Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

प्रथमोऽध्यायः ॥

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


सतीसङ्‌क्षेपचरित्रवर्णनम्
सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना


नारद उवाच
विधे सर्वं विजानासि कृपया शङ्‌करस्य च ।
त्वयाऽद्‌भुता हि कथिताः कथा मे शिवयोः शुभाः ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे विधे ! भगवान् शंकरकी कृपासे आप सब कुछ जानते हैं । आपने शिव और पार्वतीकी बहुत ही अद्‌भुत तथा मंगलकारी कथाएँ कही हैं ॥ १ ॥

त्वन्मुखाम्भोजसंवृत्तां श्रुत्वा शिवकथां पराम् ।
अतृप्तो हि पुनस्तां वै श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ २ ॥
आपके मुखारविन्दसे निकली हुई शम्भुकी श्रेष्ठ कथाको सुनकर मैं अतृप्त ही हूँ, हे प्रभो ! मैं उसे पुनः सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥

पूर्णांशः शङ्‌करस्यैव यो रुद्रो वर्णितः पुरा ।
विधे त्वया महेशानः कैलासनिलयो वशी ॥ ३ ॥
स योगी सर्वविष्ण्वादिसुरसेव्यः सतां गतिः ।
निर्द्वन्द्वः क्रीडति सदा निर्विकारी महाप्रभुः ॥ ४ ॥
हे विधे ! पहले आपने शंकरके पूर्णाश महेशान, कैलासवासी तथा जितेन्द्रिय जिन रुद्रका वर्णन किया, वे योगी जितेन्द्रिय विष्णु आदि सभी देवताओंसे सेवाके योग्य, संतोंको परम गति, निर्विकार महाप्रभु निर्द्वन्द्व होकर सदैव क्रीड़ा करते रहते थे ॥ ३-४ ॥

सोऽभूत्पुनर्गृहस्थश्च विवाह्य परमां स्त्रियम् ।
हरिप्रार्थनया प्रीत्या मङ्‌गलां स्वतपस्विनीम् ॥ ५ ॥
विष्णुकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर वे मंगलमयी परमतपस्विनी तथा श्रेष्ठ स्वीसे विवाह करके गृहस्थ बन गये ॥ ५ ॥

प्रथमं दक्षपुत्री सा पश्चात्सा पर्वतात्मजा ।
कथमेकशरीरेण द्वयोरप्यात्मजा मता ॥ ६ ॥
सर्वप्रथम वे [शिवा] दक्षपुत्री हुई और तत्पश्चात् पर्वतराज हिमालयकी कन्या पार्वतीके रूपमें उन्होंने जन्म लिया । एक ही शरीरसे वे दोनोंकी कन्या किस प्रकारसे मानी गयीं ? ॥ ६ ॥

कथं सती पार्वती सा पुनश्शिवमुपागता ।
एतत्सर्वं तथान्यच्च ब्रह्मन् गदितुमर्हसि ॥ ७ ॥
वे सती पुन: पार्वती होकर शिवको कैसे प्राप्त हुई ? हे ब्रह्मन् ! यह सब तथा अन्य बातोंको भी आप कृपा करके बतायें ॥ ७ ॥

सूत उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरर्षेः शङ्‌करात्मनः ।
प्रसन्नमानसो भूत्वा ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ॥ ८ ॥
सूतजी बोले-शिवभक्त देवर्षि नारदके इस वचनको सुनकर मनसे [अत्यन्त] प्रसन्न होकर ब्रह्माजी कहने लगे- ॥ ८ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु तात मुनिश्रेष्ठ कथयामि कथां शुभाम् ।
यां श्रुत्वा सफलं जन्म भविष्यति न संशयः ॥ ९ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे तात ! हे मुनिश्रेष्ठ ! सुनिये, अब मैं शिवकी मंगलकारिणी कथा कह रहा हूँ, जिसको सुनकर जन्म सफल हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥

पुराऽहं स्वसुतां दृष्ट्‍वा सन्ध्याह्वां तनयैः सह ।
अभवं विकृतस्तात कामबाणप्रपीडितः ॥ १० ॥
हे तात ! पुराने समयकी बात है-अपनी सन्ध्या नामक पुत्रीको देखकर पुत्रोंसहित मैं कामदेवके बाणोंसे पीड़ित होकर विकारग्रस्त हो गया ॥ १० ॥

धर्मस्मृतस्तदा रुद्रो महायोगी परः प्रभुः ।
धिक्कृत्य मां सुतैस्तात स्वस्थानं गतवानयम् ॥ ११ ॥
हे तात ! उस समय धर्मके द्वारा स्मरण किये गये महायोगी और महाप्रभु रुद्र पुत्रोंसहित मुझे धिक्कारकर अपने घर चले गये ॥ ११ ॥

यन्मायामोहितश्चाहं वेदवक्ता च मूढधीः ।
तेनाकार्षं सहाकार्यं परमेशेन शम्भुना ॥ १२ ॥
जिनकी मायासे मोहित हुआ मैं वेदवक्ता होनेपर भी मूढ़ बुद्धिवाला हो गया, उन्हीं परमेश्वर शंकरके साथ मैं अकरणीय कार्य करने लगा ॥ २२ ॥

तदीर्षयाहमाकार्षं बहूपायान् सुतैः सह ।
कर्तुं तन्मोहनं मूढः शिवमायाविमोहितः ॥ १३ ॥
शिवको मायासे मोहित हुआ मैं मूढ़ अपने पुत्रोंके सहित ईष्यावश उन्हींको मोहित करनेके लिये अनेक उपाय करने लगा ॥ १३ ॥

अभवंस्तेऽथ वै सर्वे तस्मिन् शम्भो परप्रभो ।
उपाया निष्फलास्तेषां मम चापि मुनीश्वर ॥ १४ ॥
हे मुनीश्वर ! उन परमेश्वर शिवके ऊपर किये गये मेरे तथा मेरे उन पुत्रोंके सभी उपाय निष्फल हो गये ॥ १४ ॥

तदाऽस्मरं रमेशानं व्यर्थोपायः सुतैः सह ।
अबोधयत्स आगत्य शिवभक्तिरतः सुधीः ॥ १५ ॥
तब अपने पुत्रोंसहित उपायोंको करनेमें विफल हुए मैंने लक्ष्मीपति विष्णुका स्मरण किया । शिवभक्तिपरायण तथा श्रेष्ठ बुद्धिवाले भगवान् विष्णुने आकर मुझे समझाया ॥ १५ ॥

प्रबोधितो रमेशेन शिवतत्त्वप्रदर्शिना ।
तदीर्षामत्यजं सोऽहं तं हठं न विमोहितः ॥ १६ ॥
शिवतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले भगवान् रमापतिके द्वारा समझाये जानेपर भी विमोहित मैं अपनी ईष्या और हठको नहीं छोड़ सका ॥ १६ ॥

शक्तिं संसेव्य तत्प्रीत्योत्पादयामास तां तदा ।
दक्षादसिक्न्यां वीरिण्यां स्वपुत्राद्धरमोहने ॥ १७ ॥
तब मैंने शक्तिकी सेवाकर उन्हें प्रसन्न किया । उनकी ही कृपासे शिवको मोहित करनेके लिये अपने पुत्र दक्षसे वीरणकी कन्या असिक्नीके गर्भसे कन्याको उत्पन्न कराया ॥ १७ ॥

सोमा भूत्वा दक्षसुता तपः कृत्वा तु दुःसहम् ।
रुद्रपत्न्यभवद्‌भक्त्या स्वभक्तहितकारिणी ॥ १८ ॥
अपने भक्तोंका हित करनेवाली वही उमा दक्षपुत्री नामसे प्रसिद्ध होकर दुःसह तप करके अपनी दृढभक्तिसे रुद्रकी पत्नी हो गयीं ॥ १८ ॥

सोमो रुद्रो गृही भूत्वाऽकार्षील्लीलां परां प्रभुः ।
मोहयित्वाथ मां तत्र स्वविवाहेऽविकारधीः ॥ १९ ॥
विकाररहित बुद्धिवाले वे प्रभु रुद्र अपने विवाहकालमें मुझे मोहितकर उमाके साथ गृहस्थ होकर उत्तम लीला करने लगे ॥ १९ ॥

विवाह्य तां स आगत्य स्वगिरौ सूतिकृत्तया ।
रेमे बहुविमोहो हि स्वतन्त्रः स्वात्तविग्रहः ॥ २० ॥
उमाके साथ विवाहकर सन्तान उत्पन्न करनेकी इच्छासे अपने कैलास पर्वतपर आकर स्वेच्छासे शरीर धारण करनेवाले तथा सदा स्वतन्त्र रहनेवाले सदाशिव अत्यन्त विमोहित होकर उनके साथ रमण करने लगे ॥ २० ॥

तया विहरतस्तस्य व्यातीयाय महान् मुने ।
कालः सुखकरः शभोर्निर्विकारस्य सद्‌रतेः ॥ २१ ॥
ततो रुद्रस्य दक्षेण स्पर्द्धा जाता निजेच्छया ।
महामूढस्य तन्मायामोहितस्य सुगर्विणः ॥ २२ ॥
हे मुने ! उनके साथ विहार करते हुए निर्विकार शिवका वह सुखकारी बहुत-सा समय बीत गया । तदनन्तर किसी निजी इच्छाके कारण रुद्रकी दक्षसे स्पर्धा हो गयी । उस समय शिवकी मायासे दक्ष मोहसे ग्रस्त, महामूढ़ और अहंकारसे युक्त हो गया ॥ २१-२२ ॥

तत्प्रभावाद्धरं दक्षो महागर्वी विमूढधीः ।
महाशान्तं निर्विकारं निनिन्द बहुमोहितः ॥ २३ ॥
उनके ही प्रभावसे महान् अहंकारी, मूढ़बुद्धि और अत्यन्त विमोहित हुआ वह दक्ष उन्हीं महाशान्त तथा निर्विकार भगवान् हरकी निन्दा करने लगा ॥ २३ ॥

ततो दक्षः स्वयं यज्ञं कृतवान् गर्वितोऽहरम् ।
सर्वानाहूय देवादीन् विष्णुं मां चाखिलाधिपः ॥ २४ ॥
तदनन्तर गर्वमें भरे हुए सर्वाधिप दक्षने मुझे, विष्णुको तथा सभी देवताओंको बुलाकर, किंतु शिवजीको बिना बुलाये ही स्वयं यज्ञ कर डाला ॥ २४ ॥

नाजुहाव तथाभूतो रुद्रं रोषसमाकुलः ।
तथा तत्र सतीं नाम्नीं स्वपुत्रीं विधिमोहितः ॥ २५ ॥
[किसी कारणवश] रुद्रपर असन्तुष्ट, क्रोधसे भरे हुए उस दक्ष प्रजापतिने उन्हें उस यज्ञमें नहीं बुलाया और दुर्भाग्यवश न तो उसने अपनी पुत्रीको ही उस यज्ञमें सम्मिलित होनेके लिये आहूत किया ॥ २५ ॥

यदा नाकारिता पित्रा मायामोहित चेतसा ।
लीलां चकार सुज्ञाना महासाध्वी शिवा तदा ॥ २६ ॥
अथागता सती तत्र शिवाज्ञामधिगम्य सा ।
अनाहूताऽपि दक्षेण गर्विणा स्वपितुर्गृहम् ॥ २७ ॥
जब मायासे मोहित चित्तवाले दक्ष प्रजापतिने शिवाको [यज्ञमें] आमन्त्रित नहीं किया, तो ज्ञानस्वरूपा उन महासाध्वीने अपनी लीला प्रारम्भ की । वे शिवजीकी आज्ञा प्राप्तकर गर्वयुक्त दक्षके द्वारा आमन्त्रित न होनेपर भी अपने पिता दक्षके घर पहुँच गयीं ॥ २६-२७ ॥

विलोक्य रुद्रभागं नो प्राप्यावज्ञां च ताततः ।
विनिन्द्य तत्र तान् सर्वान् देहत्यागमथाकरोत् ॥ २८ ॥
उन देवीने यज्ञमें रुद्रके भागको न देखकर और अपने पितासे अपमानित होकर वहाँ [उपस्थित] सभीकी निन्दा करके [योगाग्निसे] अपने शरीरको त्याग दिया ॥ २८ ॥

तच्छ्रुत्वा देव देवेशः क्रोधं कृत्वा तु दुःसहम् ।
जटामुत्कृत्य महतीं वीरभद्रमजीजनत् ॥ २९ ॥
यह सुनकर देवदेवेश्वर रुद्रने दुःसह क्रोध करके अपनी महान् जटा उखाड़कर वीरभद्रको उत्पन्न किया ॥ २९ ॥

सगणं तं समुत्पाद्य किं कुर्य्यामिति वादिनम् ।
सर्वापमानपूर्वं हि यज्ञध्वंसं दिदेश ह ॥ ३० ॥
गणोंसहित उसे उत्पन्न करके मैं क्या करूँ'ऐसा कहते हुए उस वीरभद्रको शिवजीने आज्ञा दी कि [हे वीरभद्र ! दक्षके यज्ञमें आये हुए सभीका अपमान करते हुए तुम यज्ञका विध्वंस करो ॥ ३० ॥

गणाधीशस्तदाज्ञां स प्राप्य बहुबलान्वितः ।
गतोऽरं तत्र सहसा महाबलपराक्रमः ॥ ३१ ॥
शिवजीकी इस आज्ञाको पाकर महाबलवान् तथा पराक्रमी वह गणेश्वर वीरभद्र अपनी बहुत-सी सेना लेकर [यज्ञविध्वंसके लिये] वहाँ शीघ्र ही पहुँचा ॥ ३१ ॥

महोपद्रवमाचेरुर्गणास्तत्र तदाज्ञया ।
सर्वान् स दण्डयामास न कश्चिदवशेषितः।३२ ॥
उसकी आज्ञासे उन गणोंने वहाँ महान् उपद्रव प्रारम्भ किया । उस वीरभद्रने सबको दण्डित किया, [दण्ड पानेसे] कोई भी न बचा ॥ ३२ ॥

विष्णुं सञ्चित्य यत्नेन समारं गणसत्तमः ।
चक्रे दक्षशिरश्छेदं तच्छिरोऽग्नौ जुहाव च ॥ ३३ ॥
यज्ञध्वंसं चकाराशु महोपद्रवमाचरन् ।
ततो जगाम स्वगिरिं प्रणनाम प्रभुं शिवम् ॥ ३४ ॥
वीरभद्रने देवताओंके साथ विष्णुको भी जीतकर दक्षका सिर काट लिया और उस सिरको अग्निमें हवन कर दिया । इस प्रकार महान् उपद्रव करते हुए उसने यज्ञको विनष्ट कर दिया । तत्पश्चात् वह कैलासपर गया और उसने शिवको प्रणाम किया ॥ ३३-३४ ॥

यज्ञध्वंसोऽभवच्चेत्थं देवलोके हि पश्यति ।
रुद्रस्यानुचरैस्तत्र वीरभद्रादिभिः कृतः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार यज्ञका विध्वंस हो गया, देवताओंके देखते देखते रुद्रके अनुचर वीरभद्र आदिने यज्ञको विनष्ट कर दिया ॥ ३५ ॥

मुने नीतिरियं ज्ञेया श्रुतिस्मृतिषु संमता ।
रुद्रे रुष्टे कथं लोके सुखं भवति सुप्रभो ॥ ३६ ॥
हे मुने ! श्रुतियों तथा स्मृतियोंसे प्रतिपादित यह नीति जान लेनी चाहिये कि श्रेष्ठ प्रभु रुद्रके रुष्ट हो जानेपर लोकमें सुख कैसे हो सकता है ! ॥ ३६ ॥

ततो रुद्रः प्रसन्नोभूत्स्तुतिमाकर्ण्य तां पराम् ।
विज्ञप्तिं सफलां चक्रे सर्वेषां दीनवत्सलः ॥ ३७ ॥
[उसके बाद सभी देवताओंने यज्ञकी पूर्णताके लिये भगवान् रुद्रकी स्तुति की] उस उत्तम स्तुतिको सुनकर रुद्र प्रसन्न हो गये । उन दीनवत्सल [भगवान् स्द्र] ने सबकी प्रार्थनाको सफल बना दिया ॥ ३७ ॥

पूर्ववच्च कृतं तेन कृपालुत्वं महात्मना ।
शङ्‌करेण महेशेन नानालीलाविहारिणा ॥ ३८ ॥
जीवितस्तेन दक्षो हि तत्र सर्वे हि सत्कृताः ।
पुनः स कारितो यज्ञः शङ्‌करेण कृपालुना ॥ ३९ ॥
अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले महात्मा शंकर महेशने पूर्ववत् कृपालुता की । उन्होंने दक्षप्रजापतिको जीवित कर दिया और सभी लोगोंका सत्कार किया, तदुपरान्त कृपालु शंकरने [दक्षसे] पुनः यज्ञ करवाया ॥ ३८-३९ ॥

रुद्रश्च पूजितस्तत्र सर्वैर्देवैर्विशेषतः ।
यज्ञे विष्ण्वादिभिर्भक्त्या सुप्रसन्नात्मभिर्मुने ॥ ४० ॥
हे मुने ! उस यज्ञमें विष्णु आदि सभी देवताओंने बड़े प्रसन्नमनसे भक्तिके साथ रुद्रका विशेष रूपसे पूजन किया ॥ ४० ॥

सतीदेहसमुत्पन्ना ज्वाला लोकसुखावहा ।
पतिता पर्वते तत्र पूजिता सुखदायिनी ॥ ४१ ॥
सतीके शरीरसे उत्पन्न तथा सभी लोगोंको सुख देनेवाली वह ज्याला पर्वतपर गिरी, वह लोगोंके द्वारा पूजित होनेपर सुख प्रदान करती है ॥ ४१ ॥

ज्वालामुखीति विख्याता सर्वकामफलप्रदा ।
बभूव परमा देवी दर्शनात्पापहारिणी ॥ ४२ ॥
इदानीं पूज्यते लोके सर्वकामफलाप्तये ।
संविधाभिरनेकाभिर्महोत्सवपरस्परम् ॥ ४३ ॥
ज्वालामुखीके नामसे प्रसिद्ध वे परमा देवी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली तथा दर्शनसे समस्त पापोंको विनष्ट करनेवाली हैं । सम्पूर्ण कामनाओंके फलकी प्राप्तिहेतु लोग इस समय अनेकों विधि-विधानोंसे महोत्सवपूर्वक उनकी पूजा करते हैं ॥ ४२-४३ ॥

ततश्च सा सती देवी हिमालयसुताऽभवत् ।
तस्याश्च पार्वती नाम प्रसिद्धमभवत्तदा ॥ ४४ ॥
तदनन्तर वे सती देवी हिमालयकी पुत्रीके रूपमें उत्पन्न हुई । तब उनका पार्वती-यह नाम विख्यात हुआ ॥ ४४ ॥

सा पुनश्च समाराध्य तपसा कठिनेन वै ।
तमेव परमेशानं भर्त्तारं समुपाश्रिता ॥ ४५ ॥
उन देवीने पुनः कठिन तपस्याके द्वारा उन्हीं परमेश्वर शिवकी आराधना करके उन्हें पतिरूपमें प्राप्त किया ॥ ४५ ॥

एतत्सर्वं समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं मुनीश्वर ।
यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४६ ॥
हे मुनीश्वर ! जो आपने मुझसे पूछा था, वह सब मैंने कह दिया, जिसे सुनकर मनुष्य सभी पापोंसे छुटकारा प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
द्वितीये सतीसङ्‌क्षेपचरित्रवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीचरित्रवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP