष अपनी बुद्धिको स्थिर करे और सम्पूर्ण देवताओंको नमस्कार करके पहले प्रणवका जप करनेके पश्चात् गायत्री मन्त्रकी आवृत्ति करे ॥ ३१-३४ ॥ जीवब्रह्मैक्यविषयं बुद्ध्वा प्रणवमभ्यसेत् ।
त्रैलोक्यसृष्टिकर्तारं स्थितिकर्तारमच्युतम् ॥ ३५ ॥ संहर्तारं तथा रुद्रं स्वप्रकाशमुपास्महे । ज्ञानकर्मेन्द्रियाणां च मनोवृत्तीर्धियस्तथा ॥ ३६ ॥ भोगमोक्षप्रदे धर्मे ज्ञाने च प्रेरयेत्सदा । इत्थमर्थधिया ध्यायन्ब्रह्म प्राप्नोति निश्चयः ॥ ३७ ॥ केवलं वा जपेन्नित्यं ब्राह्मण्यस्य च पूर्तये । सहस्रमभ्यसेन्नित्यं प्रातर्ब्राह्मणपुङ्गवः ॥ ३८ ॥ अन्येषां च यथा शक्ति मध्याह्ने च शतं जपेत् । सायं द्विदशकं ज्ञेयं शिखाष्टकसमन्वितम् ॥ ३९ ॥ प्रणवके अ, उ, म् इन तीनों अक्षरोंसे जीव और ब्रह्मकी एकताका प्रतिपादन होता है-इस बातको जानकर प्रणवका जप करना चाहिये । जपकालमें यह भावना करनी चाहिये कि हम तीनों लोकोंकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्मा, पालन करनेवाले विष्णु तथा संहार करनेवाले रुद्रकी-जो स्वयंप्रकाश चिन्मय हैं, उपासना करते हैं । यह ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियोंकी वृत्तियोंको, मनकी वृत्तियोंको तथा बुद्धिवृत्तियोंको सदा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले धर्म एवं ज्ञानकी ओर प्रेरित करे । बुद्धिके द्वारा प्रणवके इस अर्थका चिन्तन करता हुआ जो इसका जप करता है, वह निश्चय ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है । अथवा अर्थानुसन्धानके बिना भी प्रणवका नित्य जप करना चाहिये, इससे ब्राह्मणत्वकी पूर्ति होती है । ब्राह्मणत्वकी पूर्तिके लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणको प्रतिदिन प्रातःकाल एक सहस्र गायत्री मन्त्रका जप करना चाहिये । मध्याह्नकालमें सौ बार और सायंकालमें अट्ठाईस बार जपकी विधि है । अन्य वर्णके लोगोंको अर्थात् क्षत्रिय और वैश्यको तीनों सन्ध्याओंके समय यथासाध्य गायत्री-जप करना चाहिये ॥ ३५-३९ ॥ मूलाधारं समारभ्य द्वादशान्तस्थितांस्तथा ।
विद्येशब्रह्मविष्ण्वीशजीवात्मपरमेश्वरान् ॥ ४० ॥ ब्रह्मबुद्ध्या तदैक्यं च सोऽहं भावनया जपेत् । तानेव ब्रह्मरन्ध्रादौ कायाद्बाह्ये च भावयेत् ॥ ४१ ॥ महत्तत्त्वं समारभ्य शरीरं तु सहस्रकम् । एकैकस्माज्जपादेकमतिक्रम्य शनैः शनैः ॥ ४२ ॥ परस्मिन्योजयेज्जीवं जपतत्त्वमुदाहृतम् । शतद्विदशकं देहं शिखाष्टकसमन्वितम् ॥ ४३ ॥ मन्त्राणां जप एवं हि जपमादिक्रमाद्विदुः । शरीरके भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, आज्ञा और सहस्रार-ये छ: चक्र हैं। इनमें मूलाधारसे लेकर सहस्त्रारतक छहों स्थानोंमें क्रमश: विद्येश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, ईश, जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं। इन सबमें ब्रह्मबुद्धि करके इनकी एकताका निश्चय करे और वह ब्रह्म मैं हूँ-ऐसी भावनासे युक्त होकर जप करे। उन्हीं विद्येश्वर आदिकी ब्रह्मरन्ध्र आदिमें तथा इस शरीरसे बाहर भी भावना करे। महत्तत्त्वसे लेकर पंचभूतपर्यन्त तत्त्वोंसे बना हुआ जो शरीर है, ऐसे सहसों शरीरोंका एक-एक अजपा गायत्रीके जपसे एकएकके क्रमसे अतिक्रमण करकेजीवको धरि धरि परमात्मासे संयुक्त करे-यह जपका तत्त्व बताया गया है। सौ अथवा अट्ठाईस मन्त्रोंके जपसे उतने ही शरीरोंका अतिक्रमण होता है। इस प्रकार जो मन्त्रोंका जप है, इसीको आदिक्रमसे वास्तविक जप जानना चाहिये । ४०-४३ १/२॥ सहस्रं ब्रह्मदं विद्याच्छतमैन्द्रं पदं विदुः ॥ ४४ ॥
इतरत्त्वात्मरक्षार्थं ब्रह्मयोनिषु जायते । दिवाकरमुपस्थाय नित्यमित्थं समाचरेत् ॥ ४५ ॥ एक हजार बार किया हुआ जप ब्रह्मलोक प्रदान करनेवाला होता है-ऐसा जानना चाहिये। सौ बार किया हुआ जप इन्द्रपदकी प्राप्ति करानेवाला माना गया है। ब्राह्मणेतर पुरुष आत्मरक्षाके लिये जो स्वल्पमात्रामें जप करता है, वह ब्राह्मणके कुलमें जन्म लेता है। इस प्रकार प्रतिदिन सूर्योपस्थान करके उपर्युक्तरूपसे जपका अनुष्ठान करना चाहिये। ४४-४५ ॥ लक्षद्वादशयुक्तस्तु पूर्णब्राह्मण ईरितः ।
गायत्र्या लक्षहीनं तु वेदकार्ये न योजयेत् ॥ ४६ ॥ आसप्ततेस्तु नियमं पश्चात्प्रव्राजनं चरेत् । प्रातर्द्वादशसाहस्रं प्रव्राजीप्रणवं जपेत् ॥ ४७ ॥ दिने दिने त्वतिक्रान्ते नित्यमेवं क्रमाज्जपेत् । मासादौ क्रमशोऽतीते सार्धलक्षजपेन हि ॥ ४८ ॥ अत ऊर्ध्वमतिक्रान्ते पुनः प्रैषं समाचरेत् । एवं कृत्वा दोषशान्तिरन्यथा रौरवं व्रजेत् ॥ ४९ ॥ बारह लाख गायत्रीका जप करनेवाला पुरुष पूर्णरूपसे ब्राह्मण कहा गया है। जिस ब्राह्मणने एक लाख गायत्रीका भी जप न किया हो, उसे वैदिक कार्यमें न लगाये। सत्तर वर्षकी अवस्थातक नियमपालनपूर्वक कार्य करे। इसके बाद गृह त्यागकर संन्यास ले ले। परिव्राजक या संन्यासी पुरुष नित्य प्रात:काल बारह हजार प्रणवका जप करे। यदि एक दिन नियमका उल्लंघन हो जाय, तो दूसरे दिन उसके बदलेमें उतना मन्त्र और अधिक जपना चाहिये। इस प्रकार जपको चलानेका प्रयत्न करना चाहिये। यदि क्रमशः एक मास उल्लंघनका व्यतीत हो गया हो तो डेढ़ लाख जप करके उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये। इससे अधिक समयतक नियमका उल्लंघन हो जाय तो पुनः नये सिरेसे गुरुसे नियम ग्रहण करे। ऐसा करनेसे दोषोंकी शान्ति होती है, अन्यथा रौरव नरकमें जाना पड़ता है ॥ ४६-४९॥ धर्मार्थयोस्ततो यत्नं कुर्यात्कामी न चेतरः ।
ब्राह्मणो मुक्तिकामः स्याद्ब्रह्मज्ञानं सदाऽभ्यसेत् ॥ ५० ॥ धर्मादर्शोऽर्थतो भोगो भोगाद्वैराग्यसम्भवः । धर्मार्जितार्थभोगेन वैराग्यमुपजायते ॥ ५१ ॥ विपरीतार्थभोगेन राग एव प्रजायते । जो सकाम भावनासे युक्त गृहस्थ ब्राह्मण है, उसीको धर्म तथा अर्थके लिये यत्न करना चाहिये । मुमुक्षु ब्राह्मणको तो सदा ज्ञानका ही अभ्यास करना चाहिये । धर्मसे अर्थकी प्राप्ति होती है, अर्थसे भोग सुलभ होता है और उस भोगसे वैराग्यकी प्राप्ति होती है । धर्मपूर्वक उपार्जित धनसे जो भोग प्राप्त होता है, उससे एक दिन अवश्य वैराग्यका उदय होता है । धर्मक विपरीत अधर्मसे उपार्जित धनके द्वारा जो भोग प्राप्त होता है, उससे भोगोंके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है ॥ ५०-५१ १/२ ॥ धर्मश्च द्विविधः प्रोक्तो द्रव्यदेहद्वयेन च ॥ ५२ ॥
द्रव्यमिज्यादिरूपं स्यात्तीर्थस्नानादि दैहिकम् । धनेन धनमाप्नोति तपसा दिव्यरूपता ॥ ५३ ॥ निष्कामः शुद्धिमाप्नोति शुद्ध्या ज्ञानं न संशयः । धर्म दो प्रकारका कहा गया है-द्रव्यके द्वारा सम्पादित होनेवाला और शरीरसे किया जानेवाला । द्रव्यधर्म यज्ञ आदिके रूपमें और शरीरधर्म तीर्थ-स्नान आदिके रूपमें पाये जाते हैं । मनुष्य धर्मसे धन पाता है, तपस्यासे उसे दिव्य रूपकी प्राप्ति होती है । कामनाओंका त्याग करनेवाले पुरुषके अन्त:करणकी शुद्धि होती है; उस शुद्धिसे ज्ञानका उदय होता है; इसमें संशय नहीं है । ५२-५३ १/२ ॥ कृतादौ हि तपः श्लाघ्यं द्रव्यधर्मः कलौ युगे ॥ ५४ ॥
कृते ध्यानाज्ज्ञानसिद्धिस्त्रेतायां तपसा तथा । द्वापरे यजनाज्ज्ञानं प्रतिमापूजया कलौ ॥ ५५ ॥ सत्ययुग आदिमें तपको ही प्रशस्त कहा गया है, किंतु कलियुगमें द्रव्यसाध्य धर्म अच्छा माना गया है । सत्ययुगमें ध्यानसे, त्रेतामें तपस्यासे और द्वापरमें यज्ञ करनेसे ज्ञानकी सिद्धि होती है, परंतु कलियुगमें प्रतिमा (भगवद्विग्रह)-की पूजासे ज्ञानलाभ होता है ॥ ५४-५५ ॥ यादृशं पुण्यपापं वा तादृशं फलमेव हि ।
द्रव्यदेहाङ्गभेदेन न्यूनवृद्धिक्षयादिकम् ॥ ५६ ॥ जिसका जैसा पुण्य या पाप होता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है । द्रव्य, देह अथवा अंगमें न्यूनता, वृद्धि अथवा क्षय आदिके रूपमें वह फल प्रकट होता है ॥ ५६ ॥ अधर्मो हिंसिकारूपो धर्मस्तु सुखरूपकः ।
अधर्माद्दुःखमाप्नोति धर्माद्वै सुखमेधते ॥ ५७ ॥ विद्याद्दुर्वृत्तितो दुःखं सुखं विद्यात्सुवृत्तितः । धर्मार्जनमतः कुर्याद्भोगमोक्षप्रसिद्धये ॥ ५८ ॥ अधर्म हिंसा (दुःख)-रूप है और धर्म सुखरूप है । मनुष्य अधर्मसे दुःख पाता है और धर्मसे सुख एवं अभ्युदयका भागी होता है । दुराचारसे दुःख प्राप्त होता है और सदाचारसे सुख अतः भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये धर्मका उपार्जन करना चाहिये ॥ ५७-५८ ॥ सकुटुम्बस्य विप्रस्य चतुर्जनयुतस्य च ।
शतवर्षस्य वृत्तिं तु दद्यात्तद्ब्रह्मलोकदम् ॥ ५९ ॥ चान्द्रायणसहस्रं तु ब्रह्मलोकप्रदं विदुः । सहस्रस्य कुटुम्बस्य प्रतिष्ठां क्षत्रियश्चरेत् ॥ ६० ॥ इन्द्रलोकप्रदं विद्यादयुतं ब्रह्मलोकदम् । यां देवतां पुरस्कृत्य दानमाचरते नरः ॥ ६१ ॥ तत्तल्लोकमवाप्नोति इति वेदविदो विदुः । अर्थहीनः सदा कुर्यात्तपसामर्जनं तथा ॥ ६२ ॥ तीर्थाच्च तपसा प्राप्यं सुखमक्षय्यमश्नुते । जिसके घरमें कम से कम चार मनुष्य हैं, ऐसे कुटुम्बी ब्राह्मणको जो सौ वर्षके लिये जीविका (जीवननिर्वाहकी सामग्री) देता है, उसके लिये वह दान ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है । एक हजार चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान ब्रह्मलोकदायक माना गया है । जो क्षत्रिय एक हजार कुटुम्बोंको जीविका और आवास देता है, उसका वह कर्म इन्द्रलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है और दस हजार कुटुम्बोंको दिया हुआ आश्रयदान ब्रह्मलोक प्रदान करता है । दाता पुरुष जिस देवताके उद्देश्यसे दान करता है अर्थात् वह दानके द्वारा जिस देवताको प्रसन्न करना चाहता है, उसीका लोक उसे प्राप्त होता है-ऐसा वेदवेत्ता पुरुष कहते हैं । धनहीन पुरुष सदा तपस्याका उपार्जन करे; क्योंकि तपस्या और तीर्थसेवनसे अक्षय सुख पाकर मनुष्य उसका उपभोग करता है॥५९-६२ १/२ ॥ अर्थार्जनमथो वक्ष्ये न्यायतः सुसमाहितः ॥ ६३ ॥
कृतात्प्रतिग्रहाच्चैव याजनाच्च विशुद्धतः । अदैन्यादनतिक्लेशाद्ब्राह्मणो धनमर्जयेत् ॥ ६४ ॥ क्षत्रियो बाहुवीर्येण कृषिगोरक्षणाद्विशः । न्यायार्जितस्य वित्तस्य दानात्सिद्धिं समश्नुते ॥ ६५ ॥ ज्ञानसिद्ध्या मोक्षसिद्धिः सर्वेषां गुर्वनुग्रहात् । मोक्षात्स्वरूपसिद्धिः स्यात्परानन्दं समश्नुते ॥ ६६ ॥ सत्सङ्गात्सर्वमेतद्वै नराणां जायते द्विजाः । अब मैं न्यायतः धनके उपार्जनकी विधि बता रहा हूँ। ब्राह्मणको चाहिये कि वह सदा सावधान रहकर विशुद्ध प्रतिग्रह (दानग्रहण) तथा याजन (यज्ञ कराने) आदिसे धनका अर्जन करे । वह इसके लिये कहीं दीनता न दिखाये और न अत्यन्त क्लेशदायक कर्म ही करे। क्षत्रिय बाहुबलसे धनका उपार्जन करे और वैश्य कृषि एवं गोरक्षासे । न्यायोपार्जित धनका दान करनेसे दाताको ज्ञानकी सिद्धि होती है। ज्ञानसिद्धिद्वारा सब पुरुषोंको गुरुकृपासे मोक्षसिद्धि सुलभ होती है । मोक्षसे स्वरूपकी सिद्धि (ब्रह्मरूपसे स्थिति) प्राप्त होती है, जिससे [मुक्त पुरुष] परमानन्दका अनुभव करता है । हे द्विजो ! मनुष्योंको यह सब सत्संगसे प्राप्त है ॥ ६३-६६ १/२ ॥ धनधान्यादिकं सर्वं देयं वै गृहमेधिना ॥ ६७ ॥
यद्यत्काले वस्तुजातं फलं वा धान्यमेव च । तत्तत् सर्वं ब्राह्मणेभ्यो देयं वै हितमिच्छता ॥ ६८ ॥ गृहस्थाश्रमीको धन-धान्य आदि सभी वस्तुओंका दान करना चाहिये । अपना हित चाहनेवाले गृहस्थको जिस कालमें जो फल अथवा धान्यादि वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें ब्राह्मणोंको दान करना चाहिये ॥ ६७-६८ ॥ जलं चैव सदा देयमन्नं क्षुद्व्याधिशान्तये ।
क्षेत्रं धान्यं तथाऽऽमान्नमन्नमेव चतुर्विधम् ॥ ६९ ॥ यावत्कालं यदन्नं वै भुक्त्वा श्रवणमेधते । तावत्कृतस्य पुण्यस्य त्वर्धं दातुर्न संशयः ॥ ७० ॥ वह तृषा-निवृत्ति के लिये जल तथा क्षुधारूपी रोगकी शान्तिके लिये सदा अन्नका दान करे । खेत, धान्य, कच्चा अन्न तथा भक्ष्य, भोज्य, लेहा और चोष्य-ये चार प्रकारके सिद्ध अन्न दान करने चाहिये । जिसके अन्नको खाकर मनुष्य जबतक कथा-श्रवण आदिसद्धर्मका पालन करता है, उतने समयतक उसके किये हुए पुण्यफलका आधा भाग दाताको मिल जाता है । इसमें संशय नहीं है ॥ ६९-७० ॥ ग्रहीता हि गृहीतस्य दानाद्वै तपसा तथा ।
पापसंशोधनं कुर्यादन्यथा रौरवं व्रजेत् ॥ ७१ ॥ आत्मवित्तं त्रिधा कुर्याद्धर्मवृद्ध्यात्मभोगतः । नित्यं नैमित्तकं काम्यं कर्म कुर्यात्तु धर्मतः ॥ ७२ ॥ वित्तस्य वर्धनं कुर्याद्वृद्ध्यंशेन हि साधकः । हितेन मितमेध्येन भोगं भोगांशतश्चरेत् ॥ ७३ ॥ दान लेनेवाला पुरुष दानमें प्राप्त हुई वस्तुका दान तथा तपस्या करके अपने प्रतिग्रहजनित पापकी शुद्धि करे; अन्यथा उसे रौरव नरकमें गिरना पड़ता है । अपने धनके तीन भाग करे-एक भाग धर्मके लिये, दूसरा भाग वृद्धिके लिये तथा तीसरा भाग अपने उपभोगके लिये । नित्य, नैमित्तिक और काम्य-ये तीनों प्रकारके कर्म धर्मार्थ रखे हुए धनसे करे । साधकको चाहिये कि वह वृद्धिके लिये रखे हुए धनसे ऐसा व्यापार करे, जिससे उस धनकी वृद्धि हो तथा उपभोगके लिये रक्षित धनसे हितकारक, परिमित एवं पवित्र भोग भोगे ॥ ७१-७३ ॥ कृष्यर्जिते दशांशं हि देयं पापस्य शुद्धये ।
शेषेण कुर्याद्धर्मादि अन्यथा रौरवं व्रजेत् ॥ ७४ ॥ अथवा पापबुद्धिः स्यात्क्षयं वा सत्यमेष्यति । वृद्धिवाणिज्यके देयं षडंशं च विचक्षणैः ॥ ७५ ॥ खेतीसे पैदा किये हुए धनका दसवाँ अंश दान कर दे । इससे पापकी शुद्धि होती है । शेष धनसे धर्म, वृद्धि एवं उपभोग करे, अन्यथा वह रौरव नरकमें पड़ता है अथवा उसकी बुद्धि पापसे परिपूर्ण हो जाती है या खेती ही चौपट हो जाती है । वृद्धिके लिये किये गये व्यापारमें प्राप्त हुए धनका छठा भाग दान कर दे ॥ ७४-७५ ॥ शुद्धप्रतिग्रहे देयं श्चतुर्थांशं द्विजोत्तमैः ।
अकस्मादुत्थितेऽर्थे हि देयमर्धं द्विजोत्तमैः ॥ ७६ ॥ असत्प्रतिग्रहे सर्वं दुर्दानं सागरे क्षिपेत् । आहूय दानं कर्तव्यमात्मभोगसमृद्धये ॥ ७७ ॥ पृष्टं सर्वं सदा देयमात्मशक्त्यनुसारतः । जन्मान्तरे ऋणी हि स्याददत्ते पृष्टवस्तुनि ॥ ७८ ॥ श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दानमें प्राप्त हुए शुद्ध पदार्थीका चतुर्थाश दान कर देना चाहिये । उन्हें अकस्मात् प्राप्त हुए धनका तो आधा भाग दान कर ही देना चाहिये । असत्-प्रतिग्रह (दूषित दान) में प्राप्त सम्पूर्ण पदार्थोको समुद्र में फेंक देना चाहिये । अपने भोगकी समृद्धिके लिये ब्राह्मणोंको बुलाकर दान करना चाहिये । किसीके द्वारा याचना करनेपर अपनी शक्तिके अनुसार सदैव ही सब कुछ देना चाहिये । यदि माँगे जानेपर [शक्ति रहते हुए] वह पदार्थ न दिया जाय तो दूसरे जन्ममें वह ऋण चुकाना पड़ता है ॥ ७६-७८ ॥ परेषां च तथा दोषं न प्रशंसेद्विचक्षणः ।
विशेषेण तथा ब्रह्मञ्छ्रुतं दृष्टं च नो वदेत् ॥ ७९ ॥ न वदेत्सर्वजन्तूनां हृदि रोषकरं बुधः । विद्वान्को चाहिये कि वह दूसरोंके दोषोंका वर्णन न करे । हे ब्रह्मन् ! द्वेषवश दूसरोंके सुने या देखे हुए छिद्रको भी प्रकट न करे । विद्वान् पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियोंके हृदयमें रोष पैदा करनेवाली हो ॥ ७९ १/२ ॥ सन्ध्ययोरग्निकार्यं च कुर्यादैश्वर्यसिद्धये ॥ ८० ॥
अशक्तस्त्वेककाले वा सूर्याग्नी च यथाविधि । तण्डुलं धान्यमाज्यं वा फलं कन्दं हविस्तथा ॥ ८१ ॥ स्थालीपाकं तथा कुर्याद्यथान्यायं यथाविधि । प्रधानहोममात्रं वा हव्याभावे समाचरेत् ॥ ८२ ॥ नित्यसन्धानमित्युक्तं तमजस्रं विदुर्बुधाः । अथवा जपमात्रं वा सूर्यवन्दनमेव च ॥ ८३ ॥ ऐश्वर्यकी सिद्धिके लिये दोनों सन्ध्याओंके समय अग्निहोत्र करे, यदि असमर्थ हो तो वह एक ही समय सूर्य और अग्निको विधिपूर्वक दी हुई आहुतिसे सन्तुष्ट करे । चावल, धान्य, घी, फल, कन्द तथा हविष्य-इनके द्वारा विधिपूर्वक स्थालीपाक बनाये तथा यथोचित रीतिसे सूर्य और अग्निको अर्पित करे । यदि हविष्यका अभाव हो तो प्रधान होममात्र करे । सदा सुरक्षित रहनेवाली अग्निको विद्वान् पुरुष अजनकी संज्ञा देते हैं । यदि असमर्थ हो तो सन्ध्याकालमें जपमात्र या सूर्यकी वन्दनामात्र कर ले ॥ ८०-८३ ॥ एवमात्मार्थिनः कुर्युरर्थार्थी च यथाविधि ।
ब्रह्मयज्ञरता नित्यं देवपूजारतास्तथा ॥ ८४ ॥ अग्निपूजापरा नित्यं गुरुपूजारतास्तथा । ब्राह्मणानां तृप्तिकराः सर्वे स्वर्गस्य भागिनः ॥ ८५ ॥ आत्मज्ञानकी इच्छाबाले तथा धनार्थी पुरुषोंको भी इस प्रकार विधिवत् उपासना करनी चाहिये । जो सदा ब्रह्मयज्ञमें तत्पर रहते हैं, देवताओंकी पूजामें लगे रहते हैं, नित्य अग्निपूजा एवं गुरुपूजामें अनुरक्त होते हैं तथा ब्राह्मणोंको तृप्त किया करते हैं, वे सब लोग स्वर्गके भागी होते हैं । ८४-८५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
सदाचारवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्यश्वरसंहितामें सदाचारवर्णन नामक तेरहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |