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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ द्वाविंशोऽध्यायः ॥

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शिवनैवेद्यभक्षणनिर्णयः बिल्वमाहात्म्यं च -
शिव-नैवेद्य-भक्षणका निर्णय एवं बिल्वपत्रका माहात्म्य


ऋषय ऊचुः -
अग्राह्यं शिवनैवेद्यमिति पूर्वं श्रुतं वचः ।
ब्रूहि तन्निर्णयं बिल्वमाहात्म्यमपि सन्मुने ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे महामुने ! हमने पहले सुना है कि भगवान् शिवको अर्पित किया गया नैवेद्य अग्राह्य होता है, अतएव नैवेद्यके विषयमें निर्णय और बिल्वपत्रका माहात्म्य भी कहिये ॥ १ ॥

सूत उवाच -
शृणुध्वं मुनयःसर्वे सावधानतयाऽधुना ।
सर्वं वदामि सप्रीत्या धन्या यूयं शिवव्रताः ॥ २ ॥
सूतजी बोले-हे मुनियो ! अब आप सब सावधानीसे सुनें । मैं प्रेमपूर्वक सब कुछ कह रहा हूँ । आप लोग शिवव्रत धारण करनेवाले हैं, अत: आपलोग धन्य हैं ॥ २ ॥

शिवभक्तः शुचिः शुद्धः सद्‌व्रतीदृढनिश्चयः ।
भक्षयेच्छिवनैवेद्यं त्यजेदग्राह्यभावनाम् ॥ ३ ॥
जो शिवका भक्त, पवित्र, शुद्ध, सद्वती तथा दृढनिश्चयी है, उसे शिवनैवेद्य अवश्य ग्रहण करना चाहिये और अग्राह्य भावनाका त्याग कर देना चाहिये ॥ ३ ॥

दृष्ट्‍वापि शिवनैवेद्यं यान्ति पापानि दूरतः ।
भक्ते तु शिवनैवेद्ये पुण्यान्या यान्ति कोटिशः ॥ ४ ॥
शिवनैवेद्यको देखनेमात्रसे ही सभी पाप दूर हो जाते हैं और शिवका नैवेद्य भक्षण करनेसे तो करोड़ों पुण्य स्वतः आ जाते हैं ॥ ४ ॥

अलं यागसहस्रेणाप्यलं यागार्बुदैरपि ।
भक्षिते शिवनैवेद्ये शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ५ ॥
हजार यज्ञोंकी बात कौन कहे, अर्बुद यज्ञ करनेसे भी वह पुण्य प्राप्त नहीं हो पाता है, जो शिवनैवेद्य खानेसे प्राप्त हो जाता है । शिवका नैवेद्य खानेसे तो शिवसायुज्यकी प्राप्ति भी हो जाती है ॥ ५ ॥

यद्‌गृहेशिवनैवेद्य प्रचारोऽपिप्रजायते ।
तद्‌गृहं पावनं सर्वमन्यपावनकारणम् ॥ ६ ॥
जिस घरमें शिवको नैवेद्य लगाया जाता है या अन्यत्रसे शिवको समर्पित नैवेद्य प्रसादरूपामें आ जाता है, वह घर पवित्र हो जाता है और वह अन्यको भी पवित्र करनेवाला हो जाता है ॥ ६ ॥

आगतं शिवनैवेद्यं गृहीत्वा शिरसा मुदा ।
भक्षणीयं प्रयत्‍नेन शिवस्मरणपूर्वकम् ॥ ७ ॥
आये हुए शिवनैवेद्यको प्रसन्नतापूर्वक सिर झुकाकर ग्रहण करके भगवान् शिवका स्मरण करते हुए उसे खा लेना चाहिये ॥ ७ ॥

आगतं शिवनैवेद्यमन्यदा ग्राह्यमित्यपि ।
विलम्बे पापसम्बन्धो भवत्येव हि मानवः ॥ ८ ॥
आये हुए शिवनैवेद्यको दूसरे समयमें ग्रहण करूँगा-ऐसी भावना करके जो मनुष्य उसे ग्रहण करनेमें विलम्ब करता है, उसे पाप लगता है ॥ ८ ॥

न यस्य शिवनैवेद्य ग्रहणेच्छाप्रजायते ।
स पापिष्ठगरिष्ठः स्यान्नरकं यात्यपि ध्रुवम् ॥ ९ ॥
जिसमें शिवनैवेद्य ग्रहण करनेकी इच्छा उत्पन्न नहीं होती, वह महान् पापी होता है और निश्चित रूपसे नरकको जाता है ॥ ९ ॥

हृदये चन्द्रकान्ते च स्वर्णरूप्यादिनिर्मिते ।
शिवदीक्षावता भक्तेनेदं भक्ष्यमितीर्यते ॥ १० ॥
हदयमें अवस्थित शिवलिंग या चन्द्रकान्तमणिसे बने हुए शिवलिंग अथवा स्वर्ण या चाँदीसे बनाये गये शिवलिंगको समर्पित किया गया नैवेद्य शिवकी दीक्षा लिये भक्तको खाना ही चाहिये-ऐसा कहा गया है ॥ १० ॥

शिवदीक्षान्वितोभक्तो महाप्रसादसञ्ज्ञकम् ।
सर्वेषामपि लिङ्‌गानां नैवेद्यं भक्षयेच्छुभम् ॥ ११ ॥
इतना ही नहीं शिवदीक्षित भक्त समस्त शिवलिंगोंके लिये समर्पित महाप्रसादरूप शुभ शिवनैवेद्यको खा सकता है ॥ ११ ॥

अन्यदीक्षायुजां नॄणां शिवभक्तिरतात्मनाम् ।
शृणुध्वं निर्णयं प्रीत्या शिवनैवेद्यभक्षणे ॥ १२ ॥
। जिन मनुष्योंने अन्य देवोंकी दीक्षा ली है और शिवकी भक्तिमें वे अनुरक्त रहते हैं, उनके लिये शिवनैवेद्यके भक्षणके विषयमें निर्णयको प्रेमपूर्वक आप सब सुनें ॥ १२ ॥

शालग्रामोद्‌भवे लिङ्‌गे रसलिङ्‌गे तथा द्विजाः ।
पाषाणे राजते स्वर्णे सुरसिद्धप्रतिष्ठिते ॥ १३ ॥
काश्मीरे स्फाटिके रात्‍ने ज्योतिर्लिङ्‌गेषु सर्वशः ।
चान्द्रायणसमं प्रोक्तं शम्भोर्नैवेद्यभक्षणम् ॥ १४ ॥
हे ब्राह्मणो ! शालग्राममें उत्पन्न शिवलिंग, रसलिंग (पारदलिंग), पाषाणलिंग, रजतलिंग, स्वर्णलिंग, देवों और सिद्ध मुनियोंके द्वारा प्रतिष्ठित शिवलिंग, केसरके बने हुए लिंग, स्फटिकलिंग, रत्नलिंग और ज्योतिर्लिंग आदि समस्त शिवलिंगोंके लिये समर्पित नैवेद्यका भक्षण करना चान्द्रायण-व्रतके समान फल देनेवाला कहा गया है ॥ १३-१४ ॥

ब्रह्महापि शुचिर्भूत्वा निर्माल्यं यस्तु धारयेत् ।
भक्षयित्वा द्रुतं तस्य सर्वपापं प्रणश्यति ॥ १५ ॥
यदि ब्रह्महत्या करनेवाला भी पवित्र होकर शिवका पवित्र निर्माल्य धारण करता है और उसे खाता है, उसके सम्पूर्ण पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥ १५ ॥

चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्‌भोक्तव्यं न मानवैः ।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तितः ॥ १६ ॥
जहाँ चण्डका अधिकार हो, वहाँ शिवलिंगके लिये समर्पित नैवेद्यका भक्षण मनुष्योंको नहीं करना चाहिये; जहाँ चण्डका अधिकार न हो, वहाँ भक्तिपूर्वक भक्षण करना चाहिये ॥ १६ ॥

बाणलिङ्‌गे च लौहे च सिद्धेलिङ्‌गे स्वयम्भुवि ।
प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोधिकृतोभवेत् ॥ १७ ॥
बाणलिंग, लौहलिंग, सिद्धलिंग, स्वयम्भूलिंग और अन्य समस्त प्रतिमाओंमें चण्डका अधिकार नहीं होता है ॥ १७ ॥

स्नापयित्वा विधानेन योलिङ्‌गस्नापनोदकम् ।
त्रिः पिबेत्त्रिविधं पापं तस्येहाशु विनश्यति ॥ १८ ॥
जो विधिपूर्वक शिवलिंगको स्नान कराकर उस स्नानजलको तीन बार पीता है, उसके समस्त पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥ १८ ॥

अग्राह्यं शिवनैवेद्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम् ।
शालग्रामशिलासङ्‌गात्सर्वं याति पवित्रताम् ॥ १९ ॥
[चण्डके द्वारा अधिकृत होनेके कारण] अग्राह्य शिवनैवेद्य पत्र-पुष्प-फल और जल-यह सब शालग्रामशिलाके स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ १९ ॥

लिङ्‌गोपरि च यद्द्रव्यं तदग्राह्यं मुनीश्वराः ।
सुपवित्रं च तज्ज्ञेयं यल्लिङ्‌गस्पर्शबाह्यतः ॥ २० ॥
हे मुनीश्वरो ! शिवलिंगके ऊपर जो भी द्रव्य चढ़ाया जाता है, वह अग्राह्य है और जो लिंगके स्पर्शसे बाहर है, उसे अत्यन्त पवित्र जानना चाहिये ॥ २० ॥

नैवेद्यनिर्णयः प्रोक्त इत्थं वो मुनिसत्तमाः ।
शृणुध्वं बिल्वमाहात्म्यं सावधानतयाऽऽदरात् ॥ २१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठो ! इस प्रकार मैंने शिवनैवेद्यका निर्णय कह दिया । अब आप सब सावधानीसे बिल्वपत्रके माहात्म्यको आदरपूर्वक सुनें ॥ २१ ॥

महादेवस्वरूपोऽयं बिल्वो देवैरपि स्तुतः ।
यथाकथञ्चिदेतस्य महिमा ज्ञायते कथम् ॥ २२ ॥
बिल्ववृक्ष तो महादेवस्वरूप है, देवोंके द्वारा भी इसकी स्तुति की गयी है, अत: जिस किसी प्रकारसे उसकी महिमाको कैसे जाना जा सकता है ॥ २२ ॥

पुण्यतीर्थानि यावन्ति लोकेषु प्रथितान्यपि ।
तानि सर्वाणि तीर्थानि बिल्वमूले वसन्ति हि ॥ २३ ॥
संसारमें जितने भी प्रसिद्ध तीर्थ हैं, वे सब तीर्थ बिल्वके मूलमें निवास करते हैं ॥ २३ ॥

बिल्वमूले महादेवं लिङ्‌गरूपिणमव्ययम् ।
यः पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद्ध्रुवम् ॥ २४ ॥
जो पुण्यात्मा बिल्ववृक्षके मूलमें लिंगरूपी अव्यय भगवान् महादेवकी पूजा करता है, वह निश्चित रूपसे शिवको प्राप्त कर लेता है ॥ २४ ॥

बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति ।
स सर्वतीर्थस्नातः स्यात्स एव भुवि पावनः ॥ २५ ॥
जो प्राणी बिल्ववृक्षके मूल में शिवजीके मस्तकपर अभिषेक करता है, वह समस्त तीथोंमें स्नान करनेका फल प्राप्तकर पृथ्वीपर पवित्र हो जाता है ॥ २५ ॥

एतस्य बिल्वमूलस्याथालवालमनुत्तमम् ।
जलाकुलं महादेवो दृष्ट्‍वा तुष्टो भवत्यलम् ॥ २६ ॥
इस बिल्ववृक्षके मूलमें बने हुए उत्तम थालेको जलसे परिपूर्ण देखकर भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न होते हैं ॥ २६ ॥

पूजयेद्‌बिल्वमूलं यो गन्धपुष्पादिभिर्नरः ।
शिवलोकमवाप्नोति सन्ततिर्वर्धते सुखम् ॥ २७ ॥
जो व्यक्ति गन्ध पुष्पादिसे बिल्ववृक्षके मूलका पूजन करता है, वह शिवलोकको प्राप्त करता है और उसके सन्तान और सुखकी अभिवृद्धि होती है ॥ २७ ॥

बिल्वमूले दीपमालां यः कल्पयति सादरम् ।
स तत्त्वज्ञानसम्पन्नो महेशान्तर्गतो भवेत् ॥ २८ ॥
जो मनुष्य बिल्ववृक्षके मूलमें आदरपूर्वक दीपमालाका दान करता है, वह तत्त्वज्ञानसे सम्पन्न होकर महादेवके सान्निध्यको प्राप्त हो जाता है ॥ २८ ॥

बिल्वशाखां समादाय हस्तेन नवपल्लवम् ।
गृहीत्वा पूजयेद्‌बिल्वं स च पापैः प्रमुच्यते ॥ २९ ॥
जो बिल्वशाखाको हाथसे पकड़कर उसके नवपल्लवको ग्रहण करके बिल्वकी पूजा करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २९ ॥

बिल्वमूले शिवरतं भोजयेद्यस्तु भक्तितः ।
एकं वा कोटिगुणितं तस्य पुण्यं प्रजायते ॥ ३० ॥
जो पुरुष भक्तिपूर्वक बिल्ववृक्षके नीचे एक शिवभक्तको भोजन कराता है, उसे करोड़ों मनुष्योंको भोजन करानेका पुण्य प्राप्त होता है ॥ ३० ॥

बिल्वमूले क्षीरयुक्तमन्नमाज्येन संयुतम् ।
यो दद्याच्छिवभक्ताय स दरिद्रो न जायते ॥ ३१ ॥
जो बिल्ववृक्षके नीचे दूध और घीसे युक्त अन्न शिव भक्तको प्रदान करता है, वह दरिद्र नहीं रह जाता है ॥ ३१ ॥

साङ्‌गोपाङ्‌गमिति प्रोक्तं शिवलिङ्‌गप्रपूजनम् ।
प्रवृत्तानां निवृत्तानां भेदतो द्विविधं द्विजाः ॥ ३२ ॥
हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने सांगोपांग शिवलिंगके पूजनविधानको कह दिया है । इसमें भी प्रवृत्तों और निवृत्तोंके लिये दो भेद हैं ॥ ३२ ॥

प्रवृत्तानां पीठपूजां सर्वाभीष्टप्रदा भुवि ।
पात्रेणैव प्रवृत्तस्तु सर्वपूजां समाचरेत् ॥ ३३ ॥
प्रवृत्तिमार्गियोंके लिये पीठपूजा इस भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देने वाली होती है । प्रवृत्त पुरुषको चाहिये कि सुपात्र गुरु आदिके द्वारा ही सारी पूजा सम्पन्न करे ॥ ३३ ॥

नैवेद्यमभिषेकान्ते शाल्यन्नेन समाचरेत् ।
पूजान्ते स्थापयेल्लिङ्‌गं पुटे शुद्धे पृथग्गृहे ॥ ३४ ॥
करपूजानिवृत्तानां स्वभोज्यं तु निवेदयेत् ।
निवृत्तानां परं सूक्ष्मं लिङ्‌गमेव विशिष्यते ॥ ३५ ॥
विभूत्यभ्यर्चनं कुर्याद्विभूतिं च निवेदयेत् ।
पूजां कृत्वा तथा लिङ्‌गं शिरसा धारयेत्सदा ॥ ३६ ॥
शिवलिंगका अभिषेक करनेके पश्चात् अगहनी अन्नसे नैवेद्य लगाना चाहिये । पूजाके अन्तमें उस शिवलिंगको किसी शुद्ध पुट (डिब्बे)-में रख देना चाहिये अथवा किसी दूसरे शुद्ध घरमें स्थापित कर देना चाहिये । निवृत्तिमार्गी उपासकोंके लिये हाथपर ही शिवपूजाका विधान है । उन्हें [भिक्षा आदिसे प्राप्त] अपने भोजनको हौ नैवेद्यरूपमें अर्पित करना चाहिये । निवृत्तिमार्गियोंके लिये परात्पर सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया गया है । उन्हें चाहिये कि विभूतिसे ही पूजा करें और विभूतिका ही नैवेद्य शिवको प्रदान करें । पूजा करनेके पश्चात् उस विभूतिस्वरूप लिंगको सिरपर सदा धारण करना चाहिये ॥ ३४-३६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
साध्यसाधनखण्डे शिवनैवेद्यवर्णनोनाम द्वाविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्यश्वरसंहिताके साध्यसाधनखण्डमें शिवनैवेद्यवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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