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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे

प्रथमोऽध्यायः ॥

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मुनिप्रश्नवर्णनम्
ऋषियोंके प्रश्नके उत्तरमें श्रीसूतजीद्वारा नारद-ब्रह्म-संवादकी अवतारणा


विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं
     गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्तकीर्तिम् ।
मायाश्रयं विगतमायमचिंत्यरूपं
     बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि ॥ १ ॥
जो विश्वकी उत्पत्ति-स्थिति और लय आदिके एकमात्र कारण हैं, गिरिराजकुमारी उमाके पति हैं, तत्त्वज्ञ हैं, जिनकी कीर्तिका कहीं अन्त नहीं है, जो मायाके आश्रय होकर भी उससे अत्यन्त दूर हैं, जिनका स्वरूप अचिन्त्य है, जो बोधस्वरूप हैं तथा निर्विकार हैं, उन भगवान शिवको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥

वन्दे शिवं तं प्रकृतेरनादिं
     प्रशान्तमेकम्पुरुषोत्तमं हि ।
स्वमायया कृत्स्नमिदं हि सृष्ट्वा
     नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः ॥ २ ॥
मैं स्वभावसे ही उन अनादि, शान्तस्वरूप, पुरुषोत्तम शिवकी वन्दना करता हूँ, जो अपनी मायासे इस सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करके आकाशकी भाँति इसके भीतर और बाहर भी स्थित हैं ॥ २ ॥

वन्देतरस्थं निजगूढरूपं
     शिवं स्वतः स्रष्टुमिदं विचष्टे ।
जगन्ति नित्यम्परितो भ्रमन्ति
     यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवत्तम् ॥ ३ ॥
जैसे लोहा चुम्बकसे आकृष्ट होकर उसके पास ही लटका रहता है, उसी प्रकार ये सारे जागत् सदा सब ओर जिसके आस-पास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने अपनेसे ही इस प्रपंचको रचनेकी विधि बतायी थी, जो सबके भीतर अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हैं तथा जिनका अपना स्वरूप अत्यन्त गूढ़ है, उन भगवान् शिवकी मैं सादर वन्दना करता हूँ ॥ ३ ॥

व्यास उवाच
जगतः पितरं शम्भुञ्जगतो मातरं शिवाम् ।
तत्पुत्रश्च गणाधीशं नत्वैतद्वर्णयामहे ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-जगत्के पिता भगवान् शिव, जगन्माता कल्याणमयी पार्वती तथा उनके पुत्र गणेशजीको नमस्कार करके हम इस पुराणका वर्णन करते हैं ॥ ४ ॥

एकदा मुनयः सर्वे नैमिषारण्य वासिनः ।
पप्रच्छुर्वरया भक्त्या सूतं ते शौनकादयः ॥ ५ ॥
एक समयकी बात है, नैमिषारण्यमें निवास करनेवाले शौनक आदि सभी मुनियोंने उत्तम भक्तिभावके साथ सूतजीसे पूछा- ॥ ५ ॥

ऋषय ऊचुः
विद्येश्वरसंहितायाः श्रुता सा सत्कथा शुभा ।
साध्यसाधनखण्डाख्या रम्याद्या भक्तवत्सला ॥ ६ ॥
ऋषिगण बोले-[हे सूतजी !] विद्येश्वरसंहिताकी जो साध्य-साधन-खण्ड नामवाली शुभ तथा उत्तम कथा है, उसे हमलोगॉने सुन लिया । उसका आदिभाग बहुत ही रमणीय है तथा वह शिवभक्तोंपर भगवान् शिवका वात्सल्य-स्नेह प्रकट करनेवाली है ॥ ६ ॥

सूत सूत महाभाग चिरञ्जीव सुखी भव ।
यच्छ्रावयसि नस्तात शांकरीं परमां कथाम् ॥ ७ ॥
पिबन्तस्त्वन्मुखाम्भोजच्युतं ज्ञानामृतं वयम् ।
अवितृप्ताः पुनः किंचित्प्रष्टुमिच्छामहेऽनघ ॥ ८ ॥
हे महाभाग ! हे सूतजी ! हे तात ! आप हमलोगोंको सदाशिव भगवान् शंकरकी उत्तम कथाका श्रवण करा रहे हैं, अतएव आप चिरकालतक जीवित रहें और सदा सुखी रहें । आपके मुखकमलसे निकल रहे ज्ञानामृतका पूर्ण रूपसे पान करते हुए भी हमलोग तृप्त नहीं हो पा रहे हैं, इसलिये हे अनघ (पुण्यात्मा) ! हम सब पुनः कुछ पूछना चाहते हैं । ७-८ ॥

व्यासप्रसादात्सर्वज्ञो प्राप्तोऽसि कृतकृत्यताम् ।
नाज्ञातं विद्यते किंचिद् भूतं भव्यं भवच्च यत् ॥ ९ ॥
भगवान् व्यासकी कृपासे आप सर्वज्ञा एवं कृतकृत्य हैं । आपके लिये भूत-भविष्य और वर्तमानका कुछ भी अज्ञात नहीं है अर्थात् सब कुछ आपको ज्ञात है ॥ ९ ॥

गुरोर्व्यासस्य सद्‌भक्त्या समासाद्य कृपां पराम् ।
सर्वं ज्ञातं विशेषेण सर्वं सार्थं कृतं जनुः ॥ १० ॥
अपनी सद्‌भक्तिके द्वारा गुरु व्यासजीसे परमकृपाको प्राप्तकर आप विशेष रूपसे सब कुछ जान गये हैं और अपने सम्पूर्ण जीवनको भी कृतार्थ कर लिया है ॥ १० ॥

इदानीं कथय प्राज्ञ शिवरूपमनुत्तमम् ।
दिव्यानि वै चरित्राणि शिवयोरप्यशेषतः ॥ ११ ॥
हे विद्वन् ! अब आप भगवान् शिवके परम उत्तम स्वरूपका वर्णन कीजिये । साथ ही शिव और पार्वतीके दिव्य चरित्रका पूर्णरूपसे श्रवण कराइये ॥ ११ ॥

अगुणो गुणतां याति कथं लोके महेश्वरः ।
शिवतत्त्वं वयं सर्वे न जानीमो विचारतः ॥ १२ ॥
निर्गुण महेश्वर लोकमें सगुणरूप कैसे धारण करते हैं ? हम सबलोग विचार करनेपर भी शिवके तत्त्वको नहीं समझ पाते ॥ १२ ॥

सृष्टेः पूर्वं कथं शम्भु स्वरूपेणावतिष्ठते ।
सृष्टिमध्ये स हि कथं क्रीडन्संवर्त्तते प्रभुः ॥ १३ ॥
तदन्ते च कथं देवः स तिष्ठति महेश्वरः ।
कथं प्रसन्नतां याति शंकरो लोकशंकरः ॥ १४ ॥
सृष्टिके पूर्वमें भगवान् शिव किस प्रकार अपने स्वरूपसे स्थित होते हैं, पुनः सृष्टिके मध्यकालमें वे भगवान किस तरह क्रीड़ा करते हए सम्यक व्यवहार करते हैं । सृष्टिकल्पका अन्त होनेपर वे महेश्वरदेव किस रूपमें स्थित रहते हैं ? लोककल्याणकारी शंकर कैसे प्रसन्न होते हैं । १३-१४ ॥

स प्रसन्नो महेशानः किं प्रयच्छति सत्फलम् ।
स्वभक्तेभ्यः परेभ्यश्च तत्सर्वं कथयस्व नः ॥ १५ ॥
सद्यः प्रसन्नो भगवान्भवतीत्यनुशुश्रुम ।
भक्तप्रयासं स महान्न पश्यति दयापरः ॥ १६ ॥
प्रसन्न हुए महेश्वर अपने भक्तों तथा दूसरोंको कौन-सा उत्तम फल प्रदान करते हैं ? यह सब हमसे कहिये । हमने सुना है कि भगवान् शिव शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं । वे महान् दयालु हैं, इसलिये वे अपने भक्तोंका कष्ट नहीं देख सकते ॥ १५-१६ ॥

ब्रह्माविष्णुर्महेशश्च त्रयो देवाश्शिवाङ्‌गजाः ।
महेशस्तत्र पूर्णांशः स्वयमेव शिवोऽपरः ॥ १७ ॥
तस्याविर्भावमाख्याहि चरितानि विशेषतः ।
उमाविर्भावमाख्याहि तद्विवाहं तथा प्रभो ॥ १८ ॥
तद्‌गार्हस्थ्यं विशेषेण तथा लीलाः परा अपि ।
एतत्सर्वं तदन्यच्च कथनीयं त्वयाऽनघ ॥ १९ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेश-ये तीनों देवता शिवके ही अंगसे उत्पन्न हुए हैं । इनमें महेश तो पूर्णाश हैं, वे स्वयं ही दूसरे शिव हैं । आप उनके प्राकटयकी कथा तथा उनके विशेष चरित्रोंका वर्णन कीजिये । हे प्रभो ! आप उमाके आविर्भाव और उनके विवाहकी भी कथा कहिये । विशेषतः उनके गार्हस्थ्यधर्मका और अन्य लीलाओंका भी वर्णन कीजिये । हे निष्पाप सूतजी ! ये सब तथा अन्य बातें भी आप बतायें ॥ १७-१९ ॥

व्यास उवाच
इति पृष्टस्तदा तैस्तु सूतो हर्षसमन्वितः।
स्मृत्वा शम्भुपदाम्भोजं प्रत्युवाच मुनीश्वरान् ॥ २० ॥
व्यासजी बोले-उनके ऐसा पूछनेपर सूतजी प्रसन्न हो उठे और भगवान् शंकरके चरणकमलोंका स्मरण करके मुनीश्वरोंसे कहने लगे- ॥ २० ॥

सूत उवाच
सम्यक् पृष्टं भवद्‌भिश्च धन्या यूयं मुनीश्वराः ।
सदाशिवकथायां वो यज्जाता नैष्ठिकी मतिः ॥ २१ ॥
सदाशिवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि ।
वक्तारं पृच्छकं श्रोतॄञ्जाह्नवीसलिलं यथा ॥ २२ ॥
सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! आपलोगोंने बड़ी उत्तम बात पूछी है । आपलोग धन्य हैं, जो कि भगवान् सदाशिवकी कथामें आपलोगोंकी आन्तरिक निष्ठा हुई है, सदाशिवसे सम्बन्धित कथा वक्ता, पूछनेवाले और सुननेवाले इन तीनों प्रकारके पुरुषोंको गंगाजीके समान पवित्र करती है ॥ २१-२२ ॥

शम्भोर्गुणानुवादात्को विरज्येत पुमान्द्विजाः ।
विना पशुघ्नं त्रिविधजनानन्दकरात्सदा । २३ ॥
गीयमानो वितृष्णैश्च भवरोगौषधोऽपि हि ।
मनः श्रोत्राभिरामश्च यत्तःसर्वार्थदः स वै ॥ २४ ॥
हे द्विजो ! पशुओंकी हिंसा करनेवाले निष्ठुर कसाईक सिवा दूसरा कौन पुरुष तीनों प्रकारके लोगोंको सदा आनन्द देनेवाले शिव-गुणानुवादको सुननेसे ऊब सकता है । जिनके मनमें कोई तृष्णा नहीं है, ऐसे महात्मा पुरुष भगवान् शिवके उन गुणोंका गान करते हैं; क्योंकि वह संसाररूपी रोगकी दवा है, मन तथा कानोंको प्रिय लगनेवाला है और सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है ॥ २३-२४ ॥

कथयामि यथाबुद्धि भवत्प्रश्नानुसारतः ।
शिवलीलां प्रयत्नेन द्विजास्तां शृणुतादरात् ॥ २५ ॥
हे ब्राह्मणो ! आपलोगोंके प्रश्नके अनुसार मैं यथावुद्धि प्रयत्नपूर्वक शिवलीलाका वर्णन करता हूँ, आपलोग आदरपूर्वक सुनें ॥ २५ ॥

भवद्‌भिः पृच्छ्यते यद्वत्तत्तथा नारदेन वै ।
पृष्टं पित्रे प्रेरितेन हरिणा शिवरूपिणा ॥ २६ ॥
श्रुत्वा सुतवचो ब्रह्मा शिवभक्तः प्रसन्नधीः ।
जगौ शिवयशः प्रीत्या हर्षयन्मुनिसत्तमम् ॥ २७ ॥
जैसे आपलोग पूछ रहे हैं, उसी प्रकार नारदजीने शिवरूपी भगवान् विष्णुसे प्रेरित होकर अपने पिता ब्रह्माजीसे पूछा था । अपने पुत्र नारदका प्रश्न सुनकर शिवभक्त ब्रह्माजीका चित्त प्रसन्न हो गया और वे उन मुनिश्रेष्ठको हर्ष प्रदान करते हुए प्रेमपूर्वक भगवान् शिवके यशका गान करने लगे ॥ २६-२७ ॥

व्यास उवाच
सूतोक्तमिति तद्वाक्यमाकर्ण्य द्विजसत्तमाः ।
पप्रच्छुस्तत्सुसंवादं कुतूहलसमन्विताः ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले-सूतजीके द्वारा कथित उस वचनको सुनकर वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो उठे और उन लोगोंने उस विषयको उनसे पूछा- ॥ २८ ॥

ऋषय ऊचुः
सूत सूत महाभाग शैवोत्तम महामते ।
श्रुत्वा तव वचो रम्यं चेतो नः सकुतूहलम् ॥ २९ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! हे महाभाग ! हे शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ ! हे महामते ! आपके सुन्दर वचनको सुनकर हमारे हृदयमें कौतूहल हो रहा है ॥ २९ ॥

कदा बभूव सुखकृद्विधिनारदयोर्महान् ।
संवादो यत्र गिरिशसुलीला भवमोचिनी ॥ ३० ॥
ब्रह्मा और नारदका यह महान् सुख देनेवाला संवाद कब हुआ था, जिसमें संसारसे मुक्ति प्रदान करनेवाली शिवलीला वर्णित है ॥ ३० ॥

विधिनारदसंवादपूर्वकं शाङ्‌करं यशः ।
ब्रूहि नस्तात तत्प्रीत्या तत्तत्प्रश्नानुसारतः ॥ ३१ ॥
हे तात ! प्रेमपूर्वक नारदके द्वारा पूछे गये उन उन प्रश्नोंके अनुसार भगवान् शंकरके यशका गुणानुवाद करनेवाले ब्रह्मा और नारदके संवादका वर्णन करें ॥ ३१ ॥

इत्याकर्ण्य वचस्तेषां मुनीनां भावितात्मनाम् ।
सूतः प्रोवाच सुप्रीतस्तत्संवादानुसारतः ॥ ३२ ॥
आत्मज्ञानी उन मुनियोंके ऐसे वचनको सुनकर प्रसन्न हुए सूतजी उस ब्रह्मा-नारद-संवादके अनुसार [कही गयी शिवकथाको] कहने लगे ॥ ३२ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे
सृष्ट्युपाख्याने मुनिप्रश्नवर्णनो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके सृष्टिखण्डमें मुनि-प्रश्न-वर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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