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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
विंशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] सतीविवाहोत्सव
ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनंतर शिअ और सतीका वृषभाॠढ हो कैलास के लिये प्रस्थान नारद उवाच
ब्रह्मन् विधे महाभाग शिवभक्त वरप्रभो । श्रावितं चरितं शम्भोरद्भुतं मङ्गलायनम् ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाभाग ! हे शिवभक्त ! हे श्रेष्ठ प्रभो ! हे विधे ! आपने भगवान् शिवके परम मंगलदायक तथा अद्भुत चरित्रको सुनाया ॥ १ ॥ ततः किमभवत्तात कथ्यतां शशिमौलिना ।
सत्याश्च चरितं दिव्यं सर्वाघौघविनाशनम् । २ ॥ हे तात ! उसके बाद क्या हुआ, चन्द्रमाको सिरपर धारण करनेवाले शिवजी एवं सतीके दिव्य तथा सम्पूर्ण पापराशिका नाश करनेवाले चरित्रका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥ ब्रह्मोवाच
निवृत्ते शङ्करे चास्मद्वधाद्भक्तानुकम्पिनि । अभवन्निर्भयाः सर्वे सुखिनस्तु प्रसन्नकाः ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले शिवजी जब मेरा वध करनेसे विरत हो गये, तब सभी लोग निर्भय, सुखी और प्रसन्न हो गये ॥ ३ ॥ नतस्कन्धाः साञ्जलयः प्रणेमुर्निखिलाश्च ते ।
तुष्टुवुः शङ्करं भक्त्या चक्रुर्जयरवं मुदा ॥ ४ ॥ सभी लोगोंने हाथ जोड़कर नतमस्तक हो शंकरजीको प्रणाम किया, भक्तिपूर्वक स्तुति की और प्रसन्नतापूर्वक जय-जयकार किया ॥ ४ ॥ एतस्मिन्नेव कालेऽहं प्रसन्नो निर्भयो मुने ।
अस्तवं शङ्करं भक्त्या विविधैश्च शुभैः स्तवैः ॥ ५ ॥ हे मुने ! उसी समय मैंने प्रसन्न तथा निर्भय होकर अनेक प्रकारके उत्तम स्तोत्रोंद्वारा शंकरको स्तुति की ॥ ५ ॥ ततस्तुष्टमनाः शम्भुर्बहुलीलाकरः प्रभुः ।
मुने मां समुवाचेदं सर्वेषां शृण्वतां तदा ॥ ६ ॥ हे मुने ! तत्पश्चात् अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले भगवान् शिव प्रसन्नचित्त होकर सभीको सुनाते हुए मुझसे इस प्रकार कहने लगे- ॥ ६ ॥ रुद्र उवाच
ब्रह्मन् तात प्रसन्नोहं निर्भयस्त्वं भवाधुना । स्वशीर्षं स्पृश हस्तेन मदाज्ञां कुर्वसंशयम् ॥ ७ ॥ रुद्र बोले-हे ब्रह्मन् ! हे तात ! मैं प्रसन्न हूँ । अब आप निर्भय हो जाइये । आप अपने हाथसे सिरका स्पर्श करें और संशयरहित होकर मेरी आज्ञाका पालन करें ॥ ७ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचः शम्भोर्बहुलीलाकृतः प्रभोः । स्पृशन् स्वं कं तथा भूत्वा प्रणामं वृषभध्वजम् ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी बोले-अनेक लीलाएँ करनेवाले भगवान् शिवजीकी इस बातको सुनकर मैंने अपने सिरका स्पर्श करते हए उन वृषध्वजको प्रणाम किया ॥ ८ ॥ यावदेवमहं स्वं कं स्पृशामि निजपाणिना ।
तावत्तत्र स्थितं सद्यः तद्रूपवृषवाहनम् ॥ ९ ॥ ततो लज्जापरीताङ्गः स्थितश्चाहमधोमुखः । इन्द्राद्यैरमरैः सर्वैः सुदृष्टः सर्वतः स्थितैः ॥ १० ॥ मैंने जैसे ही अपने हाथसे अपने सिरका स्पर्श किया, उसी क्षण वहाँ उसीके रूपमें वृषवाहन स्थित दिखायी पड़े । तब लज्जायुक्त शरीरवाला मैं नीचेकी ओर मुख करके खड़ा रहा । उस समय वहाँ स्थित इन्द्र आदि देवताओंने मुझे देखा ॥ ९-१० ॥ अथाहं लज्जयाऽविष्टः प्रणिपत्य महेश्वरम् ।
प्रावोचं संस्तुतिं कृत्वा क्षम्यतां क्षम्यतामिति ॥ ११ ॥ उसके पश्चात् लज्जासे युक्त होकर मैं शिवजीको प्रणाम करके तथा उनकी स्तुति करके क्षमा कीजियेक्षमा कीजिये-ऐसा कहने लगा ॥ ११ ॥ अस्य पापस्य शुध्यर्थं प्रायश्चित्तं वद प्रभो ।
निग्रहं च तथा न्यायं येन पापं प्रयातु मे ॥ १२ ॥ हे प्रभो ! इस पापकी शुद्धिके लिये कोई प्रायश्चित्त और उचित दण्ड कीजिये, जिससे मेरा पाप दूर हो जाय ॥ १२ ॥ इत्युक्तस्तु मया शम्भुरुवाच प्रणतं हि माम् ।
सुप्रसन्नतरो भूत्वा सर्वेशो भक्तवत्सलः ॥ १३ ॥ इस प्रकार मेरे कहनेपर भक्तवत्सल सर्वेश शम्भु अत्यन्त प्रसन्न होकर मुझ विनम्र ब्रह्मासे कहने लगे ॥ १३ ॥ शम्भुरुवाच
अनेनैव स्वरूपेण मदधिष्ठितकेन हि । तपः कुरु प्रसन्नात्मा मदाराधनतत्परः ॥ १४ ॥ शम्भु बोले-[हे ब्रह्मन् !] मुझसे अधिष्ठित इसी रूपसे आप प्रसन्नचित्त होकर आराधनामें संलग्न रहते हुए तप करें ॥ १४ ॥ ख्यातिं यास्यसि सर्वत्र नाम्ना रुद्रशिरः क्षितौ ।
साधकः सर्वकृत्यानां तेजोभाजां द्विजन्मनाम् ॥ १५ ॥ मनुष्याणामिदं कृत्यं यस्माद्वीर्य्यं त्वयाऽधुना । तस्मात्त्वं मानुषो भूत्वा विचरिष्यसि भूतले ॥ १६ ॥ इसीसे पृथ्वीपर सर्वत्र 'रुद्रशिर' नामसे आपकी प्रसिद्धि होगी और आप तेजस्वी ब्राह्मणोंके सभी कार्योंको सिद्ध करनेवाले होंगे । आपने [कामके वशीभूत होकर] जो वीर्यपात किया है, वह कृत्य मनुष्योंका है, इसलिये आप मनुष्य होकर पृथ्वीपर विचरण करें ॥ १५-१६ ॥ यस्त्वां चानेन रूपेण दृष्ट्वा कौ विचरिष्यति ।
किमेतद्ब्रह्मणो मूर्ध्नि वदन्निति पुरान्तकः ॥ १७ ॥ ततस्ते चेष्टितं सर्वं कौतुकाच्छ्रोष्यतीति यः । परदारकृतात्त्यागान्मुक्तिं सद्यः स यास्यति ॥ १८ ॥ जो तुम्हें इस रूपसे देखकर यह क्या ! ब्रह्माके सिरपर शिवजी कैसे हो गये-ऐसा कहता हुआ पृथ्वीपर विचरण करेगा और फिर जो कौतुकवश आपके सम्पूर्ण कृत्यको सुनेगा, वह परायी स्त्रीके निमित्त किये गये त्यागसे शीघ्र ही मुक्त हो जायगा ॥ १७-१८ ॥ यथा यथा जनश्चैतत्कृत्यन्ते कीर्तयिष्यति ।
तथा तथा विशुद्धिस्ते पापस्यास्य भविष्यति ॥ १९ ॥ लोग जैसे-जैसे आपके इस कुकृत्यका वर्णन करेंगे, वैसे-वैसे आपके इस पापकी शुद्धि होती जायगी ॥ १९ ॥ एतदेव हि ते ब्रह्मन् प्रायश्चित्तं मयेरितम् ।
जनहास्यकरं लोके तव गर्हाकरं परम् ॥ २० ॥ हे ब्रह्मन् ! संसारमें मनुष्योंके द्वारा आपका उपहास करानेवाला तथा आपकी निन्दा करानेवाला यह प्रायश्चित्त मैंने आपसे कह दिया ॥ २० ॥ एतच्च तव वीर्यं हि पतितं वेदिमध्यगम् ।
कामार्तस्य मया दृष्टं नैतद्धार्यं भविष्यति ॥ २१ ॥ कामपीड़ित आपका जो तेज वेदीके मध्यमें गिरा तथा जिसे मैंने देख लिया, वह किसीके भी धारण करनेयोग्य नहीं होगा ॥ २१ ॥ चतुर्बिन्दुमितं रेतः पतितं यत्क्षितौ तव ।
तन्मितास्तोयदा व्योम्नि भवेयुः प्रलयङ्कराः ॥ २२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र देवर्षीणां पुरो द्रुतम् । तद्रेतसः समभवंस्तन्मिताश्च बलाहका ॥ २३ ॥ संवर्तकस्तथाऽऽवर्त्तः पुष्करो द्रोण एव च । एते चतुर्विधास्तात महामेघा लयङ्कराः ॥ २४ ॥ तुम्हारा जो तेज पृथ्वीपर गिरा, उससे आकाशमें प्रलयंकर मेघ होंगे । उसी समय वहाँ देवर्षियोंके सामने शीघ्र ही उस तेजसे हे तात ! संवर्त, आवर्त, पुष्कर तथा द्रोण-नामक ये चार प्रकारके प्रलयंकारी महामेघ हो गये ॥ २२-२४ ॥ गर्जन्तश्चाथ मुचन्तस्तोयानीषच्छिवेच्छया ।
फेलुर्व्योम्नि मुनिश्रेष्ठ तोयदास्ते कदारवाः ॥ २५ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! ये मेघ शिवकी इच्छासे गरजते हुए, जलकी थोड़ी-सी वर्षा करते हुए तथा भयानक शब्द करते हुए आकाशमें फैल गये ॥ २५ ॥ तैस्तु सञ्छादिते व्योम्नि सुगर्जद्भिश्च शङ्करः ।
प्रशान् दाक्षायणी देवी भृशं शान्तोऽभवद्द्रुतम् ॥ २६ ॥ अथ चाहं वीतभयः शङ्करस्या ज्ञया तदा । शेषं वैवाहिकं कर्म समाप्तिमनयं मुने ॥ २७ ॥ उस समय घोर गर्जन करते हुए उन मेघोंके द्वारा आकाशके आच्छादित हो जानेपर शीघ्र ही शंकरजी और सती देवी शान्त हो गये । हे मुने ! उसके बाद मैं निर्भय हो गया और शिवजीकी आज्ञासे मैंने विवाहके शेष कृत्योंको यथाविधि पूर्ण किया । २६-२७ ॥ पपात पुष्पवृष्टिश्च शिवाशिवशिरस्कयोः ।
सर्वत्र च मुनिश्रेष्ठ मुदा देवगणोज्झिता ॥ २८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय देवताओंने प्रसन्न होकर शिवाशिवके मस्तकपर चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा की ॥ २८ ॥ वाद्यमानेषु वाद्येषु गायमानेषु तेषु च ।
पठत्सु विप्रवर्येषु वेदान् भक्त्यान् वितेषु च ॥ २९ ॥ उस समय बाजे बजने लगे, गीत गाये जाने लगे । ब्राह्मणगण भक्तिसे परिपूर्ण हो वेदपाठ करने लगे ॥ २९ ॥ रम्भादिषु पुरन्ध्रीषु नृत्यमानासु सादरम् ।
महोत्सवो महानासीद्देवपत्नीषु नारद ॥ ३० ॥ रम्भा आदि अप्सराएँ प्रेमपूर्वक नृत्य करने लगीं-इस प्रकार हे नारद ! देवताओंकी स्त्रियोंके बीच महान् उत्सव हुआ ॥ ३० ॥ अथ कर्मवितानेशः प्रसन्नः परमेश्वरः ।
प्राह मां प्राञ्जलिं प्रीत्या लौकिकीं गतिमाश्रितः ॥ ३१ ॥ तदनन्तर यज्ञकर्मका फल देनेवाले भगवान् परमेश्वर शिव प्रसन्न होकर लौकिक गतिका आश्रय ले हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक मुझ ब्रह्मासे कहने लगे- ॥ ३१ ॥ ईश्वर उवाच
हे ब्रह्मन् सुकृतं कर्म सर्वं वैवाहिकं च यत् । प्रसन्नोस्मि त्वमाचार्यो दद्यां ते दक्षिणां च काम् ॥ ३२ ॥ ईश्वर बोले-हे ब्रह्मन् ! जो भी वैवाहिक कार्य था, उसे आपने उत्तम रीतिसे सम्पन्न किया है, अब मैं आपपर प्रसन्न हूँ, आप [इस वैवाहिक कृत्यके] आचार्य हैं, मैं आपको क्या दक्षिणा दूं ? ॥ ३२ ॥ याचस्व तां सुरज्येष्ठ यद्यपि स्यात्सुदुर्लभा ।
ब्रूहि शीघ्रं महाभाग नादेयं विद्यते मम ॥ ३३ ॥ हे सुरश्रेष्ठ ! आप उसे माँगिये । वह दुर्लभ ही क्यों न हो, उसको शीघ्र कहिये । हे महाभाग ! आपके लिये मेरे द्वारा कुछ भी अदेय नहीं है ॥ ३३ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचः सोहं शङ्करस्य कृताञ्जलिः । मुनेऽवोचं विनीतात्मा प्रणम्येशं मुहुर्मुहुः ॥ ३४ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! शंकरका यह वचन सुनकर मैंने हाथ जोड़कर विनीत भावसे उन्हें बारबार प्रणामकर कहा- ॥ ३४ ॥ यदि प्रसन्नो देवेश वरयोग्योस्म्यहं यदि ।
तत्कुरु त्वं महेशान सुप्रीत्या यद्वदाम्यहम् ॥ ३५ ॥ हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मैं वर प्राप्त करनेयोग्य हूँ, तो हे महेशान ! जो मैं कह रहा हूँ. उसे आप अत्यन्त प्रसन्नताके साथ कीजिये ॥ ३५ ॥ अनेनैव तु रूपेण वेद्यामस्यां महेश्वर ।
त्वया स्थेयं सदैवात्र नृणां पापविशुद्धये ॥ ३६ ॥ हे महेश्वर ! आप मनुष्यों के पापकी शुद्धिके लिये इसी रूपमें इस वेदीपर सदा विराजमान रहिये ॥ ३६ ॥ येनास्य संनिधौ कृत्वा स्वाश्रमं शशिशेखर ।
तपः कुर्यां विनाशाय स्वपापस्यास्य शङ्कर ॥ ३७ ॥ हे चन्द्रशेखर ! हे शंकर ! जिससे आपके सान्निध्यमें अपना आश्रम बनाकर अपने इस पापकी शुद्धिके लिये मैं तपस्या करूँ ॥ ३७ ॥ चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां नक्षत्रे भगदैवते ।
सूर्यवारे च यो भक्त्या वीक्षेत भुवि मानवः ॥ ३८ ॥ तदैव तस्य पापानि प्रयान्तु हर सङ्क्षयम् । वर्द्धतां विपुलं पुण्यं रोगा नश्यन्तु सर्वशः ॥ ३९ ॥ या नारी दुर्भगा वन्ध्या काणा रूपविवर्जिता । सापि त्वद्दर्शनादेव निर्दोषा सम्भवेद्ध्रुवम् ॥ ४० ॥ चैत्रमासके शुक्लपक्षकी त्रयोदशी तिथिको पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमें रविवारके दिन इस भूतलपर जो मनुष्य आपका भक्तिपूर्वक दर्शन करेगा, हे हर ! उसके सारे पाप नष्ट हो जाये, विपुल पुण्यकी वृद्धि हो और उसके समस्त रोगोंका सर्वथा नाश हो जाय । जो स्त्री दुभंगा, बन्ध्या, कानी अथवा रूपहीन हो, वह भी आपके दर्शनमात्रसे निश्चित रूपसे निर्दोष हो जाय ॥ ३८-४० ॥ ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचो मे हि स्वात्मसर्वसुखावहम् । तथाऽस्त्विति शिवः प्राह सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार अपने तथा सम्पूर्ण लोगोंको सुख देनेवाले मुझ ब्रह्माका वचन सुनकर प्रसन्न मनसे भगवान् शंकरने 'तथास्तु' कहा ॥ ४१ ॥ शिव उवाच
हिताय सर्वलोकस्य वेद्यां तस्यां व्यवस्थितः । स्थास्यामि सहितः पत्न्या सत्या त्वद्वचनाद्विधे ॥ ४२ ॥ शिवजी बोले-हे ब्रह्मन् ! आपके कथनानुसार मैं सारे संसारके हितके लिये अपनी पत्नीसहित इस वेदीपर सुस्थिरभावसे स्थित रहूँगा ॥ ४२ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा भगवांस्तत्र सभार्यो वृषभध्वजः । उवाच वेदिमध्यस्थो मूर्तिं कृत्वांशरूपिणीम् ॥ ४३ ॥ ततो दक्षं समामंत्र्य शङ्करः परमेश्वरः । पत्न्या सत्या गन्तुमना अभूत्स्वजनवत्सलः ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर पत्नीसहित भगवान् शिवजी अपनी अंशरूपिणी मूर्तिको प्रकटकर वेदीके मध्यभागमें विराजमान हो गये । तत्पश्चात् स्वजनोंपर स्नेह रखनेवाले भगवान् सदाशिव दक्षसे विदा ले अपनी पत्नी सतीके साथ [कैलास] जानेको उद्यत हुए । ४३-४४ ॥ एतस्मिन्नन्तरे दक्षो विनयावनतः सुधीः ।
साञ्जलिर्नतकः प्रीत्या तुष्टाव वृषभध्वजम् ॥ ४५ ॥ विष्ण्वादयः सुराः सर्वे मुनयश्च गणास्तदा । नत्वा संस्तूय विविधं चक्रुर्जयरवं मुदा ॥ ४६ ॥ उस समय उत्तम बुद्धिवाले दक्षने विनयभावसे मस्तक झुकाकर हाथ जोड़ भगवान् वृषभध्वजकी प्रेम-पूर्वक स्तुति की । तत्पश्चात् विष्णु आदि समस्त देवताओं, मुनियों तथा गणोंने स्तुति और नमस्कारकर प्रसन्नतापूर्वक अनेक प्रकारसे जयजयकार किया ॥ ४५-४६ ॥ आरोप्य वृषभे शम्भुः सतीं दक्षाज्ञया मुदा ।
जगाम हिमवत्प्रस्थं वृषभस्थः स्वयं प्रभुः ॥ ४७ ॥ उसके बाद दक्षकी आज्ञा प्राप्तकर प्रसन्नतापूर्वक सदाशिवने अपनी पत्नी सतीको वृषभपर बिठाकर और स्वयं भी वृषभपर आरूढ़ हो हिमालयके शिखरकी ओर गमन किया ॥ ४७ ॥ अथ सा शङ्कराभ्यासे सुदती चारुहासिनी ।
विरेजे वृषभस्था वै चन्द्रान्ते कालिका यथा ॥ ४८ ॥ मन्द-मन्द मधुर मुसकानवाली तथा सुन्दर दाँतोंवाली सती शंकरजीके साथ वृषभपर बैठी हुई चन्द्रमामें विद्यमान श्यामकान्तिकी तरह शोभायमान हो रही थीं ॥ ४८ ॥ विष्ण्वादयःसुराःसर्वे मरीच्याद्यास्तथर्षयः ।
दक्षोपि मोहितश्चासीत्तथान्ये निश्चला जनाः ॥ ४९ ॥ उस समय विष्णु आदि सम्पूर्ण देवता, मरीचि आदि समस्त ऋषि एवं दक्ष प्रजापति भी मोहित हो गये तथा अन्य सभी लोग चित्रलिखित-से प्रतीत हो रहे थे । ४९ ॥ केचिद्वाद्यान्वादयन्तो गायन्तः सुस्वरं परे ।
शिवं शिवयशः शुद्धमनुजग्मुः शिवं मुदा ॥ ५० ॥ कुछ लोग बाजे बजाते हुए तथा कुछ लोग सुन्दर स्वरमें शुद्ध तथा कल्याणकारी शिवयशका गान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका अनुगमन करने लगे ॥ ५० ॥ मध्यमार्गाद्विसृष्टो हि दक्षः प्रीत्याथ शम्भुना ।
वधाम प्राप सगणः शम्भुः प्रेमसमाकुलः ॥ ५१ ॥ [कुछ दूर चले जानेके पश्चात् ] शिवजीने आधे मार्गसे दक्षको प्रेमपूर्वक लौटा दिया, फिर सदाशिव गणोंसहित प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले आये ॥ ५१ ॥ विसृष्टा अपि विष्ण्वाद्याः शम्भुना पुनरेव ते ।
अनुजग्मुः शिवं भक्त्या सुराः परमया मुदा ॥ ५२ ॥ शिवजीने विष्णु आदि सभी देवताओंको विदा भी कर दिया, फिर भी वे लोग परम भक्ति एवं प्रेमके वशीभूत हो शिवजीके साथ-साथ कैलासपर पहुँच गये ॥ ५२ ॥ तैः सर्वैः सगणैः शम्भुः सत्या च स्वस्त्रिया युतः ।
प्राप स्वं धाम संहृष्टो हिमवद्गिरिशोभितम् ॥ ५३ ॥ उन सभी देवताओं, गणों तथा अपनी स्त्री सतीके साथ भगवान् शम्भु प्रसन्न होकर हिमालय पर्वतपर सुशोभित अपने धाममें पहुँच गये ॥ ५३ ॥ तत्र गत्वाऽखिलान्देवान्मुनीनपि परांस्तथा ।
मुदा विसर्जयामास बहु सम्मान्य सादरम् ॥ ५४ ॥ वहाँ जाकर सम्पूर्ण देवताओं, मुनियों तथा अन्य लोगोंका आदरपूर्वक बहुत सम्मान करके प्रसन्नतापूर्वक शिवजीने उन्हें विदा किया ॥ ५४ ॥ शम्भुमाभाष्य ते सर्वे विष्ण्वाद्या मुदितानना ।
स्वंस्वं धाम ययुर्नत्वा स्तुत्वा च मुनयः सुराः ॥ ५५ ॥ तदनन्तर शम्भुकी आज्ञासे विष्णु आदि सब देवता तथा मुनिगण नमस्कार और स्तुति करके प्रसन्नमुख होकर अपने-अपने धामको चले गये ॥ ५५ ॥ शिवोऽपि मुदितोत्यर्थं स्वपत्न्या दक्षकन्यया ।
हिमवत्प्रस्थसंस्थो हि विजहार भवानुगः ॥ ५६ ॥ लोकरीतिका अनुगमन करनेवाले शिवजी भी अत्यन्त आनन्दित हो हिमालयके शिखरपर अपनी पत्नी दक्षकन्याके साथ विहार करने लगे ॥ ५६ ॥ ततः स शङ्करः सत्या सगणः सूतिकृन्मुने ।
प्राप स्वं धाम संहृष्टः कैलासं पर्वतोत्तमम् ॥ ५७ ॥ हे मुने ! इस प्रकार सृष्टि करनेवाले वे शंकर सती तथा अपने गणोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक पर्वतोंमें उत्तम अपने स्थान कैलासपर चले गये ॥ ५७ ॥ एतद्वः सर्वमाख्यातं यथा तस्य पुराऽभवत् ।
विवाहो वृषयानस्य मनुस्वायम्भुवान्तरे ॥ ५८ ॥ हे मुने ! पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें भगवान् शिवजीका विवाह जिस प्रकार हुआ, उसका वर्णन मैंने आपलोगोंसे किया ॥ ५८ ॥ विवाहसमये यज्ञे प्रारम्भे वा शृणोति यः ।
एतदाख्यानमव्यग्रः सम्पूज्य वृषभध्वजम् ॥ ५९ ॥ हे मुने ! जो विवाहकालमें, यज्ञमें अथवा किसी भी शुभकार्यके आरम्भमें भगवान् शंकरकी पूजा करके शान्तचित्त होकर इस कथाको सुनता है, उसका सारा वैवाहिक कर्म बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण हो जाता है तथा दूसरे शुभ कर्म भी सदा निर्विघ्न पूर्ण होते हैं । ५९-६० ॥ तस्याविघ्नं भवेत्सर्वं कर्म वैवाहिकं च यत् ।
शुभाख्यमपरं कर्म निर्विघ्नं सर्वदा भवेत् ॥ ६० ॥ कन्या च सुखसौभाग्यशीलाचारगुणान्विता । साध्वी स्यात्पुत्रिणी प्रीत्या श्रुत्वाख्यानमिदं शुभम् ॥ ६१ ॥ इस उत्तम कथाको प्रेमपूर्वक सुनकर कन्या सुख, सौभाग्य, सुशीलता, आचार तथा गुणोंसे युक्त हो पतिव्रता तथा पुत्रवती होती है । ६१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
द्वितीये सतीखण्डे सती विवाहवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीविवाहवर्णन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |