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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे
अष्टमोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] शब्दब्रह्मतनुवर्णनम्
ब्रह्मा और विष्णुको भगवान् शिवके शब्दमय शरीरका दर्शन ब्रह्मोवाच
एवं तयोर्मुनिश्रेष्ठ दर्शनं काङ्क्षमाणयोः । विगर्वयोश्च सुरयोः सदा नौ स्थितयोर्मुने ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-मुनिश्रेष्ठ नारद ! इस प्रकार हम दोनों देवता गवरहित हो निरन्तर प्रणाम करते रहे । हम दोनोंके मनमें एक ही अभिलाषा थी कि इस ज्योतिर्लिंगके रूपमें प्रकट हुए परमेश्वर प्रत्यक्ष दर्शन दें ॥ १ ॥ दयालुरभवच्छम्भुर्दीनानां प्रतिपालकः ।
गर्विणां गर्वहर्ता च सर्वेषां प्रभुरव्ययः ॥ २ ॥ दीनोंके प्रतिपालक, अहंकारियोंका गर्व चूर्ण करनेवाले तथा सबके प्रभु अविनाशी शंकर हम दोनोंपर दयालु हो गये ॥ २ ॥ तदा समभवत्तत्र नादो वै शब्दलक्षणः ।
ओमोमिति सुरश्रेष्ठात्सुव्यक्तः प्लुतलक्षणः ॥ ३ ॥ उस समय वहाँ उन सुरश्रेष्ठसे ओम्-ओम् ऐसा शब्दरूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्टरूपसे प्नुत स्वरमें सुनायी दे रहा था ॥ ३ ॥ किमिदं त्विति सञ्चिन्त्य मया तिष्ठन्महास्वनः ।
विष्णुःसर्वसुराराध्यो निर्वैरस्तुष्टचेतसा ॥ ४ ॥ जोरसे प्रकट होनेवाले उस शब्दके विषयों 'यह क्या है'-ऐसा सोचते हुए समस्त देवताओंके आराध्य भगवान् विष्णु मेरे साथ सन्तुष्टचित्तसे खड़े रहे । वे सर्वथा वैरभावसे रहित थे ॥ ४ ॥ लिङ्गस्य दक्षिणे भागे तथापश्यत्सनातनम् ।
आद्यं वर्णमकाराख्यमुकारं चोत्तरं ततः ॥ ५ ॥ उन्होंने लिंगके दक्षिण भागमें सनातन आदिवर्ण अकारका दर्शन किया । तदनन्तर उत्तर भागमें उकारका, मध्यभागमें मकारका और अन्तमें 'ओम्' इस नादका साक्षात् दर्शन किया ॥ ५ ॥ मकारं मध्यतश्चैव नादमन्तेऽस्य चोमिति ।
सूर्यमण्डलवद्दृष्ट्वा वर्णमाद्यं तु दक्षिणे ॥ ६ ॥ उत्तरे पावकप्रख्यमुकारमृषिसत्तम । शीतांशुमण्डलप्रख्यं मकारं तस्य मध्यतः ॥ ७ ॥ हे ऋषिश्रेष्ठ ! दक्षिण भागमें प्रकट हुए आदिवर्ण अकारको सूर्य-मण्डलके समान तेजोमय देखकर उन्होंने उत्तर भागमें उकार वर्णको अग्निके समान देखा । हे मुनिश्रेष्ठ ! इसी तरह उन्होंने मध्यभागमें मकारको चन्द्रमण्डलके समान देखा ॥ ६-७ ॥ तस्योपरि तदाऽपश्यच्छुद्धस्फटिकसुप्रभम् ।
तुरीयातीतममलं निष्कलं निरुपद्रवम् ॥ ८ ॥ निर्द्वन्द्वं केवलं शून्यं बाह्याभ्यन्तरवर्जितम् । स बाह्याभ्यन्तरे चैव बाह्याभ्यन्तरसंस्थितम् ॥ ९ ॥ आदिमध्यान्तरहितमानन्दस्यापिकारणम् । सत्यमानन्दममृतं परं ब्रह्मपरायणम् ॥ १० ॥ तदनन्तर उसके ऊपर शुद्ध स्फटिक मणिके समान निर्मल प्रभासे युक्त, तुरीयातीत, अमल, निष्कल, निरुपद्रव, निर्द्वन्द्व, अद्वितीय, शून्यमय, बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे रहित, बाह्याभ्यन्तर-भेदसे युक्त, जगत्के भीतर और बाहर स्वयं ही स्थित, आदि, मध्य और अन्तसे रहित, आनन्दके आदिकारण तथा सबके परम आश्रय, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परब्रह्मका साक्षात्कार किया ॥ ८-१० ॥ कुत एवात्र सम्भूतः परीक्षावोऽग्निसम्भवम् ।
अधोगमिष्याम्यनलस्तम्भस्यानुपमस्य च ॥ ११ ॥ वेदशब्दोभयावेशं विश्वात्मानं व्यचिन्तयत् । तदाऽभवदृषिस्तत्र ऋषेःसारतमं स्मृतम् ॥ १२ ॥ [उस समय श्रीहरि यह सोचने लगे कि यह अग्निस्तम्भ यहाँ कहाँसे प्रकट हुआ है ? हम दोनों फिर इसकी परीक्षा करें । मैं इस अनुपम अग्निस्तम्भके नीचे जाऊँगा । ऐसा विचार करते हुए श्रीहरिने वेद और शब्द दोनोंके आवेशसे युक्त विश्वात्मा शिवका चिन्तन किया । तब वहाँ एक ऋषि प्रकट हुए, जो ऋषिसमूहके परम साररूप माने जाते हैं ॥ ११-१२ ॥ तेनैव ऋषिणा विष्णुर्ज्ञातवान्परमेश्वरः ।
महादेवं परं ब्रह्म शब्दब्रह्मतनुं परम् ॥ १३ ॥ उन्हीं ऋषिके द्वारा परमेश्वर श्रीविष्णुने जाना कि इस शब्दब्रह्ममय शरीरबाले परम लिंगके रूपमें साक्षात् परब्रह्मस्वरूप महादेवजी ही यहाँ प्रकट हुए हैं ॥ १३ ॥ चिन्तया रहितो रुद्रो वाचो यन्मनसा सह ।
अप्राप्य तन्निवर्तन्ते वाच्यस्त्वेकाक्षरेण सः ॥ १४ ॥ ये चिन्तारहित अथवा अचिन्त्य रुद्र हैं, जहाँ जाकर मनसहित वाणी उसे प्राप्त किये बिना ही लौट आती है, उस परब्रह्म परमात्मा शिवका वाचक एकाक्षर प्रणव ही है, वे इसके वाच्यार्थरूप हैं ॥ १४ ॥ एकाक्षरेण तद्वाक्यमृतं परमकारणम् ।
सत्यमानन्दममृतं परं ब्रह्म परात्परम् ॥ १५ ॥ उस परम कारण, ऋत, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परात्पर परब्रह्मको इस एकाक्षरके द्वारा ही जाना जा सकता है ॥ १५ ॥ एकाक्षरादुकाराख्याद्भगवान्बीजकोऽण्डजः ।
एकाक्षरादुकाराख्याद्धरिः परमकारणम् ॥ १६ ॥ एकाक्षरान्मकाराख्याद्भगवान्नीललोहितः । सर्गकर्ता त्वकाराख्यो ह्युकाराख्यस्तु मोहकः ॥ १७ ॥ मकाराख्यस्तु यो नित्यमनुग्रहकरोऽभवत् । मकाराख्यो विभुर्बीजी ह्यकारो बीज उच्यते ॥ १८ ॥ उकाराख्यो हरिर्योनिः प्रधानपुरुषेश्वरः । बीजी च बीजं तद्योनिर्नादाख्यश्च महेश्वरः ॥ १९ ॥ प्रणवके एक अक्षर अकारसे जगत्के बीजभूत अण्डजन्मा भगवान् ब्रह्माका बोध होता है । उसके दूसरे एक अक्षर उकारसे परमकारणरूप श्रीहरिका बोध होता है और तीसरे एक अक्षर मकारसे भगवान् नीललोहित शिवका ज्ञान होता है । अकार सृष्टिकर्ता है, उकार मोहमें डालनेवाला है और मकार नित्य अनुग्रह करनेवाला है । मकार-बोध्य सर्वव्यापी शिव बीजी [बीजमात्रके स्वामी] हैं और अकारसंज्ञक मुझ ब्रह्माको बीज कहा जाता है । उकारसंज्ञक श्रीहरि योनि हैं । प्रधान और पुरुषके भी ईश्वर जो महेश्वर हैं, वे बीजी, बीज और योनि भी हैं । उन्हींको नाद कहा गया है ॥ १६-१९ ॥ बीजी विभज्य चात्मानं स्वेच्छया तु व्यवस्थितः ।
अस्य लिङ्गादभूद्बीजमकारो बीजिनः प्रभोः ॥ २० ॥ बीजी अपनी इच्छासे ही अपने बीजको अनेक रूपोंमें विभक्त करके स्थित हैं । इन बीजी भगवान् महेश्वरके लिंगसे अकाररूप बीज प्रकट हुआ ॥ २० ॥ उकारयोनौ निःक्षिप्तमवर्द्धत समन्ततः ।
सौवर्णमभवच्चाण्डमावेद्य तदलक्षणम् ॥ २१ ॥ जो उकाररूप योनिमें स्थापित होकर सब ओर बढ़ने लगा, वह सुवर्णमय अण्डके रूपमें ही बतानेयोग्य था । उसका अन्य कोई विशेष लक्षण नहीं लक्षित होता था ॥ २१ ॥ अनेकाब्दं तथा चाप्सु दिव्यमण्डं व्यवस्थितम् ।
ततो वर्षसहस्रान्ते द्विधाकृतमजोद्भवम् ॥ २२ ॥ अण्डमप्सु स्थितं साक्षाद्व्याघातेनेश्वरेण तु । तथाऽस्य सुशुभं हैमं कपालं चोर्ध्वसंस्थितम् ॥ २३ ॥ वह दिव्य अण्ड अनेक वर्षांतक जलमें ही स्थित रहा । तदनन्तर एक हजार वर्षके बाद उस अण्डके दो टुकड़े हो गये । जलमें स्थित हुआ वह अण्ड अजन्मा ब्रह्माजीकी उत्पत्तिका स्थान था और साक्षात् महेश्वरके आघातसे ही फूटकर दो भागोंमें बँट गया था । उस अवस्थामें ऊपर स्थित हुआ उसका सुवर्णमय कपाल बड़ी शोभा पाने लगा ॥ २२-२३ ॥ जज्ञे सा द्यौस्तदपरं पृथिवी पञ्चलक्षणा ।
तस्मादण्डाद्भवो जज्ञे ककाराख्यश्चतुर्मुखः ॥ २४ ॥ वही बुलोकके रूपमें प्रकट हुआ तथा जो उसका दूसरा नीचेवाला कपाल था, वही यह पाँच लक्षणोंसे युक्त पृथिवी है । उस अण्डसे चतुर्भुज ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनकी 'क' संज्ञा है ॥ २४ ॥ स स्रष्टा सर्वलोकानां स एव त्रिविधः प्रभुः ।
एवमोमोमिति प्रोक्तमित्याहुर्यजुषां वराः ॥ २५ ॥ वे समस्त लोकोंके स्रष्टा हैं । इस प्रकार वे भगवान् महेश्वर ही 'अ', 'उ' और 'म्'-इन त्रिविध रूपोंमें वर्णित हुए हैं । इसी अभिप्रायसे उन ज्योतिर्लिंगस्वरूप सदाशिवने 'ओम्', 'ओम्'-ऐसा कहा-यह बात यजुर्वेदके श्रेष्ठ मन्त्र कहते हैं ॥ २५ ॥ यजुषां वचनं श्रुत्वा ऋचः समानि सादरम् ।
एवमेव हरे ब्रह्मन्नित्याहुश्चावयोस्तदा ॥ २६ ॥ यजुर्वेदके श्रेष्ठ मन्त्रोंका यह कथन सुनकर ऋचाओं और साममन्त्रोंने भी हमसे आदरपूर्वक यह कहा-हे हरे ! हे ब्रह्मन् ! यह बात ऐसी ही है ॥ २६ ॥ ततो विज्ञाय देवेशं यथावच्छक्तिसम्भवैः ।
मन्त्रं महेश्वरं देवं तुष्टाव सुमहोदयम् ॥ २७ ॥ इस तरह देवेश्वर शिवको जानकर श्रीहरिने शक्तिसम्भूत मन्त्रोंद्वारा उत्तम एवं महान् अभ्युदयसे शोभित होनेवाले उन महेश्वर देवका स्तवन किया ॥ २७ ॥ एतस्मिन्नन्तरेऽन्यच्च रूपमद्भुतसुन्दरम् ।
ददर्श च मया सार्द्धं भगवान्विश्वपालकः ॥ २८ ॥ इसी बीचमें विश्वपालक भगवान् विष्णुने मेरे साथ एक और भी अद्भुत एवं सुन्दर रूपको देखा ॥ २८ ॥ पञ्चवक्त्रं दशभुजं गौरकर्पूरवन्मुने ।
नानाकान्तिसमायुक्तं नानाभूषणभूषितम् ॥ २९ ॥ हे मुने ! वह रूप पाँच मुखों और दस भुजाओंसे अलंकृत था । उसकी कान्ति कर्पूरके समान गौर थी । वह नाना प्रकारकी छटाओंसे और भाँति-भौतिके आभूषणोंसे विभूषित था ॥ २९ ॥ महोदारं महावीर्यं महापुरुषलक्षणम् ।
तं दृष्ट्वा परमं रूपं कृतार्थोऽभून्मया हरिः ॥ ३० ॥ उस परम उदार, महापराक्रमी और महापुरुषके लक्षणोंसे सम्पन्न अत्यन्त उत्कृष्ट रूपका दर्शन करके मेरे साथ श्रीहरि कृतार्थ हो गये ॥ ३० ॥ अथ प्रसन्नो भगवान्महेशः परमेश्वरः ।
दिव्यं शब्दमयं रूपमाख्याय प्रहसन्स्थितः ॥ ३१ ॥ तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् महेश प्रसन्न होकर अपने दिव्य शब्दमय रूपको प्रकट करके हँसते हुए खड़े हो गये ॥ ३१ ॥ अकारस्तस्य मूर्द्धा हि ललाटो दीर्घ उच्यते ।
इकारो दक्षिणं नेत्रमीकारो वामलोचनम् ॥ ३२ ॥ [हस्व] अकार उनका मस्तक और दीर्घ अकार ललाट है । इकार दाहिना नेत्र और इंकार बायाँ नेत्र है ॥ ३२ ॥ उकारो दक्षिणं श्रोत्रमूकारो वाम उच्यते ।
ऋकारो दक्षिणं तस्य कपोलं परमेष्ठिनः ॥ ३३ ॥ वामं कपोलमूकारो लृ लॄ नासापुटे उभे । एकारश्चोष्ठ ऊर्ध्वश्च ह्यैकारस्त्वधरो विभोः ॥ ३४ ॥ उकारको उनका दाहिना और ऊकारको बायाँ कान बताया जाता है । ऋकार उन परमेश्वरका दायाँ कपोल है और ऋकार उनका बायाँ कपोल है । लू और -ये उनकी नासिकाके दोनों छिद्र हैं । एकार उन सर्वव्यापी प्रभुका ऊपरी ओष्ठ है और ऐकार अधर है ॥ ३३-३४ ॥ ओकारश्च तथौकारो दन्तपङ्क्तिद्वयं क्रमात् ।
अमस्तु तालुनी तस्य देवदेवस्य शूलिनः ॥ ३५ ॥ ओकार तथा औकार-ये दोनों क्रमशः उनकी ऊपर और नीचेकी दो दंतपंक्तियाँ हैं । अं और अ: उन देवाधिदेव शूलधारी शिवके दोनों तालु हैं ॥ ३५ ॥ कादिपञ्चाक्षराण्यस्य पञ्च हस्ताश्च दक्षिणे ।
चादिपञ्चाक्षराण्येवं पञ्च हस्तास्तु वामतः ॥ ३६ ॥ क आदि पाँच अक्षर उनके दाहिने पाँच हाथ हैं और च आदि पाँच अक्षर बायें पाँच हाथ हैं ॥ ३६ ॥ टादिपञ्चाक्षरं पादास्तादिपञ्चाक्षरं तथा ।
पकार उदरं तस्य फकारः पार्श्व उच्यते ॥ ३७ ॥ बकारो वामपार्श्वस्तु भकारः स्कन्ध उच्यते । मकारो हृदयं शम्भोर्महादेवस्य योगिनः ॥ ३८ ॥ ट आदि और त आदि पाँच-पाँच अक्षर उनके पैर हैं । पकार पेट है ॥ फकारको दाहिना पार्श्व बाताया जाता है और बकारको बायाँ पार्श्व । भकारको कंधा कहा जाता है । मकार उन योगी महादेव शम्भुका हदय है ॥ ३७-३८ ॥ यकारादिसकारान्ता विभोर्वै सप्तधातवः ।
हकारो नाभिरूपो हि क्षकारो घ्राण उच्यते ॥ ३९ ॥ यसे लेकर स तक [य, र, ल, व, श, ष तथा स-ये सात अक्षर] सर्वव्यापी शिवकी सात धातुएँ हैं । हकारको उनकी नाभि और क्षकारको नासिका कहा जाता है ॥ ३९ ॥ एवं शब्दमयं रूपमगुणस्य गुणात्मनः ।
दृष्ट्वा तमुमया सार्द्धं कृतार्थोऽभून्मया हरिः ॥ ४० ॥ इस प्रकार निर्गुण एवं गुण-स्वरूप परमात्माके शब्दमय रूपको भगवती उमासहित देखकर श्रीहरि मेरे साथ कृतार्थ हो गये ॥ ४० ॥ एवं दृष्ट्वा महेशानं शब्दब्रह्मतनुं शिवम् ।
प्रणम्य च मया विष्णुः पुनश्चापश्यदूर्ध्वतः ॥ ४१ ॥ इस प्रकार शब्द ब्रह्ममय-शरीरधारी महेश्वर शिवका दर्शन पाकर मेरे साथ श्रीहरिने उन्हें प्रणाम करके पुनः ऊपरकी ओर देखा ॥ ४१ ॥ ॐकारप्रभवं मन्त्रं कलापञ्चकसंयुतम् ।
शुद्धस्फटिकसङ्काशं शुभाष्टत्रिंशदक्षरः ॥ ४२ ॥ उस समय उन्हें पाँच कलाओंसे युक्त, ओंकारजनित, शुद्ध स्फटिक मणिके समान सुन्दर, अड़तीस अक्षरोंवाले मन्त्रका साक्षात्कार हुआ ॥ ४२ ॥ मेधाकरो ह्यभूद्भूयः सर्वधर्मार्थसाधकम् ।
गायत्रीप्रभवं मन्त्रं सुहितो वश्यकारकः ॥ ४३ ॥ चतुर्विंशतिवर्णाढ्यश्चतुष्कालमनुत्तमः । अथ पञ्चसितं मन्त्रं कलाष्टकसमायुतः ॥ ४४ ॥ पुनः सम्पूर्ण धर्म तथा अर्थका साधक, बुद्धिस्वरूप, अत्यन्त हितकारक और सबको वशमें करनेवाला गायत्री नामक महान् मन्त्र लक्षित हुआ । वह चौबीस अक्षरों तथा चार कलाओंसे युक्त श्रेष्ठ मन्त्र है । पंचाक्षरमन्त्र (नमः शिवाय) आठ कलाओंसे युक्त है ॥ ४३-४४ ॥ आभिचारिककामार्थे प्रायस्त्रिंशच्छुभाक्षरः ।
यजुर्वेदसमायुक्तः पञ्चविंशच्छुभाक्षरः ॥ ४५ ॥ अभिचारसिद्धिके लिये प्रयोग किया जानेवाला मन्त्र तीस अक्षरोंसे सम्पन्न है, किंतु बजुर्वेदमें प्रयुक्त मन्त्र पच्चीस सुन्दर अक्षरोंका ही है ॥ ४५ ॥ कलाष्टकसमायुक्तः सुश्वेतः शान्तिकस्तथा ।
त्रयोदशकलायुक्तो बालादीनां सदा हितः ॥ ४६ ॥ बभूवायं सदोत्पत्तिवृद्धिसंहारकारिणी । वर्णा एकाधिकाः षष्टिरस्य मन्त्रवरस्य तु ॥ ४७ ॥ यह आठ कलाओंसे युक्त तथा सुश्वेत मन्त्र है, जिसका प्रयोग शान्तिकर्मकी सिद्धिके लिये किया जाता है । इस मन्त्रके अतिरिक्त तेरह कलाओंसे युक्त जो श्रेष्ठ मन्त्र है, वह बाल, युवा और वृद्ध आदि अवस्थाओंमें आनेवाले क्रमके अनुसार उत्पत्ति, पालन तथा संहारका कारणरूप है । इसमें इकसठ वर्ण होते हैं ॥ ४६-४७ ॥ पुनर्मृत्युञ्जयो मन्त्रस्ततः पञ्चाक्षरो मतः ।
चिन्तामणिस्तथा मन्त्रो दक्षिणामूर्तिसञ्ज्ञकः ॥ ४८ ॥ इसके पश्चात् विष्णुने मृत्युंजयमन्त्र, पंचाक्षरमन्त्र, चिन्तामणिमन्त्र तथा दक्षिणामूर्तिमन्त्र' को देखा ॥ ४८ ॥ ततस्तत्त्वमसीत्युक्तं महावाक्यं हरस्य च ।
पञ्चमन्त्रांस्तथा लब्ध्वा जजाप भगवान्हरिः ॥ ४९ ॥ इसके बाद भगवान् विष्णुने शंकरको 'तत्त्वमसिवही तुम हो'-यह महावाक्य कहा । इस प्रकार उक्त पंचमन्त्रोंको प्राप्त करके वे भगवान् श्रीहरि उनका जप करने लगे ॥ ४९ ॥ अथ दृष्ट्वा कलावर्णमृग्यजुः सामरूपिणम् ।
ईशानमीशमुकुटं पुरुषाख्यं पुरातनम् ॥ ५० ॥ अघोरहृदयं हृद्यं सर्वगुह्यं सदाशिवम् । वामपादं महादेवं महाभोगीन्द्रभूषणम् ॥ ५१ ॥ विश्वतः पादवन्तं तं विश्वतोक्षिकरं शिवम् । ब्रह्मणोऽधिपतिं सर्गस्थितिसंहारकारणम् ॥ ५२ ॥ तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः साम्बं वरदमीश्वरम् । मया च सहितो विष्णुर्भगवांस्तुष्टचेतसा ॥ ५३ ॥ इसके पश्चात् ऋक्, यजुः, सामरूप वर्णोकी कलाओंसे युक्त, ईशान, ईशोंके मुकुट, पुरातन, पुरुष, अधोरहदय, मनोहर, सर्वगुहा, सदाशिव, ताण्डव नृत्यादि कालोंमें वामपादपर अवस्थित रहनेवाले, महादेव, महान् सर्पराजको आभूषणके रूपमें धारण करनेवाले, चारों ओर चरण और नेत्रवाले, कल्याणकारी, ब्रह्माके अधिपति, सृष्टि स्थिति-संहारके कारणभूत, वरदायक साम्बमहेश्वरको देखकर भगवान् विष्णु प्रसन्न मनसे प्रिय वचनोंद्वारा मेरे साथ उनकी स्तुति करने लगे ॥ ५०-५३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे
सृष्ट्युपाख्याने शब्दब्रह्मतनुवर्णनो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि उपाख्यान में शब्दब्रह्म-तनु-वर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |