Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


सतीवाक्यम्
यज्ञशालामें शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय


ब्रह्मोवाच
दाक्षायणी गता तत्र तत्र यज्ञो महाप्रभुः ।
सुरासुरमुनीन्द्रादिकुतूहलसमन्वितः ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] दक्षकन्या सती उस स्थानपर गयीं, जहाँ देवता, असुर और मुनीन्द्र आदिके कौतूहलपूर्ण कार्यसे युक्त महान् यज्ञ हो रहा था ॥ १ ॥

स्वपितुर्भवनं तत्र नानाश्चर्यसमन्वितम् ।
ददर्श सुप्रभं चारु सुरर्षिगणसंयुतम् ॥ २ ॥
सतीने वहाँ अपने पिताके भवनको देखा, जो नाना प्रकारके आश्चर्यजनक भावोंसे युक्त, कान्तिमान्, मनोहर तथा देवताओं और ऋषियोंके समुदायसे भरा हुआ था ॥ २ ॥

द्वारि स्थिता तदा देवी ह्यवरुह्य निजासनात् ।
नन्दिनोऽभ्यन्तरं शीघ्रमेकैवागच्छदध्वरम् ॥ ३ ॥
देवी सती भवनके द्वारपर जाकर खड़ी हुई और अपने वाहन नन्दीसे उतरकर अकेली ही शीघ्रतापूर्वक यज्ञस्थलके भीतर गयीं ॥ ३ ॥

आगतां च सतीं दृष्ट्‍वाऽसिक्नी माता यशस्विनी ।
अकरोदादरं तस्या भगिन्यश्च यथोचितम् ॥ ४ ॥
सतीको आया देख उनकी यशस्विनी माता असिवनी (वीरिणी) और बहनोंने उनका यथोचित सत्कार किया ॥ ४ ॥

नाकरोदादरं दक्षो दृष्ट्‍वा तामपि किञ्चन ।
नान्योपि तद्‌भयात्तत्र शिवमायाविमोहितः ॥ ५ ॥
परंतु दक्षने उन्हें देखकर भी कुछ आदर नहीं किया तथा उनके भयसे शिवकी मायासे मोहित हुए अन्य लोगोंने भी उनका आदर नहीं किया ॥ ५ ॥

अथ सा मातरं देवी पितरं च सती मुने ।
अनमद्विस्मितात्यन्तं सर्वलोकपराऽभवात् ॥ ६ ॥
हे मुने ! सब लोगोंके द्वारा तिरस्कार प्राप्त होनेपर भी सती देवीने अत्यन्त विस्मित हो मातापिताको प्रणाम किया ॥ ६ ॥

भागानपश्यद्देवानां हर्यादीनां तदध्वरे ।
न शम्भुभागमकरोत् क्रोधं दुर्विषहं सती ॥ ७ ॥
सत्युवाच
तदा दक्षं दहन्तीव रुषा पूर्णा सती भृशम् ।
क्रूरदृष्ट्या विलोक्यैव सर्वानप्यपमानिता ॥ ८ ॥
उस यज्ञमें सतीने भगवान् विष्णु आदि देवताओंक भागको देखा, परंतु शिवजीका भाग कहीं भी दिखायी नहीं दिया, तब उन्होंने असह्य क्रोध प्रकट किया । अपमानित होकर भी रोषसे भरकर सब लोगोंकी ओर क्रूर दृष्टिसे देखकर दक्षको भस्म करती हुई-सी वे कहने लीं ॥ ७-८ ॥

सत्युवाच
अनाहूतस्त्वया कस्माच्छम्भुः परमशोभनः ।
येन पूतमिदं विश्वं समग्रं सचराचरम् ॥ ९ ॥
यज्ञो यज्ञविदां श्रेष्ठो यज्ञाङ्‌गो यज्ञदक्षिणः ।
यज्ञकर्ता च यः शम्भुस्तं विना च कथं मखः ॥ १० ॥
सती बोलीं-आपने परम मंगलकारी शिवको [इस यज्ञमें] क्यों नहीं बुलाया, जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पवित्र होता है । जो यज्ञस्वरूप, यज्ञावेत्ताओंमें श्रेष्ठ, यज्ञके अंग, यज्ञकी दक्षिणा और यज्ञकर्ता हैं, उन शिवके बिना यह यज्ञ कैसे पूर्ण हो सकता है ? ॥ ९-१० ॥

यस्य स्मरणमात्रेण सर्वं पूतं भवत्यहो ।
विना तेन कृतं सर्वमपवित्रं भविष्यति ॥ ११ ॥
अहो ! जिनके स्मरणमात्रसे सब कुछ पवित्र हो जाता है, उनके बिना किया हुआ यह सारा यज्ञ अपवित्र हो जायगा ॥ ११ ॥

द्रव्यमन्त्रादिकं सर्वं हव्यं कव्यं च यन्मयम् ।
शम्भुना हि विना तेन कथं यज्ञः प्रवर्तितः ॥ १२ ॥
द्रव्य, मन्त्र आदि, हव्य और कव्य-ये सब जिनके स्वरूप हैं, उन शिवके बिना यज्ञका आरम्भ कैसे किया गया ? ॥ १२ ॥

किं शिवं सुरसामान्यं मत्याकार्षीरनादरम् ।
भ्रष्टबुद्धिर्भवानद्य जातोसि जनकाधम ॥ १३ ॥
क्या आपने शिवजीको सामान्य देवता समझकर उनका अनादर किया है ? हे अधम पिता ! अवश्य ही आपकी बुद्धि आज भ्रष्ट हो गयी है ॥ १३ ॥

विष्णुब्रह्मादयो देवा यं संसेव्य महेश्वरम् ।
प्राप्ताः स्वपदवीं सर्वे तं न जानासि रे हरम् ॥ १४ ॥
ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता महेश्वरकी सेवा करके अपनी पदवीपर अधिष्ठित हैं । निश्चय ही आप अभीतक उन शिवको नहीं जानते हैं ॥ १४ ॥

एते कथं समायाता विष्णुब्रह्मादयःसुराः ।
तव यज्ञे विना शम्भुं स्वप्रभुं मुनयस्तथा ॥ १५ ॥
ये ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तथा मुनि अपने प्रभु भगवान् शिवके बिना इस यज्ञमें कैसे चले आये ? ॥ १५ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा परमेशानी विष्ण्वादीन्सकलान् प्रति ।
पृथक्पृथगवोचत्सा भर्त्सयन्ती भवात्मिका ॥ १६ ॥
ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर शिवस्वरूपिणी परमेश्वरी विष्णु आदि सब देवताओंको अलग-अलग फटकारती हुई कहने लगी- ॥ १६ ॥

सत्युवाच
हे विष्णो त्वं महादेवं किं न जानासि तत्त्वतः ।
सगुणं निर्गुणं चापि श्रुतयो यं वदन्ति ह ॥ १७ ॥
सती बोलीं-हे विष्णो ! श्रुतियाँ जिन्हें सगुण एवं निर्गुणरूपसे प्रतिपादित करती हैं, क्या आप उन शिवजीको यथार्थ रूपसे नहीं जानते हैं ? ॥ १७ ॥

यद्यपि त्वां करं दत्त्वा बहुवारं महेश्वरः ।
अशिक्षयत्पुरा शाल्वप्रमुखाकृतिभिर्हरे ॥ १८ ॥
तदपि ज्ञानमायातं न ते चेतसि दुर्मते ।
भागार्थी दक्षयज्ञेऽस्मिन् शिवं स्वस्वामिनं विना ॥ १९ ॥
[हे विष्णो !] यद्यपि पूर्वकालमें शिवजीने शाल्वादि रूपोंके द्वारा आपके सिरपर हाथ रखकर कई बार शिक्षा दी है, फिर भी हे दुर्बुद्धे ! आपके हृदयमें ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ और आपने अपने स्वामी शंकरके बिना ही इस यज्ञमें भाग ग्रहण कर लिया ! ॥ १८-१९ ॥

पुरा पञ्चमुखो भूत्वा गर्वितोऽसि सदाशिवम् ।
कृतश्चतुर्मुखस्तेन विस्मृतोसि तदद्‌भुतम् ॥ २० ॥
[हे ब्रह्मन् !] आप पूर्वकालमें जब पाँच मुखवाले होकर सदाशिवके प्रति गर्वित हो गये थे, तब उन्होंने आपको चार मुखवाला कर दिया था, आप उन्हें भूल गये-यह तो आश्चर्य है ! ॥ २० ॥

इन्द्र त्वं किं न जानासि महादेवस्य विक्रमम् ।
भस्मीकृतः पविस्तेन हरेण क्रूरकर्मणा ॥ २१ ॥
हे इन्द्र ! क्या आप शंकरके पराक्रमको नहीं जानते ? कठिन कर्म करनेवाले शिवजीने ही आपके वज्रको भस्म कर दिया था ॥ २१ ॥

हे सुराः किन्न जानीथ महादेवस्य विक्रमम् ।
अत्रे वसिष्ठ मुनयो युष्माभिः किं कृतं त्विह ॥ २२ ॥
हे देवताओ ! क्या आपलोग महादेवका पराक्रम नहीं जानते । हे अत्रे ! हे वसिष्ठ ! हे मुनियो ! आपलोगोंने यह क्या कर डाला ? ॥ २२ ॥

भिक्षाटनं च कृतवान् पुरा दारुवने विभुः ।
शप्तो यद्‌भिक्षुको रुद्रो भवद्‌भिर्मुनिभिस्तदा ॥ २३ ॥
शप्तेनापि च रुद्रेण यत्कृतं विस्मृतं कथम् ।
तल्लिङ्‌गेनाखिलं दग्धं भुवनं सचराचरम् ॥ २४ ॥
जब शिवजी दारुवनमें भिक्षाटन कर रहे थे और आप सभी मुनियोंने उन भिक्षुक रुद्रको शाप दे दिया था, तब शापित होकर उन्होंने जो किया था, उसे आपलोग कैसे भूल गये ? उनके लिंगसे चराचरसहित समस्त भुवन दग्ध होने लगा था ॥ २३-२४ ॥

सर्वे मूढाश्च सञ्जाता विष्णुब्रह्मादयःसुराः ।
मुनयोऽन्यो विना शम्भुमागता यदिहाध्वरे ॥ २५ ॥
[ऐसा लग रहा है कि ब्रह्मा, विष्णु आदि समस्त देवता तथा अन्य मुनिगण मूर्ख हो गये हैं, जो कि भगवान् शिवके बिना ही इस यज्ञमें आ गये ॥ २५ ॥

सर्वे वेदाश्च सम्भूताः साङ्‌गाः शास्त्राणि वाग्यतः ।
योऽसौ वेदान्तगः शम्भुः कैश्चिज्ज्ञातुं न पार्यते ॥ २६ ॥
अंगोंसहित सभी वेद, शास्त्र एवं वाणी जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन वेदान्तवेद्य भगवान् शंकरको जाननेमें कोई पार नहीं पा सकता है ॥ २६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्यनेकविधा वाणीरगदज्जगदम्बिका ।
कोपान्विता सती तत्र हृदयेन विदूयता ॥ २७ ॥
ब्रह्माजी बोले-[नारद !] इस प्रकार क्रोधसे भरी हुई जगदम्बा सतीने वहाँ व्यथितहदयसे अनेक प्रकारकी बातें कहीं ॥ २७ ॥

विष्ण्वादयोऽखिला देवा मुनयो ये च तद्वचः ।
मौनीभूतास्तदाकर्ण्य भयव्याकुलमानसाः ॥ २८ ॥
श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और मुनि जो वहाँ उपस्थित थे, उनकी बात सुनकर चुप रह गये और भयसे व्याकुलचित्त हो गये ॥ २८ ॥

अथ दक्षः समाकर्ण्य स्वपुत्र्यास्तादृशं वचः ।
विलोक्य क्रूरदृष्ट्या तां सतीं कुद्धोऽब्रवीद्वचः ॥ २९ ॥
तब दक्ष अपनी पुत्रीके उस प्रकारके वचनको सुनकर उन सतीको क्रूर दृष्टिसे देखकर क्रोधित होकर कहने लगे- ॥ २९ ॥

दक्ष उवाच
तव किं बहुनोक्तेन कार्यं नास्तीह साम्प्रतम् ।
गच्छ वा तिष्ठ वा भद्रे कस्मात्त्वं हि समागता ॥ ३० ॥
दक्ष बोले-हे भद्रे ! तुम्हारे बहुत कहनेसे क्या लाभ ! इस समय यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है । तुम चली जाओ या ठहरो, तुम यहाँ किसलिये आयी हो ? ॥ ३० ॥

अमंगलस्तु ते भर्ता शिवोऽसौ गम्यते बुधैः ।
अकुलीनो वेदबाह्यो भूतप्रेतपिशाचराट् ॥ ३१ ॥
तस्मान्नाह्वायितो रुद्रो यज्ञार्थं सुकुवेषभृत् ।
देवर्षिसंसदि मया ज्ञात्वा पुत्रि विपश्चिता ॥ ३२ ॥
सभी विद्वान् जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव मंगलरहित, अकुलीन तथा वेदसे बहिष्कृत हैं और भूतों-प्रेतोंके स्वामी हैं । इसलिये हे पुत्रि ! मुझ बुद्धिमान्ने ऐसा जानकर कुवेषधारी शिवको देवताओं और ऋषियोंकी इस सभामें नहीं बुलाया ॥ ३१-३२ ॥

विधिना प्रेरितं न त्वं दत्ता मन्देन पापिना ।
रुद्रायाविदितार्थाय चोद्धताय दुरात्मने ॥ ३३ ॥
मुझ पापी दुर्बुद्धिने ब्रह्माजीके द्वारा प्रेरित किये जानेपर शास्त्रके अर्थको न जाननेवाले, उद्दण्ड तथा दुरात्मा रुद्रको तुम्हें प्रदान कर दिया था ॥ ३३ ॥

तस्मात्कोपं परित्यज्य स्वस्था भव शुचिस्मिते ।
यद्यागतासि यज्ञेऽस्मिन् दायं गृह्णीष्व चात्मना ॥ ३४ ॥
इसलिये हे शुचिस्मिते ! तुम क्रोध छोड़कर शान्त हो जाओ और यदि इस यज्ञमें तुम आ ही गयी हो तो अपना भाग ग्रहण करो ॥ ३४ ॥

ब्रह्मोवाच
दक्षेणोक्तेति सा पुत्री सती त्रैलोक्यपूजिता ।
निन्दायुक्तं स्वपितरं दृष्ट्‍वाऽऽसीद्‌रुषिता भृशम् ॥ ३५ ॥
ब्रह्माजी बोले-दक्षके इस प्रकार कहनेपर त्रिभुवनपूजिता दक्षपुत्री सती निन्दायुक्त अपने पिताकी ओर देखकर अत्यन्त क्रोधित हो गयीं ॥ ३५ ॥

अचिन्तयत्तदा सेति कथं यास्यामि शंकरम् ।
शंकरं द्रष्टुकामाऽहं पृष्टा वक्ष्ये किमुत्तरम् ॥ ३६ ॥
वे सोचने लगी कि अब मैं शंकरजीके पास कैसे जाऊँ ? मैं तो शंकरको देखना चाहती हूँ, किंतु उनके पूछनेपर मैं क्या उत्तर दूंगी ? ॥ ३६ ॥

अथ प्रोवाच पितरं दक्षं तं दुष्टमानसम् ।
निः श्वसन्ती रुषाविष्टा सा सती त्रिजगत्प्रसूः ॥ ३७ ॥
तदनन्तर तीनों लोकोंकी जननी वे सती क्रोधसे बुक्त हो लम्बी श्वास लेती हुई दूषित मनवाले अपने पितासे कहने लगीं- ॥ ३७ ॥

सत्युवाच
यो निन्दति महादेवं निन्द्यमानं शृणोति वा ।
तावुभौ नरकं यातौ यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ३८ ॥
सती बोलीं-जो महादेवजीकी निन्दा करता है अथवा जो उनकी हो रही निन्दाको सुनता है, वे दोनों तबतक नरकमें पड़े रहते हैं, जबतक चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं ॥ ३८ ॥

तस्मात्त्यक्ष्याम्यहं देवं प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् ।
किं जीवितेन मे तात शृण्वन्त्यानादरं प्रभोः ॥ ३९ ॥
अतः हे तात ! मैं अग्निमें प्रवेश करूँगी और [अपने] शरीरको त्याग दूंगी, अपने स्वामीका अनादर सुनकर अब मुझे जीवनसे क्या प्रयोजन ? ॥ ३९ ॥

यदि शक्तः स्वयं शम्भोर्निन्दकस्य विशेषतः ।
छिन्द्यात् प्रसह्य रसनां तदा शुद्ध्येन्न संशयः ॥ ४० ॥
यद्यशक्तो जनस्तत्र निरयात्सुपिधाय वै ।
कर्णौ धीमान् ततः शुद्ध्येद्वदन्तीदं बुधा वराः ॥ ४१ ॥
[शिवनिन्दा सुननेवाला व्यक्ति] यदि समर्थ हो तो वह स्वयं विशेष यत्न करके शम्भुकी निन्दा करनेवालेकी जीभको बलपूर्वक काट डाले, तभी वह [शिवनिन्दा-श्रवणके पापसे] शुद्ध हो सकता है, इसमें संशय नहीं है । यदि मनुष्य [कुछ प्रतिकार कर सकने में असमर्थ हो, तो बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह दोनों कान बंद करके वहाँसे चला जाय, तब वह पापसे शुद्ध हो सकता है-ऐसा श्रेष्ठ विद्वान् कहते हैं ॥ ४०-४१ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्थमुक्त्वा धर्मनीतिं पश्चात्तापमवाप सा ।
अस्मरच्छाङ्‌करं वाक्यं दूयमानेन चेतसा ॥ ४२ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार धर्मनीति कहकर वे सती पश्चात्ताप करने लगीं और उन्होंने व्यथितचित्तसे भगवान् शंकरके वचनका स्मरण किया ॥ ४२ ॥

ततःसङ्‌कुद्ध्य सा दक्षं निः शङ्‌कं प्राह तानपि ।
सर्वान्विष्ण्वादिकान्देवान्मुनीनपि सती ध्रुवम् ॥ ४३ ॥
तदनन्तर सतीने अत्यन्त कुपित हो दक्ष तथा उन विष्णु आदि समस्त देवताओं और मुनियोंसे भी निडर होकर कहा- ॥ ४३ ॥

सत्युवाच
तात त्वं निन्दकः शम्भोः पश्चात्तापं गमिष्यसि ।
इह भुक्त्वा महादुःखमन्ते यास्यसि यातनाम् ॥ ४४ ॥
सती बोलीं-हे तात ! आप शंकरके निन्दक हैं, अत: आपको पश्चात्ताप करना पड़ेगा, इस लोकमें महान् दुःख भोगकर अन्तमें आपको यातना भोगनी पड़ेगी ॥ ४४ ॥

यस्य लोकेऽप्रियो नास्ति प्रियश्चैव परात्मनः ।
तस्मिन्नवैरे शर्वेस्मिन् त्वां विना कः प्रतीपकः ॥ ४५ ॥
इस लोकमें जिन परमात्माका न कोई प्रिय है, न अप्रिय है, उन द्वेषरहित शिवके साथ आपके अतिरिक्त दूसरा कौन वैर कर सकता है ? ॥ ४५ ॥

महद्विनिन्दा नाश्चर्यं सर्वदाऽसत्सु सेर्ष्यकम् ।
महदङ्‌घ्रिरजोध्वस्ततमःसु सैव शोभना ॥ ४६ ॥
जो दुष्ट लोग हैं, वे सदा ईर्ष्यापूर्वक यदि महापुरुषोंकी निन्दा करें तो उनके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, परंतु जो महात्माओंके चरणोंकी रजसे अपने अज्ञानान्धकारको दूर कर चुके हैं, उन्हें महापुरुषोंकी निन्दा शोभा नहीं देती ॥ ४६ ॥

शिवेति द्व्यक्षरं यस्य नृणां नाम गिरेरितम् ।
सकृत्प्रसङ्‌गात्सकलमघमाशु विहन्ति तत् ॥ ४७ ॥
पवित्रं कीर्तितमलं भवान् द्वेष्टि शिवेतरः ।
अलङ्‌घ्यशासनं शम्भुमहो सर्वेश्वरं खलः ॥ ४८ ॥
जिनका 'शिव' यह दो अक्षरोंका नाम कभी बातचीतके प्रसंगसे मनुष्योंकी वाणीद्वारा एक बार उच्चरित हो जाय, तो वह सम्पूर्ण पापराशिको शीघ्र ही नष्ट कर देता है, अहो, खलस्वरूप आप शिवसे विपरीत होकर उन पवित्र कीर्तिवाले, निर्मल, अलंय शासनवाले सर्वेश्वर शिवसे विद्वेष करते हैं । ४७-४८ ॥

यत्पादपद्मं महतां मनोऽलिसुनिषेवितम् ।
सर्वार्थदं ब्रह्मरसैः सर्वार्थिभिरथादरात् ॥ ४९ ॥
यद्वर्षत्यर्थिनः शीघ्रं लोकस्य शिव आदरात् ।
भवान् द्रुह्यति मूर्खत्वात्तस्मै चाशेषबन्धवे ॥ ५० ॥
महापुरुषोंके मनरूपी मधुकर ब्रह्मानन्दमय रसका पान करनेकी इच्छासे जिनके सर्वार्थदायक चरणकमलोंका निरन्तर सेवन किया करते हैं और जो शिव संसारके लोगोंपर शीघ्र ही आदरपूर्वक मनोरथोंकी वर्षों करते हैं, सबके बन्धु उन्हीं महादेवसे आप मूर्खतावश द्रोह करते हैं । ४९-५० ॥

किं वा शिवाख्यमशिवं त्वदन्ये न विदुर्बुधाः ।
ब्रह्मादयस्तं मुनयः सनकाद्यास्तथा परे ॥ ५१ ॥
जिन शिवको आप अशिव बताते हैं, उन्हें क्या आपके सिवा दूसरे विद्वान् नहीं जानते । ब्रह्मा आदि देवता, सनक आदि मुनि तथा अन्य ज्ञानी क्या उनके स्वरूपको नहीं समझते ॥ ५१ ॥

अवकीर्य जटाभूतैः श्मशाने स कपालधृक् ।
तन्माल्यभस्म वा ज्ञात्वा प्रीत्यावसदुदारधीः ॥ ५२ ॥
उदारबुद्धि भगवान् शिव जटा फैलाये, कपाल धारण किये श्मशानमें भूतोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं तथा भस्म एवं नरमुण्डोंकी माला धारण करते हैं ॥ ५२ ॥

ये मूर्द्धभिर्दधति तच्चरणोत्सृष्टमारात् ।
निर्माल्यं मुनयो देवाः स शिवः परमेश्वरः ॥ ५३ ॥
इस बातको जानकर भी जो मुनि और देवता उनके चरणोंसे गिरे निर्माल्यको बड़े आदरके साथ अपने मस्तकपर चढ़ाते हैं, इसका क्या कारण है ? यही कि वे भगवान् शिव ही साक्षात् परमेश्वर हैं ॥ ५३ ॥

प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म चोदितम् ।
वेदे विविच्य वृत्तं च तद्विचार्य मनीषिभिः ॥ ५४ ॥
विरोधियौगपद्यैककर्तृके च तथा द्वयम् ।
परब्रह्मणि शम्भो तु कर्मर्च्छन्ति न किञ्चन ॥ ५५ ॥
वेदोंमें प्रवृत्त तथा निवृत्त-ये दो प्रकारके कर्म बताये गये हैं, जिनका विद्वानोंको विवेकपूर्वक विचार करना चाहिये । ये दोनों ही कर्म परस्पर विरुद्ध गतिवाले हैं, अत: एक कर्ताके द्वारा इनका साथ-साथ अनुष्ठान नहीं किया जा सकता । भगवान् शिव तो साक्षात् परब्रह्म हैं, अतः उनमें इन दोनों ही कर्मोकी गति नहीं है । (अत: वे इन दोनों ही कर्मोंसे परतन्त्र नहीं हैं) ॥ ५४-५५ ॥

मा वः पदव्यः स्म पितर्या अस्मदास्थिताः सदा ।
यज्ञशालासु वो धूम्रवर्त्मभुक्तोज्झिताः परम् ॥ ५६ ॥
नोऽव्यक्तलिङ्‌गः सततमवधूतसुसेवितः ।
अभिमानमतो न त्वं कुरु तात कुबुद्धिधृक् ॥ ५७ ॥
हे पितः ! जो योगैश्वर्य अर्थात् अणिमा आदि सिद्धियाँ हमें सर्वदा प्राप्त हैं, वे आपको प्राप्त नहीं हैं । आपकी यज्ञशालाओंमें आयोजित होनेवाले तथा धूममार्गको प्रदान करनेवाले प्रवृत्तिमार्गीय कर्मोंका हम त्याग कर चुके हैं । हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है तथा ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंके द्वारा निरन्तर सेवित है । हे तात ! आप विपरीत बुद्धिवाले हैं, अतः आपको अभिमान नहीं करना चाहिये ॥ ५६-५७ ॥

किं बहूक्तेन वचसा दुष्टस्त्वं सर्वथा कुधीः।
त्वदुद्‌भवेन देहेन न मे किञ्चित्प्रयोजनम् । ५८ ॥
तज्जन्म धिग्यो महतां सर्वथावद्यकृत्खलः ।
परित्याज्यो विशेषेण तत्सम्बन्धो विपश्चिता ॥ ५९ ॥
अधिक कहनेसे क्या लाभ ? आप दुष्टहदय हैं और आपकी बुद्धि सर्वथा दूषित हो चुकी है, अतः आपसे उत्पन्न हुए इस शरीरसे भी मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा, उस दुष्ट व्यक्तिके जन्मको धिक्कार है, जो महापुरुषोंके प्रति अपराध करनेवाला है । विद्वान् पुरुषको चाहिये कि ऐसे सम्बन्धका विशेष रूपसे त्याग कर दे ॥ ५८-५९ ॥

गोत्रं त्वदीयं भगवान् यदाह वृषभध्वजः ।
दाक्षायणीति सहसाऽहं भवामि सुदुर्मनाः ॥ ६० ॥
जिस समय भगवान् शिव आपके गोत्रका उच्चारण करते हुए मुझे दाक्षायणी कहेंगे, उस समय मेरा मन सहसा अत्यन्त दुखी हो जायगा ॥ ६०॥

तस्मात् त्वदङ्‌गजं देहं कुणपं गर्हितं सदा ।
व्युत्सृज्य नूनमधुना भविष्यामि सुखावहा ॥ ६१ ॥
इसलिये आपके अंगसे उत्पन्न हुए शवतुल्य घृणित इस शरीरको इस समय मैं अवश्य ही त्याग दूंगी और ऐसा करके सुखी हो जाऊँगी ॥ ६१ ॥

हे सुरा मुनयः सर्वे यूयं शृणुत मद्वचः ।
सर्वथाऽनुचितं कर्म युष्माकं दुष्टचेतसाम् ॥ ६२ ॥
सर्वे यूयं विमूढा हि शिवनिन्दाः कलिप्रियाः ।
प्राप्स्यन्ति दण्डं नियतमखिलं च हराद्ध्रुवम् ॥ ६३ ॥
हे देवताओ और मुनियो ! आप सब लोग मेरी बात सुनें, दूषित मनवाले आपलोगोंका यह कर्म सर्वथा अनुचित है । आप सब लोग मूढ़ हैं । क्योंकि शिवजीकी निन्दा और कलह आपलोगोंको प्रिय है । अतः भगवान् हरसे सभीको इस कुकर्मका निश्चय ही पूरा-पूरा दण्ड मिलेगा ॥ ६२-६३ ॥

ब्रह्मोवाच
दक्षमुक्त्वाऽध्वरे तस्मिन् व्यरमत्सा सती तदा ।
अनूद्य चेतसा शम्भुमस्मरत् प्राणवल्लभम् ॥ ६४ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] उस यज्ञमें दक्षसे तथा देवताओंसे ऐसा कहकर सती देवी चुप हो गयीं और मन-ही-मन अपने प्राणवल्लभ शम्भुका स्मरण करने लागीं ॥ ६४ ॥

इतिश्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे सतीवाक्यवर्णनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीका वाक्य वर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP