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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे

चतुर्थोऽध्यायः ॥

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नारदस्य विष्णूपदेशवर्णनम्
नारदजीका भगवान् विष्णुको क्रोधपूर्वक फटकारना और शाप देना, फिर मायाके दूर हो जानेपर पश्चात्तापपूर्वक भगवान्के चरणोंमें गिरना और शुद्धिका उपाय पूछना तथा भगवान् विष्णुका उन्हें समझा-बुझाकर शिवका माहात्म्य जाननेके लिये ब्रह्माजीके पास जानेका आदेश और शिवके भजनका उपदेश देना


ऋषय ऊचुः
सूत सूत महाप्राज्ञ वर्णिता ह्यद्‌भुता कथा ।
धन्या तु शाम्भवी माया तदधीनं चराचरम् ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे महाप्राज्ञ ! हे सूत । आपने बड़ी अद्‌भुत कथाका वर्णन किया है । भगवान् शंकरकी माया धन्य है । यह चराचर जगत् उसीके अधीन है ॥ १ ॥

गतयोर्गणयोः शम्भोः स्वयमात्मेच्छया विभोः ।
किं चकार मुनिः क्रुद्धो नारदः स्मरविह्वलः ॥ २ ॥
भगवान् शंकरके वे दोनों गण जब अपनी इच्छासे [कहीं अन्यत्र] चले गये, तब कामविह्वल और [अपमानसे] क्रुद्ध मुनि नारदने क्या किया ? ॥ २ ॥

सूत उवाच
विमोहितो मुनिर्दत्त्वा तयोः शापं यथोचितम् ।
जले मुखं निरीक्ष्याथ स्वरूपं गिरिशेच्छया ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-शिवकी इच्छासे विमोहित [उस राजकुमारीके प्रति विशेष आसक्ति होनेके कारण अन्य अर्थ अनर्थके ज्ञानसे रहित] मुनिने उन दोनोंको यथोचित शाप देकर जलमें अपना मुख और स्वरूप देखा ॥ ३ ॥

शिवेच्छया न प्रबुद्धः स्मृत्वा हरिकृतच्छलम् ।
क्रोधो दुर्विषहं कृत्वा विष्णुलोकं जगाम ह ॥ ४ ॥
उवाच वचनं कुद्धः समिद्ध इव पावकः ।
दुरुक्तिगर्भितं व्यङ्‌गः नष्टज्ञानः शिवेच्छया ॥ ५ ॥
शिव-इच्छाके कारण उन्हें ज्ञान नहीं हुआ और विष्णुके द्वारा किये गये छलका स्मरण करके दुःसह क्रोधमें आकर वे उसी समय विष्णुलोकमें जा पहुंचे । शिवकी इच्छासे ज्ञान-शून्य तथा समिधायुक्त जल रही अग्निके समान क्रुद्ध वे [नारद] विष्णुसे अत्यन्त अप्रिय व्यंग्य वचन कहने लगे- ॥ ४-५ ॥

नारद उवाच
हे हरे त्वं महादुष्टः कपटी विश्वमोहनः ।
परोत्साहं न सहसे मायावी मलिनाशयः ॥ ६ ॥
नारदजी बोले-हे हरे ! तुम बड़े दुष्ट हो, कपटी हो और समस्त विश्वको मोहमें डाले रहते हो । दूसरोंका उत्साह तुमसे सहा नहीं जाता । तुम मायावी हो और तुम्हारा अन्तःकरण मलिन है ॥ ६ ॥

मोहिनीरूपमादाय कपटं कृतवान्पुरा ।
असुरेभ्योऽपाययस्त्वं वारुणीममृतं न हि ॥ ७ ॥
पूर्वकालमें तुमने मोहिनीरूप धारण करके कपट किया, असुरोंको वारुणी मदिरा पिलायी और उन्हें अमृत नहीं पीने दिया ॥ ७ ॥

चेत्पिबेन्न विषं रुद्रो दयां कृत्वा महेश्वरः ।
भवेन्नष्टाऽखिला माया तव व्याजरते हरे ॥ ८ ॥
छल-कपटमें ही रत रहनेवाले हे हरे ! यदि महेश्वर रुद्र दया करके विष न पी लेते, तो तुम्हारी सारी माया उसी दिन समाप्त हो जाती ॥ ८ ॥

गतिः स कपटा तेऽतिप्रिया विष्णो विशेषतः ।
साधुस्वभावो न भवान्स्वतन्त्रः प्रभुणा कृतः ॥ ९ ॥
हे विष्णो ! कपटपूर्ण चाल तुम्हें अधिक प्रिय है । तुम्हारा स्वभाव अच्छा नहीं है, भगवान् शंकरने तुम्हें स्वतन्त्र बना दिया है ॥ ९ ॥

कृतं समुचितन्नैव शिवेन परमात्मना ।
तत्प्रभावबलं ध्यात्वा स्वतन्त्रकृतिकारकः ॥ १ ० ॥
त्वद्‌गतिं सुसमाज्ञाय पश्चात्तापमवाप सः ।
परमात्मा शंकरके द्वारा ऐसा करके अच्छा नहीं किया गया और तुम उनके प्रभावबलको जानकर स्वतन्त्र होकर कार्य करते रहते हो । तुम्हारी इस चाल-ढालको समझकर अब वे (भगवान् शिव) भी पश्चात्ताप करते होंगे ॥ १० १/२ ॥

विप्रं सर्वोपरि प्राह स्वोक्तवेदप्रमाणकृत् ॥ ११ ॥
तज्ज्ञात्वाहं हरे त्वाद्य शिक्षयिष्यामि तद्‌बलात् ।
यथा न कुर्याः कुत्रापीदृशं कर्म कदाचन ॥ १२ ॥
अपनी वाणीरूप वेदको प्रामाणिकता स्थापित करनेवाले महादेवजीने ब्राह्मणको सर्वोपरि बताया है । हे हरे । इस बातको जानकर आज मैं बलपूर्वक तुम्हें ऐसी सीख दूँगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कर्म नहीं कर सकोगे ॥ ११-१२ ॥

अद्यापि निर्भयस्त्वं हि सङ्‌गं नाप्तस्तरस्विना ।
इदानीं लप्स्यसे विष्णो फलं स्वकृतकर्मणः ॥ १३ ॥
अवतक किसी तेजस्वी पुरुषसे तुम्हारा पाला नहीं पड़ा था, इसलिये आजतक तुम निडर बने हुए हो, परंतु हे विष्णो ! अब तुम्हें अपने द्वारा किये गये कर्मका फल मिलेगा ॥ १३ ॥

इत्थमुक्त्वा हरिं सोऽथ मुनिर्मायाविमोहितः ।
शशाप क्रोधनिर्विण्णो ब्रह्मतेजः प्रदर्शयन् ॥ १४ ॥
भगवान् विष्णुसे ऐसा कहकर मायामोहित नारद मुनि अपने ब्रह्मतेजका प्रदर्शन करते हुए क्रोधसे खिन्न हो उठे और शाप देते हुए बोले- ॥ १४ ॥

स्त्रीकृते व्याकुलं विष्णो मामकार्षीर्विमोहकः ।
अन्वकार्षीः स्वरूपेण येन कापट्यकार्यकृत् ॥ १५ ॥
तद्‌रूपेण मनुष्यस्त्वं भव तद्दुःखभुग्घरे ।
यन्मुखं कृतवान्मे त्वं ते भवन्तु सहायिनः ॥ १६ ॥
त्वं स्त्रीवियोगजं दुःखं लभस्व परदुःखदः ।
मनुष्यगतिकः प्रायो भवाज्ञानविमोहितः ॥ १७ ॥
हे विष्णो ! तुमने स्त्रीके लिये मुझे व्याकुल किया है । तुम इसी तरह सबको मोहमें डालते रहते हो । यह कपटपूर्ण कार्य करते हुए तुमने जिस स्वरूपसे मुझे संयुक्त किया था, उसी स्वरूपसे हे हरे । तुम मनुष्य हो जाओ और स्त्रीके लिये दूसरोंको दुःख देनेवाले तुम भी स्त्रीके बियोगका दुःख भोगो । तुमने जिन बानरोंके समान मेरा मुँह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हों । तुम दूसरोंको [स्त्रीविरहका दुःख देनेवाले हो, अत: स्वयं भी तुम्हें स्वीके वियोगका दुःख प्राप्त हो और अज्ञानसे मोहित मनुष्योंके समान तुम्हारी स्थिति हो ॥ १५-१७ ॥

इति शप्त्वा हरिं मोहान्नारदोऽज्ञानमोहितः ।
विष्णुर्जग्राह तं शापं प्रशंसञ्शाम्भवीमजाम् ॥ १६ ॥
अज्ञानसे मोहित हुए नारदजीने मोहवश श्रीहरिको जब इस तरह शाप दिया, तब उन विष्णुने शम्भुकी मायाकी प्रशंसा करते हुए उस शापको स्वीकार कर लिया ॥ १८ ॥

अथ शम्भुर्महालीलो निश्चकर्ष विमोहिनीम ।
स्वमायां मोहितो ज्ञानी नारदोप्यभवद्यथा ॥ १९ ॥
तदनन्तर महालीला करनेवाले शम्भुने अपनी उस विश्वमोहिनी मायाको, जिसके कारण ज्ञानी नारदमुनि भी मोहित हो गये थे, खींच लिया ॥ १९ ॥

अन्तर्हितायां मायायां पूर्ववन्मतिमानभूत् ।
नारदो विस्मितमनाः प्राप्तबोधो निराकुलः ॥ २० ॥
उस मायाके तिरोहित होते ही नारदजी पूर्ववत् शुद्ध बुद्धिसे युक्त हो गये । उन्हें पूर्ववत् ज्ञान प्राप्त हो गया और उनकी सारी व्याकुलता जाती रही । इससे उनके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ २० ॥

पश्चात्तापमवाप्याति निनिन्द स्वं मुहुर्मुहुः ।
प्रशशंस तदा मायां शाम्भवीं ज्ञानिमोहिनीम् ॥ २१ ॥
वे पश्चात्ताप करके बार-बार अपनी निन्दा करने लगे । उस समय उन्होंने ज्ञानीको भी मोहमें डालनेवाली भगवान् शम्भुको मायाकी सराहना की ॥ २१ ॥

अथ ज्ञात्वा मुनिःसर्वं मायाविभ्रममात्मनः ।
अपतत्पादयोर्विष्णोर्नारदो वैष्णवोत्तमः ॥ २२ ॥
तदनन्तर यह जानकर कि मायाके कारण ही मैं भ्रममें पड़ गया था, वैष्णवशिरोमणि नारदजी भगवान् विष्णुके चरणोंमें गिर पड़े ॥ २२ ॥

हर्युपस्थापितः प्राह वचनं नष्ट दुर्मतिः ।
मया दुरुक्तयः प्रोक्ता मोहितेन कुबुद्धिना ॥ २३ ॥
दत्तः शापोऽपि ते नाथ वितथं कुरु तं प्रभो ।
महत्पापमकार्षं हि यास्यामि निरयं धुवम् ॥ २४ ॥
कमुपायं हरे कुर्यां दासोऽहं ते तमादिश ।
येन पापकुलं नश्येन्निरयो न भवेन्मम ॥ २५ ॥
भगवान् श्रीहरिने उन्हें उठाकर खड़ा कर दिया । उस समय अपनी दुर्बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण वे बोलेमायासे मोहित होनेके कारण मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी, इसलिये मैंने आपके प्रति बहुत दुर्वचन कहे हैं । हे नाथ ! मैंने आपको शाप तक दे डाला है । हे प्रभो ! उस शापको आप मिथ्या कर दीजिये । हाय ! मैंने बहुत बड़ा पाप किया है, अब मैं निश्चय ही नरकमें पड़ेगा । हे हरे ! मैं आपका दास हूँ । अत: बताइये, मैं क्या उपायकौन सा प्रायश्चित्त कसैं, जिससे मेरा पाप-समूह नष्ट हो जाय और मुझे नरकमें न गिरना पड़े ॥ २३–२५ ॥

इत्युक्त्वा स पुनर्विष्णोः पादयोर्मुनिसत्तमः ।
पपात सुमतिर्भक्त्या पश्चात्तापमुपागतः ॥ २६ ॥
अथ विष्णुस्तमुत्थाप्य बभाषे सूनृतं वचः ।
ऐसा कहकर शुद्ध बुद्धिवाले मुनिशिरोमणि नारदजी पुनः भक्तिभावसे भगवान् विष्णुके चरणोंमें गिर पड़े । उस समय उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था । तब श्रीविष्णु उन्हें उठाकर मधुर वाणीमें कहने लगे- ॥ २६ १/२ ॥

विष्णुरुवाच
न खेदं कुरु मे भक्तवरस्त्वं नात्र संशयः ॥ २७ ॥
शृणु तात प्रवक्ष्यामि सुहितं तव निश्चयात् ।
निरयस्ते न भविता शिवः शं ते विधास्यति ॥ २८ ॥
विष्णु बोले-हे तात ! खेद मत कीजिये । आप मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं, इसमें संशय नहीं है । मैं आपको एक बात बताता हूँ. सुनिये । उससे निश्चय ही आपका परम हित होगा, आपको नरकमें नहीं जाना पड़ेगा । भगवान् शिव आपका कल्याण करेंगे ॥ २७-२८ ॥

यदकार्षीः शिववचो वितथं मदमोहितः ।
स दत्तवानीदृशं ते फलं कर्म फलप्रदः ॥ २९ ॥
आपने मदसे मोहित होकर जो भगवान् शिवकी बात नहीं मानी थी-उसकी अवहेलना कर दी थी, उसी अपराधका ऐसा फल भगवान् शिवने आपको दिया है, क्योंकि वे ही कर्मफलके दाता हैं ॥ २९ ॥

शिवेच्छाऽखिलं जातं कुर्वित्थं निश्चितां मतिम् ।
गर्वापहर्ता स स्वामी शङ्‌करः परमेश्वरः ॥ ३० ॥
आप अपने मनमें यह दृढ़ निश्चय कर लीजिये कि भगवान् शिवकी इच्छासे ही यह सब कुछ हुआ है । सबके स्वामी परमेश्वर शंकर ही गर्वको दूर करनेवाले हैं ॥ ३० ॥

परं ब्रह्म परात्मा स सच्चिदानन्दबोधनः ।
निर्गुणो निर्विकारो च रजः सत्वतमः परः ॥ ३१ ॥
वे ही परब्रह्म हैं, परमात्मा हैं, उन्हींका सच्चिदानन्दरूपसे बोध होता है, वे निर्गुण हैं, निर्विकार हैं और सत्त्व, रज तथा तम-इन तीनों गुणोंसे परे हैं ॥ ३१ ॥

स एवदाय मायां स्वां त्रिधा भवति रूपतः ।
ब्रह्मविष्णुमहेशात्मा निर्गुणोऽनिर्गुणोऽपि सः ॥ ३२ ॥
वे ही अपनी मायाको लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश-इन तीन रूपोंमें प्रकट होते हैं । निर्गुण और सगुण भी वे ही हैं ॥ ३२ ॥

निर्गुणत्वे शिवाह्वो हि परमात्मा महेश्वरः ।
परब्रह्माव्ययोऽनन्तो महादेवेति गीयते ॥ ३३ ॥
निर्गुण अवस्थामें उन्हींका नाम शिव है । वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनन्त और महादेव आदि नामोंसे कहे जाते हैं ॥ ३३ ॥

तत्सेवया विधिः स्रष्टा पालको जगतामहम् ।
स्वयं सर्वस्य संहारी रुद्ररूपेण सर्वदा ॥ ३४ ॥
उन्हींकी सेवासे ब्रह्माजी जगत्के स्रष्टा हुए हैं, मैं तीनों लोकोंका पालन करता हूँ और वे स्वयं ही रुद्ररूपसे सदा सबका संहार करते हैं ॥ ३४ ॥

साक्षी शिवस्वरूपेण मायाभिन्नः स निर्गुणः ।
स्वेच्छाचारी संविहारी भक्तानुग्रहकारकः ॥ ३५ ॥
वे शिवस्वरूपसे सबके साक्षी हैं, मायासे भिन्न और निर्गुण हैं । स्वतन्त्र होनेके कारण वे अपनी इच्छाके अनुसार चलते हैं । उनका विहार-आचार, व्यवहार उत्तम है और वे भक्तोंपर दया करनेवाले हैं ॥ ३५ ॥

शृणु त्वं नारद मुने सदुपायं सुखप्रदम् ।
सर्वपापापहर्त्तारं भुक्तिमुक्तिप्रदं सदा ॥ ३६ ॥
हे नारद मुने ! मैं आपको एक सुन्दर उपाय बताता है, जो सुखद, समस्त पापोंका नाश करनेवाला और सदा भोग एवं मोक्ष देनेवाला है, आप उसे सुनिये ॥ ३६ ॥

त्यक्त्वा स्वसंशयं सर्वं गायन् शङ्‌करसद्यशः ।
शत नाम शिवस्तोत्रं सदानन्यमतिर्जप ॥ ३७ ॥
यज्जपित्वा द्रुतं सर्वं तव पापं विनश्यति ।
अपने समस्त संशयोंको त्यागकर आप भगवान् शंकरके सुयशका गान कीजिये और सदा अनन्यभावसे शिवके शतनामस्तोत्रका पाठ कीजिये । जिसका पाठ करनेसे आपके समस्त पाप शीघ्र ही नष्ट हो जायेंगे ॥ ३७ १/२ ॥

इत्युक्त्वा नारदं विष्णुः पुनः प्राह दयान्वितः ॥ ३८ ॥
मुने न कुरु शोकं त्वं त्वया किञ्चित्कृतं नहि ।
स्वेच्छया कृतवान्शम्भुरिदं सर्वं न संशयः ॥ ३९ ॥
इस प्रकार नारदसे कहकर दयालु भगवान् विष्णुने उनसे पुन: कहा-हे मुने ! आप शोकन करें । आपने तो कुछ किया ही नहीं है । यह सब तो भगवान् शंकरने अपनी इच्छासे किया है । इसमें शंका नहीं है ॥ ३८-३९ ॥

अहार्षित् त्वन्मतिं दिव्यां कामक्लेशमदात्स ते ।
त्वन्मुखाद्दापयाञ्चक्रे शापं मे स महेश्वरः ॥ ४० ॥
उन्होंने ही आपकी दिव्य बुद्धिका हरण कर लिया था । उन्होंने ही आपको कामका कष्ट भी दिया और उन्हीं भगवान् शंकरने आपके मुखासे मुझे यह शाप भी दिलाया है ॥ ४० ॥

इत्थं स्वचरितं लोके प्रकटीकृतवान् स्वयम् ।
मृत्युञ्जयः कालकालो भक्तोद्धारपरायणः ॥ ४१ ॥
इस प्रकार उन्होंने संसारमें अपने चरित्रको स्वयं प्रकट किया है [इसमें अन्य किसीका दोष नहीं है । वे मृत्युको जीतनेवाले, कालके भी काल और भक्तोंका उद्धार करनेमें तत्पर रहनेवाले हैं ॥ ४१ ॥

न मे शिवसमानोऽस्ति प्रियः स्वामी सुखप्रदः ।
सर्वशक्तिप्रदो मेऽस्ति स एव परमेश्वरः ॥ ४२ ॥
मुझे शिवके समान अन्य कोई प्रिय नहीं है । वे ही मेरे स्वामी हैं, सुख और शक्ति देनेवाले हैं । वे महेश्वर ही मेरे सब कुछ हैं ॥ ४२ ॥

तस्योपास्यां कुरु मुने तमेव सततं भज ।
तद्यशः शृणु गाय त्वं कुरु नित्यं तदर्चनम् ॥ ४३ ॥
हे मुने ! आप उन्हींकी उपासना करें, सदैव उन्हींका भजन करें, उन्हींके यशका श्रवण और गान करें तथा नित्य उन्हींकी अर्चना करें ॥ ४३ ॥

कायेन मनसा वाचा यः शङ्‌करमुपैति भोः ।
स पण्डित इति ज्ञेयः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४४ ॥
हे मुने ! जो शरीर, मन तथा वाणीसे शंकरको प्राप्त कर लेता है, वही पण्डित है-ऐसा जानना चाहिये और वही जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ४४ ॥

शिवेति नामदावाग्नेर्महापातकपर्वताः ।
भस्मीभवन्त्यनायासात् सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ४५ ॥
शिव-नामरूपी इस दावाग्निसे महापातकरूपी पर्वत अनायास ही जलकर भस्म हो जाते हैं, यह पूर्णतया सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४५ ॥

पापमूलानि दुःखानि विविधान्यपि तान्यतः ।
शिवार्चनैकनश्यानि नान्य नश्यानि सर्वथा ॥ ४६ ॥
संसारमें पापोंके मूलभूत जितने भी प्रकारके दु:ख हैं, वे सर्वथा मात्र शिवपूजनसे ही नष्ट हो जाते हैं । अन्य उपायोंसे [उनका] नाश सम्भव नहीं है । ४६ ॥

स वैदिकः स पुण्यात्मा स धन्यःस बुधो मुने ।
यः सदा कायवाक्चित्तैः शरणं याति शङ्‌करम् ॥ ४७ ॥
हे मुने ! वही वैदिक है, वही पुण्यात्मा है, वहीं धन्य है और वही बुद्धिमान् है, जो सदा शारीर, वाणी और मनसे भगवान् शंकरकी शरणमें चला जाता है । ४७ ॥

भवन्ति विविधा धर्मा येषां सद्यः फलोन्मुखाः ।
तेषां भवति विश्वासस्त्रिपुरान्तकपूजने ॥ ४८ ॥
जिनके विविध प्रकारके धर्मकृत्य तत्काल फलोन्मुख (फल देनेवाले) होते हैं, उनका पूर्ण विश्वास त्रिपुरके विनाशक शिवमें होता है ॥ ४८ ॥

पातकानि विनश्यन्ति यावन्ति शिवपूजया ।
भुवि तावन्ति पापानि न सन्त्येव महामुने ॥ ४९ ॥
महामुने ! शिवको पूजासे जितने पाप नष्ट हो जाते हैं, उतने पाप तो पृथ्वीमें हैं ही नहीं ॥ ४९ ॥

ब्रह्महत्यादिपापानां राशयोप्यमिता मुने ।
शिवस्मृत्या विनश्यन्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ५० ॥
हे मुने ! ब्रह्महत्यादि पापोंकी अपरिमित राशियाँ भी शिवका स्मरण करनेसे नष्ट हो जाती हैं, यह मैं पूर्ण सत्य कह रहा हूँ ॥ ५० ॥

शिवनामतरीं प्राप्य संसाराब्धिं तरन्ति ते ।
संसारमूलपापानि तस्य नश्यन्त्यसंशयम् ॥ ५१ ॥
शिव-नामका कीर्तन करनेवाले लोग ही शिवनामकी नौकासे संसाररूपी सागरको पार कर जाते हैं । संसारका मूल पाप-समूह है, उसका नाश नामकीर्तनसे निश्चित ही हो जाता है ॥ ५१ ॥

संसारमूलभूतानां पातकानां महामुने ।
शिवनामकुठारेण विनाशो जायते ध्रुवम् ॥ ५२ ॥
हे महामुने ! शिवनामरूपी कुठारसे संसारके मूलभूत पापोंका नाश अवश्य हो जाता है ॥ ५२ ॥

शिवनामामृतं पेयं पापदावानलार्दितैः ।
पापदावाग्नितप्तानां शान्तिस्तेन विना न हि ॥ ५३ ॥
पापरूपी दावानलसे दग्ध हुए लोगोंको शिवनामरूपी अमृत पीना चाहिये, पापकी दावाग्निसे तपे हुए लोगोंको उसके बिना शान्ति देनेका कोई अन्य उपाय नहीं मिल सकता ॥ ५३ ॥

शिवेति नामपीयूषवर्षधारापरिप्लुतः ।
संसारदवमध्येऽपि न शोचति न संशयः ॥ ५४ ॥
शिव-इस नामकी अमृतमयी वर्षाकी धारासे नहाये हुए लोग संसारके पापोंकी दावाग्निके मध्य रहते हुए भी शोक नहीं करते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ५४ ॥

न भक्तिः शङ्‌करे पुंसां रागद्वेषरतात्मनाम् ।
तद्‌विरुद्धजनानां हि मुक्तिर्भवति सर्वथा ॥ ५५ ॥
राग-द्वेषमें निरन्तर लगे रहनेवाले लोगोंकी शिवके प्रति भक्ति नहीं होती है, किंतु इसके विपरीत अर्थात् पापोंसे विरत रहनेवाले लोगोंकी मुक्ति तो निश्चित ही होती है ॥ ५५ ॥

अनन्तजन्मभिर्येन तपस्तप्तं भविष्यति ।
तस्यैव भक्तिर्भवति भवानी प्राणवल्लभे ॥ ५६ ॥
जिसने अनन्त जन्मोंमें अपनी तपस्यासे शरीरको जलाया होगा, उसीकी भक्ति भवानीप्राणवल्लभ शिवके लिये सम्भव है ॥ ५६ ॥

जातापि शङ्‌करे भक्तिरन्यसाधारणी वृथा ।
परन्त्वव्यभिचारेण शिवभक्तिरपेक्षिता ॥ ५७ ॥
भगवान् शिवके प्रति अनन्यतापूर्वक की गयी 'शिव-नाम-भक्ति' के अतिरिक्त अन्य साधारण भक्ति व्यर्थ ही हो जाती है ॥ ५७ ॥

यस्या साधारणी शम्भौ भक्तिरव्यभिचारिणी ।
तस्यैव मोक्षः सुलभो नान्यस्येति मतिर्मम ॥ ५८ ॥
भगवान् शिवके प्रति जिसकी भक्ति एकनिष्ठ तथा असाधारण होती है, उसको ही मोक्ष प्राप्त होता है । अन्यके लिये वह सुलभ नहीं है-ऐसा मेरा विश्वास है । ५८ ॥

कृत्वाप्यनन्तपापानि यदि भक्तिर्महेश्वरे ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो भवत्येव न संशयः ॥ ५९ ॥
अनन्त पाप करनेके पश्चात् भी यदि प्राणी भगवान् शंकरमें भक्ति करने लगता है, तो वह सभी पापोंसे निर्मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५९ ॥

भवन्ति भस्मसाद्वृक्षा दवदग्धा यथा वने ।
तथा भवन्ति दग्धानि शाङ्‌कराणामघान्यपि ॥ ६० ॥
जिस प्रकार वनमें दावाग्निसे वृक्ष [जलकर] भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिव भक्तोंके पाप भी [शिव-भक्तिके प्रभावसे] नष्ट हो जाते हैं ॥ ६० ॥

यो नित्यं भस्मपूताङ्‌गो शिवपूजोन्मुखो भवेत् ।
स तरत्येव संसारमपारमतिदारुणम् ॥ ६१ ॥
जो मनुष्य नित्य अपने शरीरको भस्मसे पवित्रकर शिवकी पूजामें लगा रहता है, वह महान् कष्ट देनेवाले संसाररूपी अपार सागरको निश्चित ही पार कर जाता है ॥ ६१ ॥

ब्रह्मस्वहरणं कृत्वा हत्वापि ब्राह्मणान्बहून् ।
न लिप्यते नरः पापैर्विरूपाक्षस्य सेवकः ॥ ६२ ॥
ब्राह्मणोंका धन हरण करके और बहुतसे ब्राह्मणोंकी हत्या करके भी जो मनुष्य विरूपाक्ष भगवान् शंकरकी सेवामें लग जाता है, उसे उन पापोंसे लिप्त नहीं होना पड़ता ॥ ६२ ॥

विलोक्य वेदानखिलाञ्छिवस्यैवार्चनं परम् ।
संसारनाशनोपाय इति पूर्वैर्विनिश्चितम् ॥ ६३ ॥
सम्पूर्ण वेदोंका अवलोकन करके पूर्ववर्ती विद्वानोंने यही निश्चय किया है कि भगवान् शिवकी पूजा ही संसार-बन्धनके नाशका उपाय है ॥ ६३ ॥

अद्यप्रभृति यत्नेन सावधानो यथाविधि ।
साम्बं सदाशिवं भक्त्या भज नित्यं महेश्वरम् ॥ ६४ ॥
[हे मुने !] आजसे यत्नपूर्वक सावधान रहकर विधि-विधानके साथ भक्तिभावसे नित्य जगदम्बा पार्वतीसहित महेश्वर सदाशिवका भजन कीजिये ॥ ६४ ॥

आपादमस्तकं सम्यक् भस्मनोद्धूल्य सादरम् ।
सर्वश्रुतिश्रुतं शैवम्मन्त्रञ्जप षडक्षरम् ॥ ६५ ॥
पैरसे लेकर सिरतक भस्मका लेपन करके सम्यक् रूपसे आदरपूर्वक सभी श्रुतियोंसे सुने गये घडक्षर शैव-मन्त्र (ॐ नमः शिवाय)-का जप कीजिये ॥ ६५ ॥

सर्वाङ्‌गेषु प्रयत्नेन रुद्राक्षाञ्छिववल्लभान् ।
धारयस्वातिसद्‌भक्त्या समन्त्रं विधिपूर्वकम् ॥ ६६ ॥
प्रयत्नपूर्वक [बताये गये नियमानुसार भगवान् शिवके प्रिय रुद्राक्षको धारण करके अत्यन्त सद्‌भक्तिसे ही सविधि मन्त्रका जप करना चाहिये ॥ ६६ ॥

शृणु शैवीं कथां नित्यं वद शैवीं कथां सदा ।
पूजयस्वातियत्नेन शिवभक्तान्पुनः पुनः ॥ ६७ ॥
नित्य शिवकी ही कथा सुनिये और कहिये । अत्यन्त यत्न करके बारम्बार शिव भक्तोंका पूजन किया कीजिये ॥ ६७ ॥

अप्रमादेन सततं शिवैकशरणो भव ।
शिवार्चनेन सततमानन्दः प्राप्यते यतः ॥ ६८ ॥
प्रमादसे रहित होकर सदा एकमात्र शिवकी शरणमें रहिये, क्योंकि शिवके पूजनसे ही निरन्तर आनन्द प्राप्त होता रहता है ॥ ६८ ॥

उरस्याधाय विशदे शिवस्य चरणाम्बुजौ ।
शिवतीर्थानि विचर प्रथमं मुनिसत्तम ॥ ६९ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! अपने हृदयमें भगवान् शिवके उज्ज्वल चरणारविन्दोंकी स्थापना करके पहले शिवके तीर्थों में विचरण कीजिये ॥ ६९ ॥

पश्यन्माहात्म्यमतुलं शङ्‌करस्य परात्मनः ।
गच्छानन्दवनं पश्चाच्छम्भुप्रियतमं मुने ॥ ७० ॥
हे मुने ! इस प्रकार परमात्मा शंकरके अनुपम माहात्म्यका दर्शन करते हुए अन्तमें आनन्दवन (काशी) जाइये, वह स्थान भगवान् शिवको बहुत ही प्रिय है ॥ ७० ॥

तत्र विश्वेश्वरं दृष्ट्‍वा पूजनं कुरु भक्तितः ।
नत्वा स्तुत्वा विशेषेण निर्विकल्पो भविष्यसि ॥ ७१ ॥
वहाँ विश्वनाथजीका दर्शन करके भक्तिपूर्वक उनकी पूजा कीजिये । विशेषतः उनकी स्तुति वन्दना करके आप निर्विकल्प (संशयरहित) हो जायेंगे ॥ ७१ ॥

ततश्च भवता नूनं विधेयं गमनं मुने ।
ब्रह्मलोके स्वकामार्थं शासनान्मम भक्तितः ॥ ७२ ॥
हे मुने ! इसके बाद आपको मेरी आज्ञासे भक्तिपूर्वक अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये निश्चय ही ब्रह्मलोकमें जाना चाहिये ॥ ७२ ॥

नत्वा स्तुत्वा विशेषेण विधिं स्वजनकं मुने ।
प्रष्टव्यं शिवमाहात्म्यं बहुशः प्रीतचेतसा ॥ ७३ ॥
हे मुने । वहाँ अपने पिता ब्रह्माजीकी विशेषरूपसे स्तुति-वन्दना करके आपको प्रसन्नतापूर्ण हृदयसे बारम्बार शिव-महिमाके विषयमें प्रश्न करना चाहिये । ७३ ॥

स शैवप्रवरो ब्रह्मा माहात्म्यं शङ्‌करस्य ते ।
श्रावयिष्यति सुप्रीत्या शतनामस्तवं च हि ॥ ७४ ॥
ब्रह्माजी शिव भक्तोंमें श्रेष्ठ हैं, वे आपको अत्यन्त प्रसन्नताके साथ भगवान् शंकरका माहात्म्य और शतनाम स्तोत्र सुनायेंगे । ७४ ॥

अद्यतस्त्वं भव मुने शैवश्शिवपरायणः ।
मुक्तिभागी विशेषेण शिवस्ते शं विधास्यति ॥ ७५ ॥
हे मुने ! आजसे आप शिवाराधनमें तत्पर रहनेवाले शिवभक्त हो जाइये और विशेषरूपसे मोक्षके भागी बनिये । भगवान् शिव आपका कल्याण करेंगे । ७५ ॥

इत्थं विष्णुर्मुनिं प्रीत्या ह्युपदिश्य प्रसन्नधीः ।
स्मृत्वा नुत्वा शिवं स्तुत्वा ततस्त्वन्तरधीयत ॥ ७६ ॥
इस प्रकार प्रसन्नचित्त हुए भगवान् विष्णु नारदमुनिको प्रेमपूर्वक उपदेश देकर शिवजीका स्मरण, वन्दन और स्तवन करके वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ ७६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे
सृष्ट्युपाख्याने नारदस्य विष्णूपदेशवर्णनो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके प्रथम खण्डमें नारद-विष्णु-उपदेश-वर्णन नामक चतुर्थ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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