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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे
सप्तदशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] गुणनिधिचरित्रवर्णनम्
यज्ञदत्तके पुत्र गुणनिधिका चरित्र सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य ब्रह्मणः स तु नारदः । पुनः पप्रच्छ तं नत्वा विनयेन मुनीश्वराः ॥ १ ॥ सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर नारदजीने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम करके पुनः पूछा- ॥ १ ॥ नारद उवाच
कदा गतो हि कैलासं शङ्करो भक्तवत्सलः । क्व वा सखित्वं तस्यासीत् कुबेरेण महात्मना ॥ २ ॥ नारदजी बोले-भक्तवत्सल भगवान् शंकर कैलासपर्वतपर कब गये और महात्मा कुबेरके साथ उनकी मैत्री कब हुई ॥ २ ॥ किं चकार हरस्तत्र परिपूर्णः शिवाकृतिः ।
एतत्सर्वं समाचक्ष्व परं कौतूहलं मम ॥ ३ ॥ परिपूर्ण मंगलविग्रह महादेवजीने वहाँ क्या किया ? यह सब मुझे बताइये । [इसे सुननेके लिये] मुझे बड़ी उत्सुकता है ॥ ३ ॥ ब्रह्मोवाच
शृणु नारद वक्ष्यामि चरितं शशिमौलिनः । यथा जगाम कैलासं सखित्वं धनदस्य च ॥ ४ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! मैं चन्द्रमौलि भगवान् शंकरके चरित्रका वर्णन करता हूँ । वे जिस प्रकार कैलास पर्वतपर गये और कुबेरकी उनके साथ मैत्री हुई, यह सब सुनिये ॥ ४ ॥ असीत्काम्पिल्यनगरे सोमयाजिकुलोद्भवः ।
दीक्षितो यज्ञदत्ताख्यो यज्ञविद्याविशारदः ॥ ५ ॥ वेदवेदाङ्गवित्प्राज्ञो वेदान्तादिषु दक्षिणः । राजमान्योऽथ बहुधा वदान्यः कीर्तिभाजनः ॥ ६ ॥ काम्पिल्यनगरमें सोमयाग करनेवाले कुलमें उत्पन्न यज्ञविद्याविशारद यज्ञदत्त नामका एक दीक्षित ब्राह्मण था। वह वेदवेदांगका ज्ञाता, प्रबुद्ध, वेदान्तादिमें दक्ष, अनेक राजाओंसे सम्मानित, परम उदार और यशस्वी था॥५-६॥ अग्निशुश्रूषणरतो वेदाध्ययनतत्परः ।
सुन्दरो रमणीयाङ्गश्चन्द्रबिम्बसमाकृतिः ॥ ७ ॥ वह अग्निहोत्र आदि कर्मोमें सदैव संलग्न रहनेवाला, वेदाध्ययनपरायण, सुन्दर, रमणीय अंगोंवाला तथा चन्द्रबिम्बके समान आकृतिवाला था॥७॥ आसीद्गुणनिधिर्नाम दीक्षितस्यास्य वै सुतः ।
कृतोपनयनः सोष्टौ विद्या जग्राह भूरिशः ॥ अथ पित्रानभिज्ञातो द्यूतकर्मरतोऽभवत् । ८ ॥ इस दीक्षित ब्राह्मणके गुणनिधि नामक एक पुत्र था, उपनयन-संस्कार हो जानेके बाद उसने आठ विद्याओंका भलीभाँति अध्ययन किया, किंतु पिताके अनजानमें वह द्यूतकर्ममें प्रवृत्त हो गया॥८॥ आदायादाय बहुशो वनं मातुः सकाशतः ।
समदाद् द्यूतकारेभ्यो मैत्रीं तैश्च चकार सः ॥ ९ ॥ उसने अपनी माताके पाससे बहुत-सा धन लेलेकर जुआरियोंको सौंप दिया और उनसे मित्रता कर ली॥९॥ सन्त्यक्तब्राह्मणाचारः सन्ध्यास्नानपराङ्मुखः ।
निन्दको वेदशास्त्राणां देवब्राह्मणनिन्दकः ॥ १० ॥ स्मृत्याचारविहीनस्तु गीतवाद्यविनोदभाक् । नटपाखण्डभाण्डैस्तु बद्धप्रेमपरम्परः ॥ ११ ॥ वह ब्राह्मणके लिये अपेक्षित आचार-विचारसे रहित, सन्ध्या-स्नान आदि कर्मोसे पराङ्मुख, वेदशास्त्र आदिका निन्दक, देवताओं और ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाला और स्मार्ताचार-विचारसे रहित होकर गाने-बजानेमें आनन्द लेने लगा। उसने नटों, पाखण्डियों तथा भाण्डोंसे प्रेमसम्बन्ध स्थापित कर लिया॥१०-११॥ प्रेरितोऽपि जनन्या स न ययौ पितुरन्तिकम् ।
गृहकार्यान्तरव्याप्तो दीक्षितो दीक्षितायिनीम् ॥ १२ ॥ यदा यदैव तां पृच्छेदये गुणनिधिः सुतः । न दृश्यते मया गेहे कल्याणि विदधाति किम् ॥ १३ ॥ माताके द्वारा प्रेरित किये जानेपर भी वह पिताके समीप कभी भी नहीं गया। घरके अन्य कर्मोमें व्यस्त वह दीक्षित ब्राहाण जब-जब अपनी दीक्षित पत्नीसे पूछता कि हे कल्याणि! घरमें मुझे पुत्र गुणनिधि नहीं दिखायी पड़ रहा है, वह क्या कर रहा है? ॥ १२-१३॥ तदा तदेति सा ब्रूयादिदानीं स बहिर्गतः ।
स्नात्वा समर्च्य वै देवानेतावन्तमनेहसम् ॥ १४ ॥ अधीत्याध्ययनार्थं स द्विजैर्मित्रैः समं ययौ । एकपुत्रेति तन्माता प्रतारयति दीक्षितम् ॥ १५ ॥ वह तब-तब यही कहती कि वह इस समय स्नान करके तथा देवताओंकी पूजा करके बाहर गया है। अभीतक पढ़कर वह अपने दो-तीन मित्रोंके साथ पढ़नेके लिये गया हुआ है। इस प्रकार उस गुणनिधिकी एकपुत्रा माता सदैव दीक्षितको धोखा देती रही ॥१४-१५॥ न तत्कर्म च तद्वृत्तं किञ्चिद्वेत्ति स दीक्षितः ।
सर्वं केशान्तकर्मास्य चक्रे वर्षेऽथ षोडशे ॥ १६ ॥ वह दीक्षित ब्राह्मण उस पुत्रके कर्म और आचरणको कुछ भी नहीं जान पाता था, सोलहवें वर्षमें उसने उसके केशान्त कर्म आदि सब संस्कार भी कर दिये ॥१६॥ अथो स दीक्षितो यज्ञदत्तः पुत्रस्य तस्य च ।
गृह्योक्तेन विधानेन पाणिग्राहमकारयम् ॥ १७ ॥ इसके पश्चात् उस दीक्षित यज्ञदत्तने गृह्यसूत्रमें कहे गये विधानके अनुसार अपने उस पुत्रका पाणिग्रहण संस्कार भी कर दिया ॥ १७ ॥ प्रत्यहं तस्य जननी सुतं गुणनिधिं मृदु ।
शास्ति स्नेहार्द्रहृदया ह्युपवेश्य स्म नारद ॥ १८ ॥ क्रोधनस्तेऽस्ति तनयः स महात्मा पितेत्यलम् । यदि ज्ञास्यति ते वृत्तं त्वां च मां ताडयिष्यति ॥ १९ ॥ हे नारद ! स्नेहसे आई हृदयवाली उसकी माता पासमें बैठाकर मृदु भाषामें उस पुत्र गुणनिधिको प्रतिदिन समझाती थी कि हे पुत्र ! तुम्हारे महात्मा पिता अत्यन्त क्रोधी स्वभाववाले हैं । यदि वे तुम्हारे आचरणको जान जायेंगे, तो तुमको और मुझको भी मारेंगे ॥ १८-१९ ॥ आच्छादयामि ते नित्यं पितुरग्रे कुचेष्टितम् ।
लोकमान्योऽस्ति ते तातः सदाचारैर्न वै धनैः ॥ २० ॥ ब्राह्मणानां धनं तात सद्विद्या साधुसंगमः । किमर्थं न करोषि त्वं स्वरुचिं प्रीतमानसः ॥ २१ ॥ तुम्हारे पिताके सामने मैं तुम्हारी इस बुराईको नित्य छिपा देती हूँ । तुम्हारे पिताकी समाजमें प्रतिष्ठा सदाचारसे ही है, धनसे नहीं । हे पुत्र ! ब्राह्मणोंका धन तो उत्तम विद्या और सज्जनोंका संसर्ग है । तुम प्रसन्नमन होकर अपनी रुचि उनमें क्यों नहीं लगा रहे हो ॥ २०-२१ ॥ सच्छ्रोत्रियास्तेऽनूचाना दीक्षिताःसोमयाजिनः ।
इति रूढिमिह प्राप्तास्तव पूर्वपितामहाः ॥ २२ ॥ तुम्हारे पितामह आदि पूर्वज सुयोग्य, श्रोत्रिय, वेदविद्या में पारंगत विद्वान्, दीक्षित, सोमयाज्ञिक ब्राह्मण हैं-ऐसी लोकप्रसिद्धिको प्राप्त किये थे ॥ २२ ॥ त्यक्त्वा दुर्वृत्तसंसर्गं साधुसङ्गरतो भव ।
सद्विद्यासु मनो धेहि ब्राह्मणाचारमाचर ॥ २३ ॥ अतः तुम दुष्टोंकी संगति छोड़कर साधुओंकी संगतिमें तत्पर होओ, सद्विद्याओंमें मन लगाओ और ब्राह्मणोचित सदाचारका पालन करो ॥ २३ ॥ तातानुरूपो रूपेण यशसा कुलशीलतः ।
ततो न त्रपसे किन्नस्त्यज दुर्वृत्ततां स्वकाम् ॥ २४ ॥ तुम रूपसे पिताके अनुरूप ही हो । यश, कुल और शोलसे भी उनके अनुरूप बनो । इन कर्मोसे तुम लज्जित क्यों नहीं होते हो ? अपने बुरे आचरणोंको छोड़ दो ॥ २४ ॥ ऊनविंशतिकोऽसि त्वमेषा षोडशवार्षिकी ।
एतां संवृणु सद्वृत्तां पितृभक्तियुतो भव ॥ २५ ॥ तुम उन्नीस वर्षके हो गये हो और यह [तुम्हारी पली] सोलह वर्षकी है । इस सदाचारिणीका वरण करो अर्थात् इससे मधुर सम्बन्ध स्थापित करो और पिताकी भक्तिमें तत्पर हो जाओ ॥ २५ ॥ श्वशुरोऽपि हि ते मान्यःसर्वत्र गुणशीलतः ।
ततो न त्रपसे किन्नस्त्यज दुर्वृत्ततां सुत ॥ २६ ॥ तुम्हारे श्वसुर भी अपने गुण और शीलके कारण सर्वत्र पूजे जाते हैं । हे पुत्र ! [उन्हें देखकर और उनकी प्रशस्तिको सुनकर भी] तुम्हें लज्जा नहीं आती है, अपनी बुरी आदतोंको छोड़ दो ॥ २६ ॥ मातुलास्तेऽतुलाः पुत्र विद्याशीलकुलादिभिः ।
तेभ्योऽपि न बिभेषि त्वं शुद्धोऽस्युभयवंशतः ॥ २७ ॥ हे पुत्र ! तुम्हारे सभी मामा भी विद्या, शील तथा कुल आदिसे अतुलनीय हैं । तुम उनसे भी नहीं डरते । तुम तो दोनों वंशोंसे शुद्ध हो ॥ २७ ॥ पश्यैतान्प्रतिवेश्मस्थान्ब्राह्मणानां कुमारकान् ।
गृहेऽपि शिष्यान्पश्यैतान्पितुस्ते विनयोचितान् ॥ २८ ॥ तुम इन पड़ोसी ब्राह्मणकुमारोंको देखो और अपने घरमें ही अपने पिताके इन विनयशील शिष्योंको ही देखो ॥ २८ ॥ राजाऽपि श्रोष्यति यदा तव दुश्चेष्टितं सुत ।
श्रद्धां विहाय ते ताते वृत्तिलोपं करिष्यति ॥ २९ ॥ हे पुत्र ! राजा भी जब तुम्हारे इस दुष्टाचरणको सुनेंगे, तो तुम्हारे पिताके प्रति अपनी श्रद्धा त्यागकर उनकी वृत्ति भी समाप्त कर देंगे ॥ २९ ॥ बालचेष्टितमेवैतद्वदन्त्यद्यापि ते जनाः ।
अनन्तरं हरिष्यन्ति युक्तां दीक्षिततामिह ॥ ३० ॥ अभी तो लोग यह कह रहे हैं कि यह लड़कपनकी दुश्चेष्टा है । इसके पश्चात् वे प्राप्त हुई प्रतिष्ठित दीक्षितकी उपाधि भी छीन लेंगे ॥ ३० ॥ सर्वेप्याक्षारयिष्यन्ति तव तातं च मामपि ।
मातुश्चरित्रं तनयो धत्ते दुर्भाषणैरिति ॥ ३१ ॥ सभी लोग तुम्हारे पिताको और मुझको भी दुष्ट वचनोंसे धिक्कारेंगे और कहेंगे कि इसकी माता दुश्चरित्रा है; क्योंकि माताके चरित्रको ही पुत्र धारण करता है ॥ ३१ ॥ पिताऽपि ते न पापीयाञ्छ्रुतिस्मृतिपथानुगः ।
तदङ्घ्रिलीनमनसो मम साक्षी महेश्वरः ॥ ३२ ॥ तुम्हारे पिता पापी नहीं हैं, वे तो श्रुति-स्मृतियोंके पथपर अनुगमन करनेवाले हैं । उन्होंके चरणोंमें मेरा मन लगा रहता है, जिसके साक्षी भगवान् सदाशिव हैं ॥ ३२ ॥ न चर्तुस्नातययापीह मुखं दुष्टस्य वीक्षितम् ।
अहो बलीयान्स विधिर्येन जातो भवानिति ॥ ३३ ॥ मैंने ऋतुसमयमें किसी दुष्टका मुख भी नहीं देखा [जिसका तुम्हारे ऊपर प्रभाव पड़ गया हो] । अरे वह विधाता ही बलवान् है, जिसके कारण तुम्हारे जैसा पुत्र उत्पन्न हुआ है ॥ ३३ ॥ प्रतिक्षणं जनन्येति शिक्ष्यमाणोऽपि दुर्मतिः ।
न तत्याज च तद्धर्मं दुर्बोधो व्यसनी यतः ॥ ३४ ॥ मृगयामद्यपैशुन्यानृतचौर्यदुरोदरैः । स वारदारैर्व्यसनैरेभिः कोऽत्र न खण्डितः ॥ ३५ ॥ माताके द्वारा इस प्रकार हर समय समझाये जानेपर भी उस अत्यन्त दुष्ट बुद्धिबालेने अपने उस दुष्कर्मका परित्याग नहीं किया; क्योंकि व्यसन-प्राप्त प्राणी दुर्बोध होता है । मृगया (शिकार), मद्य, पैशुन्य (चुगली), असत्यभाषण, चोरी, द्यूत और वेश्यागमन आदि-इन व्यसनोंसे कौन खण्डित नहीं हो जाता है ॥ ३४-३५ ॥ यद्यन्मध्यगृहे पश्येत्तत्तन्नीत्वा सुदुर्मतिः ।
अर्पयेद् द्यूतकाराणां सकुप्यं वसनादिकम् ॥ ३६ ॥ न्यस्तां रत्नमयीं गेहे करस्य पितुरूर्मिकाम् । चोरयित्वैकदाऽऽदाय दुरोदरकरेऽर्पयत् ॥ ३७ ॥ वह दुष्ट जो-जो सन्दूक, वस्त्र आदि वस्तुओंको घरमें देखता, उन-उन वस्तुओंको ले जाकर जुआरियोंको साँप देता था । एक बार घरमें पिताके हाथकी एक रत्नजटित अँगूठी रखी थी, उसे चुरा करके उसने किसी जुआरीके हाथमें दे दिया ॥ ३६-३७ ॥ दीक्षितेन परिज्ञातो दैवाद् द्यूतकृतः करे ।
उवाच दीक्षितस्तं च कुतो लब्धा त्वयोर्मिका ॥ ३८ ॥ संयोगसे दीक्षितने किसी जुआरीके हाथमें उस अँगूठीको देख लिया और उससे पूछा कि तुम्हें यह अंगूठी कहाँसे प्राप्त हुई है ? ॥ ३८ ॥ पृष्टस्तेनाथ निर्बन्धादसकृत्तमुवाच सः ।
मामाक्षिपसि विप्रोच्चैः किं मया चौर्यकर्मणा ॥ ३९ ॥ लब्धा मुद्रा त्वदीयेन पुत्रेणैव समर्पिता । मम मातुर्हि पूर्वेद्युर्जित्वा नीतो हि शाटकः ॥ ४० ॥ उस दीक्षितके द्वारा बार-बार कठोरतासे पूछे जानेपर उस जुआरीने कहा-हे ब्राह्मण ! आप जोरजोरसे मुझपर क्यों आक्षेप कर रहे हैं ? क्या मैंने इसे चोरीसे प्राप्त किया है ? आपके पुत्रने ही मुद्रा लेकर इसको मुझे दिया है । इसके पहले भी मेरे द्वारा जुएमें जीत लिये जानेपर उसने अपनी माताकी साड़ी भी चुराकर मुझे दी है ॥ ३९-४० ॥ न केवलं ममैवैतदङ्गुलीयं समर्पितम् ।
अन्येषां द्यूतकर्तॄणां भूरि तेनार्पितं वसु ॥ ४१ ॥ उसने मात्र मुझको ही यह अँगूठी नहीं दी है, अपितु अन्य जुआरियोंको भी उसने बहुत-सा धन दिया है । ४१ ॥ रत्नकुप्यदुकूलानि शृङ्गारप्रभृतीनि च ।
भाजनानि विचित्राणि कांस्यताम्रमयानि च ॥ ४२ ॥ रत्नोंकी सन्दूक, रेशमी वस्त्र, सोनेकी झारी आदि वस्तुएँ, अच्छे अच्छे काँसे और ताँबेके पात्र भी उसने दिये हैं ॥ ४२ ॥ नग्नीकृत्य प्रतिदिनं बध्यते द्यूतकारिभिः ।
न तेन सदृशः कश्चिदाक्षिको भूमिमण्डले ॥ ४३ ॥ अद्यावधि त्वया विप्र दुरोदरशिरोमणिः । कथं नाज्ञायि तनयोऽविनयानयकोविदः ॥ ४४ ॥ जुआरी लोग उसे प्रतिदिन नग्न करके बाँधते रहते हैं । इस भूमण्डलपर उसके समान कोई दूसरा जुआरी नहीं है । हे विप्र ! आजतक आप जुआरियोंमें अग्रणी और अविनय तथा अनीतिमें प्रवीण अपने पुत्रको क्यों जान नहीं सके ? ॥ ४३-४४ ॥ इति श्रुत्वा त्रपाभारविनम्रतरकन्धरः ।
प्रावृत्य वाससा मौलिं प्राविशन्निजमन्दिरम् ॥ ४५ ॥ ऐसा सुनकर लज्जाके भारसे उस ब्राह्मणका सिर शुक गया और अपने सिरको वस्त्रसे ढंककर वह अपने घर चला आया ॥ ४५ ॥ महापतिव्रतामस्य पत्नी प्रोवाच तामथ ।
स दीक्षितो यज्ञदत्तः श्रौतकर्मपरायणः ॥ ४६ ॥ तदनन्तर वह श्रौतकर्मपरायण दीक्षित यज्ञदत्त अपनी महान् पतिव्रता पत्नीसे कहने लगा- ॥ ४६ ॥ यज्ञदत्त उवाच
दीक्षितायनि कुत्रास्ति धूर्ते गुणनिधिः सुतः । अथ तिष्ठतु किं तेन क्व सा मम शुभोर्मिका ॥ ॥ ४७ ॥ यज्ञदत्त बोला-हे दीक्षितायनि ! धूर्त पुत्र गुणनिधि कहाँ है, कहीं भी बैठा हो, उससे क्या लाभ है ? वह मेरी सुन्दर-सी अंगूठी कहाँ है ? ॥ ४७ ॥ अङ्गोद्वर्तनकाले या त्वया मेऽङ्गुलितो हृता ।
सा त्वं रत्नमयीं शीघ्रं तामानीय प्रयच्छ मे ॥ ४८ ॥ तुमने मेरे शरीरमें तैल, उबटन आदि लगानेके समय मेरी अँगुलीसे जिसको निकाल लिया था, उस रत्नजटित अंगूठीको लाकर शीघ्र ही मुझे दो ॥ ४८ ॥ इति श्रुत्वाथ तद्वाक्यं भीता सा दीक्षितायनी ।
प्रोवाच स्नानमध्याह्नीं क्रियां निष्पादयत्यथ ॥ ४९ ॥ उसके इस वचनको सुनकर वह दीक्षितायनी भयभीत हो उठी और बोली-इस समय मैं मध्याह्नकालकी स्नान-क्रियाओंको सम्पन्न कर रही हूँ ॥ ४९ ॥ व्यग्रास्मि देवपूजार्थमुपहारादिकर्मणि ।
समयोऽयमतिक्रामेदतिथीनां प्रियातिथे ॥ ५० ॥ इदानीमेव पक्वान्नकारणव्यग्रया मया । स्थापिता भाजने क्वापि विस्मृतेति न वेद्म्यहम् ॥ ५१ ॥ देवपूजाके लिये अर्पित की जानेवाली सामग्रियोंको एकत्रित करनेमें मैं व्याकुल हूँ । हे अतिथिप्रिय ! यह अतिथियोंका समय कहीं अतिक्रमण न कर जाय । इसलिये मैं भोजन बनानेमें व्यस्त हूँ । मैंने किसी पात्रमें अंगूठीको रख दिया है । अभी याद नहीं आ रहा है ॥ ५०-५१ ॥ दीक्षित उवाच
हं हेऽसत्पुत्रजननि नित्यं सत्यप्रभाषिणि । यदा यदा त्वां सम्पृछे तनयः क्व गतस्त्विति ॥ ५२ ॥ तदातदेति त्वं ब्रूयान्नथेदानीं स निर्गतः । अधीत्याध्ययनार्थं च द्वित्रैर्मित्रैः सयुग्बहिः ॥ ५३ ॥ दीक्षित बोला-अरे दुष्ट पुत्रको उत्पन्न करनेवाली ! हे सदा सच बोलनेवाली ! मैंने जब-जब तुझसे यह पूछा कि पुत्र कहाँ गया है ? तब-तब तूने यही कहाहे नाथ ! अभी पढ़कर वह अपने दो-तीन मित्रों के साथ पुनः पढ़नेके लिये बाहर चला गया है ॥ ५२-५३ ॥ कुतस्ते शाटकः पत्नि माञ्जिष्ठो यो मयार्पितः ।
लभते योऽनिशं धाम्नि तथ्यं ब्रूहि भयं त्यज ॥ ५४ ॥ हे पनि ! तुम्हारी वह मंजीठी रंगकी साड़ी कहाँ है ? जिसको मैंने तुम्हें दिया था, जो घरमें रोज टैंगी रहती थी । मच-मन ताओ डरो मत ॥ ५४ ॥ साम्प्रतं नेक्ष्यते सोऽपि भृङ्गारो मणिमण्डितः ।
पट्टसूत्रमयी सापि त्रिपटी या मयार्पिता ॥ ५५ ॥ मणिजटित वह सोनेकी झारी भी इस समय नहीं दिखायी दे रही है और न तो वह रेशमी त्रिपटी (दुपट्टा) ही दिखायी दे रही है, जिसको रखनेके लिये तुम्हें मैंने दिया था ॥ ५५ ॥ क्व दाक्षिणात्यं तत्कांस्यं गौडी ताम्रघटी क्व सा ।
नागदन्तमयी सा क्व सुखकौतुकमञ्चिका ॥ ५६ ॥ दक्षिण देशमें बननेवाला वह कांसेका पात्र और गौड़ देशमें बननेवाली वह ताँबेकी घटी कहाँ है ? हाथीदाँतसे बनी हुई वह सुख देनेवाली मचियाँ कहाँ है ॥ ५६ ॥ क्व सा पर्वतदेशीया चन्द्रकान्तिरिवाद्भुता ।
दीपकव्यग्रहस्ताग्राऽलङ्कृता शालभञ्जिका ॥ ५७ ॥ पर्वतीय क्षेत्रोंमें पायी जानेवाली, चन्द्रकान्त मणिके समान अद्भुत, हाथमें दीपक लिये वह शृंगारयुक्त शालभंजिका कहाँ है ॥ ५७ ॥ किं बहूक्तेन कुलजे तुभ्यं कुप्याम्यहं वृथा ।
तदाभ्यवहारिष्येऽहमुपयंस्याम्यहं यदा ॥ ५८ ॥ अधिक कहनेसे लाभ ही क्या ? हे कुलजे ! मैं तुझपर व्यर्थ ही क्रोध कर रहा हूँ । अब तो मेरा भोजन तभी होगा, जब मैं दूसरा विवाह कर लूँगा ॥ ५८ ॥ अनपत्योऽस्मि तेनाहं दुष्टेन कुलदूषिणा ।
उत्तिष्ठानय पाथस्त्वं तस्मै दद्यास्तिलाञ्जलिम् ॥ ५९ ॥ कुलको दूषित करनेवाले उस दुष्टके रहते हुए भी अब मैं नि:सन्तान हूँ । उठो और जल लाओ । मैं उसे तिलांजलि देता हूँ ॥ ५९ ॥ अपुत्रत्वं वरं नॄणां कुपुत्रात्कुलपांसनात् ।
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे नीतिरेषा सनातनी ॥ ६० ॥ कुलको कलंकित करनेवाले कुपुत्रकी अपेक्षा मनुष्यका पुत्रहीन होना श्रेयस्कर है । कुलकी भलाईक लिये एकका परित्याग कर देना चाहिये-यह सनातन नियम है ॥ ६० ॥ स्नात्वा नित्यविधिं कृत्वा तस्मिन्नेवाह्नि कस्यचित् ।
श्रोत्रियस्य सुतां प्राप्य पाणिं जग्राह दीक्षितः ॥ ६१ ॥ तदनन्तर उस दीक्षित ब्राह्मणने स्नान करके, अपनी नित्य-क्रिया सम्पन्न करके उसी दिन किसी श्रोत्रिय ब्राह्मणकी कन्याको प्राप्त करके उसके साथ विवाह कर लिया ॥ ६१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे
सृष्ट्युपाख्याने गुणनिधिचरित्रवर्णनोनाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि-उपाख्यानमें गुणनिधिचरित्रवर्णन नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |