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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

एकादशोऽध्यायः ॥

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दुर्गास्तुतिर्ब्रह्मवरप्राप्तिश्च
ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति


नारद उवाच
ब्रह्मंस्तात महाप्राज्ञ वद नो वदतां वर ।
गते विष्णौ किमभवदकार्षीत्किं विधे भवान् ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे महाप्राज्ञ ! हे तात ! [आपसे] इस प्रकार कहकर विष्णुके अन्तर्धान हो जानेपर क्या हुआ ? हे विधे ! आपने क्या किया ? हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! आप मुझसे कहिये ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच
विप्रनन्दनवर्य त्वं सावधानतया शृणु ।
विष्णौ गते भगवति यदकार्षमहं खलु ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे श्रेष्ठ विप्रनन्दन ! भगवान् विष्णुके चले जानेपर मैंने जो कार्य किया, आप उसे सावधानीपूर्वक सुनिये ॥ २ ॥

विद्याविद्यात्मिकां शुद्धां परब्रह्मस्वरूपिणीम् ।
स्तौमि देवीं जगद्धात्रीं दुर्गां शम्भुप्रियां सदा ॥ ३ ॥
तब मैं विद्या-अविद्यास्वरूपा, शुद्ध, परब्रह्मस्वरूपिणी तथा जगत्को धारण करनेवाली शम्भुप्रिया देवी दुर्गाकी स्तुति करने लगा ॥ ३ ॥

सर्वत्र व्यापिनीं नित्यां निरालम्बां निराकुलाम् ।
त्रिदेवजननीं वन्दे स्थूलस्थूलाभरूपिणीम् ॥ ४ ॥
त्वं चितिः परमानन्दा परमात्मस्वरूपिणी ।
प्रसन्ना भव देवेशि मत्कार्यं कुरु ते नमः ॥ ५ ॥
सर्वत्र व्याप्त रहनेवाली, नित्य, निराश्रय, निराकुल, त्रिदेवोंको उत्पन्न करनेवाली, स्थूलसे भी स्थूल रूप धारण करनेवाली तथा निराकार दुर्गाकी मैं वन्दना करता हूँ । आप चित्स्वरूपा, परमानन्दस्वरूपिणी तथा परमात्म-स्वरूपिणी हैं । हे देवेशि ! मेरे ऊपर आप प्रसन्न हों और मेरा कार्य करें । आपको नमस्कार है ॥ ४-५ ॥

एवं संस्तूयमाना सा योगनिद्रा मया मुने ।
आविर्बभूव प्रत्यक्षं देवर्षे चण्डिका मम ॥ ६ ॥
हे मुने ! हे देवर्षे ! मेरे द्वारा इस प्रकार स्तुति करनेपर वे योगनिद्रा भगवती चण्डिका मेरे सामने प्रकट हो गयीं ॥ ६ ॥

स्निग्धाञ्जनद्युतिश्चारुरूपा दिव्यचतुर्भुजा ।
सिंहस्था वरहस्ता च मुक्तामणिकचोत्कटा ॥ ७ ॥
शरदिन्द्वानना शुभ्रचन्द्रभाला त्रिलोचना ।
सर्वावयवरम्या च कमलाङ्‌घ्रिनखद्युतिः ॥ ८ ॥
वे भगवती दुर्गा चिकने अंजनके समान शरीरकी कान्तिसे युक्त थीं, वे सुन्दर रूपसे सम्पन्न थीं, उनकी दिव्य चार भुजाएँ थीं, वे सिंहपर सवार थीं, वे हाथमें वरमुद्रा धारण किये हुए थीं, उनके केशोंमें मोती तथा मणियाँ ग्रथित थीं, वे अत्यन्त उत्कट थीं, उनका मुख शरत्कालीन पूर्णिमाके समान था, उनके मस्तकपर शुभ चन्द्रमा सुशोभित हो रहा था, वे तीन नेत्रोंसे युक्त थीं, उनके समस्त शरीरके अवयव परम मनोहर थे तथा वे चरणकमलके नखकी कान्तिसे प्रकाशित हो रही थीं ॥ ७-८ ॥

समक्षं तामुमां वीक्ष्य मुने शक्तिं शिवस्य हि ।
भक्त्या विनततुङ्‌गांशः प्रास्तवं सुप्रणम्य वै ॥ ९ ॥
इस प्रकार अपने सामने शिवकी शक्ति उन भगवती उमाको उपस्थित देखकर भक्तिसे सिर झुकाकर मैं उन्हें प्रणाम करके [इस प्रकार] स्तुति करने लगा- ॥ ९ ॥

ब्रह्मोवाच
नमो नमस्ते जगतःप्रवृत्ति-
     निवृतिरूपे स्थितिसर्गरूपे ।
चराचराणां भवती सुशक्तिः
     सनातनी सर्वविमोहनीति ॥ १० ॥
ब्रह्माजी बोले-हे जगत्की प्रवृत्ति एवं निवृत्तिस्वरूपे ! हे सर्गस्थितिरूपे ! आपको नमस्कार है । आप समस्त चराचरकी शक्ति, सनातनी तथा सबको मोहित करनेवाली हैं ॥ १० ॥

या श्रीः सदा केशवमूर्तिमाला
     विश्वम्भरा या सकलं बिभर्ति ।
या त्वं पुरा सृष्टिकरी महेशी
     हर्त्री त्रिलोकस्य परा गुणेभ्य ॥ ११ ॥
जो महालक्ष्मी भगवान् विष्णुको मालाकी भाँति हृदयमें धारण करनेवाली, विश्वका भरण करनेवाली तथा सभीका पोषण करनेवाली हैं, जो महेश्वरी पूर्वमें त्रिलोकीका सृजन करनेवाली है, उसका संहार करनेवाली हैं तथा गुणोंसे सर्वथा परे हैं ॥ ११ ॥

या योगिनां वै महिता मनोज्ञा
     सा त्वं नमस्ते परमाणुसारे ।
यमादिपूते हृदि योगिनां या
     या योगिनां ध्यानपथे प्रतीता ॥ १२ ॥
प्रकाशशुद्ध्यादियुता विरागा
     सा त्वं हि विद्या विविधावलम्बा ।
कूटस्थमव्यक्तमनन्तरूपं
     त्वं बिभ्रती कालमयी जगन्ति ॥ १३ ॥
जो योगियोंके लिये पूज्य हैं, मनोहर हैं-वे आप ही हैं । हे परमाणुओंकी सारस्वरूपे ! आपको नमस्कार है । जो यम-नियमोंसे पवित्र हुए योगियोंके हृदयमें निवास करनेवाली तथा योगियोंके द्वारा ध्यानगम्य हैं, वे प्रकाश एवं शुद्धि आदिसे युक्त, मोहसे रहित एवं [इस जगत्को] अनेक प्रकारसे अवलम्ब देनेवाली विद्यास्वरूपा आप ही हैं । आप कूटस्थ, अव्यक्त एवं अनन्तरूपा हैं । [हे भगवति !] आप कालरूपसे इस जगत्को धारण करती हैं ॥ १२-१३ ॥

विकारबीजं प्रकरोपि नित्यं
     गुणान्विता सर्वजनेषु नूनम् ।
त्वं वै गुणानां च शिवे त्रयाणां
     निदानभूता च ततः पराऽसि ॥ १४ ॥
आप गुणोंसे युक्त होकर सभी प्राणियोंमें नित्य विकाररुप बीज उत्पन्न करती हैं । हे शिवे ! आप तीनों गुणोंकी कारणरूपा हैं तथा इससे परे भी हैं ॥ १४ ॥

सत्वं रजस्तामस इत्यमीषां
     विकारहीना सभुवस्तुरीया ।
सा त्वं गुणानां जगदेकहेतुं
     ब्रह्मान्तरारम्भसि चात्सि पासि ॥ १५ ॥
[हे देवि !] आप सत्व, रज तथा तम-इन तीनों गुणोंके साथ ही पार्थिव विकारोंसे रहित तुरीय रूप हैं । आप इस जगत्की तथा गुणोंकी हेतुभूता हैं । आप ही ब्रह्माण्डमें स्थित रहकर इस जगत्की सृष्टि , प्रलय तथा पालन करती हैं ॥ १५ ॥

अशेषजगतां बीजे ज्ञेयज्ञानस्वरूपिणि ।
जगद्धिताय सततं शिवपत्नि नमोस्तु ते ॥ १६ ॥
हे सम्पूर्ण जगत्की बीजस्वरूपे ! हे ज्ञान तथा ज्ञेयस्वरूपिणि ! आप सर्वदा जगत्के हितसाधनमें तत्पर रहनेवाली हैं । अतः हे शिवपलि ! आपको सदा नमस्कार है ॥ १६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचः सा मे काली लोक विभाविनी ।
प्रीत्या मां जगतामूचे स्रष्टारं जनशब्दवत् ॥ १७ ॥
[ब्रह्माजी बोले-] मेरी स्तुतिको सुनकर लोकका कल्याण करनेवाली वे महाकाली, सामान्य मनुष्यकी भाँति मुझ जगत्वष्टासे प्रेमपूर्वक कहने लगीं ॥ १७ ॥

देव्युवाच
ब्रह्मन् किमर्थं भवता स्तुताहमवधारय ।
उच्यतां यदि धृष्योऽसि तच्छीघ्रं पुरतो मम ॥ १८ ॥
देवी बोलीं-हे ब्रह्मन् ! आपने मेरी स्तुति किसलिये की है, इसे आप ठीकसे समझ लें । आप मेरे भक्त है, तो उसे शीघ्र ही मेरे सामने निवेदन करें ॥ १८ ॥

प्रत्यक्षमपि जातायां सिद्धिः कार्यस्य निश्चिता ।
तस्मात्त्वं वाञ्छितं ब्रूहि या करिष्यामि भाविता ॥ १९ ॥
मेरे प्रत्यक्ष रूपसे प्रकट हो जानेपर कार्यसिद्धि निश्चित है । अत: आप अपनी मनोभिलषित बात कहें, मैं प्रसन्न होकर उसे निश्चित रूपसे करूँगी ॥ १९ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु देवि महेशानि कृपां कृत्वा ममोपरि ।
मनोरथस्थं सर्वज्ञे प्रवदामि त्वदाज्ञया ॥ २० ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देवि ! हे महेश्वरि ! मेरे ऊपर कृपाकर मेरी बात सुनें । हे सर्वज्ञे ! आपकी आज्ञासे मैं अपने मनोरथकी बात कह रहा हूँ ॥ २० ॥

यः पतिस्तव देवेशि ललाटान्मेऽभवत्पुरा ।
शिवो रुद्राख्यया योगी स वै कैलासमास्थितः ॥ २१ ॥
हे देवेशि ! पूर्वकालमें मेरे ललाट प्रदेशसे उत्पन्न हुए आपके पति जो रुद्रनामसे प्रसिद्ध हैं, वे इस समय योगी होकर कैलासपर्वतपर निवास कर रहे हैं ॥ २१ ॥

तपश्चरति भूतेश एक एवाविकल्पकः ।
अपत्नीको निर्विकारो न द्वितीयां समीहते ॥ २२ ॥
वे भूतोंके स्वामी इस समय अकेले निर्विकल्पक समाधिमें लीन होकर तप कर रहे हैं । वे निर्विकार होनेके कारण पत्नीसे रहित हैं और [आत्मामें रमण करनेके कारण] दूसरी पत्नीकी अपेक्षा नहीं करते ॥ २२ ॥

तं मोहय यथा चान्यां द्वितीयां सति वीक्षते ।
त्वदृते तस्य नो काचिद्‌भविष्यति मनोहरा ॥ २३ ॥
तस्मात् त्वमेव रूपेण भवस्व भवमोहिनी ।
सुता भूत्वा च दक्षस्य रुद्रपत्नी शिवे भव ॥ २४ ॥
हे सति ! आप उन्हींको मोहित करें, जिससे वे [आत्माभिरमणसे उपरत होकर दूसरी स्त्री [आप]. को देखें । आपके अतिरिक्त कोई अन्य स्त्री उनके मनको मोहित करनेवाली नहीं होगी । इसलिये आप ही दक्षकी कन्या बनकर अपने रूपसे शिवजीको मोहित करनेवाली हों । हे शिवे ! आप शिवपत्नी बनें । २३-२४ ॥

यथा धृतशरीरा त्वं लक्ष्मीरूपेण केशवम् ।
आमोदयसि विश्वस्य हितायैतं तथा कुरु ॥ २५ ॥
जिस प्रकार आप लक्ष्मीका रूप धारणकर विष्णुको प्रसन्न करती हैं, उसी प्रकार संसारके हितके लिये आप इस कार्यको भी वैसे ही करें ॥ २५ ॥

कान्ताभिलाषमात्रं मे दृष्ट्‍वाऽनिन्दद्वृषध्वजः ।
स कथं वनितां देवी स्वेच्छया सङ्‌ग्रहीष्यति ॥ २६ ॥
हे देवि ! जब उन शिवने स्वीविषयक अभिलाषा मात्रसे मेरी निन्दा की, तो भला वे स्वेच्छासे किस प्रकार स्त्री ग्रहण कर सकते हैं ? ॥ २६ ॥

हरे गृहीतकान्ते तु कथं सृष्टिः शुभावहा ।
आद्यन्तमध्ये चैतस्य हेतौ तस्मिन्विरागिणि ॥ २७ ॥
यदि वे स्त्री ग्रहण कर भी लें, तो भी वे तो सृष्टिके आदि, मध्य और अन्तमें सदैव विरक्त रहते हैं, अत: उनसे उत्तम सृष्टि किस प्रकार होगी ? ॥ २७ ॥

इति चिन्तापरो नाहं त्वदन्यं शरणं हितम् ।
कृच्छ्रवांस्तेन विश्वस्य हितायैतत्कुरुष्व मे ॥ २८ ॥
हे देवि ! इस प्रकार चिन्तापरायण हुए मेरे लिये आपके अतिरिक्त और कोई शरणप्रद नहीं है, इसलिये विश्वकल्यापके निमित्त आप मेरे इस कार्यको करें ॥ २८ ॥

न विष्णुस्तस्य मोहाय न लक्ष्मीर्न मनोभवः ।
न चाप्यहं जगन्मातर्नान्यस्त्वां कोपि वै विना ॥ २९ ॥
शिवजीको मोहित करनेमें न विष्णु, न लक्ष्मी, न काम और न तो मैं ही समर्थ हूँ । हे जगन्माता ! आपके बिना कोई भी उन्हें मोहित करनेमें समर्थ नहीं है ॥ २९ ॥

तस्मात्त्वं दक्षजा भूत्वा दिव्यरूपा महेश्वरी ।
तत्पत्नी भव मद्‌भक्त्या योगिनं मोहयेश्वरम् ॥ ३० ॥
अतः आप दिव्यरूपा दक्षपुत्रीके रूपमें जन्म लेकर मेरी भक्तिके आग्रहसे महायोगी शिवको मोहित करें और उनकी पत्नी महेश्वरी बनें ॥ ३० ॥

दक्षस्तपति देवेशि क्षीरोदोत्तरतीरगः ।
त्वामुद्दिश्य समाधाय मनस्त्वयि दृढव्रतः ॥ ३१ ॥
हे देवेशि ! इस समय दक्षप्रजापति क्षीरसमुद्रके उत्तर तटपर आपको प्राप्त करनेके उद्देश्यसे मनमें आपका ध्यान करते हुए दृढव्रती होकर तपस्या कर रहे हैं ॥ ३१ ॥

इत्याकर्ण्य वचः सा चिन्तामाप शिवा तदा ।
उवाच च स्वमनसि विस्मिता जगदम्बिका ॥ ३२ ॥
ब्रह्माजी बोले-मेरे इस वचनको सुनकर वे जगदम्बिका शिवा चिन्तित हो उठी और विस्मित होकर अपने मनमें कहने लगी- ॥ ३२ ॥

देव्युवाच
अहो सुमहदाश्चर्यं वेदवक्तापि विश्वकृत् ।
महाज्ञानपरो भूत्वा विधाता किं वदत्ययम् ॥ ३३ ॥
देवी बोलीं-वेदवक्ता और जगत्कर्ता ये विधाता महान् अज्ञानसे युक्त होकर कैसी बात कर रहे हैंअहो ! यह महान् आश्चर्य है ! ॥ ३३ ॥

विधेश्चेतसि सञ्जातो महामोहोऽसुखावहः ।
यद्वरं निर्विकारं तं संमोहयितुमिच्छति ॥ ३४ ॥
ब्रह्माके चित्तमें ऐसा यह दुःखदायी महान् मोह कैसे उत्पन्न हो गया कि वे निर्विकार परमात्माको भी मोहित करना चाहते हैं ! ॥ ३४ ॥

हरमोहवरं मत्तः समिच्छति विधिस्त्वयम् ।
को लाभोस्यात्र स विभुर्निर्मोहो निर्विकल्पकः ॥ ३५ ॥
ये ब्रह्मा मुझसे शिवजीके मोहका वर चाहते हैं, इनका कौन-सा लाभ है ? वे प्रभु तो निर्विकल्प, निर्मोह हैं ॥ ३५ ॥

परब्रह्माख्यो यः शम्भुर्निर्गुणो निर्विकारवान् ।
तस्याहं सर्वदा दासी तदाज्ञावशगा सदा ॥ ३६ ॥
वे शम्भु निर्विकार, निर्गुण तथा परब्रह्म हैं और मैं तो सदा उनकी आज्ञामें रहनेवाली दासी हूँ ॥ ३६ ॥

स एव पूर्णरूपेण रुद्रनामाभवच्छिवः ।
भक्तोद्धारणहेतोर्हि स्वतन्त्रः परमेश्वरः ॥ ३७ ॥
वे स्वतन्त्र परमेश्वर शिवभक्तोंके उद्धारहेतु अपने पूर्ण रूपसे रुद्र नामसे अवतीर्ण हुए हैं ॥ ३७ ॥

हरेर्विधेश्च स स्वामी शिवान्यूनो न कर्हिचित् ।
योगादरो ह्यमायस्थो मायेशः परतः परः ॥ ३८ ॥
वेरुद्र ब्रह्मा तथा विष्णुके भी स्वामी हैं और किसी भी प्रकार शिवसे कम नहीं हैं । वे योगका आदर करनेवाले, मायासे रहित, मायापति तथा परसे भी परे हैं ॥ ३८ ॥

मत्वा तमात्मजं ब्रह्मा सामान्यसुरसंनिभम् ।
इच्छत्ययं मोहयितुमतोऽज्ञानविमोहितः ॥ ३९ ॥
अज्ञानसे मोहित ये ब्रह्मा उन्हें अपना आत्मज तथा सामान्य देवता समझकर मोहित करना चाहते हैं ॥ ३९ ॥

न दद्याच्चेद्वरं वेदनीतिर्भ्रष्टा भवेदिति ।
किं कुर्यां येन न विभुः क्रुद्धः स्यान्मे महेश्वरः ॥ ४० ॥
यदि इन ब्रह्माको वरदान न दूँ, तो वेदकी नीति भ्रष्ट होती है । अब मैं क्या करूँ, जिससे प्रभु महेश्वर मेरे ऊपर क्रोधित न हों ॥ ४० ॥

ब्रह्मो वाच
विचार्येत्थं महेशं तं सस्मार मनसा शिवा ।
प्रापानुज्ञां शिवस्याथोवाच दुर्गा च मां तदा ॥ ४१ ॥
ब्रह्माजी बोले-शिवाने इस प्रकार विचारकर मनसे महादेवजीका स्मरण किया । तत्पश्चात् शिवकी आज्ञा पाकर वे दुर्गा मुझसे कहने लगी- ॥ ४१ ॥

दुर्गोवाच
यदुक्तं भवता ब्रह्मन् समस्तं सत्यमेव तत् ।
मदृते मोहयित्रीह शङ्‌करस्य न विद्यते ॥ ४२ ॥
दुर्गा बोलीं-हे ब्रह्मन् ! आपने जो भी कहा है, वह सब सत्य है, मुझे छोड़कर शंकरजीको मोहित करनेवाली कोई दूसरी स्त्री संसारमें नहीं है ॥ ४२ ॥

हरेऽगृहीतदारे तु सृष्टिनैषा सनातनी ।
भविष्यतीति तत्सत्यं भवता प्रतिपादितम् ॥ ४३ ॥
आपने जो कहा कि जबतक शंकरजी दारपरिग्रह नहीं करेंगे, तबतक सनातनी सृष्टि नहीं होगी, यह बात भी सत्य है ॥ ४३ ॥

ममापि मोहने यन्नो विद्यतेस्य महाप्रभोः ।
त्वद्वाक्याद्‌द्विगुणो मेद्य प्रयत्नोऽभूत्स निर्भरः ॥ ४४ ॥
मुझमें भी महाप्रभुको मोहित करनेकी सामर्थ्य नहीं है, किंतु अब आपके कहनेसे दुगुने उत्साहसे युक्त होकर मैं पूर्ण प्रयत्न करूँगी ॥ ४४ ॥

अहं तथा यतिष्यामि यथा दारपरिग्रहम् ।
हरः करिष्यति विधे स्वयमेव विमोहितः ॥ ४५ ॥
हे विधे ! अब मैं वैसा उपाय करूँगी, जिससे शंकरजी मोहित होकर स्वयं स्त्री ग्रहण करेंगे ॥ ४५ ॥

सतीमूर्तिमहं धृत्वा तस्यैव वशवर्तिनी ।
भविष्यामि महाभागा लक्ष्मीर्विष्णोर्यथाप्रिया ॥ ४६ ॥
जिस प्रकार महाभागा लक्ष्मीजी विष्णुप्रिया हैं, उसी प्रकार में भी सतीरूप धारणकर उनकी वशवर्तिनी [प्रिया पत्नी] बनूंगी ॥ ४६ ॥

यथा सोऽपि मयैवेय वशवर्ती सदा भवेत् ।
तथा यत्नं करिष्यामि तस्यैव कृपया विधे ॥ ४७ ॥
वे भी जिस प्रकारसे मेरे वशवर्ती बने रहें, मैं भी उन्हींकी कृपासे वैसा ही यल करूंगी ॥ ४७ ॥

उत्पन्ना दक्षजायायां सतीरूपेण शङ्‌करम् ।
अहं सभाजयिष्यामि लीलया तं पितामह ॥ ४८ ॥
हे पितामह ! मैं दक्षकी पत्नीके गर्भसे सतीरूपसे जन्म लेकर अपनी लीलाके द्वारा शिवजीको प्राप्त करूँगी ॥ ४८ ॥

यथान्यजन्तुरवनौ वर्तते वनितावशे ।
मद्‌भक्त्या स हरो वामावशवर्ती भविष्यति ॥ ४९ ॥
जिस प्रकार संसारमें अन्य प्राणी स्त्रीके वशमें होते हैं, उसी प्रकार मेरी भक्तिसे वे महादेवजी भी स्त्रीके वशवर्ती बने रहेंगे ॥ ४९ ॥

ब्रह्मोवाच
मह्यमित्थं समाभाष्य शिवा सा जगदम्बिका ।
वीक्ष्यमाणा मया तात तत्रैवान्तर्दधे ततः ॥ ५० ॥
ब्रह्माजी बोले-हे तात ! मुझसे इस प्रकार कहकर वे जगदम्बा शिवा मेरे देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गर्यो ॥ ५० ॥

तस्यामन्तर्हितायां तु सोऽहं लोकपितामहः ।
अगमं यत्र स्वसुतास्तेभ्यःसर्वमवर्णयम् ॥ ५१ ॥
उनके अन्तर्धान हो जानेपर मैं लोकपितामह ब्रह्मा वहाँ गया, जहाँ मेरे पुत्र थे और मैंने उनसे सब कुछ वर्णन किया ॥ ५१ ॥

इति श्रीशिवपुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां सतीखण्डे
दुर्गास्तुतिब्रह्मवरप्राप्तिवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें दुर्गास्तुति-ब्रह्मवरप्राप्तिवर्णन नामक ग्यारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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