![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे
पञ्चमोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] नारदस्य काशीक्षेत्रगमनम्
नारदजीका शिवतीर्थोंमें भ्रमण, शिवगणोंको शापोद्धारकी बात बताना तथा ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीसे शिवतत्त्वके विषयमें प्रश्न करना सूत उवाच
अन्तर्हिते हरौ विप्रा नारदो मुनिसत्तमः । विचचार महीं पश्यञ्छिवलिङ्गानि भक्तितः ॥ १ ॥ सूतजी बोले-महर्षियो ! भगवान् श्रीहरिके अन्तर्धान हो जानेपर मुनिश्रेष्ठ नारद शिवलिंगोंका भक्तिपूर्वक दर्शन करते हुए पृथ्वीपर विचरने लगे ॥ १ ॥ पृथिव्या अटनं कृत्वा शिवरूपाण्यनेकशः ।
ददर्श प्रीतितो विप्रा भुक्तिमुक्तिप्रदानि सः ॥ २ ॥ ब्राह्मणो ! भूमण्डलपर घूम-फिरकर उन्होंने भोग और मोक्ष देनेवाले बहुतसे शिवलिंगोंका प्रेमपूर्वक दर्शन किया ॥ २ ॥ अथ तं विचरन्तं कौ नारदं दिव्यदर्शनम् ।
ज्ञात्वा शम्भुगणौ तौ तु सुचित्तमुपजग्मतुः ॥ ३ ॥ दिव्यदर्शी नारदजी भूतलके तीर्थोंमें विचर रहे हैं और इस समय उनका चित्त शुद्ध है-यह जानकर वे दोनों शिवगण उनके पास गये ॥ ३ ॥ शिरसा सुप्रणम्याशु गणावूचतुरादरात् ।
गृहीत्वा चरणौ तस्य शापोद्धारेच्छया च तौ ॥ ४ ॥ वे दोनों शिवगण शापसे उद्धारकी इच्छासे आदरपूर्वक मस्तक झुकाकर भलीभाँति प्रणाम करके मुनिके दोनों पैर पकड़कर आदरपूर्वक उनसे कहने लगे- ॥ ४ ॥ शिवगणावूचतुः
ब्रह्मपुत्र सुरर्षे हि शृणु प्रीत्यऽऽवयोर्वचः । तवापराधकर्तारावावां विप्रौ न वस्तुतः ॥ ५ ॥ शिवगण बोले-हे ब्रह्मपुत्र देवर्षे ! प्रेमपूर्वक हम दोनोंकी बातोंको सुनिये । वास्तवमें हम दोनों ही आपका अपराध करनेवाले हैं, ब्राह्मण नहीं हैं ॥ ५ ॥ आवां हरगणौ विप्र तवागस्कारिणौ मुने ।
स्वयंवरे राजपुत्र्या मायामोहितचेतसा ॥ ६ ॥ त्वया दत्तश्च नौ शापः परेशप्रेरितेन ह । ज्ञात्वा कुसमयं तत्र मौनमेव हि जीवनम् ॥ ७ ॥ हेमने ! हे विप्र ! आपका अपराध करनेवाले हम दोनों शिवके गण हैं । राजकुमारी श्रीमतीके स्वयंवरमें आपका चित्त मायासे मोहित हो रहा था । उस समय परमेश्वरकी प्रेरणासे आपने हम दोनोंको शाप दे दिया । वहाँ कुसमय जानकर हमने चुप रह जाना ही अपनी जीवन रक्षाका उपाय समझा ॥ ६-७ ॥ स्वकर्मणः फलं प्राप्तं कस्यापि न हि दूषणम् ।
सुप्रसन्नो भव विभो कुर्वनुग्रहमद्य नौ ॥ ८ ॥ इसमें किसीका दोष नहीं है । हमें अपने कर्मका ही फल प्राप्त हुआ है । प्रभो ! अब आप प्रसन्न होइये और हम दोनोंपर अनुग्रह कीजिये ॥ ८ ॥ सूत उवाच
वच आकर्ण्य गणयोरिति भक्त्युक्तमादरात् । प्रत्युवाच मुनिः प्रीत्या पश्चात्तापमवाप्य सः ॥ ९ ॥ सूतजी बोले-उन दोनों गणोंके द्वारा भक्तिपूर्वक कहे गये वचनोंको सुनकर पश्चात्ताप करते हुए देवर्षि नारद प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ ९ ॥ नारद उवाच
शृणुतं मे महादेवगणौ मान्यतमौ सताम् । वचनं सुखदं मोहनिर्मुक्तं च यथार्थकम् ॥ १० ॥ नारदजी बोले-आप दोनों महादेवके गण हैं और सत्पुरुषोंके लिये परम सम्माननीय हैं, अत: मेरे मोहरहित एवं सुखदायक यथार्थ वचनको सुनिये ॥ १० ॥ पुरा मम मतिभ्रष्टासीच्छिवेच्छावशाद् ध्रुवम् ।
सर्वथा मोहमापन्नः शप्तवान्वां कुशेमुषिः ॥ ११ ॥ पहले निश्चय ही शिवेच्छावश मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी और मैं सर्वथा मोहके वशीभूत हो गया था । इसीलिये आप दोनोंको कुबुद्धिवाले मैंने शाप दे दिया ॥ ११ ॥ यदुक्तं तत्तथा भावि तथापि शृणुतां गणौ ।
शापोद्धारमहं वच्मि क्षमेथामघमद्य मे ॥ १२ ॥ हे शिवगणो ! मैंने जो कुछ कहा है, वह वैसा ही होगा, फिर भी मेरी बात सुनें । मैं आपके लिये शापोद्धारकी बात बता रहा हूँ । आपलोग आज मेरे अपराधको क्षमा कर दें ॥ १२ ॥ वीर्यान्मुनिवरस्याप्त्वा राक्षसेशत्वमादिशत् ।
स्यातां विभवसंयुक्तौ बलिनौ सुप्रतापिनौ ॥ १३ ॥ मनिवर विश्रवाके वीर्यसे जन्म ग्रहण करके आप सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रसिद्ध [कुम्भकर्ण-रावण] राक्षसराजका शरीर प्राप्त करेंगे और बलवान, वैभवसे युक्त तथा परम प्रतापी होंगे ॥ १३ ॥ सर्वब्रह्माण्डराजानौ शिवभक्तौ जितेन्द्रियौ ।
शिवापरतनोर्मृत्युं प्राप्य स्वं पदमाप्स्यथः ॥ १४ ॥ समस्त ब्रह्माण्डके राजा होकर शिवभक्त एवं जितेन्द्रिय होंगे और शिवके ही दूसरे स्वरूपा श्रीविष्णुके हाथों मृत्यु पाकर फिर आप दोनों आपने पदपर प्रतिष्ठित हो जायेंगे ॥ १४ ॥ सूत उवाच
इत्याकर्ण्य मुनेर्वाक्यं नारदस्य महात्मनः । उभौ हरगणौ प्रीतौ स्वं पदं जग्मतुर्मुदा ॥ १५ ॥ सूतजी बोले-हे महर्षियो ! महात्मा नारदमुनिकी यह बात सुनकर वे दोनों शिवगण प्रसन्न होकर सानन्द अपने स्थानको लौट गये ॥ १५ ॥ नारदोऽपि परं प्रीतो ध्यायञ्छिवमनन्यधीः ।
विचचार महीं पश्यञ्छिवतीर्थान्यभीक्ष्णशः ॥ १६ ॥ नारदजी भी अत्यन्त आनन्दित हो अनन्य भावसे भगवान् शिवका ध्यान तथा शिवतीर्थोका दर्शन करते हुए बारम्बार भूमण्डलमें विचरने लगे ॥ १६ ॥ काशीं प्राप्याथ काशीं सः सर्वोपरि विराजिताम् ।
शिवप्रियां शम्भुसुखप्रदां शम्भुस्वरूपिणीम् ॥ १७ ॥ अन्तमें वे सबके ऊपर विराजमान काशीपुरीमें गये, जो शिवजीकी प्रिय, शिवस्वरूपिणी एवं शिवको सुख देनेवाली है ॥ १७ ॥ दृष्ट्वा काशीं कृताऽर्थोभूत्काशीनाथं ददर्श ह ।
आनर्च परमप्रीत्या परमानन्दसंयुतः ॥ १८ ॥ काशीपुरीका दर्शन करके नारदजी कृतार्थ हो गये । उन्होंने भगवान् काशीनाथका दर्शन किया और परम प्रीति एवं परमानन्दसे युक्त हो उनकी पूजा की ॥ १८ ॥ स मुदः सेव्यतां काशीं कृतार्थो मुनिसत्तमः ।
नमन्संवर्णयन्भक्त्या संस्मरन्प्रेम विह्वलः ॥ १९ ॥ ब्रह्मलोकं जगामाथ शिवस्मरणसन्मतिः । शिवतत्त्वं विशेषेण ज्ञातुमिच्छुः स नारदः ॥ २० ॥ नत्वा तत्र विधिं भक्त्या स्तुत्वा च विविधैः स्तवैः । पप्रच्छ शिवसत्तत्वं शिवसंयुक्तमानसः ॥ २१ ॥ काशीका सानन्द सेवन करके वे मुनिश्रेष्ठ कृतार्थताका अनुभव करने लगे और प्रेमसे विह्वल हो उसका नमन, वर्णन तथा स्मरण करते हुए ब्रह्मलोकको गये । निरन्तर शिवका स्मरण करनेसे शुद्ध-बुद्धिको प्राप्त देवर्षि नारदने वहाँ पहुँचकर विशेषरूपसे शिवतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे ब्रह्माजीको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति करके उनसे शिवतत्त्वके विषयमें पूछा । उस समय नारदजीका हृदय भगवान् शंकरके प्रति भक्तिभावनासे परिपूर्ण था । १९-२१ ॥ नारद उवाच
ब्रह्मन्ब्रह्मस्वरूपज्ञ पितामह जगत्प्रभो । त्वत्प्रसादान्मया सर्वं विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् ॥ २२ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! परब्रह्म परमात्माके स्वरूपको जाननेवाले हे पितामह ! हे जगत्प्रभो ! आपके कृपाप्रसादसे मैंने भगवान् विष्णुके उत्तम माहात्म्यका पूर्णतया ज्ञान प्राप्त किया है ॥ २२ ॥ भक्तिमार्गं ज्ञानमार्गं तपोमार्गं सुदुस्तरम् ।
दानमार्गञ्च तीर्थानां मार्गं च श्रुतवानहम् ॥ २३ ॥ न ज्ञातं शिवतत्त्वं च पूजाविधिमतः क्रमात् । चरित्रं विविधं तस्य निवेदय मम प्रभो ॥ २४ ॥ भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग, अत्यन्त दुस्तर तपोमार्ग, दानमार्ग तथा तीर्थमार्गका भी वर्णन सुना है, परंतु शिवतत्त्वका ज्ञान मुझे अभीतक नहीं हुआ है । मैं भगवान् शंकरकी पूजा-विधिको भी नहीं जानता । अत: हे प्रभो ! आप क्रमशः इन विषयोंको तथा भगवान् शिवके विविध चरित्रोंको मुझे बतानेकी कृपा करें ॥ २३-२४ ॥ निर्गुणोऽपि शिवस्तात सगुणः शङ्करः कथम् ।
शिवतत्त्वं न जानामि मोहितः शिवमायया ॥ २५ ॥ हे तात ! शिव तो निर्गुण होते हुए भी सगुण हैं । यह कैसे सम्भव है । शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण मैं शिवके तत्त्वको नहीं जान पा रहा हूँ ॥ २५ ॥ सृष्टेः पूर्वं कथं शम्भुःस्वरूपेण प्रतिष्ठितः ।
सृष्टिमध्ये स हि कथं क्रीडन्संवर्तते प्रभुः ॥ २६ ॥ तदन्ते च कथं देवःस तिष्ठति महेश्वरः । कथं प्रसन्नतां याति शङ्करो लोकशङ्करः ॥ २७ ॥ सृष्टिके पूर्व भगवान् शंकर किस स्वरूपसे अवस्थित रहते हैं और सृष्टिके मध्यमें कैसी क्रीडा करते हुए स्थित रहते हैं । सृष्टिके अन्तमें वे देव महेश्वर किस प्रकारसे रहते हैं और संसारका कल्याण करनेवाले वे सदाशिव किस प्रकार प्रसन्न रहते हैं ॥ २६-२७ ॥ सन्तुष्टश्च स्वभक्तेभ्यः परेभ्यश्च महेश्वरः ।
किं फलं यच्छति विधे तत्सर्वं कथयस्व मे ॥ २८ ॥ सद्यः प्रसन्नो भगवान्भवतीत्यनुसंश्रुतम् । भक्तप्रयासं स महान्न पश्यति दयापरः ॥ २९ ॥ हे विधाता ! वे सन्तुष्ट होकर अपने भक्तों और अन्य लोगोंको कैसा फल देते हैं, वह सब हमें बतायें । मैंने सुना है कि वे भगवान् तत्काल प्रसन्न हो जाते हैं । परमदयालु वे भक्तके कष्टको नहीं देख पाते हैं । २८-२९ ॥ ब्रह्मा विष्णुर्महेशश्च त्रयो देवाः शिवांशजाः ।
महेशस्तत्र पूर्णांशः स्वयमेव शिवः परः ॥ ३० ॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश-ये तीनों देव शिवके ही अंश हैं । महेश उनमें पूर्ण अंश हैं और स्वयंमें वे परात्पर शिव है ॥ ३० ॥ तस्याविर्भावमाख्याहि चरितानि विशेषतः ।
उमाविर्भावमाख्याहि तद्विवाहं तथा विभो ॥ ३१ ॥ आप उन महेश्वर शिवके आविर्भाव एवं उनके चरित्रको विशेष रूपसे कहें । हे प्रभो ! [इस कथाके साथ ही] उमा (पार्वती)-के आविर्भाव और उनके विवाहकी भी चर्चा करें ॥ ३१ ॥ तद्गार्हस्थ्यं विशेषेण तथा लीलाः परा अपि ।
एतत्सर्वं तथान्यच्च कथनीयं त्वयाऽनघ ॥ ३२ ॥ उनके गृहस्थ आश्रम और उस आश्रममें की गयी विशिष्ट लीलाओंका वर्णन करें । हे निष्पाप ! इन सब [कथाओं]-के साथ अन्य जो कहनेयोग्य बातें हैं, उनका भी वर्णन करें ॥ ३२ ॥ तदुत्पत्तिं विवाहं च शिवायास्तु विशेषतः ।
प्रब्रूहि मे प्रजानाथ गुहजन्म तथैव च ॥ ३३ ॥ हे प्रजानाथ ! उन (शिव) और शिवाके आविर्भाव एवं विवाहका प्रसंग विशेष रूपसे कहें तथा कार्तिकेयके जन्मकी कथा भी मुझे सुनायें ॥ ३३ ॥ बहुभ्यश्च श्रुतं पूर्वं न तृप्तोऽस्मि जगत्प्रभो ।
अतस्त्वां शरणं प्राप्तः कृपां कुरु ममोपरि ॥ ३४ ॥ हे जगत्प्रभो ! पहले बहुत लोगोंसे मैंने ये बातें सुनी हैं, किंतु तृप्त नहीं हो सका हूँ, इसीलिये आपकी शरणमें आया हूँ । आप मुझपर कृपा करें ॥ ३४ ॥ इति श्रुत्वा वचस्तस्य नारदस्याङ्गजस्य हि ।
उवाच वचनं तत्र ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ ३५ ॥ अपने पुत्र नारदकी यह बात सुनकर लोकपितामह ब्रह्मा वहाँ इस प्रकार कहने लगे- ॥ ३५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
प्रथमखण्डे सृष्ट्युपाख्याने नारदप्रश्नवर्णनोनाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि-उपाख्यानका नारद-प्रश्न-वर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |