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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे
विंशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] कैलासोपाख्याने शिवस्य कैलासगमनम्
भगवान् शिवका कैलास पर्वतपर गमन तथा सृष्टिखण्डका उपसंहार ब्रह्मोवाच
नारद त्वं शृणु मुने शिवागमनसत्तमम् । कैलासे पर्वतश्रेष्ठे कुबेरस्य तपोबलात् ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! हे मुने ! कुबेरके तपोबलसे भगवान् शिवका जिस प्रकार पर्वतश्रेष्ठ कैलासपर शुभागमन हुआ, वह प्रसंग सुनिये ॥ १ ॥ निधिपत्ववरं दत्त्वा गत्वा स्वस्थानमुत्तमम् ।
विचिन्त्य हृदि विश्वेशः कुबेरवरदायकः ॥ २ ॥ कुबेरको वर देनेवाले विश्वेश्वर शिव जब उन्हें निधिपति होनेका वर देकर अपने उत्तम स्थानको चले गये, तब उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया ॥ २ ॥ विध्यङ्गजः स्वरूपो मे पूर्णः प्रलयकार्यकृत् ।
तद्रूपेण गमिष्यामि कैलासं गुह्यकालयम् ॥ ३ ॥ ब्रह्माजीके ललाटसे जिनका प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो प्रलयका कार्य संभालते हैं, वे रुद्र मेरे पूर्ण स्वरूप हैं । अतः उन्हीक रूपमें मैं गुह्यकोंके निवासस्थान कैलास पर्वतपर जाऊँगा ॥ ३ ॥ रुद्रो हृदयजो मे हि पूर्णांशो ब्रह्म निष्फलः ।
हरि ब्रह्मादिभिः सेव्यो मदभिन्नो निरञ्जन ॥ ४ ॥ रुद्र मेरे हृदयसे ही प्रकट हुए हैं । वे पूर्णावतार निष्कल, निरंजन, ब्रह्म हैं और मुझसे अभिन्न हैं । हरि, ब्रह्मा आदि देव उनकी सेवा किया करते हैं ॥ ४ ॥ तत्स्वरूपेण तत्रैव सुहृद्भूत्वा विलास्यहम् ।
कुबेरस्य च वत्स्यामि करिष्यामि तपो महत् ॥ ५ ॥ उन्हींके रूपमें मैं कुबेरका मित्र बनकर उसी पर्वतपर विलासपूर्वक रहूँगा और महान् तपस्या करूँगा ॥ ५ ॥ इति सञ्चिन्त्य रुद्रोऽसौ शिवेच्छां गन्तुमुत्सुकः ।
ननाद तत्र ढक्कां स्वां सुगतिं नादरूपिणीम् ॥ ६ ॥ शिवकी इस इच्छाका चिन्तन करके उन रुद्रदेवने कैलास जानेके लिये उत्सुक हो उत्तम गति देनेवाले नादस्वरूप अपने डमरूको बजाया ॥ ६ ॥ त्रैलोक्या मानसे तस्या ध्वनिरुत्साहकारकः ।
आह्वानगतिसंयुक्तो विचित्रः सान्द्रशब्दकः ॥ ७ ॥ उसकी उत्साहवर्धक ध्वनि तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गयी । उसका विचित्र एवं गम्भीर शब्द आह्वानकी गतिसे युक्त था अर्थात् सुननेवालोंको अपने पास आनेके लिये प्रेरणा दे रहा था ॥ ७ ॥ तच्छ्रुत्वा विष्णुब्रह्माद्याः सुराश्च मुनयस्तथा ।
आगमा निगमा मूर्ताःसिद्धा जग्मुश्च तत्र वै ॥ ८ ॥ उस ध्वनिको सुनकर ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता, ऋषि, मूर्तिमान् आगम, निगम तथा सिद्ध वहाँ आ पहुँचे ॥ ८ ॥ सुरासुराद्याः सकलास्तत्र जग्मुश्च सोत्सवाः ।
सर्वेऽपि प्रमथा जग्मुर्यत्र कुत्रापि संस्थिताः ॥ ९ ॥ देवता और असुर सब लोग बड़े उत्साहमें भरकर वहाँ आये । भगवान् शिवके समस्त पार्षद जहाँ-कहीं भी थे, वहाँसे उस स्थानपर पहुँचे ॥ ९ ॥ गणपाश्च महाभागाःसर्वलोकनमस्कृताः ।
तेषां सङ्ख्यामहं वच्मि सावधानतया शृणु ॥ १० ॥ सर्वलोकवन्दित महाभाग समस्त गणपाल भी उस स्थानपर जानेके लिये उद्यत हो गये । उनकी मैं संख्या बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥ १० ॥ अभ्ययाच्छङ्खकर्णश्च गणकोट्या गणेश्वरः ।
दशभिः केकराक्षश्च विकृतोऽष्टाभिरेव च ॥ ११ ॥ शङकर्ण नामका गणेश्वर एक करोड़ गणोंके साथ, केकराक्ष दस करोड़ और विकृत आठ करोड़ गणोंके साथ जानेके लिये एकत्रित हुआ ॥ ११ ॥ चतुःषष्ट्या विशाखश्च नवभिः पारियात्रकः ।
षड्भिः सर्वान्तकः श्रीमान्दुन्दुभोऽष्टाभिरेव च ॥ १२ ॥ विशाख चौंसठ करोड़ गणोंके साथ, पारियात्रक नौ करोड़ गोंके साथ, सर्वान्तक छ: करोड़ गणोंके साथ और श्रीमान् दुन्दुभ आठ करोड़ गणोंके साथ वहाँ चलनेके लिये तैयार हो गया ॥ १२ ॥ जालङ्को हि द्वादशभिः कोटिभिर्गणपुङ्गवः ।
सप्तभिः श्रीमदः श्रीमाँस्तथैव विकृताननः ॥ १३ ॥ गणश्रेष्ठ जालंक बारह करोड़ गणोंके साथ, समद सात करोड़ गणोंके साथ और श्रीमान् विकृतानन भी उतने गणोंके साथ जानेके लिये तैयार हुए ॥ १३ ॥ पञ्चभिश्च कपाली हि षड्भिः सन्दारकः शुभः ।
कोटिकोटिभिरेवेह कण्डुकः कुण्डकस्तथा ॥ १४ ॥ कपाली पाँच करोड़ गणोंके साथ, मंगलकारी सन्दार अपने छ: करोड़ गणोंके साथ और कन्दुक तथा कुण्डक नामके गणेश्वर भी एक-एक करोड़ गणोंके साथ गये ॥ १४ ॥ विष्टम्भोऽष्टाभिरगमदष्टभिश्चन्द्रतापनः । १५ ॥
विष्टम्भ और चन्द्रतापन नामक गणाध्यक्ष भी अपने-अपने आठ-आठ करोड़ गणोंके साथ कैलास चलनेके लिये वहाँपर आ गये ॥ १५ ॥ महाकेशःसहस्रेण कोटीनां गणपो वृतः । १६ ॥
एक हजार करोड़ गणोंसे घिरा हुआ महाकेश नामक गणपति भी वहाँ आ पहुँचा ॥ १६ ॥ कुण्डी द्वादशभिर्वाहस्तथा पर्वतकः शुभः ।
कालश्च कालकश्चैव महाकालः शतेन वै ॥ १७ ॥ कुण्डी बारह करोड़ गणों के साथ और वाह, श्रीमान् पर्वतक, काल, कालक एवं महाकाल नामके गणेश्वर सौ करोड़ गोंके साथ वहाँ पहुँचे ॥ १७ ॥ अग्निकः शतकोट्या वै कोट्याभिमुख एव च ।
आदित्यमूर्द्धा कोट्या च तथा चैव धनावहः ॥ १८ ॥ अग्निक सौ करोड़, अभिमुख एक करोड़, आदित्यमूर्धा तथा धनावह भी एक-एक करोड़ गोंके साथ वहाँ आये ॥ १८ ॥ सन्नाहश्च शतेनैव कुमुदः कोटिभिस्तथा ।
अमोघः कोकिलश्चैव कोटिकोट्या सुमन्त्रकः ॥ १९ ॥ सन्नाह तथा कुमुद सौ-सौ करोड़ गणोंके साथ और अमोघ, कोकिल एवं सुमन्त्रक एक-एक करोड़ गणोंके साथ आ गये ॥ १९ ॥ काकपादोऽपरः षष्ट्या षष्ट्या सन्तानकः प्रभुः ।
महाबलश्च नवभिर्मधुपिङ्गश्च पिङ्गलः ॥ २० ॥ काकपाद नामका एक दूसरा गण साठ करोड़ और सन्तानक नामका गणेश्वर भी साठ करोड़ गणोंको साथ लेकर चलनेके लिये वहाँ आया । महाबल, मधुपिंग तथा पिंगल नामक गणेश्वर नौ-नौ करोड़ गणोंके सहित वहाँ उपस्थित हुए ॥ २० ॥ नीलो नवत्या देवेशं पूर्णभद्रस्तथैव च ।
कोटीनां चैव सप्तानां चतुर्वक्त्रो महाबलः ॥ २१ ॥ नील एवं पूर्णभद्र नामक गणेश्वर भी नब्बे-नब्बे करोड़ गणोंके साथ वहाँ आये । महाशक्तिशाली चतुर्वका नामका गणेश्वर सात करोड़ गणोंसे घिरा हुआ कैलास जानेके लिये वहाँ आ पहुँचा ॥ २१ ॥ कोटिकोटिसहस्राणां शतैर्विंशतिभिर्वृतः ।
तत्राजगाम सर्वेशः कैलासगमनाय वै ॥ । २२ ॥ एक सौ बीस हजार करोड़ गणोंसे आवृत होकर सर्वेश नामका गणेश्वर भी कैलास चलनेके लिये वहाँ आया ॥ २२ ॥ काष्ठागूढश्चतुःषष्ट्या सुकेशो वृषभस्तथा ।
कोटिभिःसप्तभिश्चैत्रो नकुलीशस्त्वयं प्रभुः ॥ २३ ॥ काष्ठागूढ, सुकेश तथा वृषभ नामक गणपति चौंसठ करोड़, चैत्र और स्वामी नकुलीश स्वयं सात करोड़ गणोंके साथ कैलासगमनके लिये आये ॥ २३ ॥ लोकान्तकश्च दीप्तात्मा तथा दैत्यान्तकः प्रभुः ।
देवो भृङ्गी रिटिः श्रीमान्देवदेवप्रियस्तथा ॥ २४ ॥ लोकान्तक, दीप्तात्मा, दैत्यान्तक, प्रभु, देव, भंगी, श्रीमान् देवदेवप्रिय, रिटि, अशनि, भानुक तथा सनातन नामके गणपति चौंसठ- चौंसठ करोड़ गणोंके साथ वहाँपर उपस्थित हुए । नन्दीश्वर नामके महाबलवान् गणाधीश सौ करोड़ गणोंके सहित कैलास चलनेके लिये वहाँ आ पहुँचे । २४-२५ ॥ अशनिर्भानुकश्चैव चतुःषष्ट्या सनातनः ।
नन्दीश्वरो गणाधीशः शतकोट्या महाबलः ॥ २५ ॥ एते चान्ये च गणपा असङ्ख्याता महाबलः । सर्वे सहस्रहस्ताश्च जटामुकुटधारिणः ॥ २६ ॥ इन गणाधिपॉके अतिरिक्त अन्य बहुत-से असंख्य शक्तिशाली गणेश्वर वहाँ कैलास चलनेके लिये आये । वे सब हजार भुजाओंवाले थे तथा जटा, मुकुट धारण किये हुए थे ॥ २६ ॥ सर्वे चन्द्रावतंसाश्च नीलकण्ठास्त्रिलोचनाः ।
हारकुण्डलकेयूरमुकुटाद्यैरलङ्कृताः ॥ २७ ॥ सभी गण चन्द्रमाके आभूषणसे शोभायमान थे, सभीके कण्ठं नीलवर्णके थे और वे तीन-तीन नेत्रोंसे युक्त थे । सभी हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट आदि आभूषणोंसे अलंकृत थे ॥ २७ ॥ ब्रह्मेन्द्रविष्णुसङ्काशा अणिमादिगणैर्वृताः ।
सूर्यकोटिप्रतीकाशास्तत्राजग्मुर्गणेश्वराः ॥ २८ ॥ ब्रह्मा, इन्द्र और विष्णुके समान अणिमादि अष्ट महासिद्धियोंसे युक्त, करोड़ों सूर्योक समान देदीप्यमान सभी गणेश्वर वहाँपर आ गये ॥ २८ ॥ एते गणाधिपाश्चान्ये महान्मानोऽमलप्रभाः ।
जग्मुस्तत्र महाप्रीत्या शिवदर्शनलालसाः ॥ २९ ॥ इन गणाध्यक्षोंके अतिरिक्त निर्मल प्रभामण्डलसे युक्त, महान् आत्मावाले तथा भगवान् शिवके दर्शनकी लालसासे परिपूर्ण अन्य अनेक गणाधिप अत्यन्त प्रसन्नताके साथ वहाँपर जा पहुँचे ॥ २९ ॥ गत्वा तत्र शिवं दृष्ट्वा नत्वा चक्रुः परां नुतिम् ।
सर्वे साञ्जलयो विष्णुप्रमुखा नतमस्तकाः ॥ ३० ॥ विष्णु आदि प्रमुख समस्त देवता वहाँ जाकर भगवान् सदाशिवको देखकर हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर उनकी उत्तम स्तुति करने लगे ॥ ३० ॥ इति विष्ण्वादिभिः सार्द्धं महेशः परमेश्वरः ।
कैलासमगमत्प्रीत्या कुबेरस्य महात्मनः ॥ ३१ ॥ इस प्रकार विष्णु आदि देवताओंके साथ परमेश्वर भगवान् महेश महात्मा कुबेरके प्रेमसे वशीभूत हो कैलासको चले गये ॥ ३१ ॥ कुबेरोऽप्यागतं शम्भुं पूजयामास सादरम् ।
भक्त्या नानोपहारैश्च परिवारसमन्वितः ॥ ३२ ॥ कुबेरने भी सपरिवार भक्तिपूर्वक नाना प्रकारके उपहारोंसे वहाँ आये हुए भगवान् शम्भुकी सादर पूजा की ॥ ३२ ॥ ततो विष्ण्वादिकान्देवान्गणांश्चान्यानपि ध्रुवम् ।
शिवानुगान्समानर्च शिवतोषणहेतवे ॥ ३३ ॥ तत्पश्चात् उसने शिवको सन्तुष्ट करनेके लिये उनका अनुगमन करनेवाले विष्णु आदि देवताओं और अन्यान्य गणेश्वरोंका भी विधिवत् पूजन किया ॥ ३३ ॥ अथ शम्भुस्तमालिङ्ग्य कुबेरं प्रीतमानसः ।
मूर्ध्निं चाघ्राय सन्तस्थावलकां निकषाखिलैः ॥ ३४ ॥ [इसके बाद उसकी सेवाको देखकर] अति प्रसन्नचित्त भगवान् शम्भु कुबेरका आलिंगनकर और उसका सिर सूंघकर अलकापुरीके अति निकट ही अपने समस्त अनुगामियोंके साथ ठहर गये ॥ ३४ ॥ शशास विश्वकर्माणं निर्माणार्थं गिरौ प्रभुः ।
नानाभक्तनिवासाय स्वपरेषां यथोचितम् ॥ ३५ ॥ तदनन्तर भगवान् शिवने विश्वकर्माको अपने तथा दूसरे देवताओंके भक्तोंके लिये उस पर्वतपर निवासहेतु यथोचित निर्माणकार्य करनेकी आज्ञा दी ॥ ३५ ॥ विश्वकर्मा ततो गत्वा तत्र नानाविधां मुने ।
रचनां रचयामास द्रुतं शम्भोरनुज्ञया ॥ ३६ ॥ हे मुने ! विश्वकर्माने शिवकी आज्ञासे वहाँ जाकर यथाशीघ्र ही नाना प्रकारकी रचना की ॥ ३६ ॥ अथ शम्भुः प्रमुदितो हरिप्रार्थनया तदा ॥ ३७ ॥
कुबेरानुग्रहं कृत्वा ययौ कैलासपर्वतम् । सुमुहूर्ते प्रविश्यासौ स्वस्थानं परमेश्वरः ॥ ३८ ॥ अकरोदखिलान्प्रीत्या सनाथान्भक्तवत्सलः । अथ सर्वे प्रमुदिता विष्णुप्रभृतयः सुराः । मुनयश्चापरे सिद्धा अभ्यषिञ्चन्मुदा शिवम् । ३९ ॥ उस समय विष्णुकी प्रार्थनासे शिव प्रसन्न हो उठे और कुबेरपर अनुग्रह करके वे कैलासपर्वतपर चले गये । शुभ मुहूर्तमें अपने निवासस्थानमें प्रवेशकर भक्तवत्सल उन परमेश्वरने अपने प्रेमसे सबको सनाथ कर दिया । सभी प्रमुदित विष्णु आदि देवता, मुनिगण और अन्य सिद्धजनोंने मिलकर प्रेमपूर्वक सदाशिवका अभिषेक किया ॥ ३७-३९ ॥ समानर्चुः क्रमात्सर्वे नानोपायनपाणयः ।
नीराजनं समाकार्षुर्महोत्सवपुरःसरम् ॥ ४० ॥ हाथोंमें नाना प्रकारके उपहार लेकर सबने क्रमश: उनका पूजन किया और बहुत महोत्सवके साथ [सामने खड़े होकर] उनकी आरती उतारी ॥ ४० ॥ तदाऽऽसीत्सुमनोवृष्टिर्मङ्गलायतना मुने ।
सुप्रीता ननृतुस्तत्राप्सरसो गानतत्पराः ॥ ४१ ॥ हे मुने ! उस समय [आकाशसे] मंगलसूचक पुष्पवृष्टि होने लगी और अत्यन्त प्रसन्न होकर गान करती हुई अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४१ ॥ जयशब्दो नमःशब्दस्तत्रासीत्सर्वसंस्कृतः ।
तदोत्साहो महानासीत्सर्वेषां सुखवर्धनः ॥ ४२ ॥ सब ओर जय-जयकार और नमस्कारके सुसंस्कृत शब्द गूंजने लगे । उस समय चारों ओर एक महान् उत्साह व्याप्त था, जो सबके सुखको बढ़ा रहा था ॥ ४२ ॥ स्थित्वा सिंहासने शम्भुर्विराजाधिकं तदा ।
सर्वैः संसेवितोऽभीक्ष्णं विष्ण्वाद्यैश्च यथोचितम् ॥ ४३ ॥ उस समय सिंहासनपर बैठकर भगवान् सदाशिव अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे और विष्णु आदि सभी लोग बार-बार उनकी यथोचित सेवा कर रहे थे ॥ ४३ ॥ अथ सर्वे सुराद्याश्च तुष्टुवुस्तं पृथक् पृथक् ।
अर्थ्याभिर्वाग्भिरिष्टाभिः शकरं लोकशङ्करम् ॥ ४४ ॥ सभी देवताओंने पृथक्-पृथक् रूपमें अर्थभरी वाणी और अभीष्ट वस्तुओंसे लोकमंगलकारी भगवान् शंकरका स्तवन-वन्दन किया ॥ ४४ ॥ प्रसन्नात्मा स्तुतिं श्रुत्वा तेषां कामान्ददौ शिवः ।
मनोभिलषितान्प्रीत्या वरान्सर्वेश्वरः प्रभुः ॥ ४५ ॥ प्रसन्नचित्त सर्वेश्वर स्वामी सदाशिवने उनकी स्तुतिको सुनकर प्रेमपूर्वक उन्हें मनोवांछित वर दिये ॥ ४५ ॥ शिवाज्ञयाथ ते सर्वे स्वं स्वं धाम ययुर्मुने ।
प्राप्तकामाः प्रमुदिता अहं च विष्णुना सह ॥ ४६ ॥ [हे मुने !] अभीष्ट कामनाओंसे परिपूर्ण, प्रसन्नचित्त वे सभी [देव, मुनि और सिद्धजन] भगवान् शिवकी आज्ञासे अपने अपने धामको चले गये । मैं भी विष्णुके साथ प्रसन्नतापूर्वक चलनेके लिये उद्यत हुआ ॥ ४६ ॥ उपवेश्यासने विष्णुं माञ्च शम्भुरुवाच ह ।
बहु सम्बोध्य सुप्रीत्याऽनुगृह्य परमेश्वरः ॥ ४७ ॥ तब श्रीविष्णु और मुझको आसनपार बैठाकर परमेश्वर शम्भु बड़े प्रेमसे बहुत समझाकर अनुग्रह करके कहने लगे- ॥ ४७ ॥ शिव उवाच
हे हरे हे विधे तात युवां प्रियतरौ मम । सुरोत्तमौ त्रिजगतोऽवनसर्गकरौ सदा ॥ ४८ ॥ शिवजी बोले-हे हरे ! हे विधे ! हे तात ! सदैव तीनों लोकोंका सृजन और संरक्षण करनेवाले हे सुरश्रेष्ठ ! आप दोनों मुझे अत्यन्त प्रिय हैं ॥ ४८ ॥ गच्छतं निर्भयन्नित्यं स्वस्थानञ्च मदाज्ञया ।
अहं सुखप्रदाता वा विशेषात्प्रेक्षकः सदा ॥ ४९ ॥ अब आप दोनों भी निर्भय होकर मेरी आज्ञासे अपने अपने स्थानको जायें । मैं सदा आप दोनोंको सुख प्रदान करनेवाला हूँ और विशेष रूपसे आप दोनोंके सुख दुःखको देखता ही रहता हूँ ॥ ४९ ॥ इत्याकर्ण्य वचः शम्भोः सुप्रणम्य तदाज्ञया ।
अहं हरिश्च स्वं धामागमावप्रीतमानसौ ॥ ५० ॥ भगवान् सदाशिवके वचनको सुनकर मैं और विष्णु दोनों प्रेमपूर्वक प्रणाम करके प्रसन्नचित्त होकर उनकी आज्ञासे अपने अपने धामको लौट आये ॥ ५० ॥ तदानीमेव सुप्रीतः शङ्करो निधिपम्मुदा ।
उपवेश्य गृहीत्वा तं कर आह शुभं वचः ॥ ५१ ॥ उसी समय प्रसन्नचित्त भगवान् शंकर निधिपति कुबेरका भी हाथ पकड़कर उन्हें अपने पास बैठाकर यह शुभ वाक्य कहने लगे- ॥ ५१ ॥ शिव उवाच
तव प्रेम्णा वशीभूतो मित्रतागमनं सखे । स्वस्थानण् गच्छ विभयः सहायोहं सदानघ ॥ ५२ ॥ हे मित्र ! तुम्हारे प्रेमके वशीभूत होकर मैं तुम्हारा मित्र बन गया हूँ । हे पुण्यात्मन् ! भयरहित होकर तुम अपने स्थानको जाओ; मैं सदा तुम्हारा सहायक हूँ ॥ ५२ ॥ इत्याकर्ण्य वचः शम्भोः कुबेरः प्रीतमानसः ।
तदाज्ञया स्वकं धाम जगाम प्रमुदान्वितः ॥ ५३ ॥ भगवान् शम्भुके इस वचनको सुनकर प्रसन्नचित्त कुबेर उनकी आज्ञासे प्रसन्नतापूर्वक अपने धामको चले गये ॥ ५३ ॥ स उवाच गिरौ शम्भुः कैलासे पर्वतोत्तमे ।
सगणो योगनिरतः स्वच्छन्दो ध्यान तत्परः ॥ ५४ ॥ योगपरायण, सब प्रकारसे स्वच्छन्द तथा सदा ध्यानमग्न रहनेवाले भगवान् शिव अपने गणोंके साथ उस पर्वतश्रेष्ठ कैलासपर निवास करने लगे ॥ ५४ ॥ क्वचिद्दध्यौ स्वमात्मानं क्वचिद्योगरतोऽभवत् ।
इतिहासं गणान्प्रीत्यावादीत्स्वच्छन्दमानसः ॥ ५५ ॥ क्वचित्कैलास कुधरसुस्थानेषु महेश्वरः । विजहार गणैः प्रीत्या विविधेषु विहारवित् ॥ ५६ ॥ कभी वे अपने ही आत्मस्वरूप ब्रह्मका चिन्तन करते थे । कभी योगमें तल्लीन रहते थे, कभी स्वच्छन्द मनसे प्रेमपूर्वक अपने गणोंको इतिहास सुनाते थे और कभी विहार करने में चतुर भगवान् महेश्वर अपने गणोंके साथ कैलास पर्वतकी टेढ़ीमेढ़ी, ऊबड़-खाबड़ गुफाओं तथा कन्दराओंमें और अनेक सुरम्य स्थानोंपर प्रसन्नचित्त होकर विचरण करते थे ॥ ५५-५६ ॥ इत्थं रुद्रस्वरूपोऽसौ शङ्करः परमेश्वरः ।
अकार्षीत्स्वगिरौ लीला नाना योगिवरोऽपि यः ॥ ५७ ॥ इस प्रकार रुद्र-स्वरूप परमेश्वर भगवान् शंकर जो नाना प्रकारके योगियोंमें भी सर्वश्रेष्ठ हैं, उन्होंने अपने उस पर्वतपर अनेक लीलाएँ कीं ॥ ५७ ॥ नीत्वा कालं कियन्तं सोऽपत्नीकः परमेश्वरः ।
पश्चादवाप स्वां पत्नीं दक्षपत्नीसमुद्भवाम् ॥ ५८ ॥ इस प्रकार बिना पत्नीके रहते हुए परमेश्वर सदाशिवने अपना कुछ समय व्यतीत करके बादमें दक्षपत्नीसे उत्पन्न सतीको पत्नीके रूपमें प्राप्त किया ॥ ५८ ॥ विजहार तया सत्या दक्षपुत्र्या महेश्वरः ।
सुखी बभूव देवर्षे लोकाचारपरायणः ॥ ५९ ॥ तदनन्तर हे देवर्षे ! वे महेश्वर उन दक्षपुत्री सतीके साथ विहार करने लगे । इस प्रकार [सतोके साथ पतिरूपमें] लोकाचारपरायण रहते हुए वे बहुत ही सुखी थे ॥ ५९ ॥ इत्थं रुद्रावतारस्ते वर्णितोऽयं मुनीश्वर ।
कैलासागमनञ्चास्य सखित्वं निधिपस्य हि ॥ ६० ॥ तदन्तर्गतलीलापि वर्णिता ज्ञानवर्धिनी । इहामुत्र च या नित्यं सर्वकामफलप्रदा ॥ ६१ ॥ हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने आपको रुद्रके अवतारका वर्णन कर दिया है । मैंने उनके कैलासआगमन और कुबेरके साथ उनकी मित्रताका प्रसंग भी कह दिया है । कैलासके अन्तर्गत होनेवाली उनकी ज्ञानवर्धिनी लीलाका भी वर्णन कर दिया है, जो इस लोक और परलोकमें सदैव सभी मनोवांछित फलोंको प्रदान करनेवाली है ॥ ६०-६१ ॥ इमां कथां पठेद्यस्तु शृणुयाद्वा समाहितः ।
इह भुक्तिं समासाद्य लभेन्मुक्तिम्परत्र सः ॥ ६२ ॥ जो एकाग्रचित्त होकर इस कथाको सम्यक् रूपसे पढ़ता है अथवा सुनता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर परलोकमें मुक्ति प्राप्त करता है ॥ ६२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
प्रथमखण्डे कैलासोपाख्याने शिवस्य कैलासगमनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि उपाख्यानके कैलासोपाख्यानमें शिवकैलासगमन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयरुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टिखण्डः समाप्तः ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |