Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ पञ्चविंशोऽध्यायः ॥

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


रुद्राक्षमाहात्म्यम् -
रुद्राक्षधारणकी महिमा तथा उसके विविध भेदोंका वर्णन


सूत उवाच -
शौनकर्षे महाप्राज्ञ शिवरूप महापते ।
शृणुरुद्राक्षमाहात्म्यं समासात्कथयाम्यहम् ॥ १ ॥
सूतजी बोले-हे महाप्राज्ञ ! हे महामते ! शिवरूप हे शौनक ऋषे ! अब मैं संक्षेपसे रुद्राक्षका माहात्म्य बता रहा हूँ, सुनिये ॥ १ ॥

शिवप्रियतमो ज्ञेयो रुद्राक्षः परपावनः ।
दर्शनात्स्पर्शनाज्जाप्यात्सर्वपापहरः स्मृतः ॥ २ ॥
रुद्राक्ष शिवको बहुत ही प्रिय है । इसे परम पावन समझना चाहिये । रुद्राक्षके दर्शनसे, स्पर्शसे तथा उसपर जप करनेसे वह समस्त पापोंका अपहरण करनेवाला माना गया है ॥ २ ॥

पुरा रुद्राक्षमहिमा देव्यग्रे कथितो मुने ।
लोकोपकरणार्थाय शिवेन परमात्मना ॥ ३ ॥
हे मुने ! पूर्वकालमें परमात्मा शिवने समस्त लोकोंका उपकार करनेके लिये देवी पार्वतीके सामने रुद्राक्षकी महिमाका वर्णन किया था ॥ ३ ॥

शिव उवाच -
शृणु देवि महेशानि रुद्राक्ष महिमा शिवे ।
कथयामि तव प्रीत्या भक्तानां हितकाम्यया ॥ ४ ॥
शिवजी बोले-हे महेश्वरि । हे शिवे ! मैं आपके प्रेमवश भक्तोंके हितकी कामनासे रुद्राक्षकी महिमाका वर्णन करता हूँ, सुनिये ॥ ४ ॥

दिव्यवर्षसहस्राणि महेशानि पुनः पुरा ।
तपः प्रकुर्वतस्त्रस्तं मनः संयम्य वै मम ॥ ५ ॥
हे महेशानि ! पूर्वकालकी बात है, मैं मनको संयममें रखकर हजारों दिव्य वर्षातक घोर तपस्यामें लगा रहा । ॥ ५ ॥

स्वतन्त्रेण परेशेन लोकोपकृतिकारिणा ।
लीलया परमेशानि चक्षुरुन्मीलितं मया ॥ ६ ॥
हे परमेश्वरि ! मैं सम्पूर्ण लोकोंका उपकार करनेवाला स्वतन्त्र परमेश्वर हूँ । [एक दिन सहसा मेरा मन क्षुब्ध हो उठा । ] अतः उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोले ॥ ६ ॥

पुटाभ्यां चारुचक्षुर्भ्यां पतिता जलबिन्दवः ।
तत्राश्रुबिन्दुतो जाता वृक्षा रुद्राक्षसञ्ज्ञकाः ॥ ७ ॥
नेत्र खोलते ही मेरे मनोहर नेत्रपुटोंसे कुछ जलकी बूंदें गिरौं । आँसूकी उन बूंदोंसे वहाँ रुद्राक्ष नामक वृक्ष पैदा हो गये ॥ ७ ॥

स्थावरत्वमनुप्राप्य भक्तानुग्रहकारणात् ।
ते दत्ता विष्णुभक्तेभ्यश्चतुर्वर्णेभ्य एव च ॥ ८ ॥
भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये वे अश्रुबिन्दु स्थावरभावको प्राप्त हो गये । वे रुद्राक्ष मैंने विष्णुभक्तोंको तथा चारों वर्गोंके लोगोंको बाँट दिये ॥ ८ ॥

भूमौ गौडोद्‌भवांश्चक्रे रुद्राक्षाञ्छिववल्लभान् ।
मथुरायामयोध्यायां लङ्‌कायां मलये तथा ॥ ९ ॥
सह्याद्रौ च तथा काश्यां दशेष्वन्येषु वा तथा ।
परानसह्यपापौघभेदनाञ्छ्रुतिनोदनान् ॥ १० ॥
भूतलपर अपने प्रिय रुद्राक्षोंको मैंने गौड़ देशमें उत्पन्न किया । मथुरा, अयोध्या, लंका, मलयाचल, सह्यगिरि, काशी तथा अन्य देशोंमें भी उनके अंकुर उगाये । वे उत्तम रुद्राक्ष असहा पापसमूहोंका भेदन करनेवाले तथा श्रुतियोंके भी प्रेरक हैं । ९-१० ॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा जाता ममाज्ञया ।
रुद्राक्षास्ते पृथिव्यां तु तज्जातीयाः शुभाक्षकाः ॥ ११ ॥
मेरी आज्ञासे वे रुद्राक्ष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जातिके भेदसे इस भूतलपर प्रकट हुए । रुद्राक्षोंकी ही जातिके शुभाक्ष भी हैं ॥ ११ ॥

श्वेतरक्ताः पीतकृष्णा वर्णाज्ञेयाः क्रमाद्‌बुधैः ।
स्वजातीयं नृभिर्धार्यं रुद्राक्षं वर्णतः क्रमात् ॥ १२ ॥
उन ब्राह्मणादि जातिवाले रुद्राक्षोंके वर्ण श्वेत, रक्त, पीत तथा कृष्ण जानने चाहिये । मनुष्योंको चाहिये कि वे क्रमश: वर्णके अनुसार अपनी जातिका ही रुद्राक्ष धारण करें ॥ १२ ॥

वर्णैस्तु तत्फलं धार्यं भुक्तिमुक्तिफलेप्सुभिः ।
शिवभक्तैर्विशेषेण शिवयोः प्रीतये सदा ॥ १३ ॥
भोग और मोक्षकी इच्छा रखनेवाले चारों वर्गों के लोगों और विशेषतः शिवभक्तोंको शिवपार्वतीको प्रसन्नताके लिये रुद्राक्षके फलोंको अवश्य धारण करना चाहिये ॥ १३ ॥

धात्रीफलप्रमाणं यच्छ्रेष्ठमेतदुदाहृतम् ।
बदरीफलमात्रं तु मध्यमं सम्प्रकीर्तितम् ॥ १४ ॥
अधमं चणमात्रं स्यात्प्रक्रियैषा परोच्यते ।
शृणु पार्वति सुप्रीत्या भक्तानां हितकाम्यया ॥ १५ ॥
आँवलेके फलके बराबर जो रुद्राक्ष हो, वह श्रेष्ठ बताया गया है । जो बेरके फलके बराबर हो, उसे मध्यम श्रेणीका कहा गया है । जो चनेके बराबर हो, उसकी गणना निम्न कोटिमें की गयी है । हे पार्वति ! अब इसकी उत्तमताको परखनेकी यह दूसरी प्रक्रिया भक्तोंकी हितकामनासे बतायी जाती है । अतः आप भलीभाँति प्रेमपूर्वक इस विषयको सुनिये ॥ १४-१५ ॥

बदरीफलमात्रं च यत्स्यात्किल महेश्वरि ।
तथापि फलदं लोके सुखसौभाग्यवर्धनम् ॥ १६ ॥
हे महेश्वरि ! जो रुद्राक्ष बेरके फलके बराबर होता है, वह उतना छोटा होनेपर भी लोकमें उत्तम फल देनेवाला तथा सुख सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाला होता है ॥ १६ ॥

धात्रीफलसमं यत्स्यात्सर्वारिष्टविनाशनम् ।
गुञ्जया सदृशं यत्स्यात्सर्वार्थफलसाधनम् ॥ १७ ॥
जैं समस्त अरिष्टोंका विनाश करनेवाला होता है तथा जो गुंजाफलके समान बहुत छोटा होता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों और फलोंकी सिद्धि करनेवाला होता है ॥ १७ ॥

यथा यथा लघुः स्याद्वै तथाधिकफलप्रदः ।
एकैकतः फलं प्रोक्तं दशांशैरधिकं बुधैः ॥ १८ ॥
रुद्राक्ष जैसे-जैसे छोटा होता है, वैसे-वैसे अधिक फल देनेवाला होता है । एक छोटे रुद्राक्षको विद्वानोंने एक बड़े रुद्राक्षसे दस गुना अधिक फल देनेवाला बताया है ॥ १८ ॥

रुद्राक्षधारणं प्रोक्तं पापनाशनहेतवे ।
तस्माच्च धारणीयो वै सर्वार्थसाधनो ध्रुवम् ॥ १९ ॥
पापोंका नाश करनेके लिये रुद्राक्षधारण आवश्यक बताया गया है । वह निश्चय ही सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथोंका साधक है, अत: उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये ॥ १९ ॥

यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ः फलदः शुभः ।
न तथा दृश्यतेऽन्या च मालिका परमेश्वरि ॥ २० ॥
हे परमेश्वरि ! लोकमें मंगलमय रुद्राक्ष जैसा फल देनेवाला देखा जाता है, वैसी फलदायिनी दूसरी कोई माला नहीं दिखायी देती ॥ २० ॥

समाः स्निग्धा दृढाः स्थूलाः कण्टकैः संयुताः शुभाः ।
रुद्राक्षाः कामदा देवि भुक्तिमुक्तिप्रदाः सदा ॥ २१ ॥
हे देवि ! समान आकार प्रकारवाले, चिकने, सुदढ़, स्थूल, कण्टकयुक्त (उभरे हुए छोटे-छोटे दानोंवाले) और सुन्दर रुद्राक्ष अभिलाषित पदार्थोंके दाता तथा सदैव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं ॥ २१ ॥

क्रिमिदुष्टं छिन्नभिन्नं ‌कण्टकैर्हीनमेव च ।
व्रणयुक्तमवृत्तं च रुद्राक्षान्षड् विवर्जयेत् ॥ २२ ॥
जिसे कीड़ोंने दूषित कर दिया हो, जो खण्डित हो, फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्त हो तथा जो पूरा-पूरा गोल न हो, इन छ: प्रकारके रुद्राक्षोंको त्याग देना चाहिये ॥ २२ ॥

स्वयमेव कृतद्वारं रुद्राक्षं स्यादिहोत्तमम् ।
यत्तु पौरुषयत्‍नेन कृतं तन्मध्यमं भवेत् ॥ २३ ॥
जिस रुद्राक्षमें अपने आप ही डोरा पिरोनेके योग्य छिद्र हो गया हो, वही यहाँ उत्तम माना गया है । जिसमें मनुष्यके प्रयत्नसे छेद किया गया हो, वह मध्यम श्रेणीका होता है ॥ २३ ॥

रुद्राक्षधारणं प्रोक्तं महापातकनाशनम् ।
रुद्रसंख्याशतं धृत्वा रुद्ररूपो भवेन्नरः ॥ २४ ॥
रुद्राक्षधारण बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला बताया गया है । ग्यारह सौ रुद्राक्षोंको धारण करनेवाला मनुष्य रुद्रस्वरूप ही हो जाता है ॥ २४ ॥

एकादशशतानीह धृत्वा यत्फलमाप्यते ।
तत्फलं शक्यते नैव वक्तुं वर्षशतैरपि ॥ २५ ॥
इस जगत्में ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जिस फलको पाता है, उसका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता ॥ २५ ॥

शतार्धेन युतैः पञ्चशतैर्वै मुकुटं मतम् ।
रुद्राक्षैर्विरचेत्सम्यग्भक्तिमान्पुरुषो वरः ॥ २६ ॥
त्रिभिः शतैः षष्टियुक्तैस्त्रिरावृत्त्या तथा पुनः ।
रुद्राक्षैरुपवीतं व निर्मीयाद्‌भक्तितत्परः ॥ २७ ॥
भक्तिमान् पुरुष भलीभाँति साढे पाँच सौ रुद्राक्षके दानोंका सुन्दर मुकुट बनाये । तीन सौ साठ दानोंको लम्बे सूत्रमें पिरोकर एक हार बना ले । वैसे-वैसे तीन हार बनाकर भक्तिपरायण पुरुष उनका यज्ञोपवीत तैयार करे ॥ २६-२७ ॥

शिखायां च त्रयं प्रोक्तं रुद्रक्षाणां महेश्वरि ।
कर्णयोः षट् च षट् चैव वामदक्षिणयोस्तथा ॥ २८ ॥
शतमेकोत्तरं ‌कण्ठे बाह्वोर्वै रुद्रसंख्यया ।
कूर्परद्वारयोस्तत्र मणिबन्धे तथा पुनः ॥ २९ ॥
उपवीते त्रयं धार्यं शिवभक्तिरतैर्नरैः ।
शेषानुर्वरितान्पञ्च सम्मितान्धारयेत्कटौ ॥ ३० ॥
एतत्संख्या धृता येन रुद्राक्षाः परमेश्वरि ।
तद्‌रूपं तु प्रणम्यं हि स्तुत्यं सर्वैर्महेशवत् ॥ ३१ ॥
हे महेश्वरि ! शिवभक्त मनुष्योंको शिखामें तीन, दाहिने और बाँयें दोनों कानोंमें क्रमशः छ:-छ:, कण्ठमें एक सौ एक, भुजाओंमें ग्यारह-ग्यारह, दोनों कुहनियों और दोनों मणिबन्धोंमें पुन: ग्यारह ग्यारह, यज्ञोपवीतमें तीन तथा कटिप्रदेशमें गुप्त रूपसे पाँच रुद्राक्ष धारण करना चाहिये । हे परमेश्वरि ! [उपर्युक्त कही गयी] इस संख्याके अनुसार जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करता है, उसका स्वरूप भगवान् शंकरके समान सभी लोगोंके लिये प्रणम्य और स्तुत्य हो जाता है ॥ २८-३१ ॥

एवम्भूतं स्थितं ध्याने यदा कृत्वासने जनम् ।
शिवेति व्याहरंश्चैव दृष्ट्‍वा पापैः प्रमुच्यते ॥ ३२ ॥
इस प्रकार रुद्राक्षसे युक्त होकर मनुष्य जब आसन लगाकर ध्यानपूर्वक शिवका नाम जपने लगता है, तो उसको देखकर पाप स्वतः छोड़कर भाग जाते हैं ॥ ३२ ॥

शतादिकसहस्रस्य विधिरेष प्रकीर्तितः ।
तदभावे प्रकारोन्यः शुभः सम्प्रोच्यते मया ॥ ३३ ॥
इस तरह मैंने एक हजार एक सौ रुद्राक्षोंको धारण करनेकी विधि कह दी है । इतने रुद्राक्षोंके न प्राप्त होनेपर मैं दूसरे प्रकारकी कल्याणकारी विधि कह रहा हूँ ॥ ३३ ॥

शिखायामेकरुद्राक्षं शिरसा त्रिंशतं वहेत् ।
पञ्चाशच्च गले दध्याद्‌बाह्वोः षोडश षोडश ॥ ३४ ॥
शिखामें एक, सिरपर तीस, गलेमें पचास और दोनों भुजाओंमें सोलह-सोलह रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ ३४ ॥

मणिबन्धे द्वादश द्विस्कन्धे पञ्चशतं वहेत् ।
अष्टोत्तरशतैर्माल्यमुपवीतं प्रकल्पयेत् ॥ ३५ ॥
दोनों मणिबन्धोंपर बारह, दोनों स्कन्धोंमें पाँच सौ और एक सौ आठ रुद्राक्षोंकी माला बनाकर यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करना चाहिये ॥ ३५ ॥

एवं सहस्ररुद्राक्षान्धारयेद्यो दृढव्रतः ।
तं नमन्ति सुराः सर्वे यथारुद्रस्तथैव सः ॥ ३६ ॥
इस प्रकार दृढ़ निश्चय करनेवाला जो मनुष्य एक हजार रुद्राक्षोंको धारण करता है, वह रुद्रस्वरूप है; समस्त देवगण जैसे शिवको नमस्कार करते हैं, वैसे ही उसको भी नमन करते हैं ॥ ३६ ॥

एकं शिखायां रुद्राक्षं चत्वारिंशत्तु मस्तके ।
द्वात्रिंशत्कण्ठदेशे तु वक्षस्यष्टोत्तरं शतम् ॥ ३७ ॥
एकैकं ‌कर्णयोः षट् षट् बाह्वोः षोडश षोडश ।
करयोरविमानेन द्विगुणेन मुनीश्वर ॥ ३८ ॥
संख्या प्रीतिर्धृता येन सोऽपि शैवजनः परः ।
शिववत्पूजनीयो हि वन्द्यः सर्वैरभीक्ष्णशः ॥ ३९ ॥
शिखामें एक, मस्तकपर चालीस, कण्ठप्रदेशमें बत्तीस, वक्षःस्थलपर एक सौ आठ, प्रत्येक कानमें एक एक, भुजबन्धोंमें छ:-छ: या सोलह-सोलह, दोनों हाथोंमें उनका दुगुना अथवा हे मुनीश्वर ! प्रीतिपूर्वक जितनी इच्छा हो, उतने रुद्राओंको धारण करना चाहिये । ऐसा जो करता है, वह शिवभक्त सभी लोगोंके लिये शिवके समान पूजनीय, वन्दनीय और बार-बार दर्शनके योग्य हो जाता है । ३७-३९ ॥

शिरसीशानमन्त्रेण कर्णे तत्पुरुषेण च ।
अघोरेण गले धार्यं तेनैव हृदयेऽपि च ॥ ४० ॥
सिरपर ईशानमन्त्रसे, कानमें तत्पुरुषमन्त्रसे तथा गले और हृदयमें अघोरमन्त्रसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ ४० ॥

अघोरबीजमन्त्रेण करयोर्धारयेत्सुधीः ।
पञ्चदशाक्षग्रथितां वामदेवेन चोदरे ॥ ४१ ॥
विद्वान् पुरुष दोनों हाथोंमें अघोर बीजमन्त्रसे रुद्राक्ष धारण करे और उदरपर वामदेवमन्त्रसे पन्द्रह रुद्राक्षोंद्वारा गूंथी हुई माला धारण करे ॥ ४१ ॥

पञ्च ब्रह्मभिरङ्‌गैश्च त्रिमालां पञ्च सप्त च ।
अथ वा मूलमन्त्रेण सर्वानक्षांस्तु धारयेत् ॥ ४२ ॥
सद्योजात आदि पाँच ब्रह्ममन्त्रों तथा अंगमन्त्रोंके द्वारा रुद्राक्षको तीन, पाँच या सात मालाएँ धारण करे अथवा मूलमन्त्र [नमः शिवाय]-से ही समस्त रुद्राक्षोंको धारण करे ॥ ४२ ॥

मद्यं मांसं तु लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च ।
श्लेष्मान्तकं विड्वराहं भक्षणे वर्जयेत्ततः ॥ ४३ ॥
रुद्राक्षधारी पुरुष अपने खान-पानमें मदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा, विड्वराह आदिको त्याग दे ॥ ४३ ॥

वलक्षं रुद्राक्षं द्विजतनुभिरेवेह विहितं
     सुरक्तं क्षत्राणां प्रमुदितमुमे पीतमसकृत् ।
ततो वैश्यैर्धार्यं प्रतिदिवसभावश्यकमहो
     तथा कृष्णं शूद्रैः श्रुतिगदितमार्गोऽयमगजे ॥ ४४ ॥
हे गिरिराजनन्दिनी उमे ! श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणोंको ही धारण करना चाहिये । गहरे लाल रंगका रुद्राक्ष क्षत्रियोंके लिये हितकर बताया गया है । वैश्योंके लिये प्रतिदिन बार-बार पीले रुद्राक्षको धारण जैं धारण करना चाहिये-यह वेदोक्त मार्ग है ॥ ४४ ॥

वर्णी वनी गृहयतीर्नियमेन दध्या-
     देतद्रहस्यपरमो न हि जातु तिष्ठेत् ।
रुद्राक्षधारणमिदं सुकृतैश्च लभ्यं
त्यक्त्वेदमेतदखिलान्नरकान्प्रयान्ति ॥ ४५ ॥
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और संन्यासी| सबको नियमपूर्वक रुद्राक्ष धारण करना उचित है । इसे धारण किये बिना न रहे, यह परम रहस्य है । इसे धारण करनेका सौभाग्य बड़े पुण्यसे प्राप्त होता है । इसको त्यागनेवाला व्यक्ति नरकको जाता है ॥ ४५ ॥

आदावामलकात्स्वतो लघुतरा
     रुग्णास्ततःकण्टकैः
सन्दष्टाः कृमिभिस्तनूपकरण-
     च्छिद्रेण हीनास्तथा ।
धार्यानैव शुभेप्सुभिश्चणकव-
     द्रुद्राक्षमप्यन्ततो
रुद्राक्षो मम लिङ्‌गमङ्‌गलमुमे
     सूक्ष्मं प्रशस्तं सदा ॥ ४६ ॥
हे उमे ! पहले आँवलेके बराबर और फिर उससे भी छोटे रुद्राक्ष धारण करे । जो रोगयुक्त हों, जिनमें दाने न हों, जिन्हें कीड़ोंने खा लिया हो, जिनमें पिरोनेयोग्य छेद न हो, ऐसे रुद्राक्ष मंगलाकांक्षी पुरुषोंको नहीं धारण करना चाहिये । रुद्राक्ष मेरा मंगलमय लिंगविग्रह है । वह अन्तत: चनेके बराबर लघुतर होता है । सूक्ष्म रुद्राक्षको ही सदा प्रशस्त माना गया है ॥ ४६ ॥

सर्वाश्रमाणां वर्णानां स्त्रीशूद्राणां शिवाज्ञया ।
धार्याः सदैव रुद्राक्षा यतीनां प्रणवेन हि ॥ ४७ ॥
सभी आश्रमों, समस्त वर्णों, स्त्रियों और शूद्रोंको भी भगवान् शिवकी आज्ञाके अनुसार सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिये । यतियोंके लिये प्रणवके उच्चारणपूर्वक रुद्राक्ष धारण करनेका विधान है ॥ ४७ ॥

दिवा बिभ्रद्‌रात्रिकृतै रात्रौ बिभ्रद्‌दिवाकृतैः ।
प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने मुच्यते सर्वपातकैः ॥ ४८ ॥
मनुष्य दिनमें [रुद्राक्ष धारण करनेसे] रात्रिमें किये गये पापोंसे और रात्रिमें [रुद्राक्ष धारण करनेसे] दिनमें किये गये पापोंसे; प्रातः, मध्याहन और सायंकाल [रुद्राक्ष धारण करनेसे] किये गये समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है । ४८ ॥

ये त्रिपुण्ड्रधरा लोके जटाधारिण एव ये ।
ये रुद्राक्षधरास्ते वै यमलोकं प्रयान्ति न ॥ ४९ ॥
संसारमें जितने भी त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाले हैं, जटाधारी हैं और रुद्राक्ष धारण करनेवाले हैं, वे यमलोकको नहीं जाते हैं । ४९ ॥

रुद्राक्षमेकं शिरसा बिभर्ति
     तथात्रिपुण्ड्रं च ललाटमध्ये ।
पञ्चाक्षरं ये हि जपन्ति मन्त्रं
     पूज्याभवद्‌भिः खलु ते हि साधवः ॥ ५० ॥
जिनके ललाटमें त्रिपुण्ड लगा हो और सभी अंग रुद्राक्षसे विभूषित हों तथा जो पंचाक्षरमन्त्रका जप कर रहे हों, वे आप-सदृश पुरुषोंके पूज्य हैं; वे वस्तुतः साधु हैं ॥ ५० ॥

यस्याङ्गे नास्ति रुद्राक्षस्त्रिपुण्ड्रं भालपट्टके ।
मुखे पञ्चाक्षरं नास्ति तमानय यमालयम् ॥ ५१ ॥
ज्ञात्वा ज्ञात्वा तत्प्रभावं भस्मरुद्राक्षधारिणः ।
ते पूज्याः सर्वदास्माकं नो नेतव्याः कदाचन ॥ ५२ ॥
[यम अपने गणोंको आदेश करते हैं कि] जिसके शरीरपर रुद्राक्ष नहीं है, मस्तकपर त्रिपुण्ड नहीं है और मुखमें ॐ नमः शिवाय' यह पंचाक्षर मन्त्र नहीं है, उसको यमलोक लाया जाय । [भस्म एवं रुद्राक्षके] उस प्रभावको जानकर या न जानकर जो भस्म और रुद्राक्षको धारण करनेवाले हैं, वे सर्वदा हमारे लिये पूज्य हैं; उन्हें यमलोक नहीं लाना चाहिये ॥ ५१-५२ ॥

एवमाज्ञापयामास कालोऽपि निजकिङ्करान् ।
तथेति मत्त्वा ते सर्वे तूष्णीमासन्सुविस्मिताः ॥ ५३ ॥
कालने भी इस प्रकारसे अपने गणोंको आदेश दिया, तब 'वैसा ही होगा'-ऐसा कहकर आश्चर्यचकित सभी गण चुप हो गये ॥ ५३ ॥

अत एव महादेवि रुद्राक्षोऽप्यघनाशनः ।
तद्धरो मत्प्रियः शुद्धोऽत्यघवानपि पार्वति ॥ ५४ ॥
इसलिये हे महादेवि ! रुद्राक्ष भी पापोंका नाशक है । हे पार्वति ! उसको धारण करनेवाला मनुष्य पापी होनेपर भी मेरे लिये प्रिय है और शुद्ध है ॥ ५४ ॥

हस्ते बाहौ तथा मूर्ध्नि रुद्राक्षं धारयेत्तु यः ।
अवध्यः सर्वभूतानां रुद्ररूपी चरेद्‌भुवि ॥ ५५ ॥
हाथमें, भुजाओंमें और सिरपर जो रुद्राक्ष धारण करता है, वह समस्त प्राणियोंसे अवध्य है और पृथ्वीपर रुद्ररूप होकर विचरण करता है५५ ॥

सुरासुराणां सर्वेषां वन्दनीयः सदा स वै ।
पूजनीयो हि दृष्टस्य पापहा च यथा शिवः ॥ ५६ ॥
सभी देवों और असुरोंके लिये वह सदैव वन्दनीय एवं पूजनीय है । वह दर्शन करनेवाले प्राणीके पापोंका शिवके समान ही नाश करनेवाला है ॥ ५६ ॥

ध्यानज्ञानावमुक्तोऽपि रुद्राक्षं धारयेत्तु यः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम् ॥ ५७ ॥
ध्यान और ज्ञानसे रहित होनेपर भी जो रुद्राक्ष धारण करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर परमगतिको प्राप्त होता है । ५७ ॥

रुद्राक्षेण जपन्मन्त्रं पुण्यं ‌कोटिगुणं भवेत् ।
दशकोटिगुणं पुण्यं धारणाल्लभते नरः ॥ ५८ ॥
मणि आदिको अपेक्षा रुद्राक्षके द्वारा मन्त्रजप करनेसे करोड़ गुना पुण्य प्राप्त होता है और उसको धारण करनेसे तो दस करोड़ गुना पुण्यलाभ होता है ॥ ५८ ॥

यावत्कालं हि जीवस्य शरीरस्थो भवेत्स वै ।
तावत्कालं स्वल्पमृत्युर्न तं देवि विबाधते ॥ ५९ ॥
हे देवि ! यह रुद्राक्ष, प्राणीके शरीरपर जबतक रहता है, तबतक स्वल्पमृत्यु उसे बाधा नहीं पहुँचाती है ॥ ५९ ॥

त्रिपुण्ड्रेण च संयुक्तं रुद्राक्षाविलसाङ्‌गकम् ।
मृत्युञ्जयं जपन्तं च दृष्ट्‍वा रुद्रफलं लभेत् ॥ ६० ॥
त्रिपुण्डको धारणकर तथा रुद्राक्षसे सुशोभित अंगवाला होकर मृत्युंजयका जप कर रहे उस [पुण्यवान् मनुष्य]-को देखकर ही रुद्रदर्शनका फल प्राप्त हो जाता है ॥ ६० ॥

पञ्चदेवप्रियश्चैव सर्वदेवप्रियस्तथा ।
सर्वमन्त्राञ्जपेद्‌भक्तो रुद्राक्षमालया प्रिये ॥ ६१ ॥
हे प्रिये ! पंचदेवप्रिय [अर्थात् स्मार्त और वैष्णव] तथा सर्वदेवप्रिय सभी लोग रुद्राक्षकी मालासे समस्त मन्त्रोंका जप कर सकते हैं । ६१ ॥

विष्ण्वादिदेवभक्ताश्च धारयेयुर्न संशयः ।
रुद्रभक्तो विशेषेण रुद्राक्षान्धारयेत्सदा ॥ ६२ ॥
विष्णु आदि देवताओंके भक्तोंको भी निस्सन्देह इसे धारण करना चाहिये । रुद्रभक्तोंके लिये तो विशेष रूपसे रुद्राक्ष धारण करना आवश्यक है । ६२ ॥

रुद्राक्षा विविधाः प्रोक्तास्तेषां भेदान्वदाम्यहम् ।
शृणु पार्वति सद्‌भक्त्या भुक्तिमुक्तिफलप्रदान् ॥ ६३ ॥
हे पार्वति ! रुद्राक्ष अनेक प्रकारके बताये गये हैं । मैं उनके भेदोंका वर्णन करता है । वे भेद भोग और मोक्षरूप फल देनेवाले हैं । तुम उत्तम भक्तिभावसे उनका परिचय सुनो ॥ ६३ ॥

एकवक्त्रः शिवः साक्षाद्‌भुक्तिमुक्तिफलप्रदः ।
तस्य दर्शनमात्रेण ब्रह्महत्यां व्यपोहति ॥ ६४ ॥
एक मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् शिवका स्वरूप है । वह भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता है । उसके दर्शनमात्रसे ही ब्रह्महत्याका पाप नष्ट हो जाता है ॥ ६४ ॥

यत्र सम्पूजितस्तत्र लक्ष्मीर्दूरतरा नहि ।
नश्यन्त्युपद्रवाः सर्वे सर्वकामा भवन्ति हि ॥ ६५ ॥
जहाँ रुद्राक्षकी पूजा होती है, वहाँसे लक्ष्मी दूर नहीं जातीं, उस स्थानके सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं तथा वहाँ रहनेवाले लोगोंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होती है ॥ ६५ ॥

द्विवक्त्रो देवदेवेशः सर्वकामफलप्रदः ।
विशेषतः स रुद्राक्षो गोवधं नाशयेद्द्रुतम् ॥ ६६ ॥
दो मुखवाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है । वह सम्पूर्ण कामनाओं और फलोंको देनेवाला है । वह विशेष रूपसे गोहत्याका पाप नष्ट करता है ॥ ६६ ॥

त्रिवक्त्रो यो हि रुद्राक्षः साक्षात्साधनदः सदा ।
तत्प्रभावाद्‌भवेयुर्वै विद्याः सर्वाः प्रतिष्ठिताः ॥ ६७ ॥
तीन मुखवाला रुद्राक्ष सदा साक्षात् साधनका फल देनेवाला है, उसके प्रभावसे सारी विद्याएँ प्रतिष्ठित हो जाती हैं ॥ ६७ ॥

चतुर्वक्त्रः स्वयं ब्रह्मा नरहत्यां व्यपोहति ।
दर्शनात्स्पर्शनात्सद्यश्चतुर्वर्गफलप्रदः ॥ ६८ ॥
चार मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्माका रूप है और ब्रह्महत्याके पापसे मुक्ति देनेवाला है । उसके दर्शन और स्पर्शसे शीघ्र ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्षा-इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है ॥ ६८ ॥

पञ्चवक्त्रः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नामतः प्रभुः ।
सर्वमुक्तिप्रदश्चैव सर्वकामफलप्रदः ॥ ६९ ॥
अगम्यागमनं पापमभक्ष्यस्य च भक्षणम् ।
इत्यादि सर्वपापानि पञ्चवक्त्रो व्यपोहति ॥ ७० ॥
पाँच मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् कालाग्निरुद्ररूप है । वह सब कुछ करनेमें समर्थ, सबको मुक्ति देनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करनेवाला है । वह पंचमुख रुद्राक्ष अगम्या स्त्रीके साथ गमन और पापान-भक्षणसे उत्पन्न समस्त पापोंको दूर कर देता है ॥ ६९-७० ॥

षड्वक्त्रः कार्तिकेयस्तु धारणाद्दक्षिणे भुजे ।
ब्रह्महत्यादिकैः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ७१ ॥
छ: मुखौवाला रुद्राक्ष कार्तिकेयका स्वरूप है । यदि दाहिनी बाँहमें उसे धारण किया जाय, तो धारण करनेवाला मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है । इसमें संशय नहीं है ॥ ७१ ॥

सप्तवक्त्रो महेशानि ह्यनङ्‌गो नाम नामतः ।
धारणात्तस्य देवेशि दरिद्रोऽपीश्वरो भवेत् ॥ ७२ ॥
हे महेश्वरि ! सात मुखवाला रुद्राक्ष अनंग नामसे प्रसिद्ध है । हे देवेशि ! उसको धारण करनेसे दरिद्र भी ऐश्वर्यशाली हो जाता है ॥ ७२ ॥

रुद्राक्षश्चाष्टवक्त्रश्च वसुमूर्तिश्च भैरवः ।
धारणात्तस्य पूर्णायुर्मृतो भवति शूलभृत् ॥ ७३ ॥
आठ मुखवाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरवरूप है । उसको धारण करनेसे मनुष्य पूर्णायु होता है और मृत्युके पश्चात् शूलधारी शंकर हो जाता है ॥ ७३ ॥

भैरवो नववक्त्रश्च कपिलश्च मुनिः स्मृतः ।
दुर्गा वा तदधिष्ठात्री नवरूपा महेश्वरी ॥ ७४ ॥
नौ मुखवाले रुद्राक्षको भैरव तथा कपिलमुनिका प्रतीक माना गया है अथवा नौ रूप धारण करनेवाली महेश्वरी दुर्गा उसकी अधिष्ठात्री देवी मानी गयी हैं । ७४ ॥

तं धारयेद्वामहस्ते रुद्राक्षं भक्तितत्परः ।
सर्वेश्वरो भवेन्नूनं मम तुल्यो न संशयः ॥ ७५ ॥
जो मनुष्य भक्तिपरायण होकर अपने बायें हाथमें नवमुख रुद्राक्ष धारण करता है, वह निश्चय ही मेरे समान सर्वेश्वर हो जाता है । इसमें संशय नहीं है ॥ ७५ ॥

दशवक्त्रो महेशानि स्वयं देवो जनार्दनः ।
धारणात्तस्य देवेशि सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ ७६ ॥
हे महेश्वरि ! दस मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् भगवान् विष्णुका रूप है । हे देवेशि ! उसको धारण करनेसे मनुष्यको सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण हो जाती है ॥ ७६ ॥

एकादशमुखो यस्तु रुद्राक्षः परमेश्वरि ।
स रुद्रो धारणात्तस्य सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ७७ ॥
हे परमेश्वरि । ग्यारह मुखवाला जो रुद्राक्ष है, वह रुद्ररूप है; उसको धारण करनेसे मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है ॥ ७७ ॥

द्वादशास्यं तु रुद्राक्षः धारयेत्केशदेशके ।
आदित्याश्चैव ते सर्वे द्वादशैव स्थितास्तथा ॥ ७८ ॥
बारह मुखवाले रुद्राक्षको केशप्रदेशमें धारण करे । उसको धारण करनेसे मानो मस्तकपर बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं ॥ ७८ ॥

त्रयोदशमुखो विश्वेदेवस्तद्धारणान्नरः ।
सर्वान्कामानवाप्नोति सौभाग्यं मङ्‌गलं लभेत् ॥ ७९ ॥
तेरह मुखवाला रुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप है । उसको धारण करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्टोंको प्राप्त करता है तथा सौभाग्य और मंगललाभ करता है ॥ ७९ ॥

चतुर्दशमुखो यो हि रुद्राक्षः परमः शिवः ।
धारयेन्मूर्ध्नि तं भक्त्या सर्वपापं प्रणश्यति ॥ ८० ॥
चौदह मुखवाला जो रुद्राक्ष है, वह परमशिवरूप है । उसे भक्तिपूर्वक मस्तकपर धारण करे, इससे समस्त पापोंका नाश हो जाता है । ८० ॥

इति रुद्राक्षभेदा हि प्रोक्ता वै मुखभेदतः ।
तत्तन्मन्त्राञ्छृणु प्रीत्या क्रमाच्छैल्लेश्वरात्मजे ॥ ८१ ॥
ॐ ह्रीं नमः १ ॐ नमः २ ॐ क्लीं नमः ३ ॐ ह्रीं नमः ४
ॐ ह्रीं नमः ५ ॐ ह्रीं हुं नमः ६ ॐ ह्रीं नमः ७ ॐ हुं नमः ८
ॐ ह्रीं हुं नमः ९ ॐ ह्रीं नमः १०
ॐ ह्रीं हुं नमः ११ ॐ क्षौं रौं नमः १२
ॐ ह्रीं नमः १३ ॐ नमः १४
भक्तिश्रद्धायुतश्चैव सर्वकामार्थसिद्धये ।
रुद्राक्षान्धारयेन्मन्त्रैर्देवि आलस्य वर्जितः ॥ ८२ ॥
हे गिरिराजकुमारी ! इस प्रकार मुखोंके भेदसे रुद्राक्षके [चौदह] भेद बताये गये । अब तुम क्रमश: उन रुद्राक्षोंके धारण करनेके मन्त्रोंको प्रसन्नतापूर्वक सुनो
१-ॐ ह्रीं नमः । २-ॐ नमः । ३-क्लीं नमः । ४-ॐ हीं नमः । ५-ॐ हीं नमः । ६-ॐ ह्रीं हुं नमः । ७. ॐ हुं नमः । ८-ॐ हुं नमः । ९-ॐ ह्रीं हुं नमः । १०-ॐ ह्रीं नमः । ११-ॐ ह्रीं हुं नमः । १२-ॐ क्रौं क्षौँ रौं नमः । १३-ॐ ह्रीं नमः । १४-ॐ नमः [इन चौदह मन्त्रोंद्वारा क्रमशः एकसे लेकर चौदह मुखवाले रुद्राक्षोंको धारण करनेका विधान है । ] साधकको चाहिये कि वह निद्रा और आलस्यका त्याग करके श्रद्धाभक्तिसे सम्पन्न होकर सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धिके लिये उक्त मन्त्रोंद्वारा उन-उन रुद्राक्षोंको धारण करे ॥ ८१-८२ ॥

विना मन्त्रेण हो धत्ते रुद्राक्षं भुवि मानवः ।
स याति नरकं घोरं यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ८३ ॥
इस पृथ्वीपर जो मनुष्य मन्त्रके द्वारा अभिमन्त्रित किये बिना ही रुद्राक्ष धारण करता है, वह क्रमश: चौदह इन्द्रोंके कालपर्यन्त बोर नरकको जाता है ॥ ८३ ॥

रुद्राक्षमालिनं दृष्ट्‍वा भूतप्रेतपिशाचकाः ।
डाकिनी शाकिनी चैव ये चान्ये द्रोहकारकाः ॥ ८४ ॥
कृत्रिमं चैव यत्किञ्चिदभिचारादिकं च यत् ।
तत्सर्वं दूरतो याति दृष्ट्‍वा शङ्‌कितविग्रहम् ॥ ८५ ॥
रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाले पुरुषको देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा जो अन्य द्रोहकारी राक्षस आदि हैं, वे सब-के-सब दूर भाग जाते हैं । जो कृत्रिम अभिचार आदि कर्म प्रयुक्त होते हैं, वे सब रुद्राक्षधारीको देखकर सशंक हो दूर चले जाते हैं । ८४-८५ ॥

रुद्राक्षमालिनं दृष्ट्‍वा शिवो विष्णुः प्रसीदति ।
देवीगणपतिः सूर्यः सुराश्चान्येऽपि पार्वति ॥ ८६ ॥
हे पार्वति ! रुद्राक्षमालाधारी पुरुषको देखकर मैं शिव, भगवान् विष्णु, देवी दुर्गा, गणेश, सूर्य तथा अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ८६ ॥

एवं ज्ञात्वा तु माहात्म्यं रुद्राक्षस्य महेश्वरि ।
सम्यग्धार्याः समन्त्राश्च भक्त्या धर्मविवृद्धये ॥ ८७ ॥
हे महेश्वरि ! इस प्रकार रुद्राक्षकी महिमाको जानकर धर्मकी वृद्धिके लिये भक्तिपूर्वक पूर्वोक्त मन्त्रोंद्वारा विधिवत् उसे धारण करना चाहिये ॥ ८७ ॥

इत्युक्तं ‌गिरिजाग्रे हि शिवेनपरमात्मना ।
भस्मरूद्राक्षमाहात्म्यं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥ ८८ ॥
[हे मुनीश्वरो !] इस प्रकार परमात्मा शिवने भगवती पार्वतीके सामने भुक्ति तथा मुक्ति प्रदान करनेवाले भस्म तथा रुद्राक्षके माहात्म्यका वर्णन किया था ॥ ८८ ॥

शिवस्यातिप्रियौ ज्ञेयौ भस्मरुद्राक्षधारिणौ ।
तद्धारणप्रभावद्धि भुक्तिर्मुक्तिर्न संशयः ॥ ८९ ॥
भस्म और रुद्राक्षको धारण करनेवाले मनुष्य भगवान् शिवको अत्यन्त प्रिय हैं । उसको धारण करनेके प्रभावसे ही भुक्ति-मुक्ति दोनों प्राप्त हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं है । ८९ ॥

भस्मरुद्राक्षधारी यः शिवभक्तः स उच्यते ।
पञ्चाक्षरजपासक्तः परिपूर्णश्च सन्मुखे ॥ ९० ॥
भस्म और रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य शिवभक्त कहा जाता है । भस्म एवं रुद्राक्षसे युक्त होकर जो मनुष्य [शिवप्रतिमाके सामने स्थित होकर] 'ॐ नमः शिवाय'-इस पंचाक्षर मन्त्रका जप करता है, वह पूर्ण भक्त कहलाता है ॥ ९० ॥

विना भस्मत्रिपुण्ड्रेण विना रुद्राक्षमालया ।
पूजितोऽपि महादेवो नाभीष्टफलदायकः ॥ ९१ ॥
बिना भस्मका त्रिपुण्ड धारण किये और बिना रुद्राक्ष-माला लिये जो महादेवकी पूजा करता है, उससे पूजित होनेपर भी महादेव अभीष्ट फल प्रदान नहीं करते हैं ॥ ९१ ॥

तत्सर्वं च समाख्यातं यत्पृष्टं हि मुनीश्वर ।
भस्मरुद्राक्षमाहात्म्यं सर्वकाम समृद्धिदम् ॥ ९२ ॥
एतद्यः शृणुयान्नित्यं माहात्म्यं परमं शुभम् ।
रुद्राक्षभस्मनोर्भक्त्या सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ ९३ ॥
इह सर्वसुखं भुक्त्वा पुत्रपौत्रादिसंयुतः ।
लभेत्परत्र सन्मोक्षं शिवस्यातिप्रियो भवेत् ॥ ९४ ॥
हे मुनीश्वर ! सभी कामनाओंको परिपूर्ण करनेवाले भस्म और रुद्राक्षके माहात्म्यको मैंने सुनाया । जो इस रुद्राक्ष और भस्मके माहात्म्यको भक्तिपूर्वक सुनता है, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । वह पुत्र-पौत्र आदिके साथ इस लोकमें सभी प्रकारके सुख भोगकर अन्तमें मोक्षको प्राप्त होता है और भगवान् शिवका अतिप्रिय हो जाता है ॥ ९२-९४ ॥

विद्येश्वरसंहितेयं कथिता वो मुनीश्वराः ।
सर्वसिद्धिप्रदा नित्यं मुक्तिदा शिवशासनात् ॥ ९५ ॥
हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार मैंने शिवकी आज्ञाके अनुसार उत्तम मुक्ति देनेवाली विद्येश्वरसंहिता आपके समक्ष कही ॥ ९५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
साध्यसाधनखण्डे रुद्राक्षमहात्म्यवर्णनोनाम पञ्चविंशोऽध्यायः
॥ समाप्तेयं प्रथमा विद्येश्वरसंहिता ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके प्रथम विद्येश्वरसंहिताके साध्यसाधनखण्डमें रुद्राक्षमाहात्यवर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥
॥ समाप्तोयं प्रथमा विद्येश्वरसंहिता ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP