![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
पञ्चमोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] संध्याचरित्रम्
ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य ब्रह्मणो मुनिसत्तमः । स मुदोवाच संस्मृत्य शङ्करं प्रीतमानसः ॥ १ ॥ सूतजी बोले-हे महर्षियो ! ब्रह्माजीके इस वचनको सुनकर मुनिश्रेष्ठ [नारद] प्रसन्नचित्त होकर शंकरजीका स्मरण करके आनन्दपूर्वक कहने लगे- ॥ १ ॥ नारद उवाच
ब्रह्मन् विधे महाभाग विष्णुशिष्य महामते । अद्भुता कथिता लीला त्वया च शशिमौलिनः ॥ २ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे विष्णुशिष्य ! हे महाभाग ! हे महामते ! आपने शिवजीको अद्भुत लीलाका वर्णन किया ॥ २ ॥ गृहीतदारे मदने हृष्टे हि स्वगृहं गते ।
दक्षे च स्वगृहं याते तथा हि त्वयि कर्तरि ॥ ३ ॥ मानसेषु च पुत्रेषु गतेषु स्वस्वधामसु । सन्ध्या कुत्र गता सा च ब्रह्मपुत्री पितृप्रसूः ॥ ४ ॥ जब कामदेव अपनी पत्नीको प्राप्तकर प्रसन्न होकर अपने घर चला गया तथा प्रजापति दक्ष भी अपने घर चले गये, सृष्टिकर्ता आप ब्रह्मा तथा आपके मानसपुत्र भी अपने अपने घर चले गये, तब पितरोंकी जन्मदात्री वह ब्रह्मपुत्री सन्ध्या कहाँ गयी ? ॥ ३-४ ॥ किं चकार च केनैव पुरुषेण विवाहिता ।
एतत्सर्वं विशेषेण सन्ध्यायाश्चरितं वद ॥ ५ ॥ उसने क्या किया और उसका विवाह किस पुरुषके साथ हुआ ? इन सब बातोंको और सन्ध्याके चरित्रको विशेष रूपसे कहिये ॥ ५ ॥ सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य ब्रह्मा पुत्रश्च धीमतः । संस्मृत्य शङ्करं भक्त्या ब्रह्मा प्रोवाच तत्त्ववित् ॥ ६ ॥ सूतजी बोले-तत्त्ववेत्ता ब्रह्मदेव परम बुद्धिमान् देवर्षि नारदके इस वचनको सुनकर भक्तिपूर्वक शंकरजीका स्मरण करके कहने लगे- ॥ ६ ॥ ब्रह्मोवाच
शृणु त्वं च मुने सर्वं सन्ध्यायाश्चरितं शुभम् । यच्छ्रुत्वा सर्वकामिन्यःसाध्व्यः स्युः सर्वदा मुने ॥ ७ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! सन्ध्याका सम्पूर्ण शुभ चरित्र सुनिये, जिसे सुनकर हे मुने ! सभी स्त्रियाँ पतिव्रता होती हैं ॥ ७ ॥ सा च सन्ध्या सुता मे हि मनोजाता पुराऽ भवत् ।
तपस्तप्त्वा तनुं त्यक्त्वा सैव जाता त्वरुन्धती ॥ ८ ॥ वह सन्ध्या, जो पूर्वकालमें मेरे मनसे उत्पन्न हुई थी, वही तपस्याकर शरीर छोड़नेके बाद अरुन्धती हुई ॥ ८ ॥ मेधातिथेः सुता भूत्वा मुनिश्रेष्ठस्य धीमती ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानवचनाच्चरितव्रता ॥ ९ ॥ वव्रे पतिं महात्मानं वसिष्ठं शंसितव्रतम् । पतिव्रता च मुख्याऽभूद्वन्द्या पूज्या त्वभीषणा ॥ १० ॥ उस बुद्धिमती तथा उत्तम व्रत करनेवाली सन्ध्याने मुनिश्रेष्ठ मेधातिथिकी कन्याके रूपमें जन्म ग्रहणकर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वरके वचनोंसे महात्मा वसिष्ठका अपने पतिरूपमें वरण किया । वह श्रेष्ठ पतिव्रता, वन्दनीय, पूजनीय तथा दयाकी प्रतिमूर्ति थी ॥ ९-१० ॥ नारद उवाच
कथं तया तपस्तप्तं किमर्थं कुत्र सन्ध्यया । कथं शरीरं सा त्यक्त्वाऽभवन्मेधातिथेः सुता ॥ ११ ॥ कथं वा विहितं देवैर्ब्रह्मविष्णुशिवैः पतिम् । वसिष्ठं तु महात्मानं संवव्रे शंसितव्रतम् ॥ १२ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! उस सन्ध्याने क्यों, कहाँ तथा किस उद्देश्यसे तप किया, किस प्रकार वह अपना शरीर त्याग करके मेधातिथिकी कन्या हुई और उसने किस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवके द्वारा बताये गये उत्तम व्रतवाले महात्मा वसिष्ठको अपना पति स्वीकार किया ? ॥ ११-१२ ॥ एतन्मे श्रोष्यमाणाय विस्तरेण पितामह ।
कौतूहलमरुन्धत्याश्चरितं ब्रूहि तत्त्वतः ॥ १३ ॥ हे पितामह ! इसे सुननेकी मेरी बड़ी उत्सुकता है, अतः सुननेकी इच्छावाले मुझसे अरुन्धतीके चरित्रका विस्तारपूर्वक ठीक ठीक वर्णन कीजिये ॥ १३ ॥ ब्रह्मोवाच
अहं स्वतनयां सन्ध्यां दृष्ट्वा पूर्वमथात्मनः । कामायाशु मनोऽकार्षं त्यक्त्वा शिवभयाच्च सा ॥ १४ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !]पहले अपनी पुत्री सन्ध्याको देखकर मेरा मन कामसे आकृष्ट हो गया, किंतु बादमें शिवके भयसे मैंने उसे छोड़ दिया ॥ १४ ॥ सन्ध्यायाश्चलितं चित्तं कामबाणविलोडितम् ।
ऋषीणामपि संरुद्धमानसानां महात्मनाम् ॥ १५ ॥ कामबाणसे घायल होकर उस सन्ध्याका तथा मनको वशमें रखनेवाले महात्मा ऋषियोंका भी चित्त चलायमान हो गया था ॥ १५ ॥ भर्गस्य वचनं श्रुत्वा सोपहासं च मां प्रति ।
आत्मनश्चलितत्वं वै ह्यमर्यादमृषीन्प्रति ॥ १६ ॥ कामस्य तादृशं भावं मुनिमोहकरं मुहुः । दृष्ट्वा सन्ध्या स्वयं तत्रोपयमायातिदुःखिता ॥ १७ ॥ उस समय मेरे प्रति कहे गये शिवजीके उपहासयुक्त वचनको सुनकर और ऋषियोंके प्रति अपने चित्तको मर्यादा छोड़कर चलायमान देखकर तथा बार-बार मुनियोंको मोहित करनेवाले उस प्रकारके भावको देखकर वह सन्ध्या विवाहके लिये स्वयं अत्यन्त दुःखी हुई ॥ १६-१७ ॥ ततस्तु ब्रह्मणा शप्ते मदने च मया मुने ।
अन्तर्भूते मयि शिवे गते चापि निजास्पदे ॥ १८ ॥ आमर्षवशमापन्ना सा सन्ध्या मुनिसत्तम । मम पुत्री विचार्यैवं तदा ध्यानपराऽभवत् ॥ १९ ॥ हे मुने ! कामदेवको शाप देकर जब मैं अन्तर्धान हो गया एवं शिवजी अपने स्थान कैलासको चले गये, उस समय हे मुनिसत्तम ! वह मेरी पुत्री सन्ध्या क्षुब्ध होकर कुछ विचार करके ध्यानमग्न हो गयी ॥ १८-१९ ॥ ध्यायन्ती क्षणमेवाशु पूर्वं वृत्तं मनस्विनी ।
इदं विममृशे सन्ध्या तस्मिन्काले यथोचितम् ॥ २० ॥ वह मनस्विनी सन्ध्या कुछ देरतक अपने पूर्व वृत्तका स्मरण करती हुई उस समय यथोचित रूपसे यह विचार करने लगी- ॥ २० ॥ सन्ध्योवाच
उत्पन्नमात्रां मां दृष्ट्वा युवतीं मदनेरितः । अकार्षित्सानुरागोयमभिलाषं पिता मम ॥ २१ ॥ सन्ध्या बोली-मेरे पिताने उत्पन्न होते ही मुझ युवतीको देखकर कामसे प्रेरित होकर आनुरागपूर्वक मुझे प्राप्त करनेकी अभिलाषा की ॥ २१ ॥ पश्यतां मानसानां च मुनीनां भावितात्मनाम् ।
दृष्ट्वैव माममर्यादं सकाममभवन्मनः ॥ २२ ॥ । इसी प्रकार आत्मतत्त्वज्ञ बहादेवके मानसपुत्रोंने भी मुझे देखकर अपना मन मर्यादासे रहितकर कामाभिलाषसे युक्त कर लिया ॥ २२ ॥ ममापि मथितं चित्तं मदनेन दुरात्मना ।
येन दृष्ट्वा मुनीन्सर्वांश्चलितं मन्मनो भृशम् ॥ २६ ॥ इस दुरात्मा कामदेवने मेरे भी चित्तको मथ डाला, जिससे सभी मुनियोंको देखकर मेरा मन बहुत चंचल हो गया ॥ २३ ॥ फलमेतस्य पापस्य मदनः स्वयमाप्तवान् ।
यस्तं शशाप कुपितः शम्भोरग्रे पितामहः ॥ २४ ॥ इस पापका फल कामदेवने स्वयं पाया कि शंकरजीके सामने कुपित होकर ब्रह्माजीने उसे शाप दे दिया ॥ २४ ॥ प्राप्नुयां फलमेतस्य पापस्य स्वघकारिणी ।
तच्छोधनफलं शीघ्रमहिमिच्छामि साधनम् ॥ २५ ॥ यन्मां पिता भ्रातरश्च सकाममपरोक्षतः । दृष्ट्वा चक्रुः स्पृहां तस्मान्न मत्तः पापकृत्परा ॥ २६ ॥ मैं पापिनी भी इस पापका फल पाऊँगी, अतः उस पापसे शुद्ध होनेके लिये मैं भी कोई साधन करना चाहती हूँ; क्योंकि मुझे देखकर मेरे पिता तथा सभी भाई प्रत्यक्ष रूपसे कामभावपूर्वक मेरी अभिलाषा करने लगे । अत: मुझसे बढ़कर कोई पापिनी नहीं है । २५-२६ ॥ ममापि कामभावोऽभूदमर्यादं समीक्ष्य तान् ।
पत्या इव स्वके ताते सर्वेषु सहजेष्वषि ॥ २७ ॥ उन सबको देखकर मुझमें भी अमर्यादित रूपसे कामभाव उत्पन्न हो गया और मैं भी अपने पिता तथा सभी भाइयोंमें पतिके समान भावना करने लगी ॥ २७ ॥ करिष्याम्यस्य पापस्य प्रायश्चित्तमहं स्वयम् ।
आत्मानमग्नौ होष्यामि वेदमार्गानुसारतः ॥ २८ ॥ किं त्वेकां स्थापयिष्यामि मर्यादामिह भूतले । उत्पन्नमात्रा न यथा सकामाः स्युः शरीरिणः ॥ २९ ॥ अब मैं इस पापका प्रायश्चित्त करूँगी और वेदमार्गके अनुसार अपने शरीरको अग्निमें हवन कर दूंगी । मैं इस भूतलपर एक मर्यादा स्थापित करूँगी, जिससे कि शरीरधारी उत्पन्न होते ही कामभावसे युक्त न हों ॥ २८-२९ ॥ एतदर्थमहं कृत्वा तपः परमदारुणम् ।
मर्यादां स्थापयिष्यामि पश्चात् त्यक्षामि जीवितम् ॥ ३० ॥ इसके लिये मैं परम कठोर तप करके उस मर्यादाको स्थापित करूँगी और बादमें अपना शरीर छोईंगी ॥ ३० ॥ यस्मिञ्च्छरीरे पित्रा मे ह्यभिलाषःस्वयं कृतः ।
भातृभिस्तेन कायेन किञ्चिन्नास्ति प्रयोजनम् ॥ ३१ ॥ "मेरे जिस शरीरमें मेरे पिता एवं भाइयोंने कामाभिलाष किया, उस शरीरसे अब कोई प्रयोजन नहीं है । ३१ ॥ मया येन शरीरेण तातेषु सहजेषु च ।
उद्भावितः कामभावो न तत्सुकृतसाधनम् ॥ ३२ ॥ मैंने भी जिस शरीरसे अपने पिता तथा भाइयोंमें कामभाव उत्पन्न किया, अब वह शरीर पुण्यकार्यका साधन नहीं हो सकता ॥ ३२ ॥ इति सञ्चित्य मनसा सन्ध्या शैलवरं ततः ।
जगाम चन्द्रभागाख्यं चन्द्रभागापगा यतः ॥ ३३ ॥ वह सन्ध्या अपने मनमें ऐसा विचारकर चन्द्रभाग नामक श्रेष्ठ पर्वतपर गयी, जहाँसे चन्द्रभागा नदी निकली हुई है ॥ ३३ ॥ अथ तत्र गतां ज्ञात्वा सन्ध्यां गिरिवरं प्रति ।
तपसे नियतात्मानं ब्रह्मावोचमहं सुतम् ॥ ३४ ॥ वशिष्ठं संयतात्मानं सर्वज्ञं ज्ञानयोगिनम् । समीपे स्वे समासीनं वेदवेदाङ्गपारगम् ॥ ३५ ॥ इसके बाद सन्ध्याको उस श्रेष्ठ पर्वतपर तपस्याके लिये गयी हुई जानकर मैंने अपने पासमें बैठे हुए, मनको वशमें रखनेवाले, सर्वज्ञ, ज्ञानयोग तथा वेदवेदांगके पारगामी अपने पुत्र वसिष्ठसे कहा- ॥ ३४-३५ ॥ ब्रह्मोवाच
वसिष्ठ पुत्र गच्छ त्वं सन्ध्यां जातां मनस्विनीम् । तपसे धृतकामां च दीक्षस्वैनां यथा विधि ॥ ३६ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र वसिष्ठ ! तपस्याका विचार करके गयी हुई मनस्विनी पुत्री सन्ध्याके पास जाओ और इसे विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करो ॥ ३६ ॥ मन्दाक्षमभवत्तस्याः पुरा दृष्ट्वैव कामुकान् ।
युष्मान्मां च तथात्मानं सकामां मुनिसत्तम ॥ ३७ ॥ हे मुनिसत्तम ! प्रथम यह तुमलोगोंको, मुझको तथा अपनेको कामाभिलाषसे युक्त देख रही थी, परंतु अब इसके नेत्रोंकी चपलता दूर हो गयी है ॥ ३७ ॥ अनुक्तमूर्तं तत्कर्म पूर्वमृत्युं विमृश्य सा ।
युष्माकमात्मनश्चापि प्राणान्सन्त्यक्तुमिच्छति ॥ ३८ ॥ यह तुमलोगोंको तथा अपने अभूतपूर्व दुष्कर्मको समझकर 'मृत्यु ही अच्छी है'-ऐसा विचारकर प्राण छोड़नेकी इच्छा करती है ॥ ३८ ॥ समर्यादेषु मर्यादां तपसा स्थापयिष्यति ।
तपः कर्तुं गता साध्वी चन्द्रभागाख्यभूधरे ॥ ३९ ॥ अब यह तपस्याके द्वारा अमर्यादित प्राणियोंमें मर्यादा स्थापित करेगी, इसलिये तपस्या करनेके लिये वह साध्वी चन्द्रभाग नामक पर्वतपर गयी है ॥ ३९ ॥ न भावं तपसस्तात सानुजानाति कञ्चन ।
तस्माद्यथोपदेशात्सा प्राप्नोत्विष्टं तथा कुरु ॥ ४० ॥ हे तात ! वह तपस्याकी किसी भी क्रियाको नहीं जानती है, अत: जिस प्रकारके उपदेशसे वह अपने अभीष्टको प्राप्त करे, वैसा करो ॥ ४० ॥ इदं रूपं परित्यज्य निजं रूपान्तरं मुने ।
परिगृह्यान्तिके तस्याः तपश्चर्यां निदर्शयन् ॥ ४१ ॥ हे मुने ! तुम अपने इस रूपको छोड़कर दूसरा शरीर धारणकर उसके समीपमें स्थित होकर तपश्चर्याकी क्रियाओंको प्रदर्शित करो ॥ ४१ ॥ इदं स्वरूपं भवतो दृष्ट्वा पूर्वं यथात्र वाम् ।
नाप्नुयात्साऽथ किञ्चिद्वै ततो रूपान्तरं कुरु ॥ ४२ ॥ उसने यहाँपर मेरे तथा तुम्हारे रूपको पहले देख लिया है, इस रूपद्वारा वह कुछ भी शिक्षा ग्रहण नहीं करेगी, इसलिये दूसरा रूप धारण करो ॥ ४२ ॥ ब्रह्मोवाच
नारदेत्थं वसिष्ठो मे समाज्ञप्तो दयायुतः ॥ यथाऽस्विति च मां प्रोच्य ययौ सन्ध्यान्तिकं मुनिः । ४३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! इस प्रकार दयालु मुनि वसिष्ठजीने मुझसे आज्ञा प्राप्त की और तथास्तु-ऐसा कहकर वे सन्ध्याके समीप गये ॥ ४३ ॥ तत्र देवसरः पूर्णं गुणैर्मानससंमितम् ।
ददर्श स वसिष्टोऽथ सन्ध्यां तत्तीरगामपि ॥ । ४४ ॥ वसिष्ठजीने वहाँ मानससरोवरके समान गुणोंसे परिपूर्ण देवसरको तथा उसके तटपर गयी हुई उस सन्ध्याको भी देखा ॥ ४४ ॥ तीरस्थया तया रेजे तत्सरः कमलोज्ज्वलम् ।
उद्यदिन्दुसुनक्षत्रं प्रदोषे गगनं यथा ॥ ४५ ॥ उज्ज्वल कमलोंसे युक्त वह देवसर तटपर स्थित सन्ध्याद्वारा इस प्रकार शोभित हो रहा था, मानो प्रदोषकालमें उदित चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंसे युक्त आकाश रात्रिमें सुशोभित हो रहा हो ॥ ४५ ॥ मुनिर्दृष्ट्वाथ तां तत्र सुसम्भावां स कौतुकी ।
वीक्षाञ्चक्रे सरस्तत्र बृहल्लोहितसञ्ज्ञकम् ॥ ४६ ॥ कौतूहलयुक्त वसिष्ठजी सुन्दर भावोंवाली उस सन्ध्याको देखकर बृहल्लोहित नामक उस तालाबकी ओर देखने लगे ॥ ४६ ॥ चन्द्रभागा नदी तस्मात्प्राकाराद्दक्षिणाम्बुधिम् ।
यान्ती सा चैव ददृशे तेन सानुगिरेर्महत् ॥ ४७ ॥ निर्भिद्य पश्चिमं सा तु चन्द्रभागस्य सा नदी । यथा हिमवतो गङ्गा तथा गच्छति सागरम् ॥ ४८ ॥ उन्होंने उसी चन्द्रभाग पर्वतके शिखरोंसे दक्षिण समुद्र की ओर जानेवाली चन्द्रभागा नदीको देखा । वह नदी चन्द्रभाग पर्वतके विशाल पश्चिमीभागको तोड़कर समुद्र की ओर उसी प्रकार जा रही थी, जैसे हिमालयसे गंगा समुद्रमें जाती है ॥ ४७-४८ ॥ तस्मिन् गिरौ चन्द्रभागे बृहल्लोहिततीरगाम् ।
सन्ध्यां दृष्ट्वाऽथ पप्रच्छ वसिष्ठः सादरं तदा ॥ ४९ ॥ उस चन्द्रभाग पर्वतपर बृहल्लोहित सरोवरके तटपर स्थित सन्ध्याको देखकर वसिष्ठजी आदरपूर्वक उससे पूछने लगे- ॥ ४९ ॥ वशिष्ठ .उवाच
किमर्थमागता भद्रे निर्जनं त्वं महीधरम् । कस्य वा तनया किं वा भवत्यापि चिकीर्षितम् ॥ ५० ॥ एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं वद गुह्यं न चेद्भवेत् । वदनं पूर्णचन्द्राभं निश्चेष्टं वा कथं तव ॥ ५१ ॥ वसिष्ठजी बोले-हे भद्रे ! इस निर्जन पर्वतपर तुम किसलिये आयी हो, तुम किसकी कन्या हो और यहाँ क्या करना चाहती हो ? पूर्ण चन्द्रमाके समान तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो गया है ? यदि कोई गोपनीय बात न हो, तो बताओ, मुझे सुननेकी इच्छा है । ५०-५१ ॥ ब्रह्मोवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य वशिष्ठस्य महात्मनः । दृष्ट्वा च तं महात्मानं ज्वलन्तमिव पावकम् ॥ ५२ ॥ शरीरधृग्ब्रह्मचर्यं विलसन्तं जटाधरम् । सादरं प्रणिपत्याथ सन्ध्योवाच तपोधनम् ॥ ५३ ॥ ब्रह्माजी बोले-उन महात्मा वसिष्ठकी बात सुनकर उन्हें महात्मा, प्रदीप्त अग्निके समान तेजस्वी, ब्रह्मचारी तथा जटाधारी देखकर और आदरपूर्वक प्रणामकर सन्ध्या उन तपोधन वसिष्ठसे कहने लगी ॥ ५२-५३ ॥ सन्ध्योवाच
यदर्थमागता शैलं सिद्धं तन्मे निबोध ह । तव दर्शनमात्रेण यन्मे सेत्स्यति वा विभो ॥ ५४ ॥ सन्ध्या बोली-हे विभो ! मैं जिस उद्देश्यसे इस सिद्धपर्वतपर आयी हूँ, वह तो आपके दर्शनमाजसे ही पूर्ण हो जायगा ॥ ५४ ॥ तपश्चर्तुमहं ब्रह्मन्निर्जनं शैलमागता ।
ब्रह्मणोहं सुता जाता नाम्ना सन्ध्येति विश्रुता ॥ ५५ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैं तप करनेके लिये इस निर्जन पर्वतपर आयी हूँ, मैं ब्रह्माको पुत्री हूँ और सन्ध्या नामसे प्रसिद्ध हूँ ॥ ५५ ॥ यदि ते युज्यते सह्यं मां त्वं समुपदेशय ।
एतच्चिकीर्षितं गुह्यं नान्यैः किञ्चन विद्यते ॥ ५६ ॥ यदि आपको उचित जान पड़े, तो मुझे उपदेश कीजिये । मैं तपस्या करना चाहती हूँ, अन्य कुछ भी गोपनीय नहीं है ॥ ५६ ॥ अज्ञात्वा तपसो भावं तपोवनमुपाश्रिता ।
चिन्तया परिशुष्येऽहं वेपते हि मनो मम ॥ ५७ ॥ मैं तपस्याकी कोई विधि बिना जाने ही तपोवनमें आ गयी हूँ । इसी चिन्तासे मैं सूखती जा रही हूँ तथा मेरा हृदय काँप रहा है ॥ ५७ ॥ ब्रह्मोवाच
आकर्ण्य तस्या वचनं वसिष्ठो ब्रह्मवित्तमः । स्वयं च सर्वकृत्यज्ञो नान्यत्किञ्चन पृष्टवान् ॥ ५८ ॥ अथ तां नियतात्मानं तपसेति धृतोद्यमाम् । प्रोवाच मनसा स्मृत्वा शङ्करं भक्तवत्सलम् ॥ ५९ ॥ ब्रह्माजी बोले-ब्रह्मज्ञानी वसिष्ठजीने उसकी बात सुनकर पुनः सन्ध्यासे कुछ नहीं पूछा; क्योंकि वे सभी बातें जानते थे । इसके बाद वे मनमें भक्तवत्सल शंकरजीका स्मरणकर तपस्याके लिये उद्यम करनेवाली तथा मनको वशमें रखनेवाली उस सन्ध्यासे कहने लगे- ॥ ५८-५९ ॥ वसिष्ठ उवाच
परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः । परमः परमाराध्यः शम्भुर्मनसि धार्यताम् ॥ ६० ॥ वसिष्ठजी बोले-[हे देवि !] जो महान् तेजःस्वरूप, महान् तप तथा परम आराध्य हैं, उन शम्भुका मनमें ध्यान करो ॥ ६० ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां य एकस्त्वादिकारणम् ।
तमेकं जगतामाद्यं भजस्व पुरुषोत्तमम् ॥ ६१ ॥ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके आदिकारण तथा अद्वैतस्वरूप हैं, उन्हीं संसारके एकमात्र आदिकारण पुरुषोत्तमका भजन करो ॥ ६१ ॥ मन्त्रेणानेन देवेशं शम्भुं भज शुभानने ।
तेन ते सकला वाप्तिर्भविष्यति न संशयः ॥ ६२ ॥ हे शुभानने ! तुम इस मन्त्रसे देवेश्वर शम्भुका भजन करो, उससे तुम्हें समस्त पदार्थोकी प्राप्ति हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६२ ॥ ॐ नमः शङ्करायेति ॐमित्यन्तेन सन्ततम् ।
मौनं तपः समारम्भं तन्मे निगदतः शृणु ॥ ६३ ॥ 'ॐ नमः शंकराय ॐ' इस मन्त्रसे मौन होकर इस प्रकार तपस्याका प्रारम्भ करो, [विशेष विधि] तुमको बता रहा हूँ, सुनो ॥ ६३ ॥ स्नानं मौनेन कर्तव्यं मौनेन हरपूजनम् ।
द्वयोः पूर्णजलाहारं प्रथमं षष्ठकालयोः ॥ ६४ ॥ तृतीये षष्ठकाले तु ह्युपवासपरा भवेत् । एवं तपः समाप्तौ वा षष्ठे काले क्रिया भवेत् ॥ ६५ ॥ मौन होकर स्नान तथा मौन होकर सदाशिवकी पूजा करनी चाहिये । प्रथम दोनों षष्ठकालोंमें जलका आहारकर तीसरे षष्ठकालमें उपवास करे । इस प्रकार षष्ठकालिक क्रिया तपस्याकी समाप्तिपर्यन्त करनी चाहिये ॥ ६४-६५ ॥ एवं मौनतपस्याख्या ब्रह्मचर्यफलप्रदा ।
सर्वाभीष्टप्रदा देवि सत्यंसत्यं न संशयः ॥ ६६ ॥ हे देवि ! इसका नाम मौन तपस्या है । इसे करनेसे यह ब्रह्मचर्यका फल प्रदान करनेवाली तथा सभी अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली है, यह सत्य है, सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६६ ॥ एवं चित्ते समुद्दिश्य कामं चिन्तय शङ्करम् ।
स ते प्रसन्न इष्टार्थमचिरादेव दास्यति ॥ ६७ ॥ इस प्रकार चित्तमें विचार करके सदाशिवका गहन चिन्तन करो, [ऐसा करनेसे] वे तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होकर शीघ्र ही अभीष्ट फल प्रदान करेंगे । ६७ ॥ ब्रह्मोवाच
उपविश्य वसिष्ठोऽथ सन्ध्यायै तपसः क्रियाम् । तामाभाष्य यथान्यायं तत्रैवान्तर्दधे मुनिः ॥ ६८ ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार मुनि बसिष्ठ वहाँ बैठकर सन्ध्याको तपस्याको यथोचित विधि बताकर अन्तर्धान हो गये ॥ ६८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
द्वितीये सतीखण्डे सन्ध्याचरित्रवर्णनो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सन्थ्याचरित्रवर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |