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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

षोडशोऽध्यायः ॥

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ब्रह्मविष्णुकृता शिवप्रार्थना
ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति


ब्रह्मोवाच
इति स्तुतिं च हर्यादिकृतामाकर्ण्य शङ्‌करः ।
बभूवातिप्रसन्नो हि विजहास च सूतिकृत् ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-भगवान् विष्णु आदि देवताओद्वारा की गयी स्तुतिको सुनकर सबकी उत्पत्ति करनेवाले भगवान् शंकर बड़े प्रसन्न हुए और जोरसे हँसे ॥ १ ॥

ब्रह्मविष्णू तु दृष्ट्‍वा तौ सस्त्रीकौ सङ्‌गतौ हरः ।
यथोचितं समाभाष्य पप्रच्छागमनं तयोः ॥ २ ॥
सपत्नीक ब्रह्माजी और भगवान् विष्णुको साथ आया हुआ देखकर महादेवजीने हमलोगोंसे यथोचित वार्तालाप करके हमारे आगमनका कारण पूछा ॥ २ ॥

रुद्र उवाच
हे हरे हे विधे देवा मुनयश्चाद्य निर्भयाः ।
निजागमनहेतुं हि कथयस्व सुतत्त्वतः ॥ ३ ॥
किमर्थमागता यूयं किं कार्यं चेह विद्यते ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि भवत्स्तुत्या प्रसन्नधीः ॥ ४ ॥
रुद्र बोले-हे हरे ! हे विधे ! हे देवताओं और महर्षियो ! आपलोग आज निर्भय होकर अपने आनेका ठीक-ठीक कारण बताइये । आपलोगोंकी स्तुतिसे मैं [बहुत ही] प्रसन्न हूँ । आपलोग किसलिये यहाँ आये हैं, कौन सा कार्य आ पड़ा है, वह सब मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ३-४ ॥

ब्रह्मोवाच
इति पृष्टे हरेणाऽहं सर्वलोकपितामहः ।
मुनेऽवोचं महादेवं विष्णुना परिचोदितः ॥ ५ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! महादेवजीके इस प्रकार पूछनेपर सभी लोकोंका पितामह मैं ब्रह्मा भगवान् विष्णुकी आज्ञासे कहने लगा ॥ ५ ॥

देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो ।
यदर्थमागतावावां तच्छृणु त्वं सुरर्षिभिः ॥ ६ ॥
हे देवाधिदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो । हम दोनों इन देवताओं और मुनियोंके साथ जिस उद्देश्यसे यहाँ आये हैं, उसे सुनिये ॥ ६ ॥

विशेषतस्तवैवार्थमागता वृषभध्वज ।
सहार्थिनःसदायोग्यमन्यथा न जगद्‌भवेत् ॥ ७ ॥
हे वृषभध्वज ! विशेष रूपसे आपके लिये ही हमलोग यहाँ आये हैं; क्योंकि हम तीनों सहायतार्थी हैं, [सृष्टिचक्रके संचालनरूप प्रयोजनकी सिद्धिके लिये एक-दूसरेके सहायक हैं] सहार्थीको सदा परस्पर यथायोग्य सहयोग करना चाहिये, अन्यथा यह जगत् टिक नहीं सकता ॥ ७ ॥

केचिद्‌भविष्यन्त्यसुरा मम वध्या महेश्वर ।
हरेर्वध्यास्तथा केचिद्‌भवन्तश्चापि केचन ॥ ८ ॥
केचित् त्वद्वीर्यजातस्य तनयस्य महाप्रभो ।
मायावध्याः प्रभो केचिद्‌भविष्यन्त्यसुराः सदा ॥ ९ ॥
हे महेश्वर ! कुछ ऐसे असुर उत्पन्न होंगे, जो मेरे द्वारा मारे जायेंगे, कुछ भगवान् विष्णुके द्वारा और कुछ आपके द्वारा वध्य होंगे । हे महाप्रभो ! कुछ आपके वीर्यसे उत्पन्न पुत्रद्वारा मारे जायेंगे और कुछ असुर आपकी मायाके द्वारा वधको प्राप्त होंगे ॥ ८-९ ॥

तवैव कृपया शम्भोः सुराणां सुखमुत्तमम् ।
नाशयित्वाऽसुरान् घोराञ्जगत्स्वास्थ्यं सदाभयम् ॥ १ ० ॥
आप भगवान् शंकरकी कृपासे ही देवताओंको सदा उत्तम सुख प्राप्त होगा । घोर असुरोंका विनाश करके आप जगत्को सदा स्वास्थ्य एवं अभय प्रदान करेंगे ॥ १० ॥

योगयुक्ते त्वयि सदा राग द्वेषविवर्जिते ।
दयापात्रैकनिरते न वध्या ह्यथवा तव ॥ ११ ॥
अराधितेषु तेष्वीश कथं सृष्टिस्तथा स्थितिः ।
अतश्च भविता युक्तं नित्यं नित्यं वृषध्वज ॥ १२ ॥
आप राग-द्वेषरहित, योगयुक्त एवं सर्वथा दयालु हैं, इसलिये हो सकता है कि आप असुरोंका वध न करें । हे ईश ! जब ये आराधना करके वर प्राप्त कर लेंगे, तब सृष्टिकी स्थिति किस प्रकार रहेगी ? इसलिये हे वृषभध्वज ! उचित यही है कि आप [इस ष्टिकी स्थितिके लिये] सदैव असुरोंका वध करते रहें ॥ ११-१२ ॥

सृष्टिस्थित्यन्तकर्माणि न कार्याणि यदा तदा ।
शरीरभेदश्चास्माकं मायायाश्च न युज्यते ॥ १ ३ ॥
यदि सृष्टि, पालन तथा संहारकर्म न करने हों, तब हमारा तथा मायाका भिन्न-भिन्न शरीर धारण करना सार्थक नहीं रहेगा ॥ १३ ॥

वयंएकस्वरूपा हि भिन्नाः कार्यस्य भेदतः ।
कार्यभेदो न सिद्धश्चेद्‌रूपभेदाऽप्रयोजनः ॥ १४ ॥
वास्तवमें हम तीनों एक ही स्वरूपवाले हैं, किंतु कार्यके भेदसे भिन्न-भिन्न शरीर धारण करके स्थित हैं । यदि कार्यभेद न सिद्ध हो, तब तो हमारे रूपभेदका कोई प्रयोजन नहीं है ॥ १४ ॥

एक एव त्रिधा भिन्नः परमात्मा महेश्वरः ।
मायायाः कारणादेव स्वतन्त्रो लीलया प्रभुः ॥ १५ ॥
परमात्मा महेश्वर एक होते हुए भी अपनी मायाके कारण ही तीन रूपोंमें विभक्त हैं, वे प्रभु अपनी लीलासे स्वतन्त्र हैं ॥ १५ ॥

वामाङ्‌गजो हरिस्तस्य दक्षिणाङ्‌गभवो ह्यहम् ।
शिवस्य हृदयाज्जातस्त्वं हि पूर्णतनुः शिवः ॥ १६ ॥
श्रीहरि उनके वामांगसे उत्पन्न हुए हैं, मैं ब्रह्मा उनके दाहिने अंगसे उत्पन्न हुआ हूँ और आप उन सदाशिवके हृदयसे उत्पन्न हैं, अतः आप ही शिवजीके पूर्ण रूप हैं ॥ १६ ॥

इत्थं वयं त्रिधाभूता प्रभो भिन्नस्वरूपिणः ।
शिवाशिवसुतास्तत्त्वं हृदा विद्धि सनातन ॥ १७ ॥
हे प्रभो ! इस प्रकार भिन्न स्वरूपवाले हम तीन रूपोंमें प्रकट हैं और जो [वस्तुतः] उन शिवाशिवके पुत्र ही हैं । हे सनातन ! इस यथार्थ तत्त्वको आप हदयसे अनुभव कीजिये ॥ १७ ॥

अहं विष्णुश्च सस्त्रीकौ सञ्जातौ कार्यहेतुतः ।
लोककार्यकरौ प्रीत्या तव शासनतः प्रभो ॥ १८ ॥
हे प्रभो ! मैं और भगवान् विष्णु आपके आदेशसे प्रसन्नतापूर्वक लोककी सृष्टि और पालनका कार्य कर रहे हैं तथा कार्यकारणवश सपत्नीक भी हो गये हैं ॥ १८ ॥

तस्माद्विश्वहितार्थाय सुराणां सुखहेतवे ।
परिगृह्णीष्व भार्यार्थे रामामेकां सुशोभनाम् ॥ १९ ॥
अत: आप भी विश्वहितके लिये तथा देवताओंके सुखके लिये एक परम सुन्दरी स्त्रीको पत्नीके रूपमें ग्रहण करें ॥ १९ ॥

अन्यच्छृणु महेशान पूर्ववृत्तं स्मृतं मया ।
यन्नः पुरः पुरा प्रोक्तं त्वयैव शिवरूपिणा ॥ २० ॥
हे महेश्वर ! एक और बात सुनिये । मुझे पहलेके वृत्तान्तका स्मरण हो आया है, जिसे पूर्वकालमें आपने ही शिवस्वरूपसे हमारे सामने कहा था ॥ २० ॥

मद्‌रूपं परमं ब्रह्मन्नीदृशं भवदङ्‌गतः ।
प्रकटी भविता लोके नाम्ना रुद्रः प्रकीर्तितः ॥ २१ ॥
हे ब्रह्मन् ! मेरा ऐसा उत्तम रूप आपके अंगसे प्रकट होगा, जो लोकमें रुद्र नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ २१ ॥

सृष्टिकर्ताऽभवद्‌ब्रह्मा हरिः पालनकारकः ।
लयकारी भविष्यामि रुद्ररूपो गुणाकृतिः ॥ २२ ॥
आप ब्रह्मा सृष्टिकर्ता होंगे, श्रीहरि जगत्का पालन करनेवाले होंगे तथा मैं सगुण रुद्ररूप होकर संहार करनेवाला होऊँगा ॥ २२ ॥

स्त्रियं विवाह्य लोकस्य करिष्ये कार्यमुत्तमम् ।
इति संस्मृत्य स्वप्रोक्तं पूर्णं कुरु निजं पणम् ॥ २३ ॥
मैं एक स्त्रीके साथ विवाह करके लोकका उत्तम कार्य करूँगा, [हे स्वामिन् !] आप अपने द्वारा कहे गये वचनको याद करके अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण कीजिये ॥ २३ ॥

निदेशस्तव च स्वामिन्नहं सृष्टिकरो हरिः ।
पालको लयहेतुस्त्वमाविर्भूतः स्वयं शिवः ॥ २४ ॥
त्वां विना न समर्थौ हि आवां च स्वस्वकर्मणि ।
लोककार्यरतो तस्मादेकां गृह्णीष्व कामिनीम् ॥ २५ ॥
हे स्वामिन् ! आपका आदेश है कि मैं सृष्टि करूँ, श्रीहरि पालन करें और आप स्वयं संहारके हेतु बनकर प्रकट हों, सो आप साक्षात् शिव ही संहारकर्ताके रूपमें प्रकट हुए हैं । आपके बिना हम दोनों अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हैं । अत: आप लोकहितके कार्यमें तत्पर एक कामिनीको स्वीकार करें । २४-२५ ॥

यथा पद्मालया विष्णोः सावित्री च यथा मम ।
तथा सहचरीं शम्भो कान्तां गृह्णीष्व सम्प्रति ॥ २६ ॥
हे शम्भो ! जैसे लक्ष्मी भगवान् विष्णुकी और सावित्री मेरी सहधर्मिणी हैं, उसी प्रकार आप इस समय अपनी सहचरी कान्ताको ग्रहण करें ॥ २६ ॥

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा वचो मे हि ब्रह्मणः पुरतो हरेः ।
स मां जगाद लोकेशः स्मेराननमुखो हरः ॥ २७ ॥
ब्रह्माजी बोले-मेरी यह बात सुनकर मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाले वे लोकेश हर श्रीहरिके सामने मुझसे कहने लगे- ॥ २७ ॥

ईश्वर उवाच
हे ब्रह्मन् हे हरे मे हि युवां प्रियतरौ सदा ।
दृष्ट्‍वा त्वां च ममानन्दो भवत्यतितरां खलु ॥ २८ ॥
ईश्वर बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विष्णो ! आप दोनों मुझे सदा ही अत्यन्त प्रिय हैं, आप दोनोंको देखकर मुझे बड़ा आनन्द मिलता है ॥ २८ ॥

युवां सुरविशिष्टौ हि त्रिभुवस्वामिनौ किल ।
कथनं वां गरिष्ठेति भवकार्यरतात्मनोः ॥ २९ ॥
आपलोग समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ और त्रिलोकीके स्वामी हैं । लोकहितके कार्यमें मन लगाये रहनेवाले आपदोनोंका वचन अत्यन्त गौरवपूर्ण है ॥ २९ ॥

उचितं न सुरश्रेष्ठौ विवाहकरणं मम ।
तपोरतविरक्तस्य सदा विदितयोगिनः ॥ ३० ॥
यो निवृत्तिसुमार्गस्थः स्वात्मारामो निरञ्जनः ।
अवधूततनुर्ज्ञानी स्वद्रष्टा कामवर्जितः ॥ ३१ ॥
अविकारी ह्यभोगी च सदाशुचिरमङ्‌गलः ।
तस्य प्रयोजनं लोके कामिन्या किं वदाधुना ॥ ३२ ॥
किंतु हे सुरश्रेष्ठगण ! सदा तपस्यामें संलग्न रहकर संसारसे विरत रहनेवाले और योगीके रूपमें प्रसिद्ध मेरे लिये विवाह करना उचित नहीं है; जो निवृत्तिके सुन्दर मार्गपर स्थित, अपनी आत्मामें ही रमण करनेवाला, निरंजन, अवधूत देहवाला, ज्ञानी, आत्मदर्शी, कामनासे शून्य, विकाररहित, अभोगी, सदा अपवित्र और अमंगल वेशधारी है, उसे संसारमें कामिनीसे क्या प्रयोजन है, यह इस समय मुझे बताइये ॥ ३०-३२ ॥

केवलं योगलग्नस्य ममानन्दःसदास्ति वै ।
ज्ञानहीनस्तु पुरुषो मनुते बहुकामकम् ॥ ३३ ॥
विवाहकरणं लोके विज्ञेयं परबन्धनम् ।
तस्मात्तस्य रुचिर्नो मे सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ३४ ॥
न स्वार्थं मे प्रवृत्तिर्हि सम्यक्स्वार्थविचिन्तनात् ।
तथापि तत्करिष्यामि भवदुक्तं जगद्धितम् ॥ ३५ ॥
मत्त्वा वचो गरिष्ठं वा नियोक्तिपरिपूर्त्तये ।
करिष्यामि विवाहं वै भक्तवश्यः सदा ह्यहम् ॥ ३६ ॥
मुझे तो सदा केवल योगमें लगे रहनेपर ही आनन्द आता है, ज्ञानहीन पुरुष ही भोगको अधिक महत्त्व देता है । संसारमें विवाह करना बहुत बड़ा बन्धन समझना चाहिये । इसलिये मैं सत्य-सत्य कहता हूँ कि उसमें मेरी अभिरुचि नहीं है । आत्मा ही अपना उत्तम अर्थ या स्वार्थ है, उसका भलीभाँति चिन्तन करनेके कारण [लौकिक स्वार्थमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती है, तथापि आपने जगत्के हितके लिये हितकर जो कुछ कहा है, उसे मैं करूँगा । आपके वचनको गरिष्ठ मानकर अथवा अपनी कही हुई बातको पूर्ण करनेके लिये मैं विवाह अवश्य करूँगा; क्योंकि मैं सदा अपने भक्तोंके अधीन हूँ ॥ ३३-३६ ॥

परन्तु यादृशीं कान्तां ग्रहीष्यामि तथापणम् ।
तच्छृणुष्व हरे ब्रह्मन् युक्तमेव वचो मम ॥ ३७ ॥
या मे तेजः समर्था हि ग्रहीतुं स्याद्विभागशः ।
तां निदेशय भार्यार्थे योगिनीं कामरूपिणीम् ॥ ३८ ॥
योगयुक्ते मयि तथा योगिन्येव भविष्यति ।
कामासक्ते मयि तथा कामिन्येव भविष्यति ॥ ३९ ॥
हे हरे ! हे ब्रह्मन् ! परंतु मैं जैसी नारीको प्रिय पत्नीके रूपमें ग्रहण करूँगा और जिस शर्तके साथ करूँगा, उसे सुनें । मेरा वचन सर्वथा उचित है । जो नारी मेरे तेजको विभागपूर्वक ग्रहण करनेमें समर्थ हो, उस योगिनी तथा कामरूपिणी स्त्रीको मेरी पत्नी बनानेके लिये बतायें । जब मैं योगमें तत्पर रहूँ, तब उसे भी योगिनी बनकर रहना होगा और जब मैं कामासक्त होऊँ, तब उसे भी कामिनीके रूपमें रहना होगा ॥ ३७-३९ ॥

यमक्षरं वेदविदो निगदन्ति मनीषिणः ।
ज्योतीरूपं शिवं ते च चिन्तयिष्ये सनातनम् ॥ ४० ॥
तच्चिन्तायां यदा सक्तो ब्रह्मन् गच्छामि भाविनीम् ।
तत्र या विघ्नजननी न भवित्री हतास्तु मे ॥ ४१ ॥
वेदवेत्ता विद्वान् जिन्हें अविनाशी बतलाते हैं, उन ज्योतिःस्वरूप सनातन शिवतत्त्वका मैं सदा चिन्तन करता हूँ । हे ब्रह्मन् ! उन सदाशिवके चिन्तनमें जब मैं न लगा होऊँ तब उस कामिनीके साथ मैं समागम कर सकता हूँ । जो मेरे शिव-चिन्तनमें विघ्न डालेगी, वह दुर्भगा स्त्री मेरी भार्या न बने ॥ ४०-४१ ॥

त्वं वा विष्णुरहं वापि शिवस्य ब्रह्मरूपिणः ।
अंशभूता महाभागा योग्यं तदनुचिन्तनम् ॥ ४२ ॥
आप ब्रह्मा, विष्णु और मैं तीनों ही महाभाग्यशाली ब्रह्मस्वरूप शिवजीके अंशभूत हैं, अत: हमारे लिये उनका नित्य चिन्तन करना उचित है ॥ ४२ ॥

तच्चिन्तया विनोद्वाहं स्थास्यामि कमलासन ।
तस्माज्जायां प्रादिशं त्वं मत्कर्मानुगतां सदा ॥ ४३ ॥
हे कमलासन ! उनके चिन्तनके लिये मैं बिना विवाहके भी रह लूँगा, किंतु उनका चिन्तन छोड़कर विवाह नहीं करूंगा । अतः आपलोग मुझे इस प्रकारकी पत्नी बताइये, जो सदा मेरे कर्मके अनुकूल चल सके ॥ ४३ ॥

तत्राप्येकं पणं मे त्वं वृणु ब्रह्मांश्च मां प्रति ।
अविश्वासो मदुक्ते चेन्मया त्यक्ता भविष्यति ॥ ४४ ॥
हे ब्रह्मन् उसमें भी मेरी एक शर्त है, उसे आप सुनें । यदि उस स्त्रीका मुझपर और मेरे वचनोंपर अविश्वास होगा, तो मैं उसे त्याग ,गा ॥ ४४ ॥

ब्रह्मोवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वाहं स विष्णुर्हरस्य च ।
सस्मितं मोदितमनोऽवोचं चेति विनम्रकः ॥ ४५ ॥
ब्रह्माजी बोले-उन रुद्रकी बात सुनकर मैंने और श्रीविष्णुने मन्द मुसकानके साथ मन-ही-मन प्रसन्नताका अनुभव किया, फिर मैंने विनम्र होकर यह कहा- ॥ ४५ ॥

शृणु नाथ महेशान मार्गिता यादृशी त्वया ।
निवेदयामि सुप्रीत्या तां स्त्रियं तादृशीं प्रभो ॥ ४६ ॥
हे नाथ ! हे महेश्वर ! हे प्रभो ! आपने जिस प्रकारको स्त्रीका निर्देश किया है, वैसी ही स्त्रीके विषयमें मैं आपको प्रसन्नतापूर्वक बता रहा हूँ ॥ ४६ ॥

उमा सा भिन्नरूपेण सञ्जाता कार्यसाधिनी ।
सरस्वती तथा लक्ष्मी द्विधा रूपा पुरा प्रभो ॥ ४७ ॥
वे उमा जगत्की कार्यसिद्धिके लिये भिन्न-भिन्न रूपमें प्रकट हुई हैं । हे प्रभो ! सरस्वती और लक्ष्मी ये दो रूप धारण करके वे पहले ही प्रकट हो चुकी हैं ॥ ४७ ॥

पाद्मा कान्ताऽभवद्विष्णोस्तथा मम सरस्वती ।
तृतीयरूपा सा नोऽभूल्लोककार्यहितैषिणी ॥ ४८ ॥
महालक्ष्मी तो विष्णुकी कान्ता तथा सरस्वती मेरी कान्ता हुई हैं । लोकहितका कार्य करनेकी इच्छावाली वे अब हमारे लिये तीसरा रूप धारण करके प्रकट हुई हैं ॥ ४८ ॥

दक्षस्य तनया याऽभूत्सती नाम्ना तु सा विभो ।
सैवेदृशी भवेद्‌भार्या भवेद्धि हितकारिणी ॥ ४९ ॥
हे प्रभो ! वे शिवा 'सती' नामसे दक्षपुत्रीके रूपमें अवतीर्ण हुई हैं । वे ही आपकी ऐसी भार्या हो सकती हैं, जो सदा आपके लिये हितकारिणी होंगी ॥ ४९ ॥

सा तपस्यति देवेश त्वदर्थं हि दृढव्रता ।
त्वां पतिं प्राप्तुकामा वै महातेजोवती सती ॥ ५० ॥
हे देवेश ! वे दृढव्रतमें स्थित होकर आपके लिये तप कर रही हैं । वे महातेजस्विनी सती आपको पतिरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छुक हैं ॥ ५० ॥

दातुं गच्छ वरं तस्यै कृपां कुरु महेश्वर ।
तां विवाहय सुप्रीत्या वरं दत्त्वा च तादृशम् ॥ ५१ ॥
हे महेश्वर ! [उन सतीके ऊपर] कृपा कीजिये, उन्हें वर प्रदान करनेके लिये जाइये और वैसा वर देकर उनके साथ विवाह कीजिये ॥ ५१ ॥

हरेर्मम च देवानामियं वाञ्छास्ति शङ्‌कर ।
परिपूरय सद्दृष्ट्या पश्यामोत्सवमादरात् ॥ ५२ ॥
हे शंकर ! भगवान् विष्णुकी, मेरी तथा सभी देवताओंकी यही इच्छा है । आप अपनी शुभ दृष्टिसे हमारी इच्छाको पूर्ण कीजिये, जिससे हम इस उत्सवको आदरपूर्वक देख सकें ॥ ५२ ॥

मङ्‌गलं परमं भूयात्त्रिलोकेषु सुखावहम् ।
सर्वज्वरो विनश्येद्वै सर्वेषां नात्र संशयः ॥ ५३ ॥
ऐसा होनेसे तीनों लोकोंमें सुख देनेवाला परम मंगल होगा और सबकी समस्त चिन्ताएँ मिट जायेंगी, इसमें संशय नहीं है ॥ ५३ ॥

अथवास्मद्वचः शेषे वदन्तं मधुसूदनः ।
लीलाजाकृतिमीशानं भक्तवत्सलमच्युतः ॥ ५४ ॥
मेरी बात पूरी होनेपर अच्युत मधुसूदन लीलासे रूप धारण करनेवाले भक्तवत्सल ईशानसे कहने लगे- ॥ ५४ ॥

विष्णुरुवाच
देवदेव महादेव करुणाकर शङ्‌कर ।
यदुक्तं ब्रह्मणा सर्वं मदुक्तं तन्न संशयः ॥ ५५ ॥
विष्णुजी बोले-हे देवाधिदेव ! हे महादेव ! हे करुणाकर ! हे शम्भो । ब्रह्माजीने जो कुछ भी कहा है, उसे मेरे द्वारा कहा गया ही समझिये, इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ॥ ५५ ॥

तत्कुरुष्व महेशान कृपां कृत्वा ममोपरि ।
सनाथं कुरु सद्दृष्ट्या त्रिलोकं सुविवाह्य ताम् ॥ ५६ ॥
हे महेश्वर ! मेरे ऊपर कृपा करके उसे कीजिये, उन सतीसे विवाहकर इस त्रिलोकीको अपनी कृपादृष्टिसे सनाथ कीजिये ॥ ५६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा भगवान् विष्णुस्तूष्णीमास मुने सुधीः ।
तथा स्तुतिं विहस्याह स प्रभुर्भक्तवत्सलः ॥ ५७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! यह कहकर उत्तम बुद्धिवाले भगवान् विष्णु चुप हो गये, तब भक्तवत्सल भगवान् शिवजीने हँसकर 'तथास्तु' कहा ॥ ५७ ॥

ततस्त्वावां च सम्प्राप्य चाज्ञां स मुनिभिः सुरैः ।
अगच्छाव स्वेष्टदेशं सस्त्रीकौ परहर्षितौ ॥ ५८ ॥
तत्पश्चात् उनसे आज्ञा प्राप्तकर पलियोंसहित हम दोनों मुनियों तथा देवताओं के साथ अपने अपने अभीष्ट स्थानको अत्यन्त प्रसन्नताके साथ चले आये ॥ ५८ ॥

इति श्रीशिवमहापुणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
द्वितीये सतीखण्डे विष्णुब्रह्मकृतशिवप्रार्थनावर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुब्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें विष्णु और ब्रह्माद्वारा शिवकी प्रार्थनाका वर्णन नामक सोलहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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