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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ त्रयोविंशोऽध्यायः ॥

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रुद्राक्षमाहात्म्यं शिवनाममहिमा च -
भस्म, रुद्राक्ष और शिवनामके माहात्म्यका वर्णन


ऋषय ऊचुः -
सूत सूत महाभाग व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते ।
तदेव व्यासतो ब्रूहि भस्ममाहात्म्यमुत्तमम् ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे महाभाग व्यासशिष्य सूतजी । आपको नमस्कार है । अब आप परम उत्तम भस्म-माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

तथा रुद्राक्षमाहात्म्यं नाम माहात्म्यमुत्तमम् ।
त्रितयं ब्रूहि सुप्रीत्या ममानन्दय मानसम् ॥ २ ॥
भस्ममाहात्म्य, रुद्राक्षमाहात्म्य तथा उत्तम नाममाहात्म्य-इन तीनोंका परम प्रसन्नतापूर्वक प्रतिपादन कीजिये और हमारे हृदयको आनन्दित कीजिये ॥ २ ॥

सूत उवाच -
साधु पृष्टं भवद्‌भिश्च लोकानां हितकारकम् ।
भवन्तो वै महाधन्याः पवित्राः कुलभूषणाः ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-हे महर्षियो ! आप लोगोंने बहुत उत्तम बात पूछी है; यह समस्त लोकोंके लिये हितकारक विषय है । आप लोग महाधन्य, पवित्र तथा अपने कुलके भूषणस्वरूप हैं ॥ ३ ॥

येषां चैव शिवः साक्षाद्दैवतं परमं शुभम् ।
सदाशिवकथा लोके वल्लभा भवतां सदा ॥ ४ ॥
इस संसारमें कल्याणकारी परमदेवस्वरूप भगवान् शिव जिनके देवता हैं. ऐसे आप सबके लिये यह शिवकी कथा अत्यन्त प्रिय है ॥ ४ ॥

ते धन्याश्च कृतार्थाश्च सफलं देहधारणम् ।
उद्धृतं च कुलं तेषां ये शिवं समुपासते ॥ ५ ॥
वे ही धन्य और कृतार्थ हैं, उन्हींका शरीर धारण करना भी सफल है और उन्होंने ही अपने कुलका उद्धार कर लिया है, जो शिवकी उपासना करते हैं ॥ ५ ॥

शिवनाम मुखे यस्य सदाशिवशिवेति च ।
पापानि न स्पृशन्त्येव खदिराङ्‌गारङ्‌कं यथा ॥ ६ ॥
जिनके मुखमें भगवान् शिवका नाम है, जो अपने मुखसे सदा शिव-शिव इस नामका उच्चारण करते रहते हैं, पाप उनका उसी तरह स्पर्श नहीं करते, जैसे खदिर वृक्षके अंगारको छूनेका साहस कोई भी प्राणी नहीं कर सकता ॥ ६ ॥

श्रीशिवाय नमस्तुभ्यं मुखं व्याहरते यदा ।
तन्मुखं पावनं तीर्थं सर्वपापविनाशनम् ॥ ७ ॥
तन्मुखं च तथा यो वै पश्यति प्रीतिमान्नरः ।
तीर्थजन्यं फलं तस्य भवतीति सुनिश्चितम् ॥ ८ ॥
हे शिव ! आपको नमस्कार है (श्रीशिवाय नमस्तुभ्यम्)-जिस मुखसे ऐसा उच्चारण होता है, वह मुख समस्त पापोंका विनाश करनेवाला पावन तीर्थ बन जाता है । जो मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक उस मुखका दर्शन करता है, उसे निश्चय ही तीर्थसेवनजनित फल प्राप्त होता है ॥ ७-८ ॥

यत्र त्रयं सदा तिष्ठेदेतच्छुभतरं द्विजाः ।
तस्य स्पर्शनमात्रेण वेणीस्नान फलं लभेत् ॥ ९ ॥
शिवनामविभूतिश्च तथा रुद्राक्ष एव च ।
एतत्त्रयं महापुण्यं त्रिवेणीसदृशं स्मृतम् ॥ १० ॥
हे ब्राह्मणो ! शिवका नाम, विभूति (भस्म) तथा रुद्राक्ष-ये तीनों त्रिवेणीके समान परम पुण्यवाले माने गये हैं । जहाँ ये तीनों शुभतर वस्तुएँ सर्वदा रहती हैं, उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य त्रिवेणीस्नानका फल पा लेता है । ९-१० ॥

एतत्त्रयं शरीरे च यस्य तिष्ठति नित्यशः ।
तस्यैव दर्शनं लोके दुर्लभं पापहारकम् ॥ ११ ॥
जिसके शरीरपर भस्म, रुद्राक्ष और मुखमें शिवनाम-ये तीनों नित्य विद्यमान रहते हैं, उसका पापविनाशक दर्शन संसारमें दुर्लभ है ॥ ११ ॥

तद्दर्शनं यथा वेणी नोभयोरन्तरं मनाक् ।
एवं यो न विजानाति स पापिष्ठो न संशयः ॥ १२ ॥
उस पुण्यात्माका दर्शन त्रिवेणीके समान ही है, भस्म, रुद्राक्ष तथा शिवनामका जप करनेवाले और त्रिवेणी-इन दोनोंमें रंचमात्र भी अन्तर नहीं है-ऐसा जो नहीं जानता, वह निश्चित ही पापी है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ १२ ॥

विभूतिर्यस्य नो भाले नाङ्‌गे रुद्राक्षधारणम् ।
नास्ये शिवमयी वाणी तं त्यजेदधमं यथा ॥ १३ ॥
जिसके मस्तकपर विभूति नहीं है, अंगमें रुद्राक्ष नहीं है और मुखमें शिवमयी वाणी नहीं है, उसे अधम व्यक्तिके समान त्याग देना चाहिये ॥ १३ ॥

शैवं नाम यथा गङ्‌गा विभूतिर्यमुना मता ।
रुद्राक्षं विधिना प्रोक्ता सर्वपापविनाशिनी ॥ १४ ॥
भगवान् शिवका नाम गंगा है । विभूति यमुना मानी गयी है तथा रुद्राक्षको सरस्वती कहा गया है । इन तीनोंकी संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापोंका नाश करनेवाली है ॥ १४ ॥

शरीरे च त्रयं यस्य तत्फलं चैकतः स्थितम् ।
एकतो वेणिकायाश्च स्नानजं तु फलं बुधैः ॥ १५ ॥
तदेवं तुलितं पूर्वं ब्रह्मणा हितकारिणा ।
समानं चैव तज्जातं तस्माद्धार्यं सदा बुधैः ॥ १६ ॥
बहुत पहलेकी बात है, हितकारी ब्रह्माने जिसके शरीरमें उक्त ये तीनों-त्रिपुण्ड्र, रुद्राक्ष और शिवनाम संयुक्त रूपसे विद्यमान थे, उनके फलको तुलाके पलड़ेमें एक ओर रखकर, त्रिवेणीमें स्नान करनेसे उत्पन्न फलको दूसरी ओरके पलड़ेमें रखा और तुलना की, तो दोनों बराबर ही उतरे । अतएव विद्वानोंको चाहिये कि इन तीनोंको सदा अपने शरीरपर धारण करें ॥ १५-१६ ॥

तद्दिनं हि समारभ्य ब्रह्मविष्ण्वादिभिः सुरैः ।
धार्यते त्रितयं तच्च दर्शनात्पापहारकम् ॥ १७ ॥
उसी दिनसे ब्रह्मा, विष्णु आदि देव भी दर्शनमात्रसे पापोंको नष्ट कर देनेवाले इन तीनों (रुद्राक्ष, विभूति और शिवनाम) को धारण करने लगे ॥ १७ ॥

ऋष्य ऊचुः
ईदृशं हि फलं प्रोक्तं नामादित्रितयोद्‌भवम् ।
तन्माहात्म्यं विशेषेण वक्तुमर्हसि सुव्रत ॥ १८ ॥
ऋषिगण बोले-हे सुव्रत ! [भस्म, रुद्राक्ष और शिवनाम] इन तीनोंको धारण करनेसे इस प्रकार | उत्पन्न होनेवाले फलका वर्णन तो आपने कह दिया है, किंतु अब आप विशेष रूपसे उनके माहात्म्यका वर्णन करें॥१८॥

सूत उवाच
ऋषयो हि महाप्राज्ञाः सच्छैवा ज्ञानिनां वराः ।
तन्माहात्म्यं हि सद्‌भक्त्या शृणुतादरतो द्विजाः ॥ १९ ॥
सूतजी बोले-ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हे महाप्राज्ञ! हे शिवभक्त ऋषियो और विप्रो! आप सब सद्भक्ति तथा | आदरपूर्वक उक्त भस्म, रुद्राक्ष और शिवनाम-इन तीनोंका माहात्म्य सुनें ॥१९॥

स गूढमपि शास्त्रेषु पुराणेषु श्रुतिष्वपि ।
भवत्स्नेहान्मया विप्राः प्रकाशः क्रियतेऽधुना ॥ २० ॥
शास्त्रों, पुराणों और श्रुतियोंमें भी इनका माहात्म्य अत्यन्त गूढ कहा गया है। हे विप्रो! आप सबके स्नेहवश इस समय मैं [उस रहस्यको खोलकर] प्रकाशित करने जा रहा हूँ॥२०॥

कस्तत्त्रितयमाहात्म्यं सञ्जानाति द्विजोत्तमाः ।
महेश्वरं विना सर्वं ब्रह्माण्डे सदसत्परम् ॥ २१ ॥
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इन तीनोंकी महिमाको | सदसद्विलक्षण भगवान् महेश्वरके बिना दूसरा कौन | भलीभाँति जान सकता है। इस ब्रह्माण्डमें जो कुछ है, वह सब तो केवल महेश्वर ही जानते हैं ॥ २१ ॥

वच्म्यहं नाममाहात्म्यं यथा भक्ति समासतः ।
शृणुत प्रीतितो विप्राः सर्वपापहरं परम् ॥ २२ ॥
हे विप्रगण! मैं अपनी श्रद्धा-भक्तिके अनुसार संक्षेपसे भगवन्नामकी महिमाका कुछ वर्णन करता हूँ। आप सबलोग प्रेमपूर्वक उसे सुनें। यह नाममाहात्म्य समस्त पापोंको हर लेनेवाला सर्वोत्तम साधन है॥२२॥

शिवेति नामदावाग्नेर्महापातकपर्वताः ।
भस्मीभवन्त्यनायासात्सत्यं सत्यं न संशयः ॥ २३ ॥
'शिव' इस नामरूपी दावानलसे महान् पातकरूपी | पर्वत अनायास ही भस्म हो जाता है-यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥

पापमूलानि दुःखानि विविधान्यपि शौनक ।
शिवनामैकनश्यानि नान्यनश्यानि सर्वथा ॥ २४ ॥
हे शौनक! पापमूलक जो नाना प्रकारके दुःख हैं, वे एकमात्र शिवनाम (भगवन्नाम) से ही नष्ट होनेवाले हैं; दूसरे साधनोंसे सम्पूर्ण यत्न करनेपर भी पूर्णतया नष्ट नहीं होते हैं ॥ २४॥

स वैदिकः स पुण्यात्मा स धन्यः स बुधो मतः ।
शिवनामजपासक्तो यो नित्यं भुवि मानव ॥ २५ ॥
जो मनुष्य इस भूतलपर सदा भगवान् शिवके नामोंके जपमें ही लगा हुआ है, वह वेदोंका ज्ञाता है, वह पुण्यात्मा है, वह धन्यवादका पात्र है तथा वह | विद्वान् माना गया है। २५ ॥

भवन्ति विविधा धर्मास्तेषां सद्यः फलोन्मुखाः ।
येषां भवति विश्वासः शिवनामजपे मुने ॥ २६ ॥
हे मुने। जिनका शिवनामजपमें विश्वास है, उनके द्वारा आचरित नाना प्रकारके धर्म तत्काल फल | देनेके लिये उत्सुक हो जाते हैं ॥ २६॥

पातकानि विनश्यन्ति यावन्ति शिवनामतः ।
भुवि तावन्ति पापानि क्रियन्ते न नरैर्मुने ॥ २७ ॥
हे महर्षे ! भगवान् शिवके नामसे जितने पाप नष्ट होते हैं, उतने पाप मनुष्य इस भूतलपर कर ही नहीं सकता ॥ २७ ॥

ब्रह्महत्यादिपापानां राशीनप्रमितान्मुने ।
शिवनाम द्रुतं प्रोक्तं नाशयत्यखिलान्नरैः ॥ २८ ॥
हे मुने ! ब्राहत्या-जैसे पापोंकी समस्त अपरिमित राशियाँ शिवनाम लेनेसे शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं ॥ २८ ॥

शिवनामतरीं प्राप्य संसाराब्धिं तरन्ति ये ।
संसारमूलपापानि तानि नश्यन्त्यसंशयम् ॥ २९ ॥
जो शिवनामरूपी नौकापर आरूढ़ होकर संसारसमुद्रको पार करते हैं, उनके जन्म-मरणरूप संसारके मूलभूत वे सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं ॥ २९ ॥

संसारमूलभूतानां पातकानां महामुने ।
शिवनाम कुठारेण विनाशो जायते ध्रुवम् ॥ ३० ॥
हे महामुने ! संसारके मूलभूत पातकरूपी वृक्षका शिवनामरूपी कुठारसे निश्चय ही नाश हो जाता है ॥ ३० ॥

शिवनामामृतं पेयं पापदावानलार्दितैः ।
पापदावाग्नितप्तानां शान्तिस्तेन विना न हि ॥ ३१ ॥
जो पापरूपी दावानलसे पीड़ित हैं, उन्हें शिवनामरूपी अमृतका पान करना चाहिये । पापोंके दावानलसे दग्ध होनेवाले लोगोंको उस शिवनामामृतके बिना शान्ति नहीं मिल सकती ॥ ३१ ॥

शिवेति नामपीयूषवर्षवर्षधारापरिप्लुताः ।
संसारदवमध्येऽपि न शोचन्ति कदाचन ॥ ३२ ॥
जो शिवनामरूपी सुधाकी वृष्टिजनित धारामें गोते लगा रहे हैं, वे संसाररूपी दावानलके बीच में खड़े होनेपर भी कदापि शोकके भागी नहीं होते ॥ ३२ ॥

शिवनाम्नि महद्‌भक्तिर्जाता येषां महात्मनाम् ।
तद्विधानां तु सहसा मुक्तिर्भवति सर्वथा ॥ ३३ ॥
जिन महात्माओंके मनमें शिवनामके प्रति बड़ी भारी भक्ति है, ऐसे लोगोंकी सहसा और सर्वधा मुक्ति होती है ॥ ३३ ॥

अनेकजन्मभिर्येन तपस्तप्तं मुनीश्वर ।
शिवनाम्नि भवेद्‌भक्तिः सर्वपापापहारिणी ॥ ३४ ॥
हे मुनीश्वर ! जिसने अनेक जन्मोंतक तपस्या की है, उसीकी शिवनामके प्रति भक्ति होती है, जो समस्त पापोंका नाश करनेवाली है ॥ ३४ ॥

यस्यासाधारणी शम्भुनाम्नि भक्तिरखण्डिता ।
तस्यैव मोक्षः सुलभो नान्यस्येति मतिर्मम ॥ ३५ ॥
जिसके मनमें भगवान् शिवके नामाके प्रति कभी खण्डित न होनेवाली असाधारण भक्ति प्रकट हुई है, उसीके लिये मोक्ष सुलभ है-यह मेरा मत है ॥ ३५ ॥

कृत्वाप्यनेकपापानि शिवनामजपादरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो भवत्येव न संशयः ॥ ३६ ॥
जो अनेक पाप करके भी भगवान् शिवके नामजपमें आदरपूर्वक लग गया है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो ही जाता है । इसमें संशय नहीं है ॥ ३६ ॥

भवन्ति भस्मसाद्वृक्षा दवदग्धा यथा वने ।
तथा तावन्ति दग्धानि पापानि शिवनामतः ॥ ३७ ॥
जैसे वनमें दावानलसे दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिवनामरूपी दावानलसे दग्ध होकर उस समयतकके सारे पाप भस्म हो जाते हैं ॥ ३७ ॥

यो नित्यं भस्मपूताङ्‌गः शिवनामजपादरः ।
स तरत्येव संसारमघोरमपि शौनक ॥ ३८ ॥
हे शौनक जिसके अंग नित्य भस्म लगानेसे पवित्र हो गये हैं तथा जो शिवनामजपका आदर करने लगा है, वह घोर संसारसागरको भी पार कर ही लेता है ॥ ३८ ॥

ब्रह्मस्वहरणं कृत्वा हत्वापि ब्राह्मणान्बहून् ।
न लिप्यते नरः पापैः शिवनामजपादरः ॥ ३९ ॥
ब्राह्मणोंका धनहरण और अनेक ब्राह्मणोंकी हत्या करके भी जो आदरपूर्वक शिवके नामका जप करता है, वह पापोंसे लिप्त नहीं होता है [अर्थात् उसे किसी भी प्रकारका पाप नहीं लगता है] ॥ ३९ ॥

विलोक्य वेदानखिलाञ्छिवनामजपः परम् ।
संसारतारणोपाय इतिपूर्वैर्विनिश्चितम् ॥ ४० ॥
सम्पूर्ण वेदोंका अवलोकन करके पूर्ववर्ती महर्षियोंने यही निश्चित किया है कि भगवान् शिवके नामका जप संसारसागरको पार करनेके लिये सर्वोत्तम उपाय है ॥ ४० ॥

किं बहूक्त्या मुनिश्रेष्ठाः श्लोकेनैकेन वच्म्यहम् ।
शिवाभिधानमाहात्म्यं सर्वपापापहारणम् ॥ ४१ ॥
हे मुनिवरो ! अधिक कहनेसे क्या लाभ, मैं शिव नामके सर्वपापहारी माहात्म्यका वर्णन एक ही श्लोकमें करता हूँ ॥ ४१ ॥

पापानां हरणं शम्भोर्नामः शक्तिर्हि पावनी ।
शक्नोति पातकं तावत्कर्तुं नापि नरः क्वचित् ॥ ४२ ॥
भगवान् शंकरके एक नाममें भी पापहरणकी जितनी शक्ति है, उतना पातक मनुष्य कभी कर ही नहीं सकता ॥ ४२ ॥

शिवनामप्रभावेण लेभे सद्‌गतिमुत्तमाम् ।
इन्द्रद्युम्ननृपः पूर्वं महापापयुतो मुने ॥ ४३ ॥
हे मुने ! पूर्वकालमें महापापी राजा इन्द्रधुम्नने शिवनामके प्रभावसे ही उत्तम सद्‌गति प्राप्त की थी ॥ ४३ ॥

तथा काचिद्‌द्विजा योषाऽसौ मुनेबहुपापिनी ।
शिवनामप्रभावेण लेभे सद्‌गतिमुत्तमाम् ॥ ४४ ॥
इसी तरह कोई ब्राह्मणी युवती भी जो बहुत पाप कर चुकी थी, शिवनामके प्रभावसे ही उत्तम गतिको प्राप्त हुई । ४४ ॥

इत्युक्तं वो द्विजश्रेष्ठा नाममाहात्म्यमुत्तमम् ।
शृणुध्वं भस्ममाहात्म्यं सर्वपावनपावनम् ॥ ४५ ॥
हे द्विजवरो । इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे भगवन्नामके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया है । अब आप लोग भस्मका माहात्म्य सुनें, जो समस्त पावन वस्तुओंको भी पवित्र करनेवाला है ॥ ४५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां साध्यसाधनखण्डे
शिवनममाहात्म्यवर्णनोनाम त्रयोविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणमें प्रथम विडोश्वरसंहिताके साध्यसाधनखण्डमें शिवनाममाहाल्यवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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