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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
एकोनविंशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] शिवलीलावर्णनम्
शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण ब्रह्मोवाच
कृत्वा दक्षः सुतादानं यौतकं विविधं ददौ । हराय सुप्रसन्नश्च द्विजेभ्यो विविधं धनम् ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार कन्यादानकर दक्षने भगवान् शंकरको अनेक प्रकारके उपहार दिये और ब्राह्मणोंको भी बहुत-सा धन दिया ॥ १ ॥ अथ शम्भुमुपागत्य समुत्थाय कृताञ्जलिः ।
सार्द्धं कमलया चेदमुवाच गरुडध्वजः ॥ २ ॥ उसके बाद लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णु शम्भुके पास जाकर हाथ जोड़कर खड़े होकर यह कहने लगे- ॥ २ ॥ विष्णुरुवाच
देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो । त्वं पिता जगतां तात सती माताखिलस्य च ॥ ३ ॥ विष्णु बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! हे तात ! आप सम्पूर्ण जगत्के पिता हैं और ये सती अखिल संसारकी माता हैं ॥ ३ ॥ युवां लीलावतारौ द्वे सतां क्षेमाय सर्वदा ।
खलानां निग्रहार्थाय श्रुतिरेषा सनातनी ॥ ४ ॥ आप दोनों सत्पुरुषोंके कल्याण तथा दुष्टोंके दमनके लिये सदा लीलापूर्वक अवतार ग्रहण करते हैं-यह सनातन श्रुति है ॥ ४ ॥ स्निग्धनीलाञ्जनश्यामशोभया शोभसे हर ।
दाक्षायण्या यथा चाहं प्रतिलोमेन पद्मया ॥ ५ ॥ हे हर ! आप चिकने नीले अंजनके समान शोभावाली सतीके साथ उसी प्रकार शोभा पा रहे हैं, जैसे मैं उसके विपरीत लक्ष्मीके साथ शोभा पा रहा हूँ । सती नीलवर्णा और आप गौरवर्ण हैं, उसके विपरीत मैं नीलवर्ण और लक्ष्मी गौरवर्ण हैं ॥ ५ ॥ देवानां वा नृणां रक्षां कुरु सत्याऽनया सताम् ।
संसारसारिणां शम्भो मङ्गलं सर्वदा तथा ॥ ६ ॥ हे शम्भो ! आप इन सतीके साथ रहकर देवताओंकी और सज्जन मनुष्योंकी रक्षा कीजिये, जिससे संसारी जोंका सदा कल्याण होता रहे ॥ ६ ॥ य एनां साभिलाषो वै दृष्ट्वा श्रुत्वाथवा भवेत् ।
तं हन्याः सर्वभूतेश विज्ञप्तिरिति मे प्रभो ॥ ७ ॥ हे सर्वभूतेश ! हे प्रभो ! इन सतीको देखकर अथवा [इनके विषयमें] सुनकर जो कामनायुक्त हो, उसका आप वध कीजिये, यह मेरी प्रार्थना है ॥ ७ ॥ ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा वचो विष्णोर्विहस्य परमेश्वरः । एवमस्त्विति सर्वज्ञः प्रोवाच मधुसूदनम् ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी बोले-भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर सर्वज्ञ परमेश्वरने मधुसूदनसे हँसकर कहा ऐसा ही होगा ॥ ८ ॥ स्वस्थानं हरिरागत्य स्थित आसीन्मुनीश्वर ।
उत्सवं कारयामास जुगोप चरितं च तत् ॥ ९ ॥ हे मुनीश्वर ! उसके बाद विष्णु आपने स्थानपर आकर स्थित हो गये । उन्होंने उत्सव कराया और उस चरित्रको गुप्त ही रखा ॥ ९ ॥ अहं देवीं समागत्य गृह्योक्तविधिनाऽखिलम् ।
अग्निकार्यं यथोद्दिष्टमकार्षं च सुविस्तरम् ॥ १० ॥ तत्पश्चात् मैं देवी सतीके पास आकर गृह्यसूत्रमें वर्णित विधिके अनुसार सारा अग्निकार्य विधानके साथ विस्तारपूर्वक करने लगा ॥ १० ॥ ततः शिवा शिवश्चैव यथाविधि प्रहृष्टवत् ।
अग्नेः प्रदक्षिणं चक्रे मदाचार्यद्विजाज्ञया ॥ ११ ॥ इसके बाद शिवा और शिवने प्रसन्न होकर मुझ आचार्य और द्विजोंकी आज्ञासे विधिपूर्वक अग्निकी प्रदक्षिणा की ॥ ११ ॥ तदा महोत्सवस्तत्राद्भुतोभूद्द्विजसत्तम ।
सर्वेषां सुखदं वाद्यं गीतनृत्यपुरःसरम् ॥ १२ ॥ हे द्विजसत्तम ! उस समय वहाँ बड़ा अद्भुत उत्सव मनाया गया और गीत एवं नृत्यके साथ वाद्य बजाया गया, जो सबके लिये सुखद था ॥ १२ ॥ तदानीमद्भुतं तत्र चरितं समभूदति ।
सुविस्मयकरं तात तच्छृणु त्वं वदामि ते ॥ १३ ॥ हे तात ! उस समय [सबको] आश्चर्यचकित करनेवाला एक अद्भुत चरित्र वहाँ हुआ, उसे आपसे मैं कह रहा हूँ, आप सुनिये ॥ १३ ॥ दुर्ज्ञेया शाम्भवी माया तया संमोहितं जगत् ।
सचराचरमत्यन्तं सदेवासुरमानुषम् ॥ १४ ॥ शिवजीकी माया दुर्जेय है, उसने देव, असुर तथा मनुष्योंसहित इस चराचर जगत्को पूर्णरूपसे मोहित कर रखा है ॥ १४ ॥ योऽहं शम्भुं मोहयितुं पुरेच्छं कपटेन ह ।
मां च तं शङ्करस्तात मोहयामास लीलया ॥ १५ ॥ हे तात ! पूर्वकालमें मैंने जिन शिवको कपटपूर्वक मोहमें डालना चाहा था, उन्हीं शिवने अपनी लीलासे मुझे मोहित कर लिया ॥ १५ ॥ इच्छेत्परापकारं यः स तस्यैव भवेद्ध्रुवम् ।
इति मत्वाऽपकारं नो कुर्यादन्यस्य पूरुषः ॥ १६ ॥ जो दूसरेका अपकार करना चाहता है, निश्चय ही पहले उसीका अपकार हो जाता है । ऐसा समझकर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरेका अपकार न करे ॥ १६ ॥ प्रदक्षिणां प्रकुर्वन्त्या वह्नेः सत्याः पदद्वयम् ।
आविर्बभूव वसनात्तदद्राक्षमहं मुने ॥ १७ ॥ हेमने ! जिस समय सती अग्निकी प्रदक्षिणा कर रही थी, उस समय उनके दोनों चरण वस्त्रसे बाहर निकल आये थे, मैंने उन्हें देख लिया ॥ १७ ॥ मदनाविष्टचेताश्च भूत्वाङ्गानि व्यलोकयम् ।
अहं सत्या द्विजश्रेष्ठ शिवमायाविमोहितः ॥ १८ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! शिवजीको मायासे मोहित हुआ मैं कामसे व्याप्त चित्तवाला होकर सतीके दूसरे अंगोंको देखने लगा ॥ १८ ॥ यथा यथाहं रम्याणि व्यैक्षमङ्गानि कौतुकात् ।
सत्या बभूव संहृष्टः कामार्तो हि तथा तथा ॥ १९ ॥ मैं जैसे-जैसे सतीके अंगोंको उत्सुकतापूर्वक देख रहा था, वैसे-वैसे प्रसन्न हो कामात हो रहा था ॥ १९ ॥ अहमेवं तथा दृष्ट्वा दक्षजां च पतिव्रताम् ।
स्मराविष्टमना वक्त्रं द्रष्टुकामोभवं मुने ॥ २० ॥ हे मुने ! इस प्रकार पतिव्रता दक्षपुत्रीको देखकर कामाविष्ट मनवाला मैं उनके मुखको देखनेका इच्छुक हो गया ॥ २० ॥ न शम्भोर्लज्जया वक्त्रं प्रत्यक्षं च विलोकितम् ।
न च सा लज्जयाविष्टा करोति प्रगटं मुखम् ॥ २१ ॥ किंतु शिवजीके सामने लज्जाके कारण मैं प्रत्यक्ष सतीका मुख नहीं देख सका और वे भी लजासे युक्त होनेके कारण अपना मुख प्रकट नहीं कर रही थीं ॥ २१ ॥ ततस्तद्दर्शनार्थाय सदुपायं विचारयन् ।
धूम्रघोरेण कामार्तोऽकार्षं तच्च ततः परम् ॥ २२ ॥ आर्द्रेन्धनानि भूरीणि क्षिप्त्वा तत्र विभावसौ । स्वल्पाज्याहुतिविन्यासादार्द्रद्रव्योद्भवस्तथा ॥ २३ ॥ प्रादुर्भूतस्ततो धूमो भूयांस्तत्र समन्ततः । तादृग् येन तमोभूतं वेदीभूमिविनिर्मितम् ॥ २४ ॥ तब सतीका मुख देखनेके लिये एक अत्यन्त सुन्दर उपाय सोचते हुए कामपीड़ित मैंने अग्निमें बहुत-सी गीली लकड़ी डालकर घोर धुआँ उत्पन्न कर दिया और उस धूमयुक्त अग्निमें घृतकी थोड़ीथोड़ी आहुति देने लगा । तब गीली लकड़ीके संयोगसे चारों दिशाओंमें घोर धुआँ फैल गया । इस प्रकार धूमाधिक्य होनेके फलस्वरूप वेदीके चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार हो गया ॥ २२-२४ ॥ ततो धूमाकुले नेत्रे महेशः परमेश्वरः ।
हस्ताभ्यां छादयामास बहुलीलाकरः प्रभुः ॥ २५ ॥ तब अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले प्रभु महेश्वरके नेत्र भी धूमसे व्याकुल हो उठे और उन्होंने दोनों हाथोंसे अपने नेत्रोंको बन्द कर लिया ॥ २५ ॥ ततो वस्त्रं समुत्क्षिप्य सतीवक्त्रमहं मुने ।
अवेक्षं किल कामार्तः प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ २६ ॥ तत्पश्चात् कामसे पीड़ित मैंने प्रसन्न मनसे वस्त्र हटाकर सतीके मुखको देख लिया ॥ २६ ॥ मुहुर्मुहुरहं तात पश्यामि स्म सतीमुखम् ।
अथेन्द्रियविकारं च प्राप्तवानस्मि सोऽवशः ॥ २७ ॥ मम रेतः प्रचस्कन्द ततस्तद्वीक्षणाद्द्रुतम् । चतुर्बिन्दुमितं भूमौ तुषारचयसंनिभम् ॥ २८ ॥ ततोहं शङ्कितो मौनी तत्क्षणं विस्मितो मुने । आच्छादये स्म तद्रेतो यथा कश्चिद्बुबोध न ॥ २९ ॥ अथ तद्भगवाञ्छम्भुर्ज्ञात्वा दिव्येन चक्षुषा । रेतोवस्कन्दनात्तस्य कोपादेतदुवाच ह ॥ ३० ॥ हे पुत्र ! मैं सतीके मुखको बार बार देखने लगा, इस प्रकार अवश होकर मैं इन्द्रियविकारसे युक्त हो गया । अपनेको असंयमित देख सशंकित हो मैं आश्चर्यसे चकित होकर मौन हो गया । भगवान् शिव - अपनी दिव्य दृष्टिसे इसे जानकर क्रोधित होकर कहने लगे- ॥ २७-३० ॥ रुद्र उवाच
किमेतद्विहितं पाप त्वया कर्म विगर्हितम् । विवाहे मम कान्ताया वक्त्रं दृष्टं न रागतः ॥ ३१ ॥ रुद्र बोले-हे पाप ! आपने ऐसा कुत्सित कम क्यों किया, जो कि विवाहमें रागपूर्वक मेरी स्त्रीका मुख देखा ? ॥ ३१ ॥ त्वं वेत्सि शङ्करेणैतत्कर्म ज्ञातं न किञ्चन ।
त्रैलोक्येऽपि न मेऽज्ञातं गूढं तस्मात्कथं विधे ॥ ३२ ॥ आप समझते हैं कि शंकर इस कुत्सित कर्मको नहीं जान सकेंगे । हे विधे ! इस त्रिलोकीमें कोई भी बात मुझसे अज्ञात नहीं रह सकती, तो यह बात कैसे छिपी रहेगी ? ॥ ३२ ॥ यत्किञ्चित्त्रिषु लोकेषु जङ्गमं स्थावरं तथा ।
तस्याहं मध्यगो मूढ तैलं यद्वत्तिलान्तिगम् ॥ ३३ ॥ हे मूढ़ ! जिस प्रकार तिलके सभी अवयवोंमें तेल रहता है, उसी प्रकार तीनों लोकोंमें जो कुछ भी स्थावर-जंगम पदार्थ हैं, उनमें मैं रहता हूँ ॥ ३३ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा प्रिय विष्णुर्मां तदा विष्णुवचः स्मरन् । इयेष हन्तुं ब्रह्माणं शूलमुद्यम्य शङ्करः ॥ ३४ ॥ ब्रह्माजी बोले-तत्पश्चात् विष्णुके लिये प्रिय शंकरजीने मुझसे यह कहकर [पूर्वमें कहे गये] विष्णुके वचनका स्मरणकर शूल लेकर मुझ ब्रह्माको मारना चाहा ॥ ३४ ॥ शम्भुनोद्यमिते शूले मां च हन्तुं द्विजोत्तम ।
मरीचिप्रमुखास्ते वै हाहाकारं च चक्रिरे ॥ ३५ ॥ हे द्विजोत्तम ! मुझे मारनेके लिये शिवके द्वारा त्रिशूल उठाये जानेपर [वहाँ उपस्थित] मरीचि आदि ऋषि हाहाकार करने लगे ॥ ३५ ॥ ततो देवगणाः सर्वे मुनयश्चाखिलास्तथा ।
तुष्टुवुः शङ्करं तत्र प्रज्वलन्तं भयातुराः ॥ ३६ ॥ उस समय सभी देवता तथा मुनि भयभीत होकर क्रोधसे जलते हुए शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ ३६ ॥ देवा ऊचुः
देव देव महादेव शरणागतवत्सल । ब्रह्माणं रक्ष रक्षेश कृपां कुरु महेश्वर ॥ ३७ ॥ देवगण बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! हे ईश ! आप ब्रह्माकी रक्षा कीजिये । हे महेश्वर कृपा कीजिये ॥ ३७ ॥ जगत्पिता महेश त्वं जगन्माता सती मता ।
हरिब्रह्मादयः सर्वे तव दासाःसुरप्रभो ॥ ३८ ॥ हे महेश ! आप इस संसारके पिता हैं तथा देवी सती जगत्की माता कही गयी हैं । हे सुरप्रभो ! विष्णु, ब्रह्मा आदि सभी [देवगण] आपके दास हैं ॥ ३८ ॥ अद्भुताकृतिलीलस्त्वं तव मायाद्भुता प्रभो ।
तया विमोहितं सर्वं विना त्वद्भक्तिमीश्वर ॥ ३९ ॥ आपकी आकृति तथा लीला अद्भुत है । हे प्रभो ! आपकी माया भी अद्भुत है । हे ईश्वर ! उसने आपकी भक्तिसे रहित सभीको मोहित कर लिया है ॥ ३९ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्थं बहुतरं दीना निर्जरा मुनयश्च ते । तुष्टुवुर्देवदेवेशं क्रोधाविष्टं महेश्वरम् ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार दुःखित देवता तथा मुनि क्रोधमें भरे हुए देवाधिदेव महादेवकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ दक्षो मैवं मैवमिति पाणिमुद्यम्य शङ्कितः ।
वारयामास भूतेशं क्षिप्रमेत्य पुरोगतः ॥ ४१ ॥ दक्ष प्रजापतिने शंकित होकर वहाँ पहुंचकर दोनों हाथ उठाकर ऐसा मत कीजिये, ऐसा मत कीजिये-ऐसा कहते हुए शिवजीके आगे जाकर उन्हें ऐसा करनेसे रोका ॥ ४१ ॥ अथाग्रे सङ्गतं वीक्ष्य तदा दक्षं महेश्वरः ।
प्रत्युवाचाप्रियमिदं संस्मरन्प्रार्थनां हरेः ॥ ४२ ॥ तब शिवजी अपने आगे दक्षको आया हुआ देखकर भगवान् विष्णुकी प्रार्थनाका स्मरण करते हुए इस प्रकारका अप्रिय वचन कहने लगे- ॥ ४२ ॥ महेश्वर उवाच
विष्णुना मेऽतिभक्तेन यदिदानीमुदीरितम् । मयाप्यङ्गीकृतं कर्तुं तदिहैव प्रजापते ॥ ४३ ॥ महेश्वर बोले-हे प्रजापते ! मेरे महान् भक्त विष्णुने उस समय जैसा कहा था, मैंने वही करना स्वीकार भी किया था ॥ ४३ ॥ सतीं यः साभिलाषः सन् वीक्षेत वध तं प्रभो ।
इति विष्णुवचः सत्यं विधिं हत्वा करोम्यहम् ॥ ४४ ॥ [विष्णुने कहा था कि] हे प्रभो ! जो वासनायुक्त होकर सतीको देखे, उसका वध कीजिये । अब मैं ब्रह्माका वध करके विष्णुके वचनको सत्य करता हूँ ॥ ४४ ॥ साभिलाषः कथं ब्रह्मा सतीं समवलोकयत् ।
अभवत्त्यक्तरेतास्तु ततो हन्मि कृतागसम् ॥ ४५ ॥ ब्रह्माने कामनायुक्त होकर सतीको क्यों देखा ? इन्होंने अत्यन्त गर्हित कर्म किया है, इसलिये अपराधी ब्रह्माका वध मैं अवश्य करूँगा ॥ ४५ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्युक्तवति देवेश महेशे क्रोधसङ्कुले । चकम्पिरे जनाः सर्वे सदेवमुनिमानुषाः ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी बोले-उस समय क्रोधाविष्ट देवेश्वर महेशके ऐसा कहनेपर देवता, मुनि तथा मनुष्योसहित सभी लोग काँपने लगे ॥ ४६ ॥ हाहाकारो महानासीदौदासीन्यं च सर्वशः ।
अभूवं विकलोऽतीव तदाहं तद्विमोहितः ॥ ४७ ॥ चारों दिशाओं में हाहाकार मच गया और चारों ओर उदासी छा गयी। उनके द्वारा विमोहित किया गया मैं उस समय अत्यन्त व्याकुल हो उठा ॥४७॥ अथ विष्णुर्महेशातिप्रियकार्यविचक्षणः ।
तमेवंवादिनं रुद्रं तुष्टाव प्रणतःसुधीः ॥ ४८ ॥ तब महेशके अतिप्रिय, कार्य सिद्ध करनेमें प्रवीण तथा बुद्धिमान् भगवान् विष्णुने ऐसा कहनेवाले उन शिवजीकी स्तुति की॥ ४८॥ स्तुत्वा च विविधैः स्तोत्रैः शङ्करं भक्तवत्सलम् ।
इदमूचे वारयंस्तं क्षिप्रं भूत्वा पुरःसरः ॥ ४९ ॥ अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे भक्तवत्सल शिवजीकी स्तुतिकर उन्हें [ब्रह्माका वध करनेसे] रोकते हुए आगे जाकर उन्होंने इस प्रकार कहा- ॥४९॥ विष्णुरुवाच
विधिं न जहि भूतेश स्रष्टारं जगतां प्रभुम् । अयं शरणगस्तेऽद्य शरणागतवत्सलः ॥ ५० ॥ विष्णुजी बोले-हे भूतेश! आप जगत्को उत्पन्न करनेवाले प्रभु इन ब्रह्माका वध न करें। ये आपकी शरणमें आये हैं और आप शरणमें आये हुए लोगोंसे स्नेह करनेवाले हैं।॥५०॥ अहं तेऽतिप्रियो भक्तो भक्तराज इतीरितः ।
विज्ञप्तिं हृदि मे मत्वा कृपां कुरु ममोपरि ॥ ५१ ॥ मैं आपका परम प्रिय हूँ, इसीलिये मुझे भक्तराज कहा गया है। मेरे इस निवेदनको हृदयमें स्वीकार करके मेरे ऊपर कृपा कीजिये॥५१॥ अन्यच्च शृणु मे नाथ वचनं हेतुगर्भितम् ।
तन्मनुष्व महेशान कृपां कृत्वा ममोपरि ॥ ५२ ॥ [इसके अतिरिक्त] हे नाथ! हेतुयुक्त मेरी दूसरी प्रार्थना भी सुनिये और हे महेश्वर ! मेरे ऊपर कृपा | करके उसे मानिये ॥५२॥ प्रजाः स्रष्टुमयं शम्भो प्रादुर्भूतश्चतुर्मुखः ।
अस्मिन् हते प्रजास्रष्टा नास्त्यन्यः प्राकृतोऽधुना ॥ ५३ ॥ हे शम्भो! ये चतुरानन ब्रह्मा प्रजाकी सृष्टि | करनेके लिये उत्पन्न हुए हैं। इनके मारे जानेपरप्रजाकी सृष्टि करनेवाला कोई दूसरा नहीं है ॥५३॥ सृष्टिस्थित्यन्तकर्माणि करिष्यामः पुनः पुनः ।
त्रयो देवा वयं नाथ शिवरूप त्वदाज्ञया ॥ ५४ ॥ हे नाथ! हे शिवस्वरूप! आपकी आज्ञासे ही | हम तीनों देवता सृष्टि, स्थिति और संहारका कार्य | बार-बार करेंगे॥५४॥ एतस्मिन्निहते शम्भो कस्त्वत्कर्म करिष्यति ।
तस्मान्न वध्यो भवता सृष्टिकृल्लयकृद्विभो ॥ ५५ ॥ हे शम्भो ! उनका वध कर देनेपर आपका कार्य | कौन सम्पन्न करेगा? इसलिये हे लयकर्ता विभो! | आप इन सृष्टिकर्ताका वध न करें॥५५॥ अनेनैव सती कन्या दक्षस्य च शिवा विभो ।
सदुपायेन वै भार्या भवदर्थे प्रकल्पिता ॥ ५६ ॥ हे विभो ! इन्होंने ही आपकी भार्या होनेके लिये | शिवाको दक्षकन्या सतीके रूपमें सत्प्रयत्नसे अवतरित किया है॥५६॥ ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य महेशस्तु विज्ञप्तिं विष्णुना कृताम् । प्रत्युवाचाखिलांस्तांश्च श्रावयंश्च दृढव्रतः ॥ ५७ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद!] विष्णुके द्वारा की गयी इस प्रार्थनाको सुनकर दृढव्रत शंकरजी [वहाँ उपस्थित सभी लोगोंको सुनाते हुए [भगवान् विष्णुसे] इस प्रकार कहने लगे- ॥५७॥ महेश उवाच
देव देव रमेशान विष्णो मत्प्राणवल्लभ । न निवारय मां तात वधादस्य खलस्त्वयम् ॥ ५८ ॥ महेश बोले-हे देवदेव! हे रमेश ! हे विष्णो! हे मेरे प्राणप्रिय! हे तात! मुझको इसका वध करनेसे मत रोकिये; क्योंकि यह दुष्ट है॥ ५८॥ पूरयिष्यामि विज्ञप्तिं पूर्वान्तेङ्गीकृतां मया ।
महापापकरं दुष्टं हन्म्येनं चतुराननम् ॥ ५९ ॥ आपकी पूर्व प्रार्थनाको, जिसे मैंने स्वीकार किया था, उसे पूर्ण करूँगा । इस महापापी तथा दुष्ट चतुर्मुख ब्रह्माका वध मैं [अवश्य] करूँगा ॥ ५९ ॥ अहमेव प्रजाः स्रक्ष्ये सर्वाः स्थिरचरा अपि ।
अन्यं स्रक्ष्ये सृष्टिकरमथवाऽहं स्वतेजसा ॥ ६० ॥ मैं स्वयं ही सभी चराचर प्रजाओंकी सृष्टि करूँगा । अथवा अपने तेजसे किसी दूसरे सृष्टिकर्ताको उत्पन्न करूंगा । मैं अपनी की गयी प्रतिज्ञाको पूरा करते हुए इस ब्रह्माका वध करके अन्य सृष्टिकर्ताको उत्पन्न करूँगा, अतः हे लक्ष्मीपते । [इसका वध करनेसे] मुझे मत रोकिये ॥ ६०-६१ ॥ हत्वैनं विधिमेवाहं स्वपणं पूरयन् कृतम् ।
स्रष्टारमेकं स्रक्ष्यामि न निवारय मर्श माम् ॥ ६१ ॥ ब्रह्मोवाच इति तस्य वचः श्रुत्वा गिरीशस्याह चाच्युतः । स्मितप्रभिन्नहृदयः पुनर्मैवमितीरयन् ॥ ६२ ॥ ब्रह्माजी बोले-शिवजीका यह वचन सुनकर मन्द-मन्द मुसकराते हुए 'ऐसा मत कीजिये - इस प्रकार- बोलते हुए भगवान् विष्णु पुनः कहने लगे- ॥ ६२ ॥ अच्युत उवाच
प्रतिज्ञापूरणं योग्यं परस्मिन्पुरुषेस्ति वै । विचारयस्व वध्येश भवत्यात्मनि न प्रभो ॥ ६३ ॥ अच्युत बोले-हे प्रभो ! प्रतिज्ञाकी पूर्ति तो दूसरे पुरुषमें की जाती है । हे विनाशके ईश ! आप स्वयं विचार करें, वह अपने ऊपर नहीं की जाती ॥ ६३ ॥ त्रयो देवा वयं शम्भो त्वदात्मानः परा नहि ।
एकरूपा न भिन्नाश्च तत्त्वतः सुविचारय ॥ ६४ ॥ हे शम्भो ! हम तीनों देवता आपकी ही आत्मा हैं, दूसरे नहीं । हमलोग एकरूप हैं, भिन्न नहीं हैं, इस बातको आप यथार्थ रूपसे विचार कीजिये ॥ ६४ ॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा विष्णोःस्वातिप्रियस्य सः ।
शम्भुरूचे पुनस्तं वै ख्यापयन्नात्मनो गतिम् ॥ ६५ ॥ तब अपने अत्यन्त प्रिय विष्णुका वह वचन सुनकर शिवजी अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए उनसे कहने लगे- ॥ ६५ ॥ शम्भुरुवाच
हे विष्णो सर्वभक्तेश कथमात्मा विधिर्मम । लक्ष्यते भिन्न एवायं प्रत्यक्षेणाग्रतः स्थितः ॥ ६६ ॥ शम्भु बोले-हे विष्णो ! हे सम्पूर्ण भक्तोंके ईश ! ब्रह्मा किस प्रकार मेरो आत्मा हो सकते हैं; क्योंकि ये तो प्रत्यक्ष रूपसे आगे बैठे हुए मुझसे भिन्न दिखायी दे रहे हैं ? ॥ ६६ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्याज्ञप्तो महेशेन सर्वेषां पुरतस्तदा । इदमूचे महादेवं तोषयन् गरुडध्वजः ॥ ६७ ॥ ब्रह्माजी बोले-जब सबके आगे महेश्वरने ऐसा कहा, तब उन महादेवको सन्तुष्ट करते हुए विष्णु कहने लगे- ॥ ६७ ॥ विष्णुरुवाच
न ब्रह्मा भवतो भिन्नो न त्वं तस्मात्सदाशिव । न वाहं भवतो भिन्नो न मत्त्वं परमेश्वर ॥ ६८ ॥ विष्णु बोले-हे सदाशिव ! न ब्रह्मा आपसे भिन्न हैं और न तो आप ही उनसे भिन्न हैं । हे परमेश्वर ! न मैं ही आपसे भिन्न हूँ और न तो आप ही मुझसे भिन्न हैं ॥ ६८ ॥ सर्वं जानासि सर्वज्ञ परमेश सदाशिव ।
मन्मुखादखिलात्सर्वं संश्रावयितुमिच्छसि ॥ ६९ ॥ हे सर्वज्ञ ! हे परमेश ! हे सदाशिव ! आप सब कुछ जानते हैं, किंतु आप मेरे मुखसे सारी बात सभी लोगोंको सुनवाना चाहते हैं ॥ ६९ ॥ त्वदाज्ञया वदामीश शृण्वन्तु निखिलाः सुराः ।
मुनयश्चापरे शैवं तत्त्वं सन्धार्य स्वं मनः ॥ ७० ॥ हे ईश ! मैं आपकी आज्ञासे शिवतत्त्वका वर्णन कर रहा हूँ, समस्त देवता, मुनिगण तथा अन्य लोग अपने मनको एकाग्र करके सुनें ॥ ७० ॥ प्रधानस्याऽप्रधानस्य भागाभागस्य रूपिणः ।
ज्योतिर्मयस्य भागास्ते वयं देवाः प्रभोस्त्रयः ॥ ७१ ॥ हम तीनों देवता प्रधान-अप्रधान तथा भागअभागरूपवाले और ज्योतिर्मयस्वरूप आप परमेश्वरके ही अंश हैं ॥ ७१ ॥ कस्त्वं कोहं च को ब्रह्मा तवैव परमात्मनः ।
अंशत्रयमिदं भिन्नं सृष्टिस्थित्यन्तकारणम् ॥ ७२ ॥ आप कौन हैं, मैं कौन हूँ और ब्रह्मा कौन हैं । आप परमात्माके ही ये तीन अंश हैं, जो सृष्टि, पालन और संहार करनेके कारण एक-दूसरेसे भिन्न प्रतीत होते हैं ॥ ७२ ॥ चिन्तयस्वात्मनात्मानं स्वलीलाधृतविग्रहः ।
एकस्त्वं ब्रह्म सगुणो ह्यंशभूता वयं त्रयः ॥ ७३ ॥ आप स्वयं अपने स्वरूपका चिन्तन कीजिये । आपने अपनी लीलासे ही शरीर धारण किया है । आप एक, सगुण ब्रह्म हैं और हम [ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र]तीनों आपके अंश हैं ॥ ७३ ॥ शिरोग्रीवादिभेदेन यथैकस्यैव वर्ष्मणः ।
अङ्गानि ते तथेशस्य तस्य भगत्रयं हर ॥ ७४ ॥ हे हर ! जैसे मस्तक, ग्रीवा आदिके भेदसे एक ही शरीरके [भिन्न-भिन्न] अवयव होते हैं, उसी प्रकार हम तीनों उन्हीं आप परमेश्वरके अंग हैं । ७४ ॥ यज्ज्योतिरभ्रं स्वपुरं पुराणं
कूटस्थमव्यक्तमनन्तरूपम् । नित्यं च दीर्घादिविशेषणाद्यै- र्हीनं शिवस्त्वं तत एव सर्वम् ॥ ७५ ॥ जो ज्योतिर्मय, आकाशस्वरूप, स्वयं ही अपना धाम, पुराण, कूटस्थ, अव्यक्त, अनन्तरूपवाला, नित्य तथा दीर्घ आदि विशेषणोंसे रहित ब्रह्म है, वह आप शिव ही हैं । आपसे ही सब कुछ प्रकट हुआ है ॥ ७५ ॥ ब्रह्मोवाच
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य महादेवो मुनीश्वर ॥ बभूव सुप्रसन्नश्च न जघान स मां ततः ॥ ७६ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! तत्पश्चात् उनकी यह बात सुनकर महादेवजी अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने मेरा वध नहीं किया ॥ ७६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
द्वितीये सतीखण्डे सतीविवाहशिवलीलावर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीविवाह और शिवलीलावर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |