Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

द्वादशोऽध्यायः ॥

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


दक्षवरप्राप्तिः
दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना


नारद उवाच
ब्रह्मन् शम्भुवर प्राज्ञ सम्यगुक्तं त्वयानघ ।
शिवाशिवचरित्रं च पावितं जन्म मे हि तत् ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे शिवभक्त ! हे प्राज्ञ ! हे निष्पाप आपने शिवा तथा शिवके कल्याणकारी चरित्रका भलीभाँति वर्णन किया और मेरे जन्मको पवित्र कर दिया ॥ १ ॥

इदानीं वद दक्षस्तु तपः कृत्वा दृढव्रतः ।
कं वरं प्राप देव्यास्तु कथं सा दक्षजाऽभवत् ॥ २ ॥
अब आप यह बताइये कि व्रतमें दृढ़ता रखनेवाले दक्षने तप करके देवीसे कौन-सा वर प्राप्त किया तथा वे शिवा किस प्रकार दक्षकन्याके रूपमें उत्पन्न हुई ? ॥ २ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु नारद धन्यस्त्वं मुनिभिर्भक्तितोऽखिलैः ।
यथा तेपे तपो दक्षो वरं प्राप च सुव्रतः ॥ ३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! तुम इन मुनियोंके साथ शिवमें भक्ति रखनेके कारण अत्यन्त धन्य हो । उत्तम व्रतवाले दक्षने जिस प्रकार तपस्या की तथा वर प्राप्त किया, उसे सुनो ॥ ३ ॥

मदाज्ञप्तः सुधीर्दक्षः समाधाय महाधिपः ।
अपाद्यष्टुं च तां देवीं तत्कामो जगदम्बिकाम् ॥ ४ ॥
क्षीरोदोत्तरतीरस्थां तां कृत्वा हृदयस्थिताम् ।
तपस्तप्तुं समारेभे द्रुष्टुं प्रत्यक्षतोऽम्बिकाम् ॥ ५ ॥
मेरी आज्ञा पाकर वे बुद्धिमान् महाराज दक्षप्रजापति उस कार्यकी सिद्धिकी इच्छासे चित्तको समाहितकर देवी जगदम्बाकी उपासनाके लिये गये और क्षीरसागरके उत्तरतटपर रहनेवाली उन जगदम्बिकाको हृदयमें धारण करके उनका प्रत्यक्ष दर्शन करनेहेतु तपस्या करने लगे ॥ ४-५ ॥

दिव्यवर्षेण दक्षस्तु सहस्राणां त्रयं समाः ।
तपश्चचार नियतः संयतात्मा दृढव्रतः ॥ ६ ॥
इन्द्रियोंको अपने वशमें करके दृढव्रती उन दक्षने देवताओंके तीन हजार वर्षपर्यन्त नियमपूर्वक तप किया ॥ ६ ॥

मारुताशी निराहारो जलाहारी च पर्णभुक् ।
एवं निनाय तं कालं चिन्तयन्तां जगन्मयीम् ॥ ७ ॥
उन जगन्मयी शिवाका ध्यान करते हुए दक्षने कुछ दिन पत्ते खाकर, कुछ दिन जल पीकर, कुछ दिन निराहार रहकर तथा कुछ दिन वायु पीकर उस समयको व्यतीत किया ॥ ७ ॥

दुर्गाध्यानसमासक्तश्चिरं कालं तपोरतः ।
नियमैर्बहुभिर्देवीमाराधयति सुव्रतः ॥ ८ ॥
ततो यमादियुक्तस्य दक्षस्य मुनिसत्तम ।
जगदम्बा पूजयतः प्रत्यक्षमभवच्छिवा ॥ ९ ॥
इस प्रकार वे सुव्रत दुर्गाके ध्यानमें संलग्न होकर बहुत समयतक तपस्या करते रहे और अनेक नियमोंसे देवीकी आराधना करते रहे । तब हे मुनिश्रेष्ठ ! अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि यमोंसे युक्त होकर जगदम्बाकी पूजा करते हुए उन दक्षके सामने जगदम्बा शिवा प्रत्यक्ष हुई ॥ ८-९ ॥

ततः प्रत्यक्षतो दृष्ट्‍वा जगदम्बां जगन्मयीम् ।
कृतकृत्यमथात्मानं मेने दक्षः प्रजापतिः ॥ १० ॥
तब दक्ष प्रजापतिने उन जगन्मयी जगदम्बाको अपने सामने प्रत्यक्ष देखकर अपनेको कृत्यकृत्य समझा ॥ १० ॥

सिंहस्थां कालिकां कृष्णां चारुवक्त्रां चतुर्भुजाम् ।
वरदाभयनीलाब्जखड्गहस्तां मनोहराम् ॥ ११ ॥
आरक्तनयनां चारुमुक्तकेशीं जगत्प्रसूम् ।
तुष्टाव वाग्भिश्चित्राभिः सुप्रणम्याथ सुप्रभाम् । १२ ॥
सिंहपर सवार, कृष्णवर्णवाली, सुन्दर मुखवाली, चार भुजाओंवाली, हाथोंमें वर-अभय नीलकमल तथा खड्ग धारण की हुई, मनोहर, लाल नेत्रवाली, बिखरे हुए सुन्दर बालोंसे युक्त, जगत्को जन्मदात्री तथा सुन्दर कान्तिवाली उन कालिकाको प्रणामकर दक्ष प्रजापतिने [अपनी] विचित्र वाणीसे उनकी स्तुति की ॥ ११-१२ ॥

दक्ष उवाच
जगदेव महामाये जगदीशे महेश्वरि ।
कृपां कृत्वा नमस्तेऽस्तु दर्शितं स्ववपुर्मम ॥ १३ ॥
दक्ष बोले-हे जगदम्बे ! हे महामाये ! हे जगदीश्वरि ! हे महेश्वरिं ! आपने कृपा करके मुझे अपने रूपका दर्शन दिया है, आपको मेरा नमस्कार है ॥ १३ ॥

प्रसीद भगवत्याद्ये प्रसीद शिवरूपिणम् ।
प्रसीद भक्तवरदे जगन्माये नमोऽस्तु ते ॥ १४ ॥
हे भगवति ! हे आद्ये ! मुझपर प्रसन्न हों, हे शिवरूपिणि ! प्रसन्न हों, हे भक्तवरदे ! प्रसन्न हों, हे जगन्माये ! आपको नमस्कार है ॥ १४ ॥

ब्रह्मोवाच
इति स्तुता महेशानी दक्षेण प्रयतात्मना ।
उवाच दक्षं ज्ञात्वाऽपि स्वयं तस्येप्सितं मुने ॥ १५ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! संयत चित्तवाले दक्षने इस प्रकार महेश्वरीकी स्तुति की, तब उनके मनोरथको जानती हुई भी वे दक्षसे कहने लगी- ॥ १५ ॥

देव्युवाच
तुष्टाहं दक्ष भवतःसद्‌भक्त्या ह्यनया भृशम् ।
वरं वृणीष्व स्वाभीष्टं नादेयं विद्यते तव ॥ १६ ॥
देवी बोलीं-हे दक्ष ! मैं आपकी इस भक्तिसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है, अतः अपना अभीष्ट वर मागिये ॥ १६

ब्रह्मोवाच
जगदम्बावचः श्रुत्वा ततो दक्षः प्रजापतिः ।
सुप्रहृष्टतरः प्राह नामं नामं च तां शिवाम् ॥ १७ ॥
ब्रह्माजी बोले-जगन्माताके इस वचनको सुनकर दक्ष प्रजापति अत्यन्त प्रसन्न होकर शिवाको बारंवार प्रणाम करते हुए कहने लगे- ॥ १७ ॥

दक्ष उवाच
जगदम्बा महामाये यदि त्वं वरदा मम ।
मद्वचः शृणु सुप्रीत्या मम कामं प्रपूरय ॥ १८ ॥
दक्ष बोले-हे जगदम्ब ! हे महामाये यदि आप मुझे वर देना चाहती हैं, तो मेरे वचनोंको सुनिये और प्रसन्नतासे मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये ॥ १८ ॥

मम स्वामी शिवो यो हि स जातो ब्रह्मणः सुतः ।
रुद्रनामा पूर्णरूपावतारः परमात्मनः ॥ १९ ॥
तवावतारो नो जातः का तत्पत्नी भवेदतः ।
तं मोहय महेशानमवतीर्य क्षितौ शिवे ॥ २० ॥
जो मेरे स्वामी शिव हैं, वे रुद्रनामसे ब्रह्माके पुत्ररूपमें अवतरित हुए हैं, वे परमात्माके पूर्णावतार हैं, परंतु अभीतक आपका अवतार नहीं हुआ है, [आपके अतिरिक्त] उनकी पत्नी कौन हो सकती है ? अतः हे शिवे ! आप पृथ्वीपर अवतरित होकर उन्हें मोहित करें ॥ १९-२० ॥

त्वदृते तस्य मोहाय न शक्तान्या कदाचन ।
तस्मान्मम सुता भूत्वा हरजायाभवाऽधुना ॥ २१ ॥
[हे देवि !] आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी उन्हें मोहित नहीं कर सकती, इसलिये आप इस समय मेरी कन्याके रूपमें जन्म लेकर शिवपत्नी बनें ॥ २१ ॥

इत्थं कृत्वा सुलीलां च भव त्वं हरमोहिनी ।
ममैवैष वरो देवि सत्यमुक्तं तवाग्रतः ॥ २२ ॥
इस प्रकार उत्तम लीला करके आप शिवजीको मोहमें डालें, हे देवि ! मेरा यही वर है, आपके सामने मैंने सत्य कह दिया । २२ ॥

स्वार्थं न केवलं मेऽस्ति सर्वेषां जगतामपि ।
ब्रह्मविष्णुशिवानां च ब्रह्मणा प्रेरितो ह्यहम् ॥ २३ ॥
इसमें केवल मेरा ही स्वार्थ नहीं है, अपितु सम्पूर्ण लोकोंका और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजीका भी स्वार्थ है । इसीलिये ऐसा करनेके लिये ब्रह्माजीने मुझे प्रेरित किया है ॥ २३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य प्रजेशस्य वचनं जगदम्बिका ।
प्रत्युवाच विहस्येति स्मृत्वा तं मनसा शिवम् ॥ २४ ॥
ब्रह्माजी बोले-दक्षके इस वचनको सुनकर जगदम्बा मनमें उन शिवजीका स्मरण करके हँसकर कहने लर्गी- ॥ २४ ॥

देव्युवाच
तात प्रजापते दक्ष शृणु मे परमं वचः ।
सत्यं ब्रवीमि त्वद्‌भक्त्या सुप्रसन्नाऽखिलप्रदा ॥ २५ ॥
अहं तव सुता दक्ष त्वज्जायायां महेश्वरी ।
भविष्यामि न सन्देहस्त्वद्‌भक्तिवशवर्तिनी ॥ २६ ॥
देवी बोलीं-हे तात ! हे प्रजापते ! हे दक्ष ! मेरी सत्य बात सुनिये । मैं आपकी भक्तिसे अत्यन्त प्रसन्न होकर सब कुछ प्रदान करनेवाली हूँ । हे दक्ष ! मैं महेश्वरी आपकी पुत्री बनूँगी, इसमें सन्देह नहीं । मैं आपकी भक्तिके वशमें हो गयी हूँ ॥ २५-२६ ॥

तथा यत्नं करिष्यामि तपः कृत्वा सुदुःसहम् ।
हरजाया भविष्यामि तद्वरं प्राप्य चानघ ॥ २७ ॥
हे अनघ ! मैं अत्यन्त कठोर तप करके ऐसा प्रयत्न करूँगी, जिससे शिवजीसे बरको प्राप्तकर उनकी पत्नी बन जाऊँ ॥ २७ ॥

नान्यथा कार्यसिद्धिर्हि निर्विकारी च स प्रभुः ।
विधेर्विष्णोश्च संसेव्यः पूर्ण एव सदाशिवः ॥ २८ ॥
वे प्रभु सदाशिव ब्रह्मा तथा विष्णुके सेव्य, विकाररहित तथा पूर्ण हैं । अत: बिना तपके इस प्रकारको कार्यसिद्धि नहीं हो सकती है ॥ २८ ॥

अहं तस्य सदा दासी प्रिया जन्मनि जन्मनि ।
मम स्वामी स वै शम्भुर्नानारूपधरोऽपि ह ॥ २९ ॥
मैं तो प्रत्येक जन्ममें उनकी प्रिय दासी हूँ और अनेक प्रकारके रूप धारण करनेवाले वे सदाशिव मेरे स्वामी हैं ॥ २९ ॥

वरप्रभावाद्‌भ्रुकुटेरवतीर्णो विधेः स च ।
अहं तद्वरतोऽपीहावतरिष्ये तदाज्ञया ॥ ३० ॥
वे वरके प्रभावसे ब्रह्माजीकी भृकुटिसे अवतीर्ण हुए हैं और मैं भी उन्हींकी आज्ञासे ब्रह्माजीके वरदानसे इस लोकमें अवतार लूँगी ॥ ३० ॥

गच्छ स्वभवनं तात मया ज्ञाता तु दूतिका ।
हरजाया भविष्यामि भूता ते तनयाचिरात् ॥ ३१ ॥
हे तात ! अब आप अपने घर जाइये । मैंने अपनी दूतीको सारी बात बता दी है । मैं [कुछ ही दिनोंमें] आपकी कन्या बनकर शीघ्र ही शिवकी पत्नी बनूँगी ॥ ३१ ॥

इत्युक्त्वा सद्वचो दक्षं शिवाज्ञां प्राप्य चेतसि ।
पुनः प्रोवाच सा देवी स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥ ३२ ॥
इस प्रकार दक्षप्रजापतिसे श्रेष्ठ वचन कहकर और मनमें शिवकी आज्ञा पाकर वे शिवजीके चरणकमलोंका ध्यान करके पुनः कहने लगीं- ॥ ३२ ॥

परन्तु पण आधेयो मनसा ते प्रजापते ।
श्रावयिष्यामि ते तं वै सत्यं जानीहि नो मृषा ॥ ३३ ॥
देवी बोलीं-हे प्रजापते ! परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा अपने मनमें सदैव रखना । मैं उस प्रतिज्ञाको तुम्हें सुना देती हूँ, उसे सत्य समझना, असत्य नहीं ॥ ३३ ॥

यदा भवान् मयि पुनर्भवेन्मन्दादरस्तपा ।
देहं त्यक्ष्ये निजं सत्यं स्वात्मन्यस्म्यथवेतरम् ॥ ३४ ॥
यदि आपने कभी मेरा अनादर किया तो मैं अपना शरीर त्याग दूंगी, यह सत्य है । मैं सर्वथा स्वतन्त्र हूँ. अतः दूसरा शरीर धारण करूँगी ॥ ३४ ॥

एष दत्तस्तव वरः प्रतिसर्गं प्रजापते ।
अहं तव सुता भूत्वा भविष्यामि हरप्रिया ॥ ३५ ॥
हे प्रजापते ! मैं प्रत्येक सर्गमें आपकी कन्या बनकर शिवजीकी पत्नी बनूँगी-मैंने यह वरदान आपको दिया ॥ ३५ ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्त्वा महेशानी दक्षं मुख्यप्रजापतिम् ॥
अन्तर्दधे द्रुतं तत्र सम्यग् दक्षस्य पश्यतः । ३६ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार दक्ष प्रजापतिसे कहकर वे महेश्वरी उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ ३६ ॥

अन्तर्हितायां दुर्गायां स दक्षोऽपि निजाश्रमम् ।
जगाम च मुदं लेभे भविष्यति सुतेति सा ॥ ३७ ॥
देवीके अन्तर्धान होनेपर दक्ष भी अपने घर चले गये और यह विचारकर आनन्दित हो गये कि देवी मेरी कन्या बनकर अवतार ग्रहण करेंगी ॥ ३७ ॥

इति श्रीशिवमहा पुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे दक्षवरप्राप्तिवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें दक्षवरप्राप्तिवर्णन नामक बारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP