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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
चतुर्थोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] कामविवाहः
कामदेवके विवाहका वर्णन नारद उवाच
विष्णुशिष्य महाप्राज्ञ विधे लोककर प्रभो । अद्भुतेयं कथा प्रोक्ता शिवलीलामृतान्विता ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे विष्णुशिष्य ! हे महाप्राज्ञ ! हे विधे ! संसारकी रचना करनेवाले हे प्रभो ! आपने शिवजीकी लीलारूपी अमृतसे युक्त यह अद्भुत कथा कही ॥ १ ॥ ततः किमभवत्तात चरितं तद्वदाधुना ।
अहं श्रद्धान्वितः श्रोतुं यदि शम्भुकथाश्रयम् ॥ २ ॥ हे तात ! इसके बाद क्या हुआ ? यदि मैं शम्भुकी कथापर आश्रित उनके चरित्रको सुननेमें श्रद्धावान् होऊँ, तो उसे कहिये ॥ २ ॥ ब्रह्मोवाच
शम्भौ गते निजस्थाने वेधस्यन्तर्हिते मयि । दक्ष प्राहाथ कन्दर्पं संस्मरन् मम तद्वचः ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार शिवजीके अपने स्थानको चले जाने तथा मुझ ब्रह्माके अन्तर्धान हो जानेपर दक्षप्रजापति मेरी बातका स्मरण करते हुए कामदेवसे कहने लगे- ॥ ३ ॥ दक्ष उवाच
मद्देहजेयं कन्दर्प सद्रूपगुणसंयुता । एनां गृह्णीष्व भार्यार्थं भवतः सदृशीं गुणैः ॥ ४ ॥ दक्ष बोले-हे काम ! सुन्दर रूप एवं गुणोंसे युक्त यह कन्या मेरे शरीरसे उत्पन्न हुई है, अतः तुम अपनी पत्नी बनानेके लिये इसे ग्रहण करो, यह गुणोंमें तुम्हारे ही समान है ॥ ४ ॥ एषा तव महातेजाः सर्वदा सहचारिणी ।
भविष्यति यथाकामं धर्मतो वशवर्तिनी ॥ ५ ॥ हे महातेजस्विन् ! यह कन्या सदा तुम्हारे साथ रहेगी और धर्मके अनुरूप तुम्हारी इच्छाके अनुसार तुम्हारे वशमें रहेगी ॥ ५ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा प्रददौ तस्यै देहस्वेदाम्बुसम्भवाम् । कन्दर्प्पायाग्रतः कृत्वा नाम कृत्वा रतीति ताम् ॥ ६ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] यह कहकर दक्षने अपने स्वेदसे उत्पन्न हुई कन्याका नाम रति रखकर और उसे अपने आगेकर कामदेवको दे दिया ॥ ६ ॥ विवाह्य तां स्मरः सोपि मुमोदातीव नारद ।
दक्षजां तनयां रम्यां मुनीनामपि मोहिनीम् ॥ ७ ॥ हे नारद ! वह कामदेव मुनियोंको भी मोहित करनेवाली उस परम सुन्दर दक्षकन्यासे विवाह करके बड़ा प्रसन्न हुआ ॥ ७ ॥ अथ तां वीक्ष्य मदनो रत्याख्यां स्वस्त्रियं शुभाम् ।
आत्मा गुणेन विद्धोऽसौ मुमोह रतिरञ्जितः ॥ ८ ॥ प्रेमासक्त कामदेव भी परम कल्याणकारिणी रति नामक अपनी स्त्रीको देखकर उसके गुणोंसे आकृष्ट होकर उसपर अत्यन्त मोहित हो गया ॥ ८ ॥ क्षणप्रदाऽभवत्कान्ता गौरी मृगदृशी मुदा ।
लोलापाङ्ग्यथ तस्यैव भार्या च सदृशी रतौ ॥ ९ ॥ गौरवर्णवाली, हरिणाक्षी तथा चंचल नेत्रप्रान्तवाली वह रति भी कामके सदृश होनेके कारण उसे परम आह्लाद प्रदान करने लगी ॥ ९ ॥ तस्या भ्रूयुगलं वीक्ष्य संशयं मदनोकरोत् ।
उत्सादनं मत्कोदण्डं विधात्रास्यां निवेशितम् ॥ १० ॥ उसकी चपल भौंहोंको देखकर कामदेव संशयमें पड़ जाता था कि विधाताने सबको वशमें करनेवाले मेरे धनुषको इसके नेत्रोंमें सन्निविष्ट कर दिया है क्या ? ॥ १० ॥ गतिं दृष्ट्वा कटाक्षाणामाशु तस्या द्विजोत्तम ।
आशु गन्तुं निजास्त्राणां श्रद्दधे न च चारुताम् ॥ ११ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस रतिके कटाक्षोंकी शीघ्र गति तथा उसकी सुन्दरताको देखकर कामदेवको अपने अस्त्रोंकी शीध्र गतिपर विश्वास नहीं रह गया ॥ ११ ॥ तस्याः स्वभावसौरभ्यं धीरश्वासानिलं तथा ।
आघ्राय मदनः श्रद्धां त्यक्तवान् मलयान्तिके ॥ १२ ॥ उसके स्वाभाविक रूपसे सुगन्धित तथा मन्द श्वासवायुको सूंघकर कामदेवने मलय-पवनके प्रति अपनी श्रद्धाका त्याग कर दिया ॥ १२ ॥ पूर्णेन्दुसदृशं वक्त्रं दृष्ट्वा लक्ष्मसुलक्षितम् ।
न निश्चिकाय मदनो भेदं तन्मुखचन्द्रयोः ॥ १३ ॥ सुन्दर लक्षणोंसे युक्त तथा पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान उसके मुखमण्डलको देखकर कामदेव उसके मुख और चन्द्रमाका भेद करनेमें असमर्थ हो गया ॥ १३ ॥ सुवर्ण पद्मकलिकातुल्यं तस्याः कुचद्वयम् ।
रेजे चूचुकयुग्मेन भ्रमरेणेव वेष्टितम् ॥ १४ ॥ सुवर्णकमलकी कलीके समान उसका वक्षःस्थल भ्रमरसे वेष्टित कमलकी भाँति सुशोभित हो रहा था ॥ १४ ॥ दृढपीनोन्नतं तस्या स्तनमध्यं विलम्बिनीम् ।
आनाभिलम्बिनीं मालां तन्वीं चन्द्रायितां शुभाम् ॥ १५ ॥ ज्यां पुष्पधनुषः कामः षट्पदावलिसम्भ्रमाम् । विसस्मार च यस्मात्तां विसृज्यैनां निरीक्षते ॥ १६ ॥ उसका कठोर, स्थूल एवं उन्नत वक्षःस्थलका मध्यभाग नाभिपर्यन्त लटकनेवाली, लम्बी, पतली तथा चन्द्रमाके समान स्वच्छ माला धारण किये हुए था । वह कामदेव भ्रमरकी पंक्तियोंसे घिरी अपने पुष्पधनुषकी प्रत्यंचाको भी भूल गया और उसे देखना छोड़कर बार बार उसी रतिकी ओर एकटक देखने लगा ॥ १५-१६ ॥ गम्भीरनाभिरन्ध्रान्तश्चतुःपार्श्वत्वगावृतम् ।
मुखाब्ज ईक्षणद्वन्द्वमारक्तकमलं यथा ॥ १७ ॥ चारों ओर त्वचासे परिवेष्टित उसकी नाभिका रन्ध्र अत्यन्त गम्भीर था । उसके मुखकमलपर दोनों नेत्र लाल कमलके समान प्रतीत हो रहे थे ॥ १७ ॥ क्षीणमध्येन वपुषा निसर्गाष्टापदप्रभा ।
रुक्मवेदीव ददृशे कामेन रमणी हि सा ॥ १८ ॥ उस कामदेवने कृश कटिप्रदेशवाले शरीरसे सुशोभित, स्वभावतः सुवर्णकी आभावाली उस रमणीको सुवर्णवेदीके समान देखा ॥ १८ ॥ रम्भास्तम्भायतं स्निग्धं यदूरुयुगलं मृदु ।
निजशक्तिसमं कामो वीक्षाञ्चक्रे मनोहरम् ॥ १९ ॥ कदलीस्तम्भके सदृश विस्तृत, स्निग्ध, कोमल तथा मनोहर उसको जंघाओंको कामदेवने अपनी शक्तिके समान देखा ॥ १९ ॥ आरक्तपार्ष्णिपादाग्रं प्रान्तभागं पदद्वयम् ।
अनुरागमिवाऽनेन मित्रं तस्या मनोभवः ॥ २० ॥ तस्याः करयुगं रक्तं नखरैः किंशुकोपमैः । वृत्ताभिरङ्गुलीभिश्च सूक्ष्माग्राभिर्मनोहरम् ॥ २१ ॥ तद्बाहुयुगुलं कान्तं मृणालयुगलायतम् । मृदु स्निग्धं चिरं राजत्कान्तलोहप्रवालवत् ॥ २२ ॥ नीलनीरदसङ्काशः केशपाशो मनोहरः । चमरीवालभरवद्विभाति स्म स्मरप्रिया ॥ २३ ॥ एतादृशीं रतिं नाम्ना प्रालेयाद्रिसमुद्भवाम् । गङ्गामिव महादेवो जग्राहोत्फुल्ललोचनः ॥ २४ ॥ लाल-लाल पादान तथा प्रान्तभागवाले उसके दोनों पैर गे हुए-से थे, इससे कामदेव अनुरक्त होकर उसका मित्र बन गया । पलाशपुष्पके समान लाल नखोंसे युक्त, सूक्ष्म अग्रभागवाले तथा गोलाकार अँगुलियोंसे युक्त उसके दोनों हाथ अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रहे थे । उसकी दोनों भुजाएँ कान्तिमय, मृणालके समान लम्बी, कोमल, स्निग्ध और कान्तियुक्त लाल मूंगेके समान शोभित हो रही थीं । उसका मनोहर केशपाश काले-काले बादलोंके समान शोभा पा रहा था, इससे वह कामप्रिया चमरीके बालोंको धारण करनेवाले चैवरकी भाँति सुशोभित हो रही थी । [सौन्दर्ययुक्त] ऐसी रतिको हर्षित नेत्रोंवाले कामदेवने उसी प्रकार ग्रहण किया, जिस प्रकार हिमालयसे उत्पन्न गंगाको महादेवजीने ग्रहण किया था ॥ २०-२४ ॥ चक्रपद्मां चारुबाहुं मृणालशकलान्विताम् ।
भ्रूयुग्मविभ्रमव्राततनूर्मिपरिराजिताम् ॥ २५ ॥ चक्र तथा पाके चिह्नोंसे युक्त, मृणालखण्डके समान मनोहर हाथोंसे युक्त वह रति गंगा नदीके समान प्रतीत हो रही थी । उस रतिको दोनों भौंहोंकी चेष्टाएँ नदीकी सूक्ष्म लहरोंके समान प्रतीत हो रही थीं ॥ २५ ॥ कटाक्षपाततुङ्गौघां स्वीयनेत्रोत्पलान्विताम् ।
तनुलोमाम्बुशैवालां मनोद्रुमविलासिनीम् ॥ २६ ॥ उसके कटाक्षपात ही नदीकी वेगवती धारा थे और विशाल नेत्र कमलके समान प्रतीत हो रहे थे । उसकी सूक्ष्म रोमावली शैवाल थी और वह अपने मनरूपी वृक्षोंसे विलास कर रही थी ॥ २६ ॥ निम्ननाभिह्रदां क्षामां सर्वाङ्गरमणीयिकाम् ।
सर्वलावण्यसदनां शोभमानां रमामिव ॥ २७ ॥ द्वादशाभरणैर्युक्तां शृङ्गारैः षोडशैर्युताम् । मोहनीं सर्वलोकानां भासयन्तीं दिशो दश ॥ २८ ॥ उसकी गम्भीर नाभि हदके समान शोभा पा रही थी । वह कृशगात्रा रति अपने सर्वांगको रमणीयता तथा लावण्यमयी शोभासे बारह आभूषणोंसे युक्त तथा सोलह शृंगारोंसे शोभायमान होकर सम्पूर्ण लोकोंको मोहनेवाली और अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रज्वलित करती हुई महालक्ष्मी जैसी प्रतीत हो रही थी ॥ २७-२८ ॥ इति तां मदनो वीक्ष्य रतिं जग्राह सोत्सुकः ।
रागादुपस्थितां लक्ष्मीं हृषीकेश इवोत्तमाम् ॥ २९ ॥ इस प्रकार परम सुन्दरी रतिको देखकर कामदेवने इसे बड़ी प्रसन्नतासे ग्रहण किया, जिस प्रकार कि स्वयं रागसे उपस्थित हुई महालक्ष्मीको भगवान् नारायणने ग्रहण किया था ॥ २९ ॥ नोवाच च तदा दक्षं कामो मोदभवात्ततः ।
विस्मृत्य दारुणं शापं विधिदत्तं विमोहितः ॥ ३० ॥ उस समय कामदेवने आनन्द होनेके कारण विमोहित होकर ब्रह्माजीके द्वारा दिये गये दारुण शापको भूलकर दक्षसे कुछ नहीं कहा ॥ ३० ॥ तदा महोत्सवस्तात बभूव सुखवर्द्धनः ।
दक्षः प्रीततरश्चासीन्मुमुदे तनया मम ॥ ३१ ॥ हे तात ! उस समय [सबके] सुखको बढ़ानेवाला महान् उत्सव हुआ । दक्ष प्रजापति अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और कन्या रति भी परम प्रसन्न हो गयी ॥ ३१ ॥ कामोतीव सुखं प्राप्य सर्वदुःखक्षयं गतः ।
दक्षजापि रतिः कामं प्राप्य चापि जहर्ष ह ॥ ३२ ॥ अत्यधिक सुख पाकर कामका समस्त दुःख विनष्ट हो गया और इधर दक्षतनया रति भी कामको पतिरूपमें प्राप्तकर परम हर्षित हुई ॥ ३२ ॥ रराज च तया सार्द्धं भिन्नश्चारुवचाः स्मरः ।
जीमूत इव सन्ध्यायां सौदामन्या मनोज्ञया ॥ ३३ ॥ रतिसे मोहित हुआ गद्गद कण्ठवाला वह मधुरभाषी काम सार्यकालमें मनोहर बिजलीसे युक्त मेघके समान दक्षकन्या रतिके साथ शोभा पाने लगा ॥ ३३ ॥ इति रतिपतिरुच्चैर्मोहयुक्तो रतिं तां
हृदुपरि जगृहे वै योगदर्शीव विद्याम् । रतिरपि पतिमग्र्यं प्राप्य सा चापि रेजे हरिमिव कमला वै पूर्णचन्द्रोपमास्या ॥ ३४ ॥ इस प्रकार रतिपति कामने अत्यन्त मोहित होकर उस रतिको इस प्रकार अपने हृदयमें ग्रहण किया, जिस प्रकार योगी ब्रह्मविद्याको ग्रहण करता है और वह रति भी श्रेष्ठ कामको प्राप्तकर इस प्रकार प्रसन्न हुई, जिस प्रकार पूर्णचन्द्रके समान मुखवाली महालक्ष्मी विष्णुको पतिरूपमें प्राप्तकर प्रसन्न हुई थीं ॥ ३४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
द्वितीये सतीखण्डे कामविवाहवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें कामविवाहवर्णन नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |