![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे
चतुर्दशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] शिवपूजाविधानवर्णनम्
विभिन्न पुष्पों, अन्नों तथा जलादिकी धाराओंसे शिवजीकी पूजाका माहात्म्य ऋषय ऊचुः
व्यासशिष्य महाभाग कथय त्वं प्रमाणतः । कैः पुष्पैः पूजितः शम्भुः किं किं यच्छति वै फलम् ॥ १ ॥ ऋषिगण बोले-हे महाभाग ! हे व्यासशिष्य ! आप सप्रमाण हमें यह बतायें कि किन-किन पुष्पोंसे पूजन करनेपर भगवान् सदाशिव कौन-कौन सा फल प्रदान करते हैं ? ॥ १ ॥ सूत उवाच
शौनकाद्याश्च ऋषयः शृणुतादरतोऽखिलम् ॥ कथयाम्यद्य सुप्रीत्या पुष्पार्पणविनिर्णयम् । २ ॥ सूतजी बोले-हे शौनकादि ऋषियो ! आप आदरपूर्वक सब सुनें । मैं बड़े प्रेमसे पुष्पार्पणकी विधि बता रहा हूँ ॥ २ ॥ एष एव विधिः पृष्टो नारदेन महर्षिणा ।
प्रोवाच परमप्रीत्या पुष्पार्पणविनिर्णयम् ॥ ३ ॥ देवर्षि नारदने भी इसी विधिको विधाता ब्रह्माजीसे पूछा था । तब उन्होंने बड़े ही प्रेमसे शिवपुष्यार्पणकी विधि बतायी थी ॥ ३ ॥ ब्रह्मोवाच
कमलैर्बिल्वपत्रैश्च शतपत्रैस्तथा पुनः । शङ्खपुष्पैस्तथा देवं लक्ष्मीकामोऽर्चयेच्छिवम् ॥ ४ ॥ एतैश्च लक्षसङ्ख्याकैः पूजितश्चेद्भवेच्छिवः । पापहानिस्तथा विप्र लक्ष्मीः स्यान्नात्र संशयः ॥ ५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! लक्ष्मीप्राप्तिकी इच्छावालेको कमल, बिल्वपत्र, शतपत्र और शंखपुष्पसे भगवान् शिवकी पूजा करनी चाहिये । हे विप्र ! यदि एक लाखकी संख्यामें इन पुष्पोंद्वारा भगवान् शिवकी पूजा की जाय, तो सारे पापोंका नाश होता है और लक्ष्मीकी भी प्राप्ति हो जाती है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४-५ ॥ विंशतिः कमलानां तु प्रस्थमेकमुदाहृतम् ।
बिल्वो दलसहस्रेण प्रस्थार्द्धं परिभाषितम् ॥ ६ ॥ बीस कमलोंका एक प्रस्थ बताया गया है और एक सहस्र बिल्वपत्रोंका आधा प्रस्थ कहा गया है ॥ ६ ॥ शतपत्रसहस्रेण प्रस्थार्द्धं परिभाषितम् ।
पलैः षोडशभिः प्रस्थः पलं टङ्कदश स्मृतः ॥ ७ ॥ अनेनैव तु मानेन तुलामारोपयेद्यदा । सर्वान्कामानवाप्नोति निष्कामश्चेच्छिवो भवेत् ॥ ८ ॥ एक सहस्त्र शतपत्रसे आधे प्रस्थकी परिभाषा की गयी है । सोलह पलोंका एक प्रस्थ होता है और दस टंकोंका एक पल । जब इसी मानसे [पत्र, पुष्प आदिको] तुलापर रखे, तो वह सम्पूर्ण अभीष्टको प्राप्त कर लेता है और यदि निष्कामभावनासे युक्त है, तो वह [इस पूजनसे] शिवस्वरूप हो जाता है ॥ ७-८ ॥ राज्यस्य कामुको यो वै पार्थिवानां च पूजया ।
तोषयेच्छङ्करं देवं दशकोष्ट्या मुनीश्वराः ॥ ९ ॥ हे मुनीश्वरो ! जो राज्य प्राप्त करनेका इच्छुक है, उसको दस करोड़ पार्थिव शिवलिंगोंकी पूजाके द्वारा भगवान् शंकरको प्रसन्न करना चाहिये ॥ ९ ॥ लिङ्गं शिवं तथा पुष्पमखण्डं तन्दुलं तथा ।
चर्चितं चन्दनेनैव जलधारां तथा पुनः ॥ १० ॥ प्रतिरूपं तथा मन्त्रं बिल्वीदलमनुत्तमम् । अथवा शतपत्रं च कमलं वा तथा पुनः ॥ ११ ॥ शङ्खपुष्पैस्तथा प्रोक्तं विशेषेण पुरातनैः । सर्वकामफलं दिव्यं परत्रेहापि सर्वथा ॥ १२ ॥ प्रत्येक पार्थिव-लिंगपर मन्त्रसहित पुष्प, खण्डरहित धानके अक्षत और सुगन्धित चन्दन चढ़ाकर अ जलधारासे अभिषेक करना चाहिये । तदनन्तर प्रत्येक पार्थिव लिंगपर मन्त्रसहित अच्छे-अच्छे बिल्वपत्र अथवा शतपत्र और कमलपुष्प समर्पित करना चाहिये । प्राचीन ऋषियोंने कहा है कि यदि शिवलिंगपर शंखपुष्पीके फूल चढ़ाये जायें, तो इस लोक और परलोकमें सभी कामनाओंका दिव्य फल प्राप्त होता है ॥ १०-१२ ॥ धूपं दीपं च नैवेद्यमर्घं चारार्तिकं तथा ।
प्रदक्षिणां नमस्कारं क्षमापनविसर्जने ॥ १३ ॥ कृत्वा साङ्गं तथा भोज्यं कृतं येन भवेदिह । तस्य वै सर्वथा राज्यं शङ्करः प्रददाति च ॥ १४ ॥ प्रधान्यकामुको यो वै तदर्द्धेनार्चयेत्पुमान् । कारागृहगतो यो वै लक्षेनैवार्चयेद्धनम् ॥ १५ ॥ धूप, दीप, नैवेद्य, अर्घ्य, आरती, प्रदक्षिणा, नमस्कार, क्षमाप्रार्थना और विसर्जन करके जिसने ब्राह्मणभोजन करा दिया, उसे भगवान् शंकर अवश्य ही राज्य प्रदान करते हैं । जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ बननेका इच्छुक है, वह [उपर्युक्त कही गयी विधिके अनुसार] उसके आधे अर्थात् पाँच करोड़ पार्थिव शिवलिंगोंका यथाविधि पूजन करे । कारागारमें पड़े मनुष्यको एक लाख पार्थिवलिंगोंसे भगवान् शंकरकी पूजा करनी चाहिये ॥ १३-१५ ॥ रोगग्रस्तो यदा स्याद्वै तदर्द्धेनार्चयेच्छिवम् ।
कन्याकामो भवेद्यो वै तदर्द्धेन शिवं पुनः ॥ १६ ॥ यदि रोगग्रस्त हो, तो उसे उस संख्याके आधे अर्थात् पचास हजार पार्थिव लिंगोंसे शिवका पूजन करना चाहिये । कन्या चाहनेवाले मनुष्यको उसके आधे अर्थात् पच्चीस हजार पार्थिव लिंगोंसे शिवका पूजन करना चाहिये ॥ १६ ॥ विद्याकामस्तथा यः स्यात्तदर्द्धेनार्चयेच्छिवम् ।
वाणीकामो भवेद्यो वै घृतेनैवार्चयेच्छिवम् ॥ १७ ॥ जो विद्या प्राप्त करनेकी इच्छा रखता है, उसे चाहिये कि वह उसके भी आधे पार्थिव लिंगोंसे शिवकी अर्चना करे । जो वाणीका अभिलाषी हो, उसे घीसे शिवकी पूजा करनी चाहिये ॥ १७ ॥ उच्चाटनार्थं शत्रूणां तन्मितेनैव पूजनम् ।
मारणे वै तु लक्षेण मोहने तु तदर्धतः ॥ १८ ॥ सामन्तानां जये चैव कोटिपूजा प्रशस्यते । राज्ञामयुतसङ्ख्यं च वशीकरणकर्मणि ॥ १९ ॥ अभिचारादि कर्मों में कमलपुष्पोंसे शिवपूजनका विधान है । सामन्त राजाओंपर विजय प्राप्त करनेके लिये एक करोड़ कमलपुष्पोंसे शिवका पूजन करना प्रशस्त माना गया है । राजाओंको अपने अनुकूल करनेके लिये दस लाख कमलपुष्पोंसे पूजन करनेका विधान है ॥ १८-१९ ॥ यशसे च तथा सङ्ख्या वाहनाद्यैः सहस्रिका ।
मुक्तिकामोर्चयेच्छम्भुं पञ्चकोट्या सुभक्तितः ॥ २० ॥ ज्ञानार्थी पूजयेत्कोट्या शङ्करं लोक शङ्करम् । शिवदर्शनकामो वै तदर्धेन प्रपूजयेत् ॥ २१ ॥ यश प्राप्त करनेके लिये उतनी ही संख्या कही गयी है और वाहन आदिकी प्राप्तिके लिये एक हजार पार्थिव लिंगोंकी पूजा करनी चाहिये । मोक्ष चाहनेवालेको पाँच करोड़ कमलपुष्पोंसे उत्तम भक्तिके साथ शिवकी पूजा करनी चाहिये ॥ २० ॥ तथा मृत्युञ्जयो जाप्यः कामनाफलरूपतः ।
पञ्चलक्षा जपा यर्हि प्रत्यक्षं तु भवेच्छिवः ॥ २२ ॥ ज्ञान चाहनेवाला एक करोड़ कमलपुष्पसे लोककल्याणकारी शिवका पूजन करे और शिवका दर्शन प्राप्त करनेका इच्छुक उसके आधे कमलपुष्पसे उनकी पूजा करे । कामनाओंकी पूर्तिके लिये महामृत्युंजय मन्त्रका जप भी करना चाहिये । पाँच लाख महामृत्युंजय मन्त्रका जप करनेपर भगवान् सदाशिव निश्चित ही प्रत्यक्ष हो जाते हैं ॥ २१-२२ ॥ लक्षेण भजते कश्चिद्द्वितीये जातिसम्भवः ।
तृतीये कामनालाभश्चतुर्थे तं प्रपश्यति ॥ २३ ॥ पञ्चमं च यदा लक्षं फलं यच्छत्यसंशयम् । अनेनैव तु मन्त्रेण दशलक्षे फलं भवेत् ॥ २४ ॥ एक लाखके जपसे शरीरकी शुद्धि होती है, दूसरे लाखके जपसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण होता है, तीसरे लाखके जपसे सम्पूर्ण काम्य वस्तुएँ प्राप्त होती हैं । चौथे लाखका जप होनेपर भगवान् शिवका दर्शन होता है और जब पाँचवें लाखका जप पूरा होता है, तब भगवान् शिव जपका फल निःसन्देह प्रदान करते हैं। इसी मन्त्रका दस लाख जप हो जाय, तो सम्पूर्ण फलकी सिद्धि होती है ॥ २३-२४॥ मुक्तिकामो भवेद्यो वै दर्भैश्च पूजनं चरेत् ।
लक्षसङ्ख्या तु सर्वत्र ज्ञातव्य ऋषिसत्तम ॥ २५ ॥ जो मोक्षकी अभिलाषा रखता है, वह एक लाख दर्डाद्वारा शिवका पूजन करे। मुनिश्रेष्ठ! शिवको पूजामें सर्वत्र लाखकी ही संख्या समझनी चाहिये॥२५॥ आयुष्कामो भवेद्यो वै दूर्वाभिः पूजनञ्चरेत् ।
पुत्रकामो भवेद्यो वै धत्तूरकुसुमैश्चरेत् ॥ २६ ॥ आयुकी इच्छावाला पुरुष एक लाख दूर्वाद्वारा पूजन करे। जिसे पुत्रकी अभिलाषा हो, वह धतूरेके एक लाख फूलोंसे पूजा करे ॥ २६ ॥ रक्तदण्डश्च धत्तूरः पूजने शुभदः स्मृतः ।
अगस्त्यकुसुमैश्चैव पूजकस्य महद्यशः ॥ २७ ॥ लाल डंठलवाला धतूरा पूजनमें शुभदायक माना गया है। अगस्त्यके फूलोंसे पूजा करनेवाले पुरुषको महान् यशकी प्राप्ति होती है ॥ २७॥ भुक्तिमुक्तिफलं तस्य तुलस्या पूजयेद्यदि ।
अर्कपुष्पैः प्रतापश्च कुब्जकल्हारकैस्तथा ॥ २८ ॥ यदि तुलसीदलसे शिवकी पूजा करे, तो उपासकको भोग और मोक्षका फल प्राप्त होता है। लाल और सफेद मदार, अपामार्ग और कहारके फूलोंद्वारा पूजा करनेसे प्रतापकी प्राप्ति होती है ॥२८॥ जपाकुसुमपूजा तु शत्रूणां मृत्युदा स्मृता ।
रोगोच्चाटनकानीह करवीराणि वै क्रमात् ॥ २९ ॥ अड़हुलके फूलोंसे की हुई पूजा शत्रुविनाशक कही गयी है। करवीरके एक लाख फूल यदि शिवपूजनके उपयोगमें लाये जायें, तो वे यहाँ रोगोंका उच्चाटन करनेवाले होते हैं ॥ २९॥ बन्धुकैर्भूषणावाप्तिर्जात्या वाहान्न संशयः ।
अतसीपुष्पकैर्देवं विष्णुवल्लभतामियात् ॥ ॥ ३० ॥ बन्धूक [गुलदुपहरिया] के फूलोंद्वारा [पूजन करनेसे] आभूषणकी प्राप्ति होती है। चमेलीसे शिवकी पूजा करके मनुष्य वाहनोंको उपलब्ध करता है, इसमें संशय नहीं है। अतसीके फूलोंसे महादेवजीका पूजन करनेवाला पुरुष भगवान् विष्णुका प्रिय हो जाता है॥३०॥ शमीपत्रैस्तथा मुक्तिः प्राप्यते पुरुषेण च ।
मल्लिकाकुसुमैर्दत्तैः स्त्रियं शुभतरां शिवः ॥ ३१ ॥ शमीपत्रोंसे [पूजा करके] मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है। बेलाके फूल चढ़ानेपर भगवान् शिव अत्यन्त शुभलक्षणा पत्नी प्रदान करते हैं ॥३१॥ यूथिकाकुसुमैः शस्तैर्गृहं नैव विमुच्यते ।
कर्णिकारैस्तथा वस्त्रसम्पत्तिर्जायते नृणाम् ॥ ३२ ॥ जूहीके फूलोंसे पूजा की जाय, तो घरमें कभी अन्नकी कमी नहीं होती। कनेरके फूलोंसे पूजा करनेपर मनुष्योंको वस्त्र-सम्पदाकी प्राप्ति होती है॥३२॥ निर्गुण्डीकुसुमैर्लोके मनो निर्मलतां व्रजेत् ।
बिल्वपत्रैस्तथा लक्षैः सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ ३३ ॥ सेंदुआरि या शेफालिकाके फूलोंसे लोकमें शिवका पूजन किया जाय, तो मन निर्मल होता है। एक लाख बिल्वपत्रोंसे पूजन करनेपर मनुष्य अपनी सारी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ॥ ३३ ॥ हारशृङ्गारपुष्पैस्तु वर्द्धते सुखसम्पदा ।
ऋतुजातानि पुष्पाणि मुक्तिदानि न संशयः ॥ ३४ ॥ हरसिंगारके फूलोंसे पूजा करनेपर सुख-सम्पत्तिकी वृद्धि होती है । ऋतुमें पैदा होनेवाले फूल [यदि शिवकी पूजामें समर्पित किये जायें, तो वे] मोक्ष देनेवाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ३४ ॥ राजिकाकुसुमानीह शत्रूणां मृत्युदानि च ।
एषां लक्षं शिवे दद्याद्दद्याच्च विपुलं फलम् ॥ ३५ ॥ राईके फूल शत्रुओंके लिये अनिष्टकारी होते हैं । इन फूलोंको एक लाखकी संख्यामें शिवके ऊपर चढ़ाया जाय, तो भगवान् शिव प्रचुर फल प्रदान करते हैं ॥ ३५ ॥ विद्यते कुसुमं तन्न यन्नैव शिववल्लभम् ।
चम्पकं केतकं हित्वा त्वन्यत्सर्वं समर्पयेत् ॥ ३६ ॥ चम्पा और केवड़ेको छोड़कर अन्य कोई ऐसा फूल नहीं है, जो भगवान् शिवको प्रिय न हो, अन्य सभी पुष्पोंको समर्पित करना चाहिये ॥ ३६ ॥ अतः परं च धान्यानां पूजने शङ्करस्य च ।
प्रमाणं च फलं सर्वं प्रीत्या शृणु च सत्तम ॥ ३७ ॥ हे सत्तम । अब इसके अनन्तर शंकरके पूजनमें धान्योंका प्रमाण तथा [उनके अर्पणका] फल-यह सब प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ ३७ ॥ तन्दुलारोपणे नॄणां लक्ष्मीवृद्धिः प्रजायते ।
अखण्डितविधौ विप्र सम्यग्भक्त्या शिवोपरि ॥ ३८ ॥ हे विप्र ! महादेवके ऊपर परम भक्तिसे अखण्डित चावल चढ़ानेसे मनुष्योंकी लक्ष्मी बढ़ती है ॥ ३८ ॥ षट्केनैव तु प्रस्थानां तदर्धेन तथा पुनः ।
पलद्वयं तथा लक्षमानेन समदाहृतम् ॥ ३९ ॥ साढ़े छ: प्रस्थ और दो पलभर चावल संख्यामें एक लाख हो जाते है । ऐसा लोगोंका कहना है ॥ ३९ ॥ पूजां रुद्रप्रधानेन कृत्वा वस्त्रं सुसुन्दरम् ।
शिवोपरि न्यसेत्तत्र तन्दुलार्पणमुत्तमम् ॥ ४० रुद्रप्रधान मन्त्रसे पूजा करके भगवान् शिवके ऊपर बहुत सुन्दर वस्त्र चढ़ाये और उसीपर चावल रखकर समर्पित करे, तो उत्तम है ॥ ४० ॥ उपरि श्रीफलं त्वेकं गन्धपुष्पादिभिस्तथा ।
रोपयित्वा च धूपादि कृत्वा पूजाफलं भवेत् ॥ ॥ ४१ ॥ तत्पश्चात् उसके ऊपर गन्ध, पुष्प आदिके साथ एक श्रीफल चढ़ाकर धूप आदि निवेदन करे, तो पूजाका पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है । ४१ ॥ प्रजापत्यद्वयं रौप्यमाषङ्ख्या च दक्षिणा ।
देया तदुपदेष्ट्रे हि शक्त्या वा दक्षिणा मता ॥ ४२ ॥ प्रजापति देवतासे चिनांकित दो चाँदीके रुपये अथवा माषसंख्यासे उपदेष्टाको दक्षिणा देनी चाहिये अथवा यथाशक्ति जितनी दक्षिणा हो सके, उतनी दक्षिणा बतायी गयी है ॥ ४२ ॥ आदित्यसङ्ख्यया तत्र ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ।
लक्षपूजा तथा जाता साङ्गञ्च मन्त्रपूर्वकम् ॥ ४३ ॥ शतमष्टोत्तरं तत्र मन्त्रे विधिरुदाहृतः । वहाँ शिवके समीप बारह ब्राह्मणोंको भोजन कराये । इससे मन्त्रपूर्वक सांगोपांग लक्षपूजा सम्पन्न होती है । जहाँ सौ मन्त्र जपनेकी विधि हो, वहाँ एक सौ आठ मन्त्र जपनेका विधान बताया गया है । ४३ १/२ ॥ तिलानां च पलं लक्षं महापातकनाशनम् ॥ ४४ ॥
एकादशपलैरेव लक्षमानमुदाहृतम् । पूर्ववत्पूजनं तत्र कर्तव्यं हितकाम्यया ॥ ४५ ॥ एक लाख पल तिलोंका अर्पण पातकोंका नाश करनेवाला होता है । ग्यारह पल (६४ माशा) में एक लाखको संख्यामें तिल होते हैं । [अत: इस परिमाणके अनुसार] तिलद्वारा अपने कल्याणके लिये पूर्वकी भौति पूर्वोक्त विधिसे शिवकी पूजा करनी चाहिये । ४४-४५ ॥ भोज्या वै ब्राह्मणास्तस्मादत्र कार्या नरेण हि ।
महापातकजं दुखं तत्क्षणान्नश्यति ध्रुवम् ॥ ४६ ॥ इस अवसरपर मनुष्यको ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये । इससे महापातकजन्य दुःख निश्चित ही दूर हो जाता है ॥ ४६ ॥ यवपूजा तथा प्रोक्ता लक्षेण परमा शिवे ।
प्रस्थानामष्टकं चैव तथा प्रस्थार्द्धकं पुनः ॥ ४७ ॥ पलद्वययुतं तत्र मानमेतत्पुरातनम् । यवपूजा च मुनिभिः स्वर्गसौख्यविवर्द्धिनी ॥ ४८ ॥ इसी प्रकार एक लाख यवसे भी की गयी शिवको पूजा उत्तम कही गयी है । साढ़े आठ प्रस्थ और दो पल (साढ़े आठ सेर तेरह माशा) यव प्राचीन परिमाणके अनुसार संख्या एक लाख यवके बराबर होते हैं । मुनियोंने यवके द्वारा की गयी पूजाको स्वर्गका सुख प्रदान करनेवाली बताया है । ४७-४८ ॥ प्राजापत्यं ब्राह्मणानां कर्तव्यं च फलेप्सुभिः ।
गोधूमान्नैस्तथा पूजा प्रशस्ता शङ्करस्य वै ॥ ४९ ॥ सन्ततिर्वर्द्धते तस्य यदि लक्षावधिः कृता । द्रोणार्द्धेन भवेल्लक्षं विधानं विधिपूर्वकम् ॥ ५० ॥ फलप्राप्तिके इच्छुक लोगोंको (यवपूजा करनेके पश्चात्) ब्राह्मणोंके लिये प्रजापति देवताके द्रव्यभूत चाँदीके रुपये भी दक्षिणारूपमें देना चाहिये । गेहूँसे भी की गयी शिवपूजा प्रशस्त है । यदि एक लाख गेहँसे शिवकी पूजा की जाय, तो उसकी सन्ततिकी अभिवृद्धि होती है । विधानतः आधा द्रोण (आठ सेर) परिमाणमें गेहूँकी संख्या एक लाख होती है । शेष विधान विधिपूर्वक करने चाहिये ॥ ४९-५० ॥ मुद्गानां पूजने देवः शिवो यच्छति वै सुखम् ।
प्रस्थानां सप्तकेनैव प्रस्थार्द्धेनाथवा पुनः ॥ ५१ ॥ पलद्वययुतेनैव लक्षमुक्तं पुरातनैः । ब्राह्मणाश्च तथा भोज्या रुद्रसङ्ख्याप्रमाणतः ॥ ५२ ॥ (एक लाख) मूंगसे पूजन किये जानेपर भगवान् शिव सुख देते हैं । साढ़े सात प्रस्थ और दो पल (साढ़े सात सेर तेरह माशा भर) मूंग संख्या एक लाख होती है-ऐसा प्राचीन लोगोंने कहा है । इसमें ग्यारह ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये । ५१-५२ ॥ प्रियङ्गुपूजनादेव धर्माध्यक्षे परात्मनि ।
धर्मार्थकामा वर्द्धन्ते पूजा सर्वसुखावहा ॥ ५३ ॥ प्रस्थैकेन च तस्योक्तं लक्षमेकं पुरातनैः । ब्रह्मभोजं तथा प्रोक्तमर्कसङ्ख्याप्रमाणतः ॥ ५४ ॥ प्रियंगु (काकुन) के द्वारा धर्माध्यक्ष परमात्मा शिवकी पूजा करनेपर धर्म, अर्थ और कामकी अभिवृद्धि होती है । वह पूजा सभी सुखोंको देनेवाली है । प्राचीन लोगोंने कहा है कि एक प्रस्थमें एक लाख प्रियंगु होते हैं । इसके अनन्तर बारह ब्राह्मणोंको भोजन कराना बताया गया है । ५३-५४ ॥ राजिकापूजनं शम्भोश्शत्रोर्मृत्युकरं स्मृतम् ।
सर्षपानां तथा लक्षं पलैर्विंशतिसङ्ख्यया ॥ ५५ ॥ तेषां च पूजनादेव शत्रोर्मृत्युरुदाहृतः । आढकीनां दलैश्चैव शोभयित्वार्चयेच्छिवम् ॥ ५६ ॥ राईसे की गयी शिवपूजा शत्रुविनाशक कही गयी है । बीस पल (३० माशा) भर सरसोंके एक लाख दाने हो जाते हैं । उन एक लाख सरसोंके दानोंसे की गयी शिवकी पूजा निश्चित ही शत्रुके लिये घातक होती है-ऐसा कहा गया है । अरहरकी पत्तियोंसे शिवजीको सुशोभित करके उनका पूजन करना चाहिये ॥ ५५-५६ ॥ वृता गौश्च प्रदातव्या बलीवर्दस्तथैव च ।
मरीचिसम्भवा पूजा शत्रोर्नाशकरी स्मृता ॥ ५७ ॥ आढकीनां दलैश्चैव रञ्जयित्वार्चयेच्छिवम् । नानासुखकरी ह्येषा पूजा सर्वफलप्रदा ॥ ५८ ॥ शिवकी पूजा करनेके पश्चात् एक गौ और एक बैलका दान करना चाहिये । मरीचि (काली मिर्च)-से की गयी शिवकी पूजा शत्रुका नाश करनेवाली बतायी गयी है । अरहरकी पत्तियोंसे रैंग करके शिवकी पूजा करनी चाहिये । यह पूजा नाना प्रकारके सुख एवं सभी अभीष्ट फलोंको देनेवाली है ॥ ५७-५८ ॥ धान्यमानमिति प्रोक्तं मया ते मुनिसत्तम ।
लक्षमानं तु पुष्पाणां शृणु प्रीत्या मुनीश्वर ॥ ५९ ॥ हे मुनिसत्तम ! [शिवपूजामें] इस प्रकारसे प्रयुक्त धान्योंका परिमाण तो हमने आपलोगोंको बता दिया है । हे मुनीश्वर ! अब प्रेमपूर्वक एक लाख पुष्पोंका परिमाण भी सुनें ॥ ५९ ॥ प्रस्थानां च तथा चैकं शङ्खपुष्पसमुद्भवम् ।
प्रोक्तं व्यासेन लक्षं हि सूक्ष्ममानप्रदर्शिना ॥ ६० ॥ सूक्ष्म मानको प्रदर्शित करनेवाले व्यासजीने एक प्रस्थमें शंखपुष्पीके पुष्पोंकी संख्या एक लाख बतायी है ॥ ६० ॥ प्रस्थैरेकादशैर्जातिलक्षमानं प्रकीर्तितम् ।
यूथिकायास्तथा मानं राजिकायास्तदर्द्धकम् ॥ ६१ ॥ ग्यारह प्रस्थमें चमेलीके फूलोंका मान एक लाख कहा गया है । इतना ही जूहीके फूलोंका मान है और उसका आधा राईके फूलोंका मान होता है ॥ ६१ ॥ प्रस्थैर्विंशतिकैश्चैव मल्लिकामानमुत्तमम् ।
तिलपुष्पैस्तथा मानं प्रस्थान्न्यूनं तथैव च ॥ ६२ ॥ मल्लिका [मालती] के लाख फूलोंका पूर्ण मान बीस प्रस्थ है । तिलके पुष्पोंका मान मल्लिकाके मानकी अपेक्षा एक प्रस्थ कम होता है ॥ ६२ ॥ ततश्च त्रिगुणं मानं करवीरभवे स्मृतम् ।
निर्गुण्डीकुसुमे मानं तथैव कथितं बुधैः ॥ ६३ ॥ कनेरके पुष्पोंका मान तिलके पुष्पोंके मानका तिगुना कहा गया है । पण्डितोंने निर्गुण्डीके पुष्पोंका भी उतना ही मान बताया है ॥ ६३ ॥ कर्णिकारे तथा मानं शिरीषकुसुमे पुनः ।
बन्धुजीवे तथा मानं प्रस्थानं दशकेन च ॥ ६४ ॥ केवड़ा, शिरीष तथा बन्धुजीव (दुपहरिया) के एक लाख पुष्पोंका मान दस प्रस्थके बराबर होता है ॥ ६४ ॥ इत्याद्यैर्विविधैर्मानं दृष्ट्वा कुर्याच्छिवार्चनम् ।
सर्वकामसमृध्यर्थं मुक्त्यर्थं कामनोज्झितः ॥ ६५ ॥ इस तरह अनेक प्रकारके मानको दृष्टिमें रखकर सभी कामनाओंकी सिद्धिके लिये तथा मुक्ति प्राप्त करनेके लिये कामनारहित होकर शिवकी पूजा करनी चाहिये ॥ ६५ ॥ अतः परं प्रवक्ष्यामि धारापूजाफलं महत् ।
यस्य श्रवणमात्रेण कल्याणं जायते नृणाम् ॥ ६६ ॥ अब मैं जलधारा-पूजाके महान् फलको कह रहा हूँ, जिसके श्रवणमात्रसे ही मनुष्योंका कल्याण हो जाता है ॥ ६६ ॥ विधानपूर्वकं पूजां कृत्वा भक्त्या शिवस्य वै ।
पश्चाच्च जलधारा हि कर्तव्या भक्तितत्परैः ॥ ६७ ॥ भक्तिपूर्वक सदाशिवकी विधिवत् पूजा करनेके पश्चात् उन्हें जलधारा समर्पित करे ॥ ६७ ॥ ज्वरप्रलापशान्त्यर्थं जलधारा शुभावहा ।
शतरुद्रियमन्त्रेण रुद्रस्यैकादशेन तु ॥ ६८ ॥ रुद्रजाप्येन वा तत्र सूक्तेन पौरुषेण वा । षडङ्गेनाथ वा तत्र महामृत्युञ्जयेन च ॥ ६९ ॥ गायत्र्या वा नमोऽन्तैश्च नामभिः प्रणवादिभिः । मन्त्रैवाथागमोक्तैश्च जलधारादिकं तथा ॥ ७० ॥ [सन्निपातादि] ज्वरमें होनेवाले प्रलापकी शान्तिके लिये भगवान् शिवको दी जानेवाली कल्याणकारी जलधारा शतरुद्रिय मन्त्रसे, एकादश रुद्रसे, रुद्रमन्त्रोंके जपसे, पुरुषसूक्तसे, छ: ऋचाबाले रुद्रसूक्तसे, महामृत्युंजयमन्त्रसे, गायत्रीमनसे अथवा शिवके शास्त्रोक्त नामोंके आदिमें प्रणव और अन्तमें नमः पद जोड़कर बने हुए मन्त्रोंद्वारा अर्पित करनी चाहिये ॥ ६८-७० ॥ सुखसन्तानवृद्ध्यर्थं धारापूजनमुत्तमम् ।
नानाद्रव्यैः शुभैर्दिव्यैः प्रीत्या सद्भस्मधारिणा ॥ ७१ ॥ घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्रकम् । तदा वंशस्य विस्तारो जायते नात्र संशयः ॥ ७२ ॥ सुख और सन्तानकी वृद्धिके लिये जलधाराद्वारा पूजन उत्तम होता है । उत्तम भस्म धारण करके उपासकको प्रेमपूर्वक नाना प्रकारके शुभ एवं दिव्य द्रव्योंद्वारा शिवकी पूजा करनी चाहिये और शिवपर उनके सहसनाम मन्त्रोंसे घृतकी धारा गिरानी चाहिये । ऐसा करनेपर वंशका विस्तार होता है, इसमें संशय नहीं है । ७१-७२ ॥ एवं मदुक्तमन्त्रेण कार्यं वै शिवपूजनम् ।
ब्रह्मभोज्यं तथा प्रोक्तं प्राजापत्यं मुनीश्वरैः ॥ ७३ ॥ इस प्रकार यदि दस हजार मन्त्रोंद्वारा शिवजीकी पूजा की जाय तो प्रमेह रोगको शान्ति होती है और उपासकको मनोवांछित फलकी प्राप्ति हो जाती है । यदि कोई नपुंसकताको प्राप्त हो तो वह घीसे शिवजीकी भलीभाँति पूजा करे । इसके पश्चात् ब्राह्मणोंको भोजन कराये, साथ ही उसके लिये मुनीश्वरोंने प्राजापत्यव्रतका भी विधान किया है ॥ ७३ ॥ केवलं दुग्धधारा च तदा कार्या विशेषतः ।
शर्करामिश्रिता तत्र यदा बुद्धिजडो भवेत् ॥ ७४ ॥ तस्या सञ्जायते जीवसदृशी बुद्धिरुत्तमा । यावन्मन्त्रायुतं न स्यात्तावद्धाराप्रपूजनम् ॥ ७५ ॥ यदि बुद्धि जड़ हो जाय, तो उस अवस्थामें पूजकको केवल शर्करामिश्रित दुग्धकी धारा चढ़ानी चाहिये । ऐसा करनेपर उसकी बृहस्पतिके समान उत्तम बुद्धि हो जाती है । जबतक दस हजार मन्त्र न हो जायें, तबतक दुग्धधाराद्वारा भगवान् शिवका पूजन करते रहना चाहिये ॥ ७४-७५ ॥ यदा चोच्चाटनं देहे जायते कारणं विना ।
यत्र कुत्रापि वा प्रेम दुःखं च परिवर्द्धितम् ॥ ७६ ॥ स्वगृहे कलहो नित्यं यदा चैव प्रजायते । तद्धारायां कृतायां वै सर्वं दुःखं विलीयते ॥ ७७ ॥ जब शरीरमें अकारण ही उच्चाटन होने लगे जी उचट जाय, जहाँ कहीं भी प्रेम न रहे, दुःख बढ़ जाय और अपने घरमें सदा कलह होने लगे, तब पूर्वोक्त रूपसे दूधकी धारा चढ़ानेसे सारा दुःख नष्ट हो जाता है । ७६-७७ ॥ शत्रूणां तापनार्थं वै तैलधारा शिवोपरि ।
कर्तव्या सुप्रयत्नेन कार्यसिद्धिर्ध्रुवं भवेत् ॥ ७८ ॥ शत्रुओंको सन्तप्त करनेके लिये पूर्ण प्रयत्नके साथ भगवान् शंकरके ऊपर तेलको धारा अर्पित करनी चाहिये । ऐसा करनेपर निश्चित ही कर्मकी सिद्धि होती है ॥ ७८ ॥ वासितेनैव तैलेन भोगवृद्धिः प्रजायते ।
सार्षपेणैव तैलेन शत्रुनाशो भवेद्ध्रुवम् ॥ ७९ ॥ मधुना यक्षराजो वै गच्छेच्च शिवपूजनात् । धारा चेक्षुरसस्यापि सर्वानन्दकरी शिवे ॥ ८० ॥ सुगन्धित तेलकी धारा अर्पित करनेपर भोगोंकी वृद्धि होती है । यदि मधुकी धारासे शिवकी पूजा की जाय, तो राजयक्ष्माका रोग दूर हो जाता है । शिवजीके ऊपर ईखके रसकी धारा चढ़ायी जाय, तो वह भी सम्पूर्ण आनन्दकी प्राप्ति करानेवाली होती है । ७९-८० ॥ धारा गङ्गाजलस्यैव भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ।
एताःसर्वाश्च याः प्रोक्ता मृत्यञ्जयसमुद्भवाः ॥ ८१ ॥ तत्राऽयुतप्रमाणं हि कर्तव्यं तद्विधानतः । कर्तव्यं ब्राह्मणानां च भोज्यं वै रुद्रसङ्ख्यया ॥ ८२ ॥ गंगाजलकी धारा तो भोग और मोक्ष दोनों फलोंको देनेवाली है । ये सब जो-जो धाराएँ बतायी गयी हैं, इन सबको मृत्युंजय मन्त्रसे चढ़ाना चाहिये, उसमें भी उक्त मन्त्रका विधानतः दस हजार जप करना चाहिये और ग्यारह ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ॥ ८१-८२ ॥ एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं मुनीश्वर ।
एतद्वै सफलं लोके सर्वकामहितावहम् ॥ ८३ ॥ हे मुनीश्वर ! जो आपने पूछा था, वह सब मैंने आपको बता दिया । संसारमें सदाशिवकी यह पूजा समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेमें समर्थ और सफल है ॥ ८३ ॥ स्कन्दोमासहितं शम्भुं सम्पूज्य विधिना सह ।
यत्फलं लभते भक्त्या तद्वदामि यथाश्रुतम् ॥ ८४ ॥ भक्तिपूर्वक यथाविधि स्कन्द और उमाके सहित भगवान् शम्भुकी पूजा करके भक्त जो फल प्राप्त करता है, उसे जैसा सुना है, वैसा ही कह रहा हूँ ॥ ८४ ॥ अत्र भुक्त्वाखिलं सौख्यं पुत्रपौत्रादिभिः शुभम् ।
ततो याति महेशस्य लोकं सर्वसुखावहम् ॥ ८५ ॥ वह इस लोकमें पुत्र-पौत्र आदिके साथ समस्त सुखोंका उपभोग करके अन्तमें सभी सुखोंको देनेवाले शिवलोकको जाता है ॥ ८५ ॥ सूर्यकोटिप्रतीकाशैर्विमानैः सर्वकामगैः ।
रुद्रकन्यासमाकीर्णैर्गेयवाद्यसमन्वितैः ॥ ८६ ॥ क्रीडते शिवभूतश्च यावदाभूतसम्प्लवम् । ततो मोक्षमवाप्नोति विज्ञानं प्राप्य चाव्ययम् ॥ ८७ ॥ वह भक्त वहाँ करोड़ों सूर्यके समान देदीप्यमान तथा सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले विमानोंपर गान-वाद्ययन्त्रोंसे युक्त रुद्रकन्याओंसे घिरकर बैठे हुए शिवरूपमें प्रलयपर्यन्त क्रीड़ा करता है । तदनन्तर अविनाशी परम ज्ञानको प्राप्त करके मोक्षको पा लेता है ॥ ८६-८७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथम खण्डे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
सृष्ट्युपाख्याने शिवपूजाविधानवर्णनो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि उपाख्यानमें शिवपूजनवर्णन नामक चौदहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |