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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे

अष्टादशोऽध्यायः ॥

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कैलाशगमनोपाख्याने गुणनिधिसद्‌गतिवर्णनम्
शिवमन्दिरमें दीपदानके प्रभावसे पापमुक्त होकर गुणनिधिका दूसरे जन्ममें कलिंगदेशका राजा बनना और फिर शिवभक्तिके कारण कुबेर पदकी प्राप्ति


ब्रह्मोवाच
श्रुत्वा तथा स वृत्तान्तं प्राक्तनं स्वं विनिन्द्य च ।
काञ्चिद्दिशं समालोक्य निर्ययौ दीक्षिताङ्‌गजः ॥ १ ॥
कियच्चिरं ततो गत्वा यज्ञदत्तात्मजः स हि ।
दुष्टो गुणनिधिस्तस्थौ गतोत्साहो विसर्जितः ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-उन वृत्तान्तोंको सुनकर वह दीक्षितपुत्र अपने भाग्यको निन्दा करके किसी दिशाको देखकर अपने घरसे चल पड़ा । कुछ कालतक चलनेके पश्चात् वह यज्ञदत्तपुत्र दुष्ट गुणनिधि थक जानेके कारण उत्साहहीन होकर वहीं रुक गया ॥ १-२ ॥

चिन्तामवाप महतीं क्व यामि करवाणि किम् ।
नाहमभ्यस्तविद्योऽस्मि न चैवातिधनोऽस्म्यहम् ॥ ३ ॥
वह बहुत बड़ी चिन्तामें पड़ गया कि अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूं ? मैंने विद्याका अभ्यास भी नहीं किया और न तो मेरे पास अत्यधिक धन ही है ॥ ३ ॥

देशान्तरे यस्य धनं स सद्यः सुखमेधते ।
भयमस्ति धने चौरात्स विघ्नः सर्वतोभवः ॥ ४ ॥
दूसरे देशमें तत्काल सुख तो उसीको प्राप्त होता है, जिसके पास धन रहता है । यद्यपि धन रहनेपर चोरसे भय होता है, किंतु यह विघ्न सर्वत्र उत्पन्न हो सकता है ॥ ४ ॥

याजकस्य कुले जन्म कथं मे व्यसनं महत् ।
अहो बलीयान्हि विधिर्भाविकर्मानुसन्धयेत् ॥ ५ ॥
अरे ! याजकके कुलमें जन्म होनेपर भी मुझमें इतना बड़ा दुर्व्यसन कैसे आ गया ! यह आश्चर्य है, किंतु भाग्य बड़ा बलवान् है, वहीं मनुष्यके भावी कर्मका अनुसन्धान करता है ॥ ५ ॥

भिक्षितुन्नाधिगच्छामि न मे परिचितिः क्वचित् ।
न च पार्श्वे धनं किञ्चित्किमत्र शरणं भवेत् ॥ ६ ॥
मैं भिक्षा माँगनेके लिये नहीं जाता हूँ । मेरा यहाँ कोई परिचित भी नहीं है और न मेरे पास कुछ धन ही है । मेरे लिये कोई शरण तो होनी ही चाहिये ॥ ६ ॥

सदाऽनभ्युदिते भानौ प्रसूर्मे मिष्टभोजनम् ।
दद्यादद्यात्र कं याचे न चेह जननी मम ॥ ७ ॥
सदैव सूर्योदय होनेके पूर्व ही मेरी माता मुझे मधुर भोजन देती थीं । आज मैं यहाँ किससे माँगू । मेरी माता भी तो यहाँ नहीं हैं ॥ ७ ॥

ब्रह्मोवाच
इति चिन्तयतस्तस्य बहुशस्तत्र नारद ।
अति दीनं तरोर्मूले भानुरस्ताचलं गतः ॥ ८ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! इस प्रकार बहुत-सी चिन्ता करते हुए वृक्षके नीचे बैठे-बैठे वह अत्यधिक दोनहीन हो उठा, इतनेमें सूर्य अस्ताचलको चला गया ॥ ८ ॥

एतस्मिन्नेव समये कश्चिन्माहेश्वरो नरः ।
सहोपहारानादाय नगराद्‌बहिरभ्यगात् ॥ ९ ॥
नानाविधान्महादिव्यान्स्वजनैः परिवारितः ।
समभ्यर्चितुमीशानं शिवरात्रावुपोषितः ॥ १० ॥
इसी समय कोई शिवभक्त मनुष्य अनेक प्रकारकी परम दिव्य पूजा सामग्रियाँ लेकर शिवरात्रिके दिन उपवासपूर्वक महेश्वरकी पूजा करनेके लिये अपने परिवारजनोंके साथ नगरसे बाहर निकला ॥ ९-१० ॥

शिवालयं प्रविश्याथ स भक्तः शिवसक्तधीः ।
यथोचितं सुचित्तेन पूजयामास शङ्‌करम् ॥ ११ ॥
पक्वान्नगन्धमाघ्राय यज्ञदत्तात्मजो द्विजः ।
पितृत्यक्तो मातृहीनः क्षुधितः स तमन्वगात् ॥ १२ ॥
शिवजीमें रत चित्तवाले उस भक्तने शिवालयमें प्रवेश करके सावधान मनसे यथोचित रूपसे शंकरकी पूजा की । [भगवान् शिवके लिये लगाये गये नैवेद्यके] पक्वानोंको गन्धको सूंघकर पिताके द्वारा परित्यक्त, मातृहीन तथा भूखसे व्याकुल यज्ञदत्तका पुत्र वह ब्राह्मण गुणनिधि उसके पास पहुँचा ॥ ११-१२ ॥

इदमन्नं मया ग्राह्यं शिवायोपकृतं निशि ।
सुप्ते शैवजने दैवात्सर्वस्मिन्विविधं महत् ॥ १३ ॥
इत्याशामवलम्ब्याथ द्वारि शम्भोरुपाविशत् ।
ददर्श च महापूजां तेन भक्तेन निर्मिताम् ॥ १४ ॥
[उसने सोचा कि] ये सभी शिवभक्त जब रात्रिमें सो जायेंगे, तब मैं शिवपर चढ़ाये गये इस विविध नैवेद्यको भाग्यवश प्राप्त करूंगा । ऐसी आशा करके वह भगवान् शंकरके द्वारपर बैठ गया और उस भक्तके द्वारा की गयी महापूजाको देखने लगा ॥ १३-१४ ॥

विधाय नृत्यगीतादि भक्ताः सुप्ताः क्षणे यदा ।
नैवेद्यं स तदाऽऽदातुं भर्गागारं विवेश ह ॥ १५ ॥
भक्तलोग जिस समय [भगवान् शिवके सामने] नृत्य-गीत आदि करके सो गये, उसी समय वह नैवेद्यको लेनेके लिये भगवान् शिवके मन्दिरमें घुस गया ॥ १५ ॥

दीपं मन्दप्रभं दृष्ट्‍वा पक्वान्नवीक्षणाय सः ।
निजचैलाञ्जलाद्वर्तिं कृत्वा दीपं प्रकाश्य च ॥ १६ ॥
यज्ञदत्तात्मजः सोऽथ शिवनैवेद्यमादरात् ।
जग्राह सहसा प्रीत्या पक्वान्न बहुशस्ततः ॥ १७ ॥
[वहाँपर जल रहे] दीपकके प्रकाशको मन्द देखकर पक्वान्नोंको देखनेके लिये अपने उत्तरीय वस्त्रको [फाड़ करके] बत्ती बनाकर दीपकको प्रकाशितकर यज्ञदत्तके उस पुत्रने आदरपूर्वक शिवके लिये लगाये गये बहुतसे पक्वान्नोंके नैवेद्यको एकाएक सहर्ष उठा लिया ॥ १६-१७ ॥

ततः पक्वान्नमादाय त्वरितं गच्छतो बहिः ।
तस्य पादतलाघातात्प्रसुप्तः कोऽप्यबुध्यत ॥ १८ ॥
इसके बाद उस पक्वान्नको लेकर शीघ्र ही बाहर जाते हुए उसके पैरके आघातसे कोई सोया हुआ व्यक्ति जग उठा ॥ १८ ॥

कोऽयं कोऽयं त्वरापन्नो गृह्यतां गृह्यतामसौ ।
इति चुक्रोश स जनो गिरा भयमहोच्चया ॥ १९ ॥
शीघ्रता करनेवाला यह कौन है ?, कौन है ? इसे पकड़ो-इस प्रकार भययुक्त ऊँची वाणीमें वह व्यक्ति चिल्लाने लगा ॥ १९ ॥

यावद्‌भयात्समागत्य तावत्स पुररक्षकैः ।
पलायमानो निहतः क्षणादन्धत्वमागतः ॥ २० ॥
भयवश वह ब्राह्मण जब भाग रहा था, उसी समय वहाँ पुररक्षकोंने पहुंचकर उसे मारा, जिससे वह अन्धा होकर तत्काल मर गया ॥ २० ॥

अभक्षयच्च नैवेद्यं यज्ञदत्तात्मजो मुने ।
शिवानुग्रहतो नूनं भाविपुण्यबलानच्च सः ॥ २१ ॥
हे मुने ! यज्ञदत्तके उस पुत्रने निश्चित शिवकी ही कृपासे नैवेद्यको खा लिया था, न कि अपने भावी पुण्यफलके प्रभावसे ॥ २१ ॥

मृतो बद्धः समागत्य पाशमुद्‌गरपाणिभिः ।
निनीषुभिः संयमनीं याम्यैः स विकटैर्भटैः ॥ २२ ॥
इसके पश्चात् उस मरे हुए ब्राह्मणको यमलोक ले जानेके लिये पाश, मुद्‌गर हाथमें लिये हुए यमके भयंकर दूत वहाँ आकर उसे बाँधने लगे ॥ २२ ॥

तावत्पारिषदाः प्राप्ताः किङ्‌किणीजालमालिनः ।
दिव्यं विमानमादाय तं नेतुं शूलपाणयः ॥ २३ ॥
इतनेमें छोटी-छोटी घण्टियोंसे युक्त आभूषण धारण किये हुए और हाथमें त्रिशूलसे युक्त हो शिवके पार्षद दिव्य विमान लेकर उसे ले जानेके लिये आ गये ॥ २३ ॥

शिवगणा ऊचुः
मुञ्चतैनं द्विजं याम्या गणाः परमधार्मिकम् ।
दण्डयोग्यो न विप्रोऽसौ दग्धसर्वाघसञ्चयः ॥ २४ ॥
शिवगण बोले-हे यमराजके गणो ! इस परम धार्मिक ब्राह्मणको छोड़ दो । यह ब्राह्मण दण्डके योग्य नहीं है । इसके समस्त पाप भस्म हो चुके हैं ॥ २४ ॥

इत्याकर्ण्य वचस्ते हि यमराजगणास्ततः ।
महादेवगणानाहुर्बभूवुश्चकिता भृशम् ॥ २५ ॥
शम्भोर्गणानथालोक्य भीतैस्तैर्यमकिङ्‌करैः ।
अवादि प्रणतैरित्थं दुर्वृत्तोऽयं गणा द्विजः ॥ २६ ॥
इसके अनन्तर शिवपार्षदोंके वचन सुनकर यमराजके गण आश्चर्यचकित हो गये और महादेवजीके गोंसे कहने लगे । शम्भुके गणोंको देखकर डरे हुए तथा प्रणाम करते हुए यमराजके दूतोंने इस प्रकार कहा कि हे गणो ! यह ब्राह्मण तो दुराचारी था ॥ २५-२६ ॥

यमगणा ऊचुः
कुलाचारं प्रतीर्य्यैष पित्रोर्वाक्यपराङ्मुखः ।
सत्यशौचपरिभ्रष्टःसन्ध्यास्नानविवर्जितः ॥ २७ ॥
यमगण बोले-कुलकी मर्यादाका उल्लंघन करके यह माता-पिताकी आज्ञासे पराङ्‌मुख, सत्यशौचसे परिभ्रष्ट और सन्ध्या तथा स्नानसे रहित था ॥ २७ ॥

आस्तां दूरेस्य कर्मान्यच्छिवनिर्माल्यलङ्‌घकः ।
प्रत्यक्षतोऽत्र वीक्षध्वमस्पृश्योऽयं भवादृशाम् ॥ २८ ॥
यदि इसके अन्य कर्मोंको छोड़ भी दिया जाय, तो भी इसने शिवके निर्माल्य [चढ़ाये गये नैवेद्य]का लंघन किया है अर्थात् चोरी की है । [इसके इस हेय कर्मको] आप सब स्वयं देख लें, आप-जैसे लोगोंके लिये यह स्पर्शके योग्य भी नहीं है ॥ २८ ॥

शिवनिर्माल्यभोक्तारश्शिवनिर्म्माल्यलङ्‌घकाः ।
शिवनिर्माल्यदातारः स्पर्शस्तेषां ह्यपुण्यकृत् ॥ २९ ॥
जो शिव निर्माल्यको खानेवाले, शिवनिर्माल्यकी चोरी करनेवाले और शिवनिर्माल्यको देनेवाले हैं, उनका स्पर्श अवश्य ही पापकारक होता है ॥ २९ ॥

विषमालोक्य वा पेयं श्रेयो वा स्पर्शनं परम् ।
सेवितव्यं शिवस्वं न प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥ ३० ॥
विषको जान-बूझकर पी लेना श्रेयस्कर है और अछूतका स्पर्श कर लेना भी अति उत्तम है, किंतु कण्ठगत प्राण होनेपर भी शिवनिर्माल्यका सेवन उचित नहीं है ॥ ३० ॥

यूयं प्रमाणं धर्मेषु यथा न च तथा वयम् ।
अस्ति चेद्धर्मलेशोऽस्य गणास्तं शृणु भो वयम् ॥ ३१ ॥
धर्मके विषयमें आप सब जिस प्रकार प्रमाण हैं, वैसे हमलोग नहीं हैं । हे शिवगण ! सुनिये । यदि इसमें धर्मका लेशमात्र भी हो, तो हम सब उसे सुनना चाहते हैं ॥ ३१ ॥

इत्थं तद्वाक्यमाकर्ण्य याम्यानां शिवकिङ्‌कराः ।
स्मृत्वा शिवपदाम्भोजं प्रोचुः पारिषदास्तु तान् ॥ ३२ ॥
यमके दूतोंकी इस बातको सुनकर शिवके पार्षद भगवान् शिवके चरणकमलका स्मरण करके कहने लगे- ॥ ३२ ॥

शिवकिङ्‌करा ऊचुः
किङ्‌कराश्शिवधर्मा ये सूक्ष्मास्ते तु भवादृशैः ।
स्थूललक्ष्यैः कथं लक्ष्या लक्ष्या ये सूक्ष्मदृष्टिभिः ॥ ३३ ॥
शिवके सेवक बोले-हे यमकिंकरो ! जो सूक्ष्म शिवधर्म हैं, जिन्हें सूक्ष्म दृष्टिवाले हो जान सकते हैं, उन्हें आपसदृश स्थूल दृष्टिवाले कैसे जान सकते हैं ॥ ३३ ॥

अनेनानेनसा कर्म यत्कृतं शृणुतेह तत् ।
यज्ञदत्तात्मजेनाथ सावधानतया गणाः ॥ ३४ ॥
हे यमदूतो ! पापरहित इस यज्ञदत्तपुत्रने यहाँपर जो पुण्य कर्म किया है, उसे सावधान होकर सुनो- ॥ ३४ ॥

पतन्ती लिङ्‌गशिरसि दीपच्छाया निवारिता ।
स्वचैलाञ्चलतोऽनेन दत्त्वा दीपदशां निशि ॥ ३९ ॥
इसने शिवलिंगके शिखरपर पड़ रही दीपककी छायाको दूर किया और अपने उत्तरीय वस्त्रको फाड़कर उससे दीपककी वर्तिका बनायी और फिर उससे दीपकको पुनः जलाकर उस रात्रिमें शिवके लिये प्रकाश किया ॥ ३५ ॥

अपरोपि परो धर्मो जातस्तत्रास्य किङ्‌करः ।
शृण्वतः शिवनामानि प्रसङ्‌गादपि गृह्णताम् ॥ ३६ ॥
भक्तेन विधिना पूजा क्रियमाणा निरीक्षिता ।
उपोषितेन भूतायामनेन स्थितचेतसा ॥ ३७ ॥
हे किंकरो । इसने [उस कर्मके अतिरिक्त] अन्य भी पुण्यकर्म किया है । शिवपूजाके प्रसंगमें इसने शिवके नामोंका श्रवण किया और स्वयं उनके नामोंका उच्चारण भी किया है । भक्तके द्वारा विधिवत् की जा रही पूजाको इसने उपवास रखकर बड़े ही मनोयोगसे देखा है ॥ ३६-३७ ॥

शिवलोकमयं ह्यद्य गन्तास्माभिः सहैव तु ।
कञ्चित्कालं महाभोगान्करिष्यति शिवानुगः ॥ ३८ ॥
[अतः इन पुण्योंके प्रभावसे] यह आज ही हमलोगोंके साथ शिवलोकको जायगा । वहाँ शिवका अनुगामी बनकर यह कुछ समयतक उत्तम भोगोंका उपभोग करेगा ॥ ३८ ॥

कलिङ्‌गराजो भविता ततो निर्धूतकल्मषः ।
एष द्विजवरो नूनं शिवप्रियतरो यतः ॥ ३९ ॥
तत्पश्चात् अपने पापरूपी मैलको धोकर यह कलिंग देशका राजा बनेगा; क्योंकि यह श्रेष्ठ ब्राह्मण निश्चित ही शिवका प्रिय हो गया है ॥ ३९ ॥

अन्यत्किञ्चिन्न वक्तव्यं यूयं यात यथागतम् ।
यमदूताःस्वलोकं तु सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ ४० ॥
हे यमदूतो ! अब इसके विषयमें कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं है । तुमलोग जैसे आये हो, वैसे ही अतिप्रसन्न मनसे अपने लोकको चले जाओ ॥ ४० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां यमदूता मुनीश्वर ।
यथागतं ययुः सर्वे यमलोकं पराङ्मुखाः ॥ ४१ ॥
सर्वं निवेदयामासुश्शमनाय गणा मुने ।
तद्वृत्तमादितः प्रोक्तं शम्भुदूतैश्च धर्मतः ॥ ४२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! उनके वाक्यको सुनकर पराङ्‌मुख हुए समस्त यमदूत अपने लोकको लौट गये । हे मुने ! गणोंने यमराजसे [गुणनिधिके उस] सम्पूर्ण वृत्तान्तका निवेदन किया और शिवदूतोंने उनसे जो कहा था, वह समाचार आरम्भसे उन्हें सुना दिया ॥ ४१-४२ ॥

धर्मराज उवाच
सर्वे शृणुत मद्वाक्यं सावधानतया गणाः ।
तदेव प्रीत्या कुरुत मच्छासनपुरःसरम् ॥ ४३ ॥
धर्मराज बोले-हे गणो ! तुम सब सावधान होकर मेरे इस वाक्यको सुनो । जैसा आदेश दे रहा हूँ, वैसा ही प्रेमपूर्वक तुमलोग करो ॥ ४३ ॥

ये त्रिपुण्ड्रधरा लोके विभूत्या सितया गणाः ।
ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ ४४ ॥
हे गणो ! इस संसारमें जो श्वेत भस्मसे त्रिपुण्ड धारण करते हैं, उन सभीको छोड़ देना और यहाँपर कभी मत लाना ॥ ४४ ॥

उद्धूलनकरा ये हि विभूत्या सितया गणाः ।
ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ ४५ ॥
हे गणो ! जो श्वेत भस्मसे शरीरमें उर्दूलन करते हैं, उन सबको तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४५ ॥

शिववेषतया लोके येन केनापि हेतुना ।
ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ ४६ ॥
इस संसारमें जिस किसी भी कारणसे जो शिवका वेष धारण करनेवाले हैं, उन सभी लोगोंको भी छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४६ ॥

ये रुद्राक्षधरा लोके जटाधारिण एव ये ।
ते सवे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ ४७ ॥
इस जगत्में जो रुद्राक्ष धारण करनेवाले हैं या सिरपर जटा धारण करते हैं, उन सबको तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४७ ॥

उपजीवनहेतोश्च शिववेषधरा हि ये ।
ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ ॥ ४८ ॥
जिन लोगोंने जीविकाके निमित्त ही शिवका वेष धारण किया है, उन सबको भी छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४८ ॥

दम्भेनापि च्छलेनापि शिववेषधरा हि ये ।
ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ ४९ ॥
जिन्होंने दम्भ या छल-प्रपंचके कारण ही शिवका वेष धारण किया है, उन सबको भी तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४९ ॥

एवमाज्ञापयामास स यमो निज किङ्‌करान् ।
तथेति मत्वा ते सर्वे तूष्णीमासञ्छुचिस्मिताः ॥ ५० ॥
इस प्रकार उन यमराजने अपने सेवकोंको आज्ञा दी, [जिसको सुनकर उन लोगोंने कहा कि जैसी आपकी आज्ञा है] वैसा ही होगा-ऐसा कहकर वे मन्द-मन्द हँसते हुए चुप हो गये ॥ ५० ॥

ब्रह्मोवाच
पार्षदैर्यमदूतेभ्यो मोचितस्त्विति स द्विजः ।
शिवलोकं जगामाशु तैर्गणैः शुचिमानसः ॥ ५१ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार शिवपार्षदोंने यमदूतोंसे उस ब्राह्मणको छुड़ाया और वह पवित्र मनसे युक्त होकर शीघ्र ही उन शिवगणोंके साथ शिवलोकको चला गया ॥ ५१ ॥

तत्र भुक्त्वाखिलान्भोगान्संसेव्य च शिवाशिवौ ।
अरिन्दमस्य तनयः कलिङ्‌गाधिपतेरभूत् ॥ ५२ ॥
वहाँपर सभी सुखभोगोंका उपभोग करके तथा भगवान् सदाशिव एवं पार्वतीकी सेवा करके वह [दूसरे जन्ममें] कलिंगदेशके राजा अरिंदमका पुत्र हुआ ॥ ५२ ॥

दम इत्यभिधानोऽभूच्छिवसेवापरायणः ।
बालोऽपि शिशुभिः साकं शिवभक्तिं चकार सः ॥ ५३ ॥
उस शिवसेवापरायण बालकका नाम दम हुआ । बालक होते हुए भी वह अन्य शिशुओंके साथ शिवकी भक्ति करने लगा ॥ ५३ ॥

क्रमाद्‌राज्यमवापाथ पितर्युपरते युवा ।
प्रीत्या प्रवर्तयामास शिवधर्मांश्च सर्वशः ॥ ५४ ॥
क्रमशः उसने युवावस्था प्राप्त की और पिताके परलोकगमनके पश्चात् उसे राज्य भी प्राप्त हुआ । उसने प्रेमपूर्वक अनेक शिवधर्मोको प्रारम्भ किया ॥ ५४ ॥

नान्यं धर्मं स जानाति दुर्दमो भूपतिर्दमः ।
शिवालयेषु सर्वेषु दीपदानादृते द्विजः ॥ ५५ ॥
हे ब्रह्मन् ! दुष्टोंका दमन करनेवाला वह राजा दम शिवालयों में दीपदानके अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं मानता था ॥ ५५ ॥

ग्रामाधीशान्समाहूय सर्वान्स विषयस्थितान् ।
इत्थमाज्ञापयामास दीपा देयाः शिवालये ॥ ५६ ॥
उसने सभी ग्राम और जनपद-प्रमुखोंको बुला करके यह आदेश दिया कि तुमलोगोंको शिवालयों में दीप प्रज्वालनकी व्यवस्था करनी है ॥ ५६ ॥

अन्यथा सत्यमेवेदं स मे दण्ड्यो भविष्यति ।
दीप दानाच्छिवस्तुष्टो भवतीति श्रुतीरितम् ॥ ५७ ॥
यदि [किसीके क्षेत्रमें] ऐसा नहीं हुआ, तो यह सत्य है कि [उस क्षेत्रका] वह प्रधान निश्चित ही मेरे द्वारा दण्ड पायेगा । दीपदानसे भगवान् शिव सन्तुष्ट होते हैं-ऐसा श्रुतियोंमें कहा गया है ॥ ५७ ॥

यस्ययस्याभितो ग्रामं यावतश्च शिवालयाः ।
तत्रतत्र सदा दीपो द्योतनीयोऽविचारितम् ॥ ५८ ॥
जिसके जिसके गाँवके चारों ओर जितने भी शिवालय हों, वहाँ-वहाँ सदैव बिना कोई विचार किये ही दीपक जलाना चाहिये ॥ ५८ ॥

ममाज्ञाभङ्‌गदोषेण शिरश्छेत्स्याम्यसंशयम् ।
इति तद्‌भयतो दीपा दीप्ताः प्रति शिवालयम् ॥ ५९ ॥
अपनी आज्ञाके उल्लंघनके दोषपर मैं निश्चित ही अपराधीका सिर काट लूँगा । इस प्रकार उस राजाके भयसे प्रत्येक शिवमन्दिरमें दीपक जलाये जाने लगे ॥ ५९ ॥

अनेनैव स धर्मेण यावज्जीवं दमो नृपः ।
धर्मर्द्धिं महतीं प्राप्य कालधर्मवशं गतः ॥ ६० ॥
इस प्रकार जीवनपर्यन्त इसी धर्माचरणके पालनसे राजा दम धर्मकी महान् समृद्धि प्राप्त करके अन्त में कालधर्मकी गतिको प्राप्त हुआ ॥ ६० ॥

स दीपवासनायोगाद्‌बहून्दीपान्प्रदीप्य वै ।
अलकायाः पतिरभूद्‌रत्नदीपशिखाश्रयः ॥ ६१ ॥
अपनी इस दीपवासनाके कारण शिवालयोंमें बहुत-से दीपक प्रचलित करके वह राजा [दूसरे जन्ममें] रत्नमय दीपकोंकी शिखाओंको आश्रय देनेवाली अलकापुरीका राजा कुबेर हुआ ॥ ६१ ॥

एवं फलति कालेन शिवेऽल्पमपि यत्कृतम् ।
इति ज्ञात्वा शिवे कार्यं भजनं सुसुखार्थिभिः ॥ ६२ ॥
इस प्रकार भगवान् शंकरके लिये अल्पमात्र भी किया गया धार्मिक कृत्य समय आनेपर फल प्रदान करता है । यह जानकर उत्तम सुख चाहनेवाले लोगोंको शिवका भजन करना चाहिये ॥ ६२ ॥

क्व स दीक्षितदायादः सर्वधर्मारतिः सदा ।
शिवालये दैवयोगाद्यातश्चोरयितुं वसु ॥
स्वार्थदीपदशोद्योतलिङ्‌गमौलितमोहरः । ६३ ॥
कहाँ सभी धर्मोंसे सदा ही दूर रहनेवाला दीक्षितका पुत्र और कहाँ दैवयोगसे धन चुरानेके लिये शिवमन्दिरमें उसका प्रवेश एवं स्वार्थवश दीपककी वर्तिकाको जलाकर शिवलिंगके मस्तकपर छाये हुए अन्धकारको दूर करनेके लिये किया गया उसका पुण्य । [जिसके प्रभावसे] उसने कलिंगदेशका राज्य प्राप्त किया और सदैव धर्ममें अनुरक्त रहने लगा । पूर्वजन्मके संस्कारके उदय होनेके कारण ही शिवालयमें सम्यक् रूपसे मात्र दीपकको जलाकर उसने यह दिक्पाल कुबेरकी महान् पदवी प्राप्त कर ली । हे मुनीश्वर ! देखिये यह मनुष्यधर्मा इस समय इस लोकमें रहकर इसका भोग कर रहा है । ६३-६५ ॥

कलिङ्‌गविषये राज्यं प्राप्तो धर्मरतिं सदा ।
शिवालये समुद्दीप्य दीपान्प्राग्वासनोदयात् ॥ ६४ ॥
क्वैषा दिक्पालपदवी मुनीश्वर विलोकय ।
मनुष्यधर्मिणाऽनेन साम्प्रतं येह भुज्यते ॥ ६५ ॥
इति प्रोक्तं गुणनिधेर्यज्ञदत्तात्मजस्य हि ।
चरितं शिवसन्तोषं शृण्वतां सर्वकामदम् ॥ ६६ ॥
इस प्रकार यज्ञदत्तके पुत्र गुणनिधिके चरित्रका वर्णन कर दिया, जो शिवको प्रसन्न करनेवाला है और जिसको सुननेवालेकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । ६६ ॥

सर्वदेवशिवेनासौ सखित्वं च यथेयिवान् ।
तदप्येकमना भूत्वा शृणु तात ब्रवीमि ते ॥ ६७ ॥
गुणनिधिने सर्वदेवमय भगवान् सदाशिवसे जिस प्रकार मित्रता प्राप्त की, अब मैं उसका वर्णन आपसे कर रहा हूँ । हे तात ! एकाग्रचित्त होकर आप सुनें ॥ ६७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
प्रथमखण्डे सृष्ट्युपाख्याने कैलाशगमनोपाख्याने
गुणनिधिसद्‌गतिवर्णनो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि-उपाख्यान के अन्तर्गत कैलासगमन-उपाख्यानमें गुणनिधिसद्‌गतिवर्णन नामक अठारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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