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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
सप्तदशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] सतीवरलाभकथनम्
भगवान् शिवद्वारा सतीको वर-प्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा सर्वदेवैश्च कृता शम्भोर्नुतिः परा । शिवाच्च सा वरं प्राप्ता शृणु ह्यादरतो मुने ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार मैंने सभी देवताओंक द्वारा की गयी शिवजीकी उत्तम स्तुतिको आपसे कह दिया । हे मुने ! सतीने जिस प्रकार शिवजीसे वर प्राप्त किया, उसे अब मुझसे सुनो ॥ १ ॥ अथो सती पुनः शुक्लपक्षेऽष्टम्यामुपोषिता ।
आश्विने मासि सर्वेशं पूजयामास भक्तितः ॥ २ ॥ सतीने आश्विनमासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको उपवासकर भक्तिपूर्वक सर्वेश्वर शिवजीका पूजन किया ॥ २ ॥ इति नन्दाव्रते पूर्णे नवम्यां दिनभागतः ।
तस्यास्तु ध्यानमग्नायाः प्रत्यक्षमभवद्धरः ॥ ३ ॥ इस प्रकार नन्दाव्रतके पूर्ण हो जानेपर नवमी तिथिका कुछ भाग शेष रह गया था, उस समय ध्यानमें निमग्न उन सतीके सामने शिव प्रकट हो गये ॥ ३ ॥ सर्वाङ्गसुन्दरो गौरः पञ्चवक्त्रस्त्रिलोचनः ।
चन्द्रभालः प्रसन्नात्मा शितिकण्ठश्चतुर्भुजः ॥ ४ ॥ त्रिशूलब्रह्मकवराभयधृग् भस्मभास्वरः । स्वर्धुन्या विलसच्छीर्षः सकलाङ्गमनोहरः ॥ ५ ॥ महालावण्यधामा च कोटिचन्द्रसमाननः । कोटिस्मरसमा कान्तिः सर्वथा स्त्रीप्रियाकृतिः ॥ ६ ॥ वे सर्वांगसुन्दर तथा गौरवर्णके थे. उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र थे । भालदेशमें चन्द्रमा शोभा पा रहा था, उनका चित्त प्रसन्न था, उनका कण्ठ नीला था और उनकी चार भुजाएँ थीं, उन्होंने हाथों में त्रिशूल-ब्रह्मकपाल वर तथा अभय मुद्राको धारण कर रखा था, भस्ममय अंगरागसे उनका शरीर उद्भासित हो रहा था, उनके मस्तकपर गंगाजी शोभा बढ़ा रही थीं तथा उनके सभी अंग मनोहर थे, वे परम सौन्दर्यके धाम थे, उनका मुख करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रकाशमान था, उनकी कान्ति करोड़ों कामदेवोंके समान थी और उनकी आकृति स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाली थी ॥ ४-६ ॥ प्रत्यक्षतो हरं वीक्ष्य सती सेदृविधं प्रभुम् ।
ववन्दे चरणौ तस्य सुलज्जावनतानना ॥ ७ ॥ अथ प्राह महादेवः सतीं तद्व्रतधारिणीम् । तामिच्छन्नपि भार्यार्थं तपश्चर्याफलप्रदः ॥ ८ ॥ इस प्रकारके प्रभु महादेवजीको प्रत्यक्ष देखकर सतीने लजासे नीचेकी ओर मुख करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया । तपस्याका फल प्रदान करनेवाले महादेवजी उत्तम व्रत धारण करनेवाली सतीको पत्नीरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हुए भी उनसे कहने लगे- ॥ ७-८ ॥ महादेव उवाच
दक्षनन्दिनि प्रीतोऽस्मि व्रतेनानेन सुव्रते । वरं वरय सन्दास्ये यत्तवाभिमतं भवेत् ॥ ९ ॥ महादेवजी बोले-हे दक्षनन्दिनि ! मैं तुम्हारे इस व्रतसे प्रसन्न हूँ । हे सुव्रते ! जो तुम्हारा अभीष्ट वर हो, उसे माँगो, मैं उसे प्रदान करूँगा ॥ ९ ॥ ब्रह्मोवाच
जानन्नपीह तद्भावं महादेवो जगत्पतिः । जगौ वरं वृणीष्वेति तद्वाक्यश्रवणेच्छया ॥ १० ॥ ब्रह्माजी बोले-[मुने !] जगदीश्वर महादेवने सतीकी भावनाको जानते हुए भी उनकी बात सुननेकी इच्छासे 'वर माँगो'-ऐसा कहा ॥ १० ॥ सापि त्रपावशा युक्ता वक्तुं नो हृदि यत्स्थितम् ।
शशाक सा त्वभीष्टं यत्तल्लज्जाच्छादितं पुनः ॥ ११ ॥ प्रेममग्नाऽभवत्साति श्रुत्वा शिववचः प्रियम् । तज्ज्ञात्वा सुप्रसन्नोऽभूच्छङ्करो भक्तवत्सलः ॥ १२ ॥ वे लज्जाके वशमें हो गयीं और जो उनके मनमें था, उसे कह न सकीं । उनका जो अभीष्ट था, वह लज्जासे आच्छादित हो गया था । शिवजीका प्रिय वचन सुनकर वे प्रेममें विभोर हो गयीं । इसे जानकर भक्तवत्सल शंकरजी अत्यन्त हर्षित हुए ॥ ११-१२ ॥ वरं ब्रूहि वरं ब्रूहि प्राहेति स पुनर्द्रुतम् ।
सतीभक्तिवशः शम्भुरन्तर्यामी सतां गतिः ॥ १३ ॥ सत्पुरुषोंके शरणस्वरूप तथा अन्तर्यामी वे शिवजी सतीकी भक्तिके वशीभूत होकर बर माँगो, वर माँगो-ऐसा शीघ्रतापूर्वक बार-बार कहने लगे ॥ १३ ॥ अथ त्रपां स्वां सन्धाय यदा प्राह हरं सती ।
यथेष्टं देहि वरद वरमित्यनिवारकम् ॥ १४ ॥ उस समय सतीने अपनी लज्जाको रोककर शिवजीसे कहा-हे वरद ! आप कभी भी न टलनेवाला यथेष्ट वर प्रदान करें ॥ १४ ॥ तदा वाक्यस्यावसानमनवेक्ष्य वृषध्वजः ।
भव त्वं मम भार्येति प्राह तां भक्तवत्सलः ॥ १५ ॥ शिवजीने अनुभव किया कि सती अपनी बात पूरी नहीं कर पा रही हैं, एतदर्थ उन्होंने स्वयं ही कहा-हे देवि ! तुम मेरी पत्नी बनो ॥ १५ ॥ एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य साऽभीष्टफलभावनम् ।
तूष्णीं तस्थौ प्रमुदिता वरं प्राप्य मनोगतम् ॥ १६ ॥ सकामस्य हरस्याग्रे स्थिता सा चारुहासिनी । अकरोन्निजभावांश्च हावान्कामविवर्द्धनान् ॥ १७ ॥ अपने अभीष्ट फलको प्रकट करनेवाले शिवजीके वचनको सुनकर और अपना मनोगत वर प्राप्त करके सती प्रसन्न होकर चुपचाप खड़ी रहीं । वे सकाम शिवजीके सामने मन्द मन्द मुसकराती हुई कामनाको बढ़ानेवाले अपने हाव-भाव प्रकट करने लगीं ॥ १६-१७ ॥ ततो भावान्समादाय शृङ्गाराख्यो रसस्तदा ।
तयोश्चित्ते विवेशाशु कला हावा यथोदितम् ॥ १८ ॥ सतीद्वारा अभिव्यक्त हाव-भावको स्वीकारकर शृंगाररसने उन दोनोंके चित्तमें शीघ्रतासे प्रवेश किया ॥ १८ ॥ तत्प्रवेशात्तु देवर्षे लोकलीलानुसारिणीः ।
काऽप्यभिख्या तयोरासीच्चित्राचन्द्रमसोर्यथा ॥ १९ ॥ हे देवर्षे गाररसके प्रवेश करते ही लोकलीला करनेवाले शिवजी तथा सतीकी चित्रासे युक्त चन्द्रमाके समान विलक्षण कान्ति हो गयी ॥ १९ ॥ रेजे सती हरं प्राप्य स्निग्धभिन्नाञ्जनप्रभा ।
चन्द्राभ्याशेऽभ्रलेखेव स्फटिकोज्ज्वलवर्ष्मणः ॥ २० ॥ काले तथा चिकने अंजनके समान कान्तिवाली सती स्फटिकमणिके सदृश कान्तियुक्त उन शिवजीको प्राप्तकर इस प्रकार शोभित हुई, जिस प्रकार अभ्रलेखा [मेघषय] चन्द्रमाको प्राप्तकर शोभित होती है ॥ २० ॥ अथ सा तमुवाचेदं हरं दाक्षायणी मुहुः ।
सुप्रसन्ना करौ बद्ध्वाऽऽनतका भक्तवत्सलम् ॥ २१ ॥ तदनन्तर दक्षकन्या सती अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनों हाथोंको जोड़कर भक्तवत्सल भगवान् शिवजीसे विनम्रता-पूर्वक कहने लगी- ॥ २१ ॥ सत्युवाच
देवदेव महादेव विवाहविधिना प्रभौ । पितुर्मे गोचरीकृत्य मां गृहाण जगत्पते ॥ २२ ॥ सती बोलीं-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे प्रभो ! हे जगत्पते ! आप मेरे पिताके समक्ष वैवाहिक विधिसे मुझे ग्रहण कीजिये ॥ २२ ॥ ब्रह्मोवाच
एवं सतीवचः श्रुत्वा महेशो भक्तवत्सलः । तथास्त्विति वचः प्राह निरीक्ष्य प्रेमतश्च ताम् ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! इस प्रकार सतीकी बात सुनकर भक्तवत्सल महादेवजीने प्रेमपूर्वक उनकी ओर देखकर यह वचन कहा-ऐसा ही होगा ॥ २३ ॥ दाक्षायण्यपि तं नत्वा शम्भुं विज्ञाप्य भक्तितः ।
प्राप्ताज्ञा मातुरभ्याशमयान्मोहमुदान्विता ॥ २४ ॥ हरोऽपि हिमवत्प्रस्थं प्रविश्य च निजाश्रमम् । दाक्षायणीवियोगाद्वै कृच्छ्रध्यानपरोऽभवत् ॥ २५ ॥ तब दक्षकन्या सती भी उन शिवजीको प्रणाम करके भक्तिपूर्वक विदा माँगकर और पुन: उनकी आज्ञा प्राप्त करके मोह और आनन्दसे युक्त हो अपनी माताके पास चली गयीं । शिवजी भी हिमालयके शिखरपर अपने आश्रममें प्रवेश करके दक्षकन्या सतीके वियोगके कारण बड़ी कठिनाईसे ध्यानमें तत्पर हो सके । २४-२५ ॥ समाधाय मनः शम्भुर्लौकिकीं गतिमाश्रितः ।
चिन्तयामास देवर्षे मनसा मां वृषध्वजः ॥ २६ ॥ देवर्षे ! मनको एकाग्र करके लौकिक गतिका आश्रय लेकर वृषध्वज शंकरने मन-ही-मन मेरा स्मरण किया ॥ २६ ॥ ततःसञ्चिन्त्यमानोहं महेशेन त्रिशूलिना ।
पुरस्तात्प्राविशत्तूर्णं हरसिद्धिप्रचोदितः ॥ २७ ॥ यत्रासौ हिमवत्प्रस्थे तद्वियोगी हरः स्थितः । सरस्वतीयुतस्तात तत्रैव समुपस्थितः ॥ २८ ॥ तब त्रिशूलधारी महेश्वरके स्मरण करनेपर उनकी सिद्धिसे प्रेरित होकर मैं शीघ्र ही उनके समीप पहुँच गया और हे तात ! हिमालयके शिखरपर जहाँ सतीके वियोगजनित दुःखका अनुभव करनेवाले महादेवजी विद्यमान थे, वहीं मैं सरस्वतीसहित उपस्थित हो गया । २७-२८ ॥ सरस्वतीयुतं मां च देवर्षे वीक्ष्य स प्रभुः ।
उत्सुकः प्रेमबद्धश्च सत्या शम्भुरुवाच ह ॥ २९ ॥ हे देवर्षे ! तदनन्तर सरस्वतीसहित मुझ ब्रह्माको देखकर सतीके प्रेममें बँधे हुए शिवजी उत्सुकतापूर्वक कहने लगे- ॥ २९ ॥ शम्भुरुवाच
अहं ब्रह्मन् स्वार्थपरः परिग्रहकृतौ च यत् । तदा स्वत्वमिव स्वार्थे प्रतिभाति ममाधुना ॥ ३० ॥ शम्भु बोले-हे ब्रह्मन् ! मैं जबसे विवाहके कार्यमें स्वार्थबुद्धि कर बैठा हूँ, तबसे अब मुझे इस स्वार्थमें ही स्वत्व-सा प्रतीत हो रहा है ॥ ३० ॥ अहमाराधितः सत्याद्दाक्षायण्याथ भक्तितः ।
तस्यै वरो मया दत्तो नन्दाव्रतप्रभावतः ॥ ३१ ॥ दक्षकन्या सतीने बड़े भक्तिभावसे मेरी आराधना की है और मैंने नन्दाव्रतके प्रभावसे उसे [अभीष्ट] वर दे दिया है ॥ ३१ ॥ भर्ता भवेति च तया मत्तो ब्रह्मन् वरो वृतः ।
मम भार्या भवेत्युक्तं मया तुष्टेन सर्वथा ॥ ३२ ॥ हे ब्रह्मन् ! उस सतीने मुझसे यह वर माँगा कि आप मेरे पति हो जाइये । तब सर्वथा सन्तुष्ट होकर मैंने भी कह दिया कि तुम मेरी पत्नी हो जाओ ॥ ३२ ॥ अथावदत्तदा मां सा सती दाक्षायणी त्विति ।
पितुर्मे गोचरीकृत्य मां गृहाण जगत्पते ॥ ३३ ॥ तदप्यङ्गीकृतं ब्रह्मन्मया तद्भक्तितुष्टितः । सा गता भवनं मातुरहमत्रागतो विधे ॥ ३४ ॥ तदनन्तर उस सतीने मुझसे कहा-हे जगत्पते ! मेरे पिताको सूचित करके [वैवाहिक विधिका पालन करते हुए] मुझे ग्रहण कीजिये । हे ब्रह्मन् ! उसकी भक्तिसे सन्तुष्ट हुए मैंने उसे भी स्वीकार कर लिया । हे विधे ! [इस प्रकारका वर प्राप्तकर] सती अपनी माताके पास चली गयी और मैं यहाँ चला आया ॥ ३३-३४ ॥ तस्मात्त्वं गच्छ भवनं दक्षस्य मम शासनात् ।
तां दक्षोपि यथा कन्यां दद्यान्मेऽरं तथा वद ॥ ३५ ॥ इसलिये हे ब्रह्मन् ! आप मेरी आज्ञासे दक्षके घर जाइये और वे दक्षप्रजापति जिस प्रकार मुझे शीघ्र अपनी कन्या प्रदान करें, उस प्रकार उनसे कहिये ॥ ३५ ॥ सतीवियोगभङ्गः स्याद्यथा मे त्वं तथा कुरु ।
समाश्वासय तं दक्षं सर्वविद्याविशारदः ॥ ३६ ॥ जिस प्रकार मेरा सतीवियोग भंग हो, वैसा उपाय आप कीजिये । आप सभी प्रकारकी विद्याओंमें निपुण हैं, अत: [इस बातके लिये] दक्षप्रजापतिको समझाइये ॥ ३६ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्युदीर्य महादेवः सकाशे मे प्रजापतेः । सरस्वतीं विलोक्याशु वियोगवशगोभवत् ॥ ३७ ॥ ब्रह्माजी बोले-यह कहकर वे शिवजी मुझ ब्रह्माके समीप स्थित सरस्वतीको देखकर शीघ्र ही सतीके वियोगके वशीभूत हो गये ॥ ३७ ॥ तेनाहमपि चाज्ञप्तः कृतकृत्यो मुदान्वितः ।
प्रावोचं चेति जगतां नाथं तं भक्तवत्सलम् ॥ ३८ ॥ उनकी आज्ञा पाकर मैं कृतकृत्य और प्रसन्न हो गया तथा उन भक्तवत्सल जगत्पतिसे यह कहने लगा- ॥ ३८ ॥ यदात्थ भगवञ्शम्भो तद्विचार्य सुनिश्चितम् ।
मुख्यः स्वार्थो देवानां हि ममापि वृषभध्वज ॥ ३९ ॥ दक्षस्तुभ्यं सुतां स्वां च स्वयमेव प्रदास्यति । अहं चापि वदिष्यामि त्वद्वाक्यं तत्समक्षतः ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले-भगवन् ! हे शम्भो ! आपने जो कुछ कहा है, उसपर भलीभाँति विचार करके हमलोगोंने [पहले ही] उसे सुनिश्चित कर दिया है । हे वृषभध्वज ! इसमें देवताओंका और मेरा भी मुख्य स्वार्थ है । दक्ष प्रजापति स्वयं ही आपको अपनी पुत्री प्रदान करेंगे और मैं भी उनके समक्ष आपका वचन कह दूंगा ॥ ३९-४० ॥ इत्युदीर्य्य महादेवमहं सर्वेश्वरं प्रभुम् ।
अगमं दक्षनिलयं स्यन्दनेनातिवेगिना ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] सर्वेश्वर प्रभु महादेवजीसे इस प्रकार कहकर मैं अत्यन्त वेगशाली रथसे दक्षके घर जा पहुँचा ॥ ४१ ॥ नारद उवाच
विधे प्राज्ञ महाभाग वद नो वदतां वर । सत्यै गृहागतायै स दक्षः किमकरोत्ततः ॥ ४२ ॥ नारदजी बोले-हे प्राज्ञ ! हे महाभाग ! हे विधे ! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! [तपस्याके पश्चात्] घर लौटकर आयी हुई सतीके लिये दक्षने क्या किया ? ॥ ४२ ॥ ब्रह्मोवाच
तपस्तप्त्वा वरं प्राप्य मनोभिलषितं सती । गृहं गत्वा पितुर्मातुः प्रणाममकरोत्तदा ॥ ४३ ॥ मात्रे पित्रेऽथ तत्सर्वं समाचख्यौ महेश्वरात् । वरप्राप्तिः स्वसख्या वै सत्यास्तुष्टस्तु भक्तितः ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले-तपस्या करके मनोऽभिलषित वर प्राप्तकर तथा घर जाकर सतीने माता-पिताको प्रणाम किया । तत्पश्चात् सतीने अपनी सखीके द्वारा माता-पितासे वह सारा वृत्तान्त कहलवाया, जिस प्रकार उनकी भक्तिसे प्रसन्न हुए महेश्वरसे उन्हें वरकी प्राप्ति हुई थी ॥ ४३-४४ ॥ माता पिता च वृत्तान्तं सर्वं श्रुत्वा सखीमुखात् ।
आनन्दं परमं लेभे चक्रे च परमोत्सवम् ॥ ४५ ॥ सखीके मुँहसे सारा वृत्तान्त सुनकर मातापिताको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने महान् उत्सव मनाया ॥ ४५ ॥ द्रव्यं ददौ द्विजातिभ्यो यथाभीष्टमुदारधीः ।
अन्येभ्यश्चान्धदीनेभ्यो वीरिणी च महामनाः ॥ ४६ ॥ उदारचित्त दक्ष और महामनस्विनी वीरिणीने ब्राह्मणोंको उनकी इच्छाके अनुसार धन दिया और अन्धों, दीनों तथा अन्य लोगोंको भी धन बाँटा ॥ ४६ ॥ वीरिणी तां समालिङ्ग्य स्वसुतां प्रीतिवर्द्धिनीम् ।
मूर्ध्न्युपाघ्राय मुदिता प्रशशंस मुहुर्मुहुः ॥ ४७ ॥ प्रीति बढ़ानेवाली अपनी उस पुत्रीको हृदयसे लगाकर उसका मस्तक सूंघकर और आनन्दविभोर होकर वीरिणीने बार-बार उसकी प्रशंसा की । ४७ ॥ अथ दक्षः कियत्काले व्यतीते धर्मवित्तमः ।
चिन्तयामास देयेयं स्वसुता शम्भवे कथम् ॥ ४८ ॥ कुछ समय बीतनेपर धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ दक्ष इस चिन्तामें पड़ गये कि मैं अपनी इस पुत्रीको शंकरको किस प्रकार प्रदान करूं ? ॥ ४८ ॥ आगतोपि महादेवः प्रसन्नः स जगाम ह ।
पुनरेव कथं सोऽपि सुतार्थेऽत्रागमिष्यति ॥ ४९ ॥ महादेवजी प्रसन्न होकर मेरी पुत्रीको वर देनेके लिये आये थे, किंतु वे तो चले गये, अब मेरी पुत्रीके लिये वे पुन: कैसे.आयेंगे ? ॥ ४९ ॥ प्रास्थाप्योऽथ मया कश्चिच्छम्भोर्निकटमञ्जसा ।
नैतद्योग्यं निगृह्णीयाद्यद्येवं विफलार्दना ॥ ५० ॥ यदि मैं किसीको उनके पास शीघ्र भेजूं, तो यह भी उचित नहीं है । क्योंकि यदि वे पुत्रीको स्वीकार न करें, तो मेरी याचना निष्फल हो जायगी ॥ ५० ॥ अथवा पूजयिष्यामि तमेव वृषभध्वजम् ।
मदीयतनयायुक्तः स्वयमेव यथा भवेत् ॥ ५१ ॥ अथवा मैं स्वयं उनका पूजन-अर्चन करूँ, जिससे कि वे मेरी पुत्रीकी भक्तिसे प्रसन्न होकर स्वयं इसे ग्रहणकर इसके पति बनें ॥ ५१ ॥ तथैव पूजितः सोऽपि वाञ्छत्यार्यप्रयत्नतः ।
शम्भुर्भवतु मद्भर्त्तेत्येवं दत्तवरेण तत् ॥ ५२ ॥ उस सतीके द्वारा श्रेष्ठ प्रयत्नसे पूजित होकर वे भी उसको पाना चाह रहे हैं । क्योंकि वे 'मेरे पति शिवजी हों'-सतीको वह वर दे चुके हैं ॥ ५२ ॥ इति चिन्तयतस्तस्य दक्षस्य पुरतोऽन्वहम् ।
उपस्थितोहं सहसा सरस्वत्यन्वितस्तदा ॥ ५३ ॥ इस प्रकारकी चिन्तामें पड़े हुए दक्ष प्रजापतिके सामने मैं सरस्वतीके साथ एकाएक उपस्थित हुआ ॥ ५३ ॥ मां दृष्ट्वा पितरं दक्षः प्रणम्यावनतः स्थितः ।
आसनं च ददौ मह्यं स्वभवाय यथोचितम् ॥ ५४ ॥ मुझ अपने पिताको देखकर प्रणाम करके दक्ष विनीत भावसे खड़े हुए और उन्होंने मुझ ब्रह्माको यथोचित आसन दिया ॥ ५४ ॥ ततो मां सर्वलोकेशं तत्रागमनकारणम् ।
दक्षः पप्रच्छ स क्षिप्रं चिन्ताविष्टोऽपि हर्षितः ॥ ५५ ॥ तत्पश्चात् चिन्तासे युक्त होनेपर भी हर्षित हुए वे दक्ष शीघ्र ही सर्वलोकेश्वर मुझ ब्रह्मासे आगमनका कारण पूछने लगे- ॥ ५५ ॥ दक्ष उवाच
तवात्रागमने हेतुः कः प्रवेशे स सृष्टिकृत् । ममोपरि सुप्रसादं कृत्वाऽऽचक्ष्व जगद्गुरो ॥ ५६ ॥ दक्ष बोले-हे जगद्गुरो ! हे सृष्टिकर्ता ! यहाँ आपके आगमनका क्या कारण है, मेरे ऊपर महती कृपा करके उसे कहिये ॥ ५६ ॥ पुत्रस्नेहात्कार्यवशादथवा लोककारक ।
ममाश्रमं समायातो रुष्टस्य तव दर्शनात् ॥ ५७ ॥ हे लोककारक ! आप मुझ पुत्रके स्नेहवश अथवा किसी कार्यवश मेरे आश्रममें पधारे हैं, आपके दर्शनसे मुझे प्रसन्नता हो रही है । ५७ ॥ ब्रह्मोवाच
इति पृष्टः स्वपुत्रेण दक्षेण मुनिसत्तम । विहसन्नब्रुवं वाक्यं मोदयंस्तं प्रजापतिम् ॥ ५८ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनिसत्तम ! अपने पुत्र दक्षद्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर मैं उन प्रजापतिको प्रसन्न करता हुआ हँसकर कहने लगा ॥ ५८ ॥ शृणु दक्ष यदर्थं त्वत्समीपमहमागतः ।
त्वत्तोकस्य हितं मेपि भवतोऽपि तदीप्सितम् ॥ ५९ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे दक्ष ! मैं जिस उद्देश्यसे यहाँ आपके पास आया हूँ, उसको सुनिये । जिसके करनेसे तुम्हारा तथा मेरा दोनोंका अभीष्ट सिद्ध होगा ॥ ५९ ॥ तव पुत्री समाराध्य महादेवं जगत्पतिम् ।
यो वरः प्रार्थितस्तस्य समयोऽयमुपागतः ॥ ६० ॥ आपकी पुत्री सतीने जगत्पति महादेवजीकी आराधना करके जो वर प्राप्त किया है, उसका समय अब उपस्थित हो चुका है ॥ ६० ॥ शम्भुना तव पुत्र्यर्थं त्वत्सकाशमहं धुवम् ।
प्रस्थापितोऽस्मि यत्कृत्यं श्रेयस्तदवधारय ॥ ६१ ॥ शम्भुने आपकी पुत्रीको पत्लीरूपमें प्राप्त करनेके लिये ही मुझे आपके पास भेजा है । अब [आपके लिये] जो कल्याणकारी कार्य है, उसे कर डालिये ॥ ६१ ॥ वरं दत्त्वा गतो रुद्रस्तावत्प्रभृति शङ्करः ।
त्वत्सुताया वियोगेन न शर्म लभतेऽञ्जसा ॥ ६२ ॥ जबसे रुद्र बर प्रदान करके गये हैं, तभीसे आपकी पुत्रीके वियोगके कारण उन शंकरको शान्ति नहीं मिल रही है ॥ ६२ ॥ अलब्धच्छिद्रमदनो जिगाय गिरिशं न यम् ।
सर्वैः पुष्पमयैर्बाणैर्यत्नं कृत्वापि भूरिशः ॥ ६३ ॥ स कामबाणविद्धोऽपि परित्यज्यात्मचिन्तनम् । सतीं विचिन्तयन्नास्ते व्याकुलः प्राकृतो यथा ॥ ६४ ॥ कामदेव अपने समस्त पुष्पबाणोंके द्वारा अनेक उपाय करके भी छिद्र न पा सकनेके कारण जिन्हें जीत न सका, वे ही शिवजी अब कामबाणसे विद्ध होकर अपना आत्मचिन्तन त्यागकर सतीकी चिन्ता करते हुए सामान्य प्राणीकी भाँति व्याकुल हो रहे हैं । ६३-६४ ॥ विस्मृत्य प्रश्रुतां वाणीं गणाग्रे विप्रयोगतः ।
क्व सतीत्येवमभितो भाषते निकृतावपि ॥ ६५ ॥ मया यद्वाञ्छितं पूर्वं त्वया च मदनेन च । मरीच्याद्यैमुनिवरैस्तत्सिद्धमधुना सुत ॥ ६६ ॥ वे सुनी हुई वाणीको भी भूल जाते हैं तथा सतीके वियोगवश अपने गणोंके समक्ष ही 'सती कहाँ है'-इस प्रकारकी वाणी कहते हैं और किसी काममें प्रवृत्त नहीं होते हैं । हे सुत ! मैंने, आपने, कामदेवने तथा मरीचि आदि श्रेष्ठ मुनियोंने जो पूर्वमें चाहा था, वह इस समय सिद्ध हो चुका है । ६५-६६ ॥ त्वत्पुत्र्याराधितः शम्भुःसोपि तस्या विचिन्तनात् ।
अनुशोधयितुं प्रेप्सुर्वर्त्तते हिमवद्गिरौ ॥ ६७ ॥ यथा नानाविधैर्भावैः सत्त्वात्तेन व्रतेन च । शम्भुराराधितस्तेन तथैवाराध्यते सती ॥ ६८ ॥ आपकी पुत्रीने शम्भुकी आराधना की है, इससे वे भी उसकी चिन्ता करते हुए उसको प्राप्त करनेकी इच्छासे युक्त होकर हिमालय पर्वतपर स्थित हैं । जिस प्रकार सतीने अनेक प्रकारके भावों और सात्त्विकतापूर्वक व्रतके द्वारा शिवजीकी आराधना की थी, उसी प्रकार [इस समय] वे भी सतीकी आराधना कर रहे हैं ॥ ६७-६८ ॥ तस्मात्तु दक्षतनयां शम्भ्वर्थं परिकल्पिताम् ।
तस्मै देह्यविलम्बेन कृता ते कृतकृत्यता ॥ ६९ ॥ इसलिये हे दक्ष ! शिवके लिये ही रची गयी अपनी पुत्रीको आप अविलम्ब उन्हें प्रदान कर दीजिये, ऐसा करनेसे आप कृतकृत्य हो जायेंगे ॥ ६९ ॥ अहं तमानयिष्यामि नारदेन त्वदालयम् ।
तस्मै त्वमेनां संयच्छ तदर्थे परिकल्पिताम् ॥ ७० ॥ मैं नारदके साथ जाकर उन्हें आपके घर लाऊँगा और उन्हींके लिये रची हुई इस सतीको उन्हें अर्पित कर दीजिये ॥ ७० ॥ श्रुत्वा मम वचश्चेति स मे पुत्रोतिहर्षितः ।
एवमेवेति मां दक्ष उवाच परिहर्षितः ॥ ७१ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! मेरी यह बात सुनकर मेरे पुत्र दक्ष परम प्रसन्न हुए और उन्होंने अत्यन्त हर्षित होकर मुझसे कहा-ठीक है, ऐसा ही होगा ॥ ७१ ॥ ततः सोऽहं मुने तत्रागममत्यन्तहर्षितः ।
उत्सुको लोकनिरतो गिरिशो यत्र संस्थितः ॥ ७२ ॥ उसके बाद हे मुने ! मैं अत्यन्त हर्षित हो वहाँपर गया, जहाँ लोककल्याणमें तत्पर रहनेवाले शिवजी उत्सुक होकर बैठे थे ॥ ७२ ॥ गते नारद दक्षोऽपि सदारतनयो ह्यपि ।
अभवत्पूर्णकामस्तु पीयूषैरिव पूरितः ॥ ७३ ॥ हे नारद ! मेरे चले आनेपर स्त्री और पुत्रीसहित दक्ष भी अमृतसे परिपूर्ण हुएके समान पूर्णकाम [सफल मनोरथवाले] हो गये ॥ ७३ ॥ इति श्रीशैवे महापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
द्वितीये सतीखण्डे सतीवरलाभो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सती वरलाभवर्णन नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |