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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे

पञ्चदशोऽध्यायः ॥

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रुद्रावताराविर्भाववर्णनम्
सृष्टिका वर्णन


नारद उवाच
विधे विधे महाभाग धन्यस्त्वं सुरसत्तम ।
श्राविताऽद्याद्‌भुता शैवी कथा परमपावनी ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे महाभाग ! हे विधे । हे देवश्रेष्ठ । आप धन्य हैं । आपने आज यह शिवकी परमपावनी अद्‌भुत कथा सुनायी ॥ १ ॥

तत्राद्‌भुता महादिव्या लिङ्‌गोत्पत्तिः श्रुता शुभा ।
श्रुत्वा यस्याः प्रभावं च दुःखनाशो भवेदिह ॥ २ ॥
- इसमें सदाशिवकी लिंगोत्पत्तिकी जो कथा हमने सुनी है, वह महादिव्य, कल्याणकारी और अद्‌भुत है; जिसके प्रभावमात्रको ही सुनकर दुःख नष्ट हो जाते हैं ॥ २ ॥

अनन्तरं च यज्जातं माहात्म्यं चरितं तथा ।
सृष्टेश्चैव प्रकारं च कथय त्वं विशेषतः ॥ ३ ॥
इस कथाके पश्चात् जो हुआ, उसका माहात्म्य और उसके चरित्रका वर्णन करें । यह सृष्टि किस प्रकारसे हुई, इसका भी आप विशेष रूपसे वर्णन करें ? ॥ ३ ॥

ब्रह्मोवाच
सम्यक् पृष्टे च भवता यज्जातं तदनन्तरम् ।
कथयिष्यामि सङ्‌क्षेपाद्यथा पूर्वं श्रुतं मया ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-आपने यह उचित ही पूछा है । तदनन्तर जो हुआ और मैंने जैसा पहले सुना है, वैसा ही मैं संक्षेपमें कहूँगा ॥ ४ ॥

अन्तर्हिते तदा देवे शिवरूपे सनातने ।
अहं विष्णुश्च विप्रेन्द्र अधिकं सुखमाप्तवान् ॥ ५ ॥
हे विप्रेन्द्र ! जब सनातनदेव शिव अपने स्वरूप में अन्तर्धान हो गये, तब मैंने और भगवान् विष्णुने महान् सुखकी अनुभूति की ॥ ५ ॥

मया च विष्णुना रूपं हंसवाराहयोस्तदा ।
संवृतं तु ततस्ताभ्यां लोकसर्गावनेच्छया ॥ ६ ॥
तदनन्तर हम दोनों-ब्रह्मा और विष्णुने अपनेअपने हंस और वाराहरूपका परित्याग किया । सृष्टिसंरचना और उसके पालनकी इच्छासे हमदोनों उस शिवकी मायाके दोनों प्रकारोंसे घिर गये ॥ ६ ॥

नारद उवाच
विधे ब्रह्मन् महाप्राज्ञ संशयो हृदि मे महान् ।
कृपां कृत्वाऽतुलां शीघ्रं तं नाशयितुमर्हसि ॥ ७ ॥
नारदजी बोले-हे विधे ! हे महाप्राज्ञ ब्रह्मन् । मेरे हृदयमें महान् सन्देह है । अतुलनीय कृपा करके शीघ्र ही उसको नष्ट करें ॥ ७ ॥

हंसवाराहयो रूपं युवाभ्यां च धृतं कथम् ।
अन्यद्‌रूपं विहायैव किमत्र वद कारणम् ॥ ८ ॥
अन्य रूपोंको छोडकर आप दोनोंने हंस और वाराहका ही रूप क्यों धारण किया, इसका क्या कारण है ? बताइये ॥ ८ ॥

सूत उवाच
इत्येतद्वचनं श्रुत्वा नारदस्य महात्मनः ।
स्मृत्वा शिवपदाम्भोजं ब्रह्मा सादरमब्रवीत् ॥ ९ ॥
सूतजी बोले-महात्मा नारदजीका यह वचन सुनकर ब्रह्माने शिवके चरणारविन्दोंका स्मरण करके आदरपूर्वक यह कहना प्रारम्भ किया ॥ ९ ॥

ब्रह्मोवाच
हंसस्य चोर्ध्वगमने गतिर्भवति निश्चला ।
तत्त्वातत्त्वविवेकोऽस्ति जलदुग्धविभागवत् ॥ १० ॥
ब्रह्माजी बोले-हंसकी निश्चल गति ऊपरकी ओर गमन करनेमें ही होती है । जल और दूधको पृथक् पृथक् करनेके समान तत्त्व और आतत्त्वको भी जाननेमें वह समर्थ होता है ॥ १० ॥

अज्ञानज्ञानयोस्तत्त्वं विवेचयति हंसकः ।
हंसरूपं धृतं तेन ब्रह्मणा सृष्टिकारिणा ॥ ११ ॥
अज्ञान एवं ज्ञानके तत्त्वका विवेचन हंस ही कर सकता है । इसलिये सृष्टिकर्ता मुझ ब्रह्माने हंसका रूप धारण किया ॥ ११ ॥

विवेको नैव लब्धश्च यतो हंसो व्यलीयत ।
शिवस्वरूपतत्त्वस्य ज्योतिरूपस्य नारद ॥ १२ ॥
हे नारद ! प्रकाश-स्वरूप शिवतत्त्वका विवेक वह हंसरूप प्राप्त न कर सका, अतः उसे छोड़ देना पड़ा ॥ १२ ॥

सृष्टिप्रवृत्तिकामस्य कथं ज्ञानं प्रजायते ।
यतो लब्धो विवेकोऽपि न मया हंसरूपिणा ॥ १३ ॥
सृष्टिसंरचनाके लिये तत्पर प्रवृत्तिको ज्ञानकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? जब हंसरूपमें मैं नहीं जान सका, तो मैंने उस रूपको छोड़ दिया ॥ १३ ॥

गमनेऽधो वराहस्य गतिर्भवति निश्चला ।
धृतं वाराहरूपं हि विष्णुना वनचारिणा ॥ १४ ॥
नीचेकी ओर जानेमें वाराहकी निश्चल गति होती है, इसलिये विष्णुने उस सदाशिवके अद्‌भुत लिंगके मूलभागमें पहुँचनेकी इच्छासे वाराहका ही रूप धारण किया ॥ १४ ॥

अथवा भवकल्पार्थं तद्‌रूपं हि प्रकल्पितम् ।
विष्णुना च वराहस्य भुवनावनकारिणा ॥ १५ ॥
अथवा संसारका पालन करनेवाले विष्णुने जगत्में वाराहकल्पको बनानेके लिये उस रूपको धारण किया ॥ १५ ॥

यद्दिनं हि समारभ्य तद्‌रूपं धृतवान्हरिः ।
तद्दिनं प्रति कल्पोऽसौ कल्पो वाराहसञ्ज्ञकः ॥ १६ ॥
जिस दिन भगवान्ने उस रूपको धारण किया, उसी दिनसे वह [श्वेत] वाराह-संज्ञक-कल्प प्रारम्भ हुआ था ॥ १६ ॥

तदिच्छा वा यदा जाता तस्य रूपस्य धारणे ।
तद्दिनं प्रतिकल्पोऽसौ कल्पो वाराहसञ्ज्ञकः ॥ १७ ॥
अथवा उन महेश्वरकी जब यह इच्छा हुई कि विवादमें फँसे हम दोनोंके द्वारा हंस और वाराहका रूप धारण किया जाय, उसी दिनसे उस वाराह नामके कल्पका भी प्रादुर्भाव हुआ ॥ १७ ॥

इति प्रश्नोत्तरं दत्तं प्रस्तुतं शृणु नारद ।
स्मृत्वा शिवपदाम्भोजं वक्ष्ये सृष्टिविधिं मुने ॥ १८ ॥
हे नारद ! सुनिये । मैंने इस प्रकारसे तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर प्रस्तुत कर दिया है । हे मुने ! अब सदाशिवके चरणकमलका स्मरण करके मैं सृष्टिसृजनकी विधि बता रहा हूँ ॥ १८ ॥

अन्तर्हिते महादेवे त्वहं लोकपितामहः ।
तदीयं वचनं कर्तुमध्यायन्ध्यानतत्परः ॥ १९ ॥
[ब्रह्माजी बोले-हे मुने !] जब महादेवजी अन्तर्धान हो गये, तब मैं उनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये ध्यानमग्न हो कर्तव्यका विचार करने लगा ॥ १९ ॥

नमस्कृत्य तदा शम्भुं ज्ञानं प्राप्य हरेस्तदा ।
आनन्दं परमं गत्वा सृष्टिं कर्तुं मनो दधे ॥ २० ॥
विष्णुश्चापि तदा तत्र प्रणिपत्य सदाशिवम् ।
उपदिश्य च मां तात ह्यन्तर्धानमुपागतः ॥ २१ ॥
उस समय भगवान शंकरको नमस्कार करके श्रीहरिसे ज्ञान पाकर, परमानन्दको प्राप्त होकर मैंने सृष्टि करनेका हौ निश्चय किया । हे तात ! भगवान् विष्णु भी वहाँ सदाशिवको प्रणाम करके मुझे उपदेश देकर तत्काल अदृश्य हो गये ॥ २०-२१ ॥

ब्रह्माण्डाच्च बहिर्गत्वा प्राप्य शम्भोरनुग्रहम् ।
वैकुण्ठनगरं गत्वा तत्रोवास हरिः सदा ॥ २२ ॥
वे ब्रह्माण्डसे बाहर जाकर भगवान् शिवकी कृपा प्राप्त करके वैकुण्ठधाममें पहुँचकर सदा वहीं रहने लगे ॥ २२ ॥

अहं स्मृत्वा शिवं तत्र विष्णुं वै सृष्टिकाम्यया ।
पूर्वं सृष्टं जलं यच्च तत्राञ्जलिमुदाक्षिपम् ॥ २३ ॥
मैंने सृष्टिकी इच्छासे भगवान् शिव और विष्णुका स्मरण करके पहलेके रचे हुए जलमें अपनी अंजलि डालकर जलको ऊपरकी ओर उछाला ॥ २३ ॥

अतोऽण्डमभवत्तत्र चतुर्विंशतिसञ्ज्ञकम् ।
विराड्‌रूपमभूद्विप्र जलरूपमपश्यतः ॥ २४ ॥
इससे वहाँ चौबीस तत्त्वोंवाला एक अण्ड प्रकट हुआ । हे विप्र ! उस जलरूप अण्डको मैं देख भी न सका, इतनेमें वह विराट् आकारवाला हो गया ॥ २४ ॥

ततः संशयमापन्नस्तपस्तेपे सुदारुणम् ।
द्वादशाब्दमहं तत्र विष्णुध्यानपरायणः ॥ २५ ॥
(उसमें चेतनता न देखकर] मुझे बड़ा संशय हुआ और मैं अत्यन्त कठोर तप करने लगा । बारह वर्षातक मैं भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगा रहा ॥ २५ ॥

तस्मिंश्च समये तात प्रादुर्भूतो हरिः स्वयम् ।
मामुवाच महाप्रीत्या मदङ्‌गं संस्पृशन्मुदा ॥ २६ ॥
हे तात ! उस समयके पूर्ण होनेपर भगवान् श्रीहरि स्वयं प्रकट हुए और बड़े प्रेमसे मेरे अंगोंका स्पर्श करते हुए मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे- ॥ २६ ॥

विष्णुरुवाच
वरं ब्रूहि प्रसन्नोऽस्मि नादेयो विद्यते तव ।
ब्रह्मञ्छम्भुप्रसादेन सर्वं दातुं समर्थकः ॥ २७ ॥
विष्णु बोले-हे ब्रह्मन् ! आप वर मागिये । मैं प्रसन्न हूँ । मुझे आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है । भगवान् शिवकी कृपासे मैं सब कुछ देनेमें समर्थ हूँ ॥ २७ ॥

ब्रह्मोवाच
युक्तमेतन्महाभाग दत्तोऽहं शम्भुना च ते ।
तदुक्तं याचते मेऽद्य देहि विष्णो नमोऽस्तु ते ॥ २८ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे महाभाग ! आपनो जो मुझपर कृपा की है, वह सर्वथा उचित ही है; क्योंकि भगवान् शंकरने मुझे आपके हाथोंमें सौंप दिया था । हे विष्णो ! आपको नमस्कार है, आज मैं आपसे जो कुछ माँगता हूँ, उसे दीजिये ॥ २८ ॥

विराड्‌रूपमिदं ह्यण्डं चतुर्विंशतिसञ्ज्ञकम् ।
न चैतन्यं भवत्यादौ जडीभूतं प्रदृश्यते ॥ २९ ॥
हे प्रभो ! यह विराट्रप तथा चौबीस तत्त्वोंसे बना हुआ अण्ड किसी तरह चेतन नहीं हो रहा है, यह जड़ीभूत दिखायी देता है ॥ २९ ॥

प्रादुर्भूतो भवानद्य शिवानुग्रहतो हरे ।
प्राप्तं शङ्‌करसम्भूत्या ह्यण्डं चैतन्यमावह ॥ ३० ॥
हेहरे ! इस समय भगवान् शिवकी कृपासे आप यहाँ प्रकट हुए हैं । अत: शंकरकी शक्तिसे सम्भूत इस अण्डमें चेतनता लाइये ॥ ३० ॥

इत्युक्ते च महाविष्णुः शम्भोराज्ञापरायणः ।
अनन्तरूपमास्थाय प्रविवेश तदण्डकम् ॥ ३१ ॥
मेरे ऐसा कहनेपर शिवकी आज्ञामें तत्पर रहनेवाले महाविष्णुने अनन्तरूपका आश्रय लेकर उस अण्डमें प्रवेश किया ॥ ३१ ॥

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं सर्वतः स्पृक्त्वा तदण्डं व्याप्तवानिति ॥ ३२ ॥
उस समय उन परमपुरुषके सहनों मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों पैर थे । उन्होंने भूमिको सब ओरसे घेरकर उस अण्डको व्याप्त कर लिया ॥ ३२ ॥

प्रविष्टे विष्णुना तस्मिन्नण्डे सम्यक्स्तुतेन मे ।
सचेतनमभूदण्डं चतुर्विंशतिसञ्ज्ञकम् ॥ ३३ ॥
मेरे द्वारा भलीभाँति स्तुति किये जानेपर जब श्रीविष्णुने उस अण्डमें प्रवेश किया, तब वह चौबीस तत्त्वोंवाला अण्ड सचेतन हो गया ॥ ३३ ॥

पातालादि समारभ्य सप्तलोकाधिपः स्वयम् ।
राजते स्म हरिस्तत्र वैराजः पुरुषः प्रभुः ॥ ३४ ॥
पातालसे लेकर सत्यलोकतककी अवधिवाले उस अण्डके रूपमें वहाँ विराट् श्रीहरि ही विराज रहे थे ॥ ३४ ॥

कैलासनगरं रम्यं सर्वोपरि विराजितम् ।
निवासार्थं निजस्यैव पञ्चवक्त्रश्चकार ह ॥ ३५ ॥
पंचमुख महादेवने केवल अपने रहनेके लिये सुरम्य कैलास-नगरका निर्माण किया, जो सब लोकोंसे ऊपर सुशोभित होता है ॥ ३५ ॥

ब्रह्माण्डस्य तथा नाशे वैकुण्ठस्य च तस्य च ।
कदाचिदेव देवर्षे नाशो नास्ति तयोरिह ॥ ३६ ॥
हे देवर्षे ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका नाश हो जानेपर भी वैकुण्ठ और कैलास-उन दोनोंका कभी नाश नहीं होता ॥ ३६ ॥

सत्यं पदमुपाश्रित्य स्थितोऽहं मुनिसत्तम ।
सृष्टिकामोऽभवं तात महादेवाज्ञया ह्यहम् ॥ ३७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं सत्यलोकका आश्रय लेकर रहता हूँ । हे तात ! महादेवजीकी आज्ञासे ही मुझमें सृष्टि रचनेकी इच्छा उत्पन्न हुई है ॥ ३७ ॥

सिसृक्षोरथ मे प्रादुरभवत्पापसर्गकः।
अविद्यापञ्चकस्तात बुद्धिपूर्वस्तमोपमः । ३८ ॥
हे तात ! जब मैं सृष्टिकी इच्छासे चिन्तन करने लगा, उस समय पहले मुझसे पापपूर्ण तमोगुणी सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अविद्यापंचक (पंचपा अविद्या) कहते हैं ॥ ३८ ॥

ततः प्रसन्नचित्तोऽहमसृजं स्थावराभिधम् ।
मुख्यसर्गं च निःसङ्‌गमध्यायं शम्भुशासनात् ॥ ३९ ॥
उसके पश्चात् प्रसन्नचित्त मैंने स्थावरसंज्ञक मुख्य सर्ग (पहले सर्ग) की संरचना की, जो सृष्टिसामर्थ्यसे रहित था, पुनः शिवकी आज्ञासे मैंने ध्यान किया ॥ ३९ ॥

तं दृष्ट्‍वा मे सिसृक्षोश्च ज्ञात्वा साधकमात्मनः ।
सर्गोऽवर्तत दुःखाढ्यस्तिर्यक्स्रोता न साधकः ॥ ४० ॥
उस मुख्य सर्गको वैसा देखकर अपना कार्य साधनेके लिये सृष्टि करनेके इच्छुक मैंने दुःखसे परिपूर्ण तिर्यक्स्रोत [तिरछे उड़नेवाले] सर्ग (दूसरे सर्ग)-का सृजन किया, वह भी पुरुषार्थसाधक नहीं था ॥ ४० ॥

तं चासाधकमाज्ञाय पुनश्चिन्तयतश्च मे ।
अभवत्सात्त्विकः सर्ग ऊर्ध्वस्रोता इति द्रुतम् ॥ ४१ ॥
उसे भी पुरुषार्थसाधनकी शक्तिसे रहित जानकर जब मैं पुनः सृष्टिका चिन्तन करने लगा, तब मुझसे शीघ्र ही (तीसरे) सात्त्विक सर्गका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे ऊर्ध्वस्रोता कहते हैं ॥ ४१ ॥

देवसर्गः प्रतिख्यातःसत्योऽतीव सुखावहः ।
तमप्यसाधकं मत्वाऽचिन्तयं प्रभुमात्मनः ॥ ४२ ॥
यह देवसर्गके नामसे विख्यात हुआ । यह देवसर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुखदायक है । उसे भी पुरुषार्थसाधनसे रहित मानकर मैंने अन्य सर्गके लिये अपने स्वामी श्रीशिवका चिन्तन आरम्भ किया ॥ ४२ ॥

प्रादुरासीत्ततःसर्गो राजसः शङ्‌कराज्ञया ।
अवाक्स्रोता इति ख्यातो मानुषः परसाधकः ॥ ४३ ॥
तब भगवान् शंकरकी आज्ञासे एक रजोगुणी सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अर्वाकलोता (चौथा सर्ग) कहा गया है, जो मनुष्य-सर्ग कहलाता है, वह सर्ग पुरुषार्थसाधनका अधिकारी हुआ ॥ ४३ ॥

महादेवाज्ञया सर्गस्ततो भूतादिकोऽभवत् ।
इति पञ्चविधा सृष्टिः प्रवृत्ता वै कृता मया ॥ ४४ ॥
तदनन्तर महादेवजीकी आज्ञासे भूत आदिकी सृष्टि [भूतसर्ग-पाँचवाँ सर्ग] हुई । इस प्रकार मैंने पाँच प्रकारकी सृष्टि की ॥ ४४ ॥

त्रयःसर्गाः प्रकृत्याश्च ब्रह्मणः परिकीर्तिताः ।
तत्राद्यो महतः सर्गो द्वितीयः सूक्ष्मभौतिकः ॥ ४५ ॥
वैकारिकस्तृतीयश्च इत्येते प्रकृतास्त्रयः ।
एवं चाष्टविधाः सर्गाः प्रकृतेर्वेकृतैः सह ॥ ४६ ॥
इनके अतिरिक्त तीन प्रकारके सर्ग मुझ ब्रह्मा और प्रकृतिके सान्निध्यसे उत्पन्न हुए । इनमें पहला महत्तत्त्वका सर्ग है, दूसरा सूक्ष्म भूतों अर्थात् तन्मात्राओंका सर्ग और तीसरा वैकारिक सर्ग कहलाता है । इस तरह ये तीन प्राकृत सर्ग हैं । प्राकृत और वैकृत दोनों प्रकारके सौको मिलानेसे आठ सर्ग होते हैं ॥ ४५-४६ ॥

कौमारो नवमः प्रोक्तः प्राकृतो वैकृतश्च सः ।
एषामवान्तरो भेदो मया वक्तुं न शक्यते ॥ ४७ ॥
अल्पत्वादुपयोगस्य वच्मि सर्गं द्विजात्मकम् ।
कौमारः सनकादीनां यत्र सर्गो महानभूत् ॥ ४८ ॥
इनके अतिरिक्त नौवाँ कौमारसर्ग है, जो प्राकृत और वैकृत भी है । इन सबके अवान्तर भेद हैं, जिनका वर्णन मैं नहीं कर सकता । उसका उपयोगा बहुत थोड़ा है । अब मैं द्विजात्मक सर्गका वर्णन कह रहा हूँ । इसीका दूसरा नाम कौमारसर्ग है, जिसमें सनक-सनन्दन आदि कुमारोंकी महान् सृष्टि हुई है ॥ ४७-४८ ॥

सनकाद्याः सुता मे हि मानसा ब्रह्मसंमिताः ।
महावैराग्यसम्पन्ना अभवन्पञ्च सुव्रताः ॥ ४९ ॥
सनक आदि मेरे पाँच* मानसपुत्र हैं, जो मुझ ब्रह्माके ही समान हैं । वे महान् वैराग्यसे सम्पन्न तथा उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हुए ॥ ४९ ॥

मयाज्ञप्ता अपि च ते संसारविमुखा बुधाः ।
शिवध्यानैकमनसो न सृष्टौ चक्रिरे मतिम् ॥ ५० ॥
उनका मन सदा भगवान् शिवके चिन्तनमें ही लगा रहता है । वे संसारसे विमुख एवं ज्ञानी हैं । उन्होंने मेरे आदेश देनेपर भी सृष्टिके कार्य में मन नहीं लगाया ॥ ५० ॥

प्रत्युत्तरं च तैर्दत्तं श्रुत्वाऽहं मुनिसत्तम ।
अकार्षं क्रोधमत्युग्रं मोहमाप्तश्च नारद ॥ ५१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सनकादि कुमारोंके दिये हुए नकारात्मक उत्तरको सुनकर मैंने बड़ा भयंकर क्रोध प्रकट किया । किंतु हे नारद ! मुझे मोह हो गया ॥ ५१ ॥

कुद्धस्य मोहितस्याथ विह्वलस्य मुने मम ।
क्रोधेन खलु नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दवः ॥ ॥ ५२ ॥
हे मुने ! क्रोध और मोहसे विह्वल मुझ ब्रह्माके नेत्रोंसे क्रोधवश आँसूकी बूंदें गिरने लगीं ॥ ५२ ॥

तस्मिन्नवसरे तत्र स्मृतेन मनसा मया ।
प्रबोधितोहं त्वरितमागतेना हि विष्णुना ॥ ५३ ॥
उस अवसरपर मैंने मन-ही-मन भगवान् विष्णुका स्मरण किया । वे शीघ्र ही आ गये और समझाते हुए मुझसे कहने लगे- ॥ ५३ ॥

तपः कुरु शिवस्येति हरिणा शिक्षितोऽप्यहम् ।
तपोकारीमहद्घोरं परमं मुनिसत्तम ॥ ५४ ॥
आप भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये तपस्या कीजिये । हे मुनिश्रेष्ठ ! श्रीहरिने जब मुझे ऐसी शिक्षा दी, तब मैं महाघोर एवं उत्कृष्ट तप करने लगा ॥ ५४ ॥

तपस्यतश्च सृष्ट्यर्थं भ्रुवोर्घ्राणस्य मध्यतः ।
अविमुक्ताभिधाद्देशात्स्वकीयान्मे विशेषतः ॥ ५५ ॥
त्रिमूर्तीनां महेशस्य प्रादुरासीद्घृणानिधिः ।
अर्द्धनारीश्वरो भूत्वा पूर्णाशःसकलेश्वरः ॥ ५६ ॥
सृष्टिके लिये तपस्या करते हुए मेरी दोनों भौंहों और नासिकाके मध्यभागसे जो उनका अपना ही अविमुक्त नामक स्थान है, महेश्वरकी तीन मूर्तियोंमें अन्यतम, पूर्णाश, सर्वेश्वर एवं दयासागर भगवान् शिव अर्धनारीश्वररूपमें प्रकट हुए ॥ ५५-५६ ॥

तमजं शङ्‌करं साक्षात्तेजोराशिमुमापतिम् ।
सर्वज्ञं सर्वकर्तारं नीललोहितसञ्ज्ञकम् ॥ ५७ ॥
दृष्ट्‍वा नत्वा महाभक्त्या स्तुत्वाहं तु प्रहर्षितः ।
अवोचं देवदेवेशं सृज त्वं विविधाः प्रजाः ॥ ५८ ॥
जो जन्मसे रहित, तेजकी राशि, सर्वज्ञ तथा सर्वकर्ता हैं, उन नीललोहित-नामधारी भगवान् उमावल्लभको सामने देखकर बड़ी भक्तिसे मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करके मैं बड़ा प्रसन्न हुआ और उन देवदेवेश्वरसे बोला-हे प्रभो ! आप विविध जीवोंकी सृष्टि करें ॥ ५७-५८ ॥

श्रुत्वा मम वचःसोथ देवदेवो महेश्वरः ।
ससर्ज स्वात्मनस्तुल्यान्‌रुद्रो रुद्रगणान्बहून ॥ ५९ ॥
मेरी यह बात सुनकर उन देवाधिदेव महेश्वर रुद्रने अपने ही समान बहुत-से रुद्रगणोंकी सृष्टि की ॥ ५९ ॥

अवोचं पुनरेवेशं महारुद्रं महेश्वरम् ।
जन्ममृत्युभयाविष्टाःसृज देव प्रजा इति ॥ ६० ॥
तब मैंने स्वामी महेश्वर महारुद्रसे फिर कहाहे देव ! आप ऐसे जीवोंकी सृष्टि करें, जो जन्म और मृत्युके भयसे युक्त हों ॥ ६० ॥

एवं श्रुत्वा महादेवो मद्वचः करुणानिधिः ।
प्रहस्योवाच मां सद्यः प्रहस्य मुनिसत्तम ॥ ६१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरी ऐसी बात सुनकर करुणासागर महादेवजी हँसकर मुझसे कहने लगे- ॥ ६१ ॥

महादेव उवाच
जन्ममृत्युभयाविष्टा नाहं स्रक्ष्ये प्रजा विधे ।
अशोभनाः कर्मवशा विमग्ना दुःखवारिधौ ॥ ६२ ॥
महादेवजी बोले-विधे ! मैं जन्म और मृत्युके भयसे युक्त अशोभन जीवोंकी सृष्टि नहीं करूंगा; क्योंकि वे कर्मोंके अधीन होकर दुःखके समुद्र में डूबे रहेंगे । ६२ ॥

अहं दुःखोदधौ मग्ना उद्धरिष्यामि च प्रजाः ।
सम्यक्ज्ञानप्रदानेन गुरुमूर्तिपरिग्रहः ॥ ६३ ॥
मैं तो गुरुका स्वरूप धारण करके उत्तम ज्ञान प्रदानकर दुःखके सागरमें डूबे हुए उन जीवोंका उद्धारमात्र करूँगा, उन्हें पार करूँगा ॥ ६३ ॥

त्वमेव सृज दुःखाढ्याः प्रजाःसर्वाः प्रजापते ।
मदाज्ञया न बद्धस्त्वं मायया सम्भविष्यसि ॥ ६४ ॥
हे प्रजापते ! दुःखमें डूबे हुए समास्त जीवोंकी सृष्टि तो आप करें । मेरी आज्ञासे इस कार्यमें प्रवृत्त होनेके कारण आपको माया नहीं बाँध सकेगी ॥ ६४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा मां स भगवान्सुश्रीमान्नीललोहितः ।
सगणः पश्यतो मे हि द्रुतमन्तर्दधे हरः ॥ ६५ ॥
ब्रह्माजी बोले-मुझसे ऐसा कहकर श्रीमान् भगवान् नीललोहित महादेव मेरे देखते ही देखते अपने पार्षदोंके साथ तत्काल अन्तर्धान हो गये ॥ ६५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायांप्रथमखण्डे सृष्ट्युपक्रमे
रुद्रावताराविर्भाववर्णनो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रूद्रसंहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टिके उपक्रममें रुद्रावताराविर्भाववर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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