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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे
सप्तमोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] विष्णुब्रह्मविवादवर्णनम्
भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव, शिवेच्छासे ब्रह्माजीका उससे प्रकट होना कमलनालके उद्गमका पता लगानेमें असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णुके बीचमें अग्निस्तम्भका प्रकट होना तथा उसके ओर-छोरका पता न पाकर उन दोनोंका उसे प्रणाम करना ब्रह्मोवाच
सुप्ते नारायणे देवे नाभौ पङ्कजमुत्तमम् । आविर्बभूव सहसा बृहद्वै शङ्करेच्छया ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे देवर्षे ! जब नारायणदेव जलमें शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभिसे भगवान् शंकरकी इच्छासे सहसा एक विशाल तथा उत्तम कमल प्रकट हुआ ॥ १ ॥ अनन्तयष्टिकायुक्तं कर्णिकारसमप्रभम् ।
अनन्तयोजनायाममनन्तोच्छ्रायसंयुतम् ॥ २ ॥ कोटिसूर्यप्रतीकाशं सुन्दर वचसंयुतम् । अत्यद्भुतं महारम्यं दर्शनीयमनुत्तमम् ॥ ३ ॥ उसमें असंख्य नालदण्ड थे, उसकी कान्ति कनेरके फूलके समान पीले रंगकी थी तथा उसकी लम्बाई और ऊँचाई भी अनन्त योजन थी । वह कमल करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशित, सुन्दर, सम्पूर्ण तत्त्वोंसे युक्त, अत्यन्त अद्भुत, परम रमणीय, दर्शनके योग्य तथा सबसे उत्तम था ॥ २-३ ॥ कृत्वा यत्नं पूर्ववत्स शङ्करः परमेश्वरः ।
दक्षिणाङ्गान्निजान्मां वै साम्बश्शम्भुरजीजनत् ॥ ४ ॥ तत्पश्चात् कल्याणकारी परमेश्वर साम्बसदाशिवने पूर्ववत् प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अंगसे उत्पन्न किया ॥ ४ ॥ स मायामोहितं कृत्वा मां महेशो द्रुतं मुने ।
तन्नाभिपङ्कजादाविर्भावयामास लीलया ॥ ९ ॥ हे मुने ! उन महेश्वरने मुझे तुरंत ही अपनी मायासे मोहित करके नारायणदेवके नाभिकमलमें डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे वहाँसे प्रकट किया ॥ ५ ॥ एष पद्मात्ततो जज्ञे पुत्रोऽहं हेमगर्भकः ।
चतुर्मुखो रक्तवर्णस्त्रिपुण्ड्राङ्कितमस्तकः ॥ ६ ॥ इस प्रकार उस कमलसे पुत्रके रूपमें मुझ हिरण्यगर्भका जन्म हुआ । मेरे चार मुख हुए और शरीरको कान्ति लाल हुई । मेरे मस्तक त्रिपुण्डकी रेखासे अंकित थे ॥ ६ ॥ तन्मायामोहितश्चाहं नाविदं कमलं विना ।
स्वदेहजनकं तात पितरं ज्ञानदुर्बलः ॥ ७ ॥ हे तात ! भगवान् शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण मेरी ज्ञानशक्ति इतनी दुर्बल हो रही थी कि मैंने उस कमलके अतिरिक्त दूसरे किसीको अपने शरीरका जनक या पिता नहीं जाना ॥ ७ ॥ कोहं वा कुत आयातः किं कार्य तु मदीयकम् ।
कस्य पुत्रोऽहमुत्पन्नः केनैव निर्मितोऽधुना ॥ ८ ॥ इति संशयमापन्नं बुद्धिर्मां समपद्यत । किमर्थं मोहमायामि तज्ज्ञानं सुकरं खलु ॥ ९ ॥ मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, मेरा कार्य क्या है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूँ और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है-इस प्रकार संशयमें पड़े हुए मेरे मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ-मैं किसलिये मोहमें पड़ा हुआ हूँ ? जिसने मुझे उत्पन्न किया है, उसका पता लगाना तो बहुत सरल है । ८-९ ॥ एतत्कमलपुष्पस्य पत्रारोहस्थलं ह्यधः ।
मत्कर्ता च स वै तत्र भविष्यति न संशयः ॥ १० ॥ इस कमलपुष्पका जो पत्रयुक्त नाल है, उसका उद्गमस्थान इस जलके भीतर नीचेकी ओर है । जिसने मुझे उत्पन्न किया है, वह पुरुष भी वहीं होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ १० ॥ इति बुद्धिं समास्थाय कमलादवरोहयम् ।
नाले नाले गतस्तत्र वर्षाणां शतकं मुने ॥ १ १ ॥ ऐसा निश्चय करके मैंने अपनेको कमलसे नीचे उतारा । हे मुने ! उस कमलकी एक-एक नालमें गया और सैकड़ों वर्षांतक वहाँ भ्रमण करता रहा ॥ ११ ॥ न लब्धं तु मया तत्र कमलस्थानमुत्तमम् ।
संशयं च पुनः प्राप्तः कमले गन्तुमुत्सुकः ॥ १२ ॥ आरुरोहाथ कमलं नालमार्गेण वै मुने । कुड्मलं कमलस्याथ लब्धवान्न विमोहिताः ॥ १३ ॥ कहीं भी उस कमलके उद्गमका उत्तम स्थान मुझे नहीं मिला । तब पुनः संशयमें पड़कर मैं उस कमलपुष्पपर जानेके लिये उत्सुक हुआ और हे मुने ! नालके मार्गसे उस कमलपर चढ़ने लगा । इस तरह बहुत ऊपर जानेपर भी मैं उस कमलके कोशको न पा सका । उस दशामें मैं और भी मोहित हो उठा ॥ १२-१३ ॥ नालमार्गेण भ्रमतो गतं वर्षशतं पुनः ।
क्षणमात्रं तदा तत्र ततस्तिष्ठन्विमोहितः ॥ १४ ॥ मुझे नालमार्गसे भ्रमण करते हुए पुनः सैकड़ों वर्ष व्यतीत हो गये, [किंतु उसका कोई पता न चल सका] तब मैं मोहित (किंकर्तव्यविमूढ़) होकर एक क्षण वहीं रुक गया ॥ १४ ॥ तदा वाणी समुत्पन्ना तपेति परमा शुभा ।
शिवेच्छया परा व्योम्नो मोहविध्वंसनी मुने ॥ १५ ॥ हे मुने ! उस समय भगवान् शिवकी इच्छासे परम मंगलमयी तथा उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई, जो मेरे मोहका विध्वंस करनेवाली थी, उस वाणीने कहा-'तप' तपस्या करो ॥ १५ ॥ तच्छ्रुत्वा व्योमवचनं द्वादशाब्दं प्रयत्नतः ।
पुनस्तप्तं तपो घोरं द्रष्टुं स्वजनकं तदा ॥ १६ ॥ उस आकाशवाणीको सुनकर मैंने अपने जन्मदाता पिताका दर्शन करनेके लिये उस समय पुनः प्रयत्नपूर्वक बारह वर्षोंतक घोर तपस्या की ॥ १६ ॥ तदा हि भगवान्विष्णुश्चतुर्बाहुः सुलोचनः ।
मय्येवानुग्रहं कर्तुं द्रुतमाविर्बभूव ह ॥ १७ ॥ शङ्खचक्रायुधकरो गदापद्मधरः परः । घनश्यामलसर्वाङ्गः पीताम्बरधरः परः ॥ १८ ॥ मुकुटादिमहाभूषः प्रसन्नमुखपङ्कजः । कोटिकन्दर्पसङ्काशःसन्दृष्टो मोहितेन सः ॥ १९ ॥ तब मुझपर अनुग्रह करनेके लिये ही चार भुजाओं और सुन्दर नेत्रोंसे सुशोभित भगवान् विष्णु वहाँ सहसा प्रकट हो गये । उन परम पुरुषने अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे उनके सारे अंग सजल जलधरके समान श्यामकान्तिसे सुशोभित थे । उन परम प्रभुने सुन्दर पीताम्बर पहन रखा था । उनके मस्तक आदि अंगोंमें मुकुट आदि महामूल्यवान् आभूषण शोभा पा रहे थे । उनका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिला हुआ था । मैं उनकी छविपर मोहित हो रहा था । वे मुझे करोड़ों कामदेवोंके समान मनोहर दिखायी दिये ॥ १७-१९ ॥ तद्दृष्ट्वा सुन्दरं रूपं विस्मयं परमं गतः ।
कालाभं काञ्चनाभं च सर्वात्मानं चतुर्भुजम् ॥ २० ॥ उन चतुर्भुज भगवान् विष्णुका वह अत्यन्त सुन्दर रूप देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । वे साँवली और सुनहरी आभासे उद्भासित हो रहे थे ॥ २० ॥ तथाभूतमहं दृष्ट्वा सदसन्मयमात्मना ।
नारायणं महाबाहुं हर्षितो ह्यभवं तदा ॥ २१ ॥ उस समय उन सदसत्स्वरूप, सर्वात्मा, महाबाहु नारायणदेवको वहाँ उस रूपमें अपने साथ देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ ॥ २१ ॥ मायया मोहितश्शम्भोस्तदा लीलात्मनः प्रभोः ।
अविज्ञाय स्वजनकं तमवोचं प्रहर्षितः ॥ २२ ॥ मैं उस समय प्रभु शम्भुको लीलासे मोहित हो रहा था, इसलिये मैं अपने उत्पन्न करनेवालेको न जानकर अति हर्षित होकर उनसे कहने लगा- ॥ २२ ॥ ब्रह्मोवाच
कस्त्वं वदेति हस्तेन समुत्थाप्य सनातनम् । तदा हस्तप्रहारेण तीव्रेण सुदृढेन तु ॥ २३ ॥ प्रबुद्ध्योत्थाय शयनात्समासीनः क्षणं वशी । ददर्श निद्राविक्लिन्ननीरजामललोचनः ॥ २४ ॥ मामत्र संस्थितं भासाध्यासितो भगवान्हरिः । आह चोत्थाय ब्रह्माणं हसन्मां मधुरं सकृत् ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी बोले-मैंने उन सनातन पुरुषको हाथसे उठाकर कहा कि आप कौन हैं, उस समय हाथके तीन तथा सुदृढ़ प्रहारसे क्षणमात्रमें ही वे जितेन्द्रिय जाग करके शय्यासे उठकर बैठ गये । तदनन्तर अविकल रूपसे निद्रारहित होकर उन राजीवलोचन भगवान् विष्णुने मुझको वहाँपर अवस्थित देखा और हँसते हुए बारबार मधुर वाणीमें [वे] कहने लगे- ॥ २३-२५ ॥ विष्णुरुवाच
स्वागतं स्वागतं वत्स पितामह महाद्युते । निर्भयो भव दास्येऽहं सर्वान्कामान्न संशयः ॥ २६ ॥ विष्णजी बोले-हे वत्स ! आपका स्वागत है । हे महाद्युतिमान् पितामह ! आपका स्वागत है । निर्भय होकर रहिये । मैं आपकी सभी कामनाओंको पूर्ण करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २६ ॥ तस्य तद्वचनं श्रुत्वा स्मितपूर्वं सुरर्षभः ।
रजसा बद्धवैरश्च तमवोचं जनार्दनम् ॥ २७ ॥ हे देवर्षे !] उनके मन्दहासयुक्त उस वचनको सुनकर रजोगुणके कारण शत्रुता मान बैठा देवश्रेष्ठ मैं उन जनार्दन भगवान् विष्णुसे कहने लगा- ॥ २७ ॥ ब्रह्मोवाच
भाषसे वत्स वत्सेति सर्वसंहारकारणम् । मामिहातिस्मितं कृत्वा गुरुश्शिष्यमिवानघ ॥ २८ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे निष्पाप ! समस्त संहारके कारणभूत मुझे आप हँसते हुए जो हे वत्स ! हे वत्स ! कह रहे हैं, वह तो वैसे ही लग रहा है, जैसे कोई गुरु अपने शिष्यको हे वत्स ! हे वत्स ! कह रहा हो ॥ २८ ॥ कर्तारं जगतां साक्षात्प्रकृतेश्च प्रवर्तकम् ।
सनातनमजं विष्णुं विरिञ्चिं विष्णुसम्भवम् ॥ २९ ॥ विश्वात्मानं विधातारं धातारं पङ्कजेक्षणम् । किमर्थं भाषसे मोहाद्वक्तुमर्हसि सत्वरम् ॥ ३० ॥ मैं ही संसारका साक्षात् कर्ता, प्रकृतिका प्रवर्तक, सनातन, अजन्मा, विष्णु, ब्रह्मा, विष्णुको उत्पन्न करनेवाला विश्वात्मा, विधाता, धाता और पुण्डरीकाक्ष हूँ । आप अज्ञानवश मुझे हे वत्स ! हे वत्स ! ऐसा क्यों कह रहे हैं ? इसका कारण शीघ्र बताइये । २९-३० ॥ वेदो मां वक्ति नियमात्स्वयम्भुवमजं विभुम् ।
पितामहं स्वराजं च परमेष्ठिनमुत्तमम् ॥ ३१ ॥ नियमत: वेद भी मुझे स्वयम्भू अज, विभु, पितामह, स्वराज, सर्वोत्तम और परमेष्ठी कहते हैं ॥ ३१ ॥ इत्याकर्ण्य हरिर्वाक्यं मम क्रुद्धो रमापतिः ।
सोऽपि मामाह जाने त्वां कर्तारमिति लोकतः ॥ ३२ ॥ मेरे इस वचनको सुनकर लक्ष्मीपति भगवान् हरि क्रुद्ध हो उठे और कहने लगे कि मैं जानता हूँसंसार आपको जगत्का कर्ता मानता है ॥ ३२ ॥ विष्णुरुवाच
कर्तुं धर्त्तुं भवानङ्गादवतीर्णो ममाव्ययात् । विस्मृतोऽसि जगन्नाथं नारायणमनामयम् ॥ ३३ ॥ पुरुषं परमात्मानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् । विष्णुमच्युतमीशानं विश्वस्य प्रभवोद्भवम् ॥ ३४ ॥ नारायणं महाबाहुं सर्वव्यापकमीश्वरम् । मन्नाभिपद्मतस्त्वं हि प्रसूतो नात्र संशयः ॥ ३५ ॥ विष्णुजी बोले-आप संसारकी सृष्टि करने और पालन करनेके लिये मुझ अव्ययके अंगसे अवतीर्ण हुए हैं, फिर भी आप मुझ जगन्नाथ, नारायण, पुरुषा, परमात्मा, निर्विकार, पुरुहूत, पुरुष्टुत्, विष्णु, अच्युत, ईशान, संसारके उत्पत्ति-स्थानरूप, नारायण, महाबाहु और सर्वव्यापकको भूल गये हैं । मेरे ही नाभिकमलसे आप उत्पन्न हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३३-३५ ॥ तवापराधो नास्त्यत्र त्वयि मायाकृतं मम ।
शृणु सत्यं चतुर्वक्त्र सर्वदेवेश्वरो ह्यहम् ॥ ३६ ॥ इस विषयमें आपका अपराध भी नहीं है, आपके ऊपर तो मेरी माया है । हे चतुर्मुख ! सुनिये, यह सत्य है कि मैं ही सभी देवोंका ईश्वर हूँ ॥ ३६ ॥ कर्ता हर्ता च भर्ता च न मयास्तिसमो विभुः ।
अहमेव परं ब्रह्म परं तत्त्वं पितामह ॥ ३७ ॥ मैं ही कर्ता, हर्ता और भर्ता हूँ । मेरे समान अन्य शक्तिशाली कोई देव नहीं है । हे पितामह ! मैं ही परब्रह्म तथा परम तत्त्व हूँ ॥ ३७ ॥ अहमेव परं ज्योतिः परमात्मा त्वहं विभुः ।
अद्य दृष्टं श्रुतं सर्वं जगत्यस्मिँश्चराचरम् ॥ ३८ ॥ तत्तद्विद्धि चतुर्वक्त्र सर्वं मन्मयमित्यथ । मया सृष्टं पुरा व्यक्तं चतुर्विंशतितत्त्वकम् ॥ ३९ ॥ मैं ही परमज्योति और वह परमात्मा विभु हूँ, इस जगत्में आज जो यह सब चराचर दिखायी दे रहा है और सुनायी पड़ रहा है, हे चतुर्मुख ! यह जो कुछ भी है, वह मुझमें व्याप्त है-ऐसा आप जान लें । मैंने ही सृष्टिके पहले जगत्के चौबीस अव्यक्त तत्त्वोंकी रचना की है । ३८-३९ ॥ नित्यं तेष्वणवो बद्धाःसृष्टाः क्रोधभयादयः ।
प्रभावाच्च भवानङ्गान्यनेकानीह लीलया ॥ ४० ॥ उन्हों तत्वोंसे प्राणियोंके शरीरधारक अणुओंका निर्माण होता है और क्रोध, भय आदि षड्गुणोंकी सृष्टि हुई है । मेरे प्रभाव और मेरी लीलासे ही आपके अनेक अंग हैं ॥ ४० ॥ सृष्टा बुद्धिर्मया तस्यामहङ्कारस्त्रिधा ततः ।
तन्मात्रं पङ्कजं तस्मान्मनोदेहेन्द्रियाणि च ॥ ४१ ॥ आकाशादीनि भूतानि भौतिकानि च लीलया । इति बुद्ध्वा प्रजानाथ शरणं व्रज मे विधे ॥ ४२ ॥ अहं त्वां सर्वदुःखेभ्यो रक्षिष्यामि न संशयः । मैंने ही बुद्धितत्त्वकी सृष्टि की है और उसमें तीन प्रकारके अहंकार उत्पन्न किये हैं । तदनन्तर उससे रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श-इन पंचतन्मात्राओं, मन एवं चक्षु, जिला, प्राण, श्रोत्र तथा त्वचा-इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों और वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थइन पाँच कर्मेन्द्रियों, क्षिति, जल, पावक, गगन और वायु-इन पंच महाभूतों तथा अन्य सभी भौतिक पदार्थोकी रचना लीलासे ही की है । हे प्रजापते ! हे ब्रह्मन् ! ऐसा जानकर आप मेरी शरणमें आ जाइये, मैं सभी दुःखोंसे आपकी रक्षा करूँगा, इसमें संशय नहीं है । ४१-४२ १/२ ॥ ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य ब्रह्मा क्रोधसमन्वितः । को वा त्वमिति सम्भर्त्स्याब्रुवं मायाविमोहितः ॥ ४३ ॥ किमर्थं भाषसे भूरि बह्वनर्थकरं वचः । नेश्वरस्त्वं परब्रह्म कश्चित्कर्ता भवेत्तव ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले-विष्णुका यह वचन सुनकर मुझ ब्रह्माको क्रोध आ गया और मायाके वशीभूत हुआ मैं उनको डाँटते हुए पूछने लगा कि आप कौन हैं और किसलिये इतना अधिक निरर्थक बोल रहे हैं ? आप न ईश्वर हैं, न परब्रह्म हैं । आपका कोई कर्ता अवश्य है ॥ ४३-४४ ॥ मायया मोहितश्चाहं युद्धं चक्रे सुदारुणम् ।
हरिणा तेन वै सार्द्धं शङ्करस्य महाप्रभोः ॥ ४५ ॥ महाप्रभु शंकरको मायासे विमोहित मैं उन भगवान् विष्णुके साथ भयंकर युद्ध करने लगा ॥ ४५ ॥ एवं मम हरेश्चासीत्सङ्गरो रोमहर्षणः ।
प्रलयार्णवमध्ये तु रजसा बद्धवैरयोः ॥ ४६ ॥ उस प्रलयकालीन महासमुद्रके मध्य रजोगुणके कारण परस्पर बढ़ी शत्रुतासे हमारा और विष्णुका रोमांचकारी युद्ध होने लगा ॥ ४६ ॥ एतस्मिन्नन्तरे लिङ्गमभवच्चावयोः पुरः ।
विवादशमनार्थं हि प्रबोधार्थं तथाऽऽवयोः ॥ ४७ ॥ इसी बीच हम दोनोंके छिड़े विवादको शान्त करनेके लिये और ज्ञान प्रदान करनेके लिये हम दोनोंके सामने ही एक लिंग प्रकट हुआ ॥ ४७ ॥ ज्लामालासहस्राढ्यं कालानलशतोपमम् ।
क्षयवृद्धि विनिर्मुक्तमादिमध्यान्तवर्जितम् ॥ ४८ ॥ वह लिंग अग्निकी प्रचण्ड हजार ज्वालाओंसे भी अधिक ज्वालासमूहोंवाला, सैकड़ों कालाग्नियोंके समान कान्तिमान्, क्षय एवं वृद्धिसे रहित, आदि मध्य और अन्तसे विहीन था ॥ ४८ ॥ अनौपम्यमनिर्देश्यमव्यक्तं विश्वसम्भवम् ।
तस्य ज्वालासहस्रेण मोहितो भगवान्हरिः ॥ ४९ ॥ वह उपमारहित, अनिर्देश्य, बिना किसीके द्वारा उपस्थापित, अव्यक्त और विश्वसर्जक था । उस लिंगकी सहल ज्वालाओंके समूहको देखनेमात्रसे ही भगवान् विष्णु मोहित हो उठे । ४९ ॥ मोहितं चाह मामत्र किमर्थं स्पर्द्धसेऽधुना ।
आगतस्तु तृतीयोऽत्र तिष्ठतां युद्धमावयोः ॥ ५० ॥ शिवकी मायासे मोहित मुझसे वे कहने लगे कि इस समय मुझसे तुम इतनी स्पर्धा क्यों कर रहे हो ? हम दोनोंके मध्य तो एक तीसरा भी आ गया है, इसलिये युद्ध रोक दिया जाय ॥ ५० ॥ कुत एवात्र सम्भूतः परीक्षावोऽग्निसम्भवम् ।
अधो गमिष्याम्यनलस्तम्भस्यानुपमस्य च ॥ ५१ ॥ परीक्षार्थं प्रजानाथ तस्य वै वायुवेगतः । भवानूर्ध्वं प्रयत्नेन गन्तुमर्हति सत्वरम् ॥ ५२ ॥ हम दोनों इस अग्निसे उत्पन्न लिंगकी परीक्षा करें कि यह कहाँसे प्रकट हुआ है । मैं इस अनुपम अग्निस्तम्भके नीचे जाऊँगा और हे प्रजानाथ ! आप इसकी परीक्षा करनेके लिये वायुवेगसे प्रयत्नपूर्वक शीघ्र ऊपरकी ओर जायें ॥ ५१-५२ ॥ ब्रह्मोवाच
एवं व्याहृत्य विश्वात्मा स्वरूपमकरोत्तदा । वाराहमहप्याशु हंसत्वं प्राप्तवान्मुने ॥ ५३ ॥ ब्रह्माजी बोले-तब ऐसा कहकर विश्वात्मा भगवान् विष्णुने वाराहका रूप धारण किया और हे मुने ! मैंने भी शीघ्र हंसका रूप बना लिया ॥ ५३ ॥ तदा प्रभृति मामाहुर्हंसहंसो विराडिति ।
हंसहंसेति यो ब्रूयात्स हंसोऽथ भविष्यति ॥ ५४ ॥ उसी समयसे लोग मुझे हंस-हंस और विराट् ऐसा कहने लगे । जो 'हंस हंस' यह कहकर मेरे नामका जप करता है, वह हंसस्वरूप ही हो जाता है ॥ ५४ ॥ सुश्वेतो ह्यनलप्रख्यो विश्वतः पक्षसंयुतः ।
मनोनिलजवो भूत्वा गत्वोर्ध्वं चोर्ध्वतः पुरा ॥ ५५ ॥ अत्यन्त श्वेत, अग्निके समान, चारों ओरसे पंखोंसे युक्त और मन तथा वायुके वेगवाला होकर मैं ऊपरके भी ऊपर लिंगका पता लगाते हुए चला गया ॥ ५५ ॥ नारायणोऽपि विश्वात्मा सुश्वेतो ह्यभवत्तदा ।
दश योजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम् ॥ ५६ ॥ मेरुपर्वतवर्ष्माणं गौरतीक्ष्णोग्रदंष्ट्रिणम् । कालादित्यसमाभासं दीर्घघोणं महास्वनम् ॥ ५७ ॥ ह्रस्वपादं विचित्राङ्गं जैत्रं दृढमनौपमम् । वाराहाकारमास्थाय गतवांस्तदधौ जवात् ॥ ५८ ॥ उसी समय विश्वात्मा नारायणने भी अत्यन्त श्वेत स्वरूप धारण किया । दस योजन चौड़े, सौ योजन लम्बे मेरुपर्वतके समान शरीरवाले, श्वेत तथा अत्यन्त तेज दाढ़ोंसे युक्त, प्रलयकालीन सूर्यके समान कान्तिमान, दीर्घ नासिकासे सुशोभित, भयंकर [धुरैघुर्रकी] ध्वनि करनेवाले, छोटे-छोटे पैरोंसे युक्त, विचित्र अंगोंवाले, विजय प्राप्त करनेकी इच्छासे परिपूर्ण, दृढ़ तथा अनुपम वाराहका स्वरूप धारण करके वे भगवान् विष्णु भी अत्यन्त वेगसे उसके नीचेकी ओर गये ॥ ५६-५८ ॥ एवं वर्षसहस्रं च चरन्विष्णुरधो गतः ।
तथाप्रभृति लोकेषु श्वेतवाराहसञ्ज्ञकः ॥ ५९ ॥ कल्पो बभूव देवर्षे नराणां कालसञ्ज्ञकः । इस प्रकार रूप धारणकर भगवान् विष्णु एक हजार वर्षतक नीचेकी ओर ही चलते रहे । उसी समयसे [पृथिवी आदि] लोकोंमें श्वेतवाराह नामक कल्पका प्रादुर्भाव हुआ । हे देवर्षे यह मनुष्योंकी कालगणनाकी अवधि है । ५९ १/२ ॥ बभ्राम बहुधा विष्णुः प्रभविष्णुरधोगतः ॥ ६० ॥
नापश्यदल्पमप्यस्य मूलं लिङ्गस्य सूकरः । इधर [अत्यन्त तीब्र गतिसे] नीचेकी ओरसे जाते हुए महातेजस्वी विष्णु बहुत प्रकारसे भ्रमण करते रहे, किंतु महावाराहरूपधारी विष्णु उस ज्योतिर्लिंगके मूलका अल्प भाग भी न देख सके ॥ ६० १/२ ॥ तावत्कालं गतश्चोर्ध्वमहमप्यरिसूदन ॥ ६१ ॥
सत्वरं सर्वयत्नेन तस्यान्तं ज्ञातुमिच्छया । श्रान्तो न दृष्ट्वा तस्यान्तमहं कालादधोगतः ॥ ६२ ॥ हे अरिसूदन ! तबतक मैं भी उस ज्योतिलिंगके अन्तका पता लगानेके लिये वेगसे ऊपरकी ओर जाता रहा । यत्नपूर्वक उस ज्योतिर्लिंगके अन्तको जाननेका इच्छुक मैं अत्यन्त परिश्रमके कारण थक गया और उसका अन्त बिना देखे ही थोड़े समयमें नीचेकी ओर लौट पड़ा ॥ ६१-६२ ॥ तथैव भगवान्विष्णुः श्रान्तं कमललोचनः ।
सर्वदेवनिभस्तूर्णमुत्थितःस महावपुः ॥ ६३ ॥ उसी प्रकार सर्वदेवस्वरूप, महाकाय, कमललोचन, भगवान् विष्णु भी थकानके कारण ज्योतिर्लिंगका अन्त देखे बिना ही ऊपर निकल आये ॥ ६३ ॥ समागतो मया सार्द्धं प्रणिपत्य भवं मुहुः ।
मायया मोहितश्शम्भोस्तस्थौ संविग्नमानसः ॥ ६४ ॥ शिवको मायासे विमोहित विष्णु आकर मेरे साथ ही भगवान् शिवको बार-बार प्रणाम करके व्याकुल चित्तसे वहाँ खड़े रहे । ६४ ॥ पृष्ठतः पार्श्वतश्चैव ह्यग्रतः परमेश्वरम् ।
प्रणिपत्य मया सार्द्धं सस्मार किमिदं त्विति ॥ ६५ ॥ पृष्ठ प्रदेशकी ओरसे, पाश्वौकी ओर और आगेकी ओरसे परमेश्वर शिवको मेरे साथ ही प्रणाम करके विष्णु भी सोचने लगे कि यह क्या है ? ॥ ६५ ॥ अनिर्देश्यं च तद्रूपमनामकर्मवर्जितम् ।
अलिङ्गं लिङ्गतां प्राप्तं ध्यानमार्गेऽप्यगोचरम् ॥ ६६ ॥ स्वस्थं चित्तं तदा कृत्वा नमस्कारपरायणो । बभूवतुरुभावावामहं हरिरपि ध्रुवम् ॥ ६७ ॥ जानीवो न हि ते रूपं योऽसि योऽसि महाप्रभो । नमोऽस्तु ते महेशान रूपं दर्शय नौ त्वरम् ॥ ६८ ॥ वह रूप तो अनिर्देश्य, नाम तथा कर्मसे रहित, अलिंग होते हुए भी लिंगताको प्राप्त और ध्यानमार्गसे अगम्य था । तदनन्तर अपने मनको शान्त करके मैं और विष्णु दोनों शिवको बार बार प्रणामकर कहने लगे-हे महाप्रभो ! हम आपके स्वरूपको नहीं जानते । आप जो हैं, वही हैं, आपको हमारा नमस्कार है । हे महेशान ! आप शीघ्र ही हमें अपने स्वरूपका दर्शन करायें ॥ ६६-६८ ॥ एवं शरच्छतान्यासन्नमस्कारं प्रकुर्वतोः ।
आवयोर्मुनिशार्दूल मदमास्थितयोस्तदा ॥ ६९ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अहंकारसे आविष्ट हुए हम दोनोंको वहाँ नमस्कार करते हुए सैकड़ों वर्ष बीत गये ॥ ६९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
प्रथमखण्डे विष्णुब्रह्मविवादवर्णनोनाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि उपाख्यानका विष्णु-ब्रह्मा-विवाद वर्णन नामक सातवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |