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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

अष्टाविंशोध्यायः ॥

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सतीयात्रावर्णनम्
दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान


ब्रह्मोवाच
यदा ययुर्दक्षमखमुत्सवेन सुरर्षयः ।
तस्मिन्नैवान्तरे देवो पर्वते गन्धमादने ॥ १ ॥
धारागृहे वितानेन सखीभिः परिवारिता ।
दाक्षायणी महाक्रीडाश्चकार विविधाः सती ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! जब देवता तथा ऋषिगण बड़े उत्साहके साथ दक्षके यज्ञमें जा रहे थे, उसी समय दक्षकन्या देवी सती गन्धमादन पर्वतपर चंदोवेसे युक्त धारागृहमें सखियोंसे घिरी हुई अनेक प्रकारकी क्रीडाएँ कर रही थीं ॥ १-२ ॥

क्रीडासक्ता तदा देवी ददर्शाथ मुदा सती ।
दक्षयज्ञे प्रयान्तीं तां रोहिण्याऽपृच्छ्य सत्वरम् ॥ ३ ॥
दृष्ट्‍वा सीमन्तया भूतां विजयां प्राह सा सती ।
स्वसखीं प्रवरां प्राणप्रियां सा हि हितावहाम् ॥ ४ ॥
प्रसन्नतापूर्वक क्रीडामें लगी हुई देवी सतीने उस समय चन्द्रमाके साथ दक्षयज्ञमें जाती हुई रोहिणीको देखा और शीघ्र ही उससे पुछवाया । उन्हें देखकर सतीजी अपनी हितकारिणी प्राण-प्यारी सौभाग्यशालिनी प्रिय तथा श्रेष्ठ सखी विजयासे बोली- ॥ ३-४ ॥

सत्युवाच
हे सखीप्रवरे प्राणप्रिये त्वं विजये मम ।
क्व गमिष्यति चन्द्रोऽयं रोहिणीं पृच्छ सत्वरम् ॥ ५ ॥
सती बोलीं-हे सखियोंमें श्रेष्ठ ! हे मेरी प्राणप्रिये ! हे विजये ! जल्दी जाकर पूछो कि ये चन्द्रदेव रोहिणीके साथ कहाँ जा रहे हैं ? ॥ ५ ॥

ब्रह्मोवाच
तथोक्ता विजया सत्या गत्वा तत्सन्निधौ द्रुतम् ।
क्व गच्छसीति पप्रच्छ शशिनं तं यथोचितम् ॥ ६ ॥
ब्रह्माजी बोले-सतीके इस प्रकार कहनेपर विजयाने तुरंत उनके पास जाकर यथोचित रूपसे उन चन्द्रमासे पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं ? ॥ ६ ॥

विजयोक्तमथाकर्ण्य स्वयात्रां पूर्वमादरात् ।
कथितं तेन तत्सर्वं दक्षयज्ञोत्सवादिक म् ॥ ७ ॥
विजयाकी बात सुनकर चन्द्रदेवने अपनी यात्राका उद्देश्य आदरपूर्वक बताया और उन्होंने दक्षके यहाँ होनेवाले यजमहोत्सवका सारा वृत्तान्त कहा ॥ ७ ॥

तच्छ्रुत्वा विजया देवीं त्वरिता जातसम्भ्रमा ।
कथयामास तत्सर्वं यदुक्तं शशिना सतीम् ॥ ८ ॥
तच्छ्रुत्वा कालिका देवी विस्मिताभूत्सती तदा ।
विमृश्य कारणं तत्राऽज्ञात्वा चेतस्यचिन्तयत् ॥ ९ ॥
वह सब सुनकर विजया बड़ी उतावलीके साथ देवीजीके पास आयी और चन्द्रमाने जो कहा था, वह सब सतीसे कह दिया । उसे सुनकर सती कालिका देवीको बड़ा आश्चर्य हुआ । सोचने-विचारनेपर भी [अपने यहाँ सूचना न मिलनेका] कारण न समझ पानेपर वे मनमें सोचने लगी ॥ ८-९ ॥

दक्षः पिता मे माता च वीरिणी नो कुतः सती ।
आह्वानं न करोति स्म विस्मृता मां प्रियां सुताम् ॥ १० ॥
पृच्छेयं शंकरं तत्र कारणं सर्वमादरात् ।
चिन्तयित्वेति सासीद्वै तत्र गन्तुं सुनिश्चया ॥ ११ ॥
दक्ष मेरे पिता हैं, वीरिणी मेरी माता हैं और मैं उनकी प्रिय कन्या हूँ, परंतु उन्होंने यज्ञमें मुझे नहीं बुलाया । वे कैसे भूल गये और निमन्त्रण क्यों नहीं भेजा ? मैं इसका कारण आदरपूर्वक शंकरजीसे पूर-ऐसा विचारकर सतीने शंकरजीके पास जानेका निश्चय किया ॥ १०-११ ॥

अथ दाक्षायणी देवी विजयां प्रवरां सखीम् ।
स्थापयित्वा द्रुतं तत्र समगच्छच्छिवान्तिकम् ॥ १२ ॥
ददर्श तं सभामध्ये संस्थितं बहुभिर्गणैः ।
नन्द्यादिभिर्महावीरैः प्रवरैर्यूथयूथपैः ॥ १३ ॥
दृष्ट्‍वा तं प्रभुमीशानं स्वपतिं साथ दक्षजा ।
प्रष्टुं तत्कारणं शीघ्रं प्राप शंकरसंनिधिम् ॥ १४ ॥
इसके अनन्तर दक्षपुत्री देवी सती अपनी प्रिय सखी विजयाको वहीं बैठाकर शिवजीके पास शीघ्र गयीं । उन्होंने शिवजीको सभाके मध्यमें अनेक गणों, नन्दी आदि महावीरों तथा प्रमुख यूथपतियोंके साथ बैठे हुए देखा । वे अपने पति सदाशिव ईशानको देखकर उस कारणको पूछनेके लिये शीघ्र उनके पास पहुँच गयीं ॥ १२-१४ ॥

शिवेन स्थापिता स्वाङ्‌के प्रीतियुक्तेन स्वप्रिया ।
प्रमोदिता वचोभिःसा बहुमानपुरःसरम् ॥ १५ ॥
अथ शम्भुर्महालीलः सर्वेशः सुखदः सताम् ।
सतीमुवाच त्वरितं गणमध्यस्थ आदरात् ॥ १६ ॥
शिवजीने बड़े प्रेमसे प्रिया सतीको अपनी गोदमें बैठाया और बड़े आदरके साथ उन्हें अपने वचनोंसे प्रसन्न किया । इसके बाद महालीला करनेवाले तथा सज्जनोंको सुख देनेवाले सर्वेश्वर शंकर जो गणोंके मध्यमें विराजमान थे, सतीसे शीघ्र कहने लगे ॥ १५-१६ ॥

शम्भुरुवाच
किमर्थमागताऽत्र त्वं सभामध्ये सविस्मया ।
कारणं तस्य सुप्रीत्या शीघ्रं वद सुमध्यमे ॥ १७ ॥
शिवजी बोले-तुम इस सभाके मध्यमें आश्चर्य चकित होकर क्यों आयी हो ? हे सुन्दर कटिप्रदेशवाली ! तुम इसका कारण प्रेमपूर्वक शीघ्र बताओ ॥ १७ ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्ता तदा तेन महेशेन मुनीश्वर ।
साञ्जलिः सुप्रणम्याशु सत्युवाच प्रभुं शिवा ॥ १८ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! शिवजीने जब सतीसे इस प्रकार कहा, तो वे शिवा हाथ जोड़कर प्रणाम करके प्रभुसे कहने लगी- ॥ १८ ॥

सत्युवाच
पितुर्मम महान् यज्ञो भवतीति मया श्रुतम् ।
तत्रोत्सवो महानस्ति समवेताः सुरर्षयः ॥ १९ ॥
पितुर्मम महायज्ञे कस्मात्तव न रोचते ।
गमनं देवदेवेश तत्सर्वं कथय प्रभो ॥ २० ॥
सती बोलीं-[हे प्रभो !] मैंने सुना है कि मेरे पिताजीके यहाँ कोई बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा है । उसमें महान् उत्सव होगा और वहाँ देवता तथा ऋषि एकत्रित हुए हैं । हे देवदेवेश्वर ! पिताजीके उस महान् यज्ञमें जाना आपको अच्छा क्यों नहीं लगा, हे प्रभो [जो भी कारण हो] वह सब बताइये ॥ १९-२० ॥

सुहृदामेष वै धर्मःसुहृद्‌भिः सह सङ्‌गतिः ।
कुर्वन्ति यन्महादेव सुहृदः प्रीतिवर्द्धिनीम् ॥ २१ ॥
महादेव ! सुहृदोंका यह धर्म है कि सुहदोंके साथ अच्छी संगति करके रहें । मित्रलोग प्रेमको बढ़ानेवाली इस प्रकारकी संगतिको करते रहते हैं ॥ २१ ॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मयागच्छ सह प्रभो ।
यज्ञवाटं पितुर्मेद्य स्वामिन् प्रार्थनया मम ॥ २२ ॥
इसलिये हे प्रभो ! हे स्वामिन् ! आप मेरी प्रार्थनासे मेरे साथ पिताजीके यज्ञमण्डपमें अवश्य चलिये ॥ २२ ॥

ब्रह्मोवाच
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा सत्या देवो महेश्वरः ।
दक्ष वागिषुहृद्विद्धो बभाषे सूनृतं वचः ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी बोले-सतीके इस वचनको सुनकर दक्षके वाग्बाणोंसे बिंधे हुए हृदयवाले देव महेश्वर मधुर वचन कहने लगे- ॥ २३ ॥

महेश्वर उवाच
दक्षस्तव पिता देवी मम द्रोही विशेषतः ॥ २४ ॥
यस्य ये मानिनःसर्वे ससुरर्षिमुखाः परे ।
ते मूढा यजनं प्राप्ताः पितुस्ते ज्ञानवर्जिताः ॥ २५ ॥
महेश्वर बोले-हे देवि ! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गये हैं । जो प्रमुख देवता, ऋषि तथा अन्य लोग अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य हैं, वे ही तुम्हारे पिताके यज्ञमें गये हुए हैं । २४-२५ ॥

अनाहूताश्च ये देवी गच्छन्ति परमन्दिरम् ।
अवमानं प्राप्नुवन्ति मरणादधिकं तथा ॥ २६ ॥
परालयं गतोऽपीन्द्रो लघुर्भवति तद्विधः ।
का कथा च परेषां वै रीढा यात्रा हि तद्विधा ॥ २७ ॥
हे देवि ! जो लोग बिना बुलाये दूसरेके घर जाते हैं, वे वहाँ अनादर ही पाते हैं, जो मृत्युसे भी बढ़कर होता है । चाहे वह इन्द्र ही क्यों न हो, बिना बुलाये दूसरेके घर जानेपर लघुता ही प्राप्त होगी और फिर दूसरेकी बात ही क्या ! ऐसी यात्रा अनर्थका कारण बन जाती है ॥ २६-२७ ॥

तस्मात् त्वया मया चापि दक्षस्य यजनं प्रति ।
न गन्तव्यं विशेषेण सत्यमुक्तं मया प्रियं ॥ २८ ॥
तथारिभिर्न व्यथते ह्यर्दितोऽपि शरैर्जनः ।
स्वानां दुरुक्तिभिर्मर्म ताडितः स यथा मतः ॥ २९ ॥
इसलिये तुमको और मुझको तो विशेष रूपसे दक्षके यज्ञमें नहीं जाना चाहिये हे प्रिये ! यह मैंने सत्य कहा है । मनुष्य अपने शत्रुओंके बाणसे घायल होकर उतना व्यथित नहीं होता, जितना अपने सम्बन्धियोंके निन्दायुक्त वचनोंसे दुखी होता है ॥ २८-२९ ॥

विद्यादिभिर्गुणैः षड्भिरसदन्यैः सतां स्मृतौ ।
हतायां भूयसां धाम न पश्यन्ति खलाः प्रिये ॥ ३० ॥
हे प्रिये ! सज्जनोंमें रहनेवाले विद्या आदि छ: गुण जब दुष्ट मनुष्योंमें आ जाते हैं, तो उनकी स्मृति नष्ट हो जाती है और वे मानी होकर तेजस्वियोंकी ओर नहीं देखते हैं ॥ ३० ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्ता सती तेन महेशेन महात्मना ।
उवाच रोषसंयुक्ता शिवं वाक्यविदां वरम् ॥ ३१ ॥
ब्रह्माजी बोले-महात्मा महेश्वरके इस प्रकार कहनेपर सती वाक्यवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् शंकरसे रोषपूर्वक कहने लगीं- ॥ ३१ ॥

सत्युवाच
यज्ञःस्यात्सफलो येन स त्वं शम्भोऽखिलेश्वर ।
अनाहूतोऽसि तेनाद्य पित्रा मे दुष्टकारिणा ॥ ३२ ॥
सती बोलीं-हे शम्भो ! हे अखिलेश्वर ! जिनके जानेसे यज्ञ सफल होता है, उन्हीं आपको मेरे दुष्ट पिताने आमन्त्रित नहीं किया है ॥ ३२ ॥

तत्सर्वं ज्ञातुमिच्छामि भव भावं दुरात्मनः ।
सुरर्षीणां च सर्वेषामागतानां दुरात्मनाम् ॥ ३३ ॥
तस्माच्चाद्यैव गच्छामि स्वपितुर्यजनं प्रभो ।
अनुज्ञां देहि मे नाथ तत्र गन्तुं महेश्वर ॥ ३४ ॥
हे भव ! उस दुरात्मा दक्षके तथा वहाँ आये हुए सम्पूर्ण दुरात्मा देवताओं तथा ऋषियोंके मनोभावोंको मैं जानना चाहती हूँ । अतः हे प्रभो ! मैं आज ही अपने पिताके यज्ञमें जा रही हूँ । हे नाथ ! हे महेश्वर ! आप मुझे वहाँ जानेकी आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ ३३-३४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्तौ भगवान् रुद्रस्तया देव्या शिवः स्वयम् ।
विज्ञाताखिलदृक् द्रष्टा सतीं सूतिकरोऽब्रवीत् ॥ ३५ ॥
ब्रह्माजी बोले-उन देवीके इस प्रकार कहनेपर सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सृष्टिकर्ता एवं कल्याणस्वरूप साक्षात् भगवान् रुद्र सतीसे कहने लगे- ॥ ३५ ॥

शिव उवाच
यद्येवं ते रुचिर्देवि तत्र गन्तुमवश्यकम् ।
सुव्रते वचनान्मे त्वं गच्छ शीघ्रं पितुर्मखम् ॥ ३६ ॥
एतं नन्दिनमारुह्य वृषभं सज्जमादरात् ।
महाराजोपचाराणि कृत्वा बहुगुणान्विता ॥ ३७ ॥
शिवजी बोले-हे देवि ! यदि इस प्रकार तुम्हारी रुचि वहाँ अवश्य जानेकी है, तो हे सुव्रते ! मेरी आज्ञासे तुम महाराजाओंके योग्य उपचार करके, बहुतसे गुणोंसे सम्पन्न हो, इस सजे हुए नन्दी वृषभपर सवार होकर शीघ्र अपने पिताके यज्ञमें जाओ ॥ ३६-३७ ॥

भूषितं वृषमारोहेत्युक्ता रुद्रेण सा सती ।
सुभूषिता सती युक्ता ह्यगमत्पितुमन्दिरम् ॥ ३८ ॥
तुम इस विभूषित वृषभपर आरूढ़ होओ । तब रुद्रके इस प्रकार आदेश देनेपर सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत तथा सब साधनोंसे युक्त हो देवी सती पिताके घरकी ओर चलीं ॥ ३८ ॥

महाराजोपचाराणि दत्तानि परमात्मना ।
सुच्छत्रचामरादीनि सद्वस्त्राभरणानि च ॥ ३९ ॥
गणाः षष्टिसहस्राणि रौद्रा जग्मुः शिवाज्ञया ।
कुतूहलयुताः प्रीता महोत्सवसमन्विताः ॥ ४० ॥
परमात्मा शिवजीने उन्हें सुन्दर वस्त्र, आभूषण, परम उज्ज्वल छत्र, चामर आदि महाराजोचित उपचार दिये । भगवान् शिवजीकी आज्ञासे साठ हजार रुद्रगण भी बड़ी प्रसन्नता और महान् उत्साहके साथ कौतूहलपूर्वक [सतौके साथ] गये ॥ ३९-४० ॥

तदोत्सवो महानासीद्यजने तत्र सर्वतः ।
सत्याः शिवप्रियायास्तु वामदेवगणैः कृतः ॥ ४१ ॥
कुतूहलं गणाश्चक्रुः शिवयोर्यश उज्जगुः ।
बालान्तः पुप्लुवुः प्रीत्या महावीराः शिवप्रियाः ॥ ४२ ॥
उस समय वहाँ यज्ञमें सभी ओर महान् उत्सव हो रहा था । वामदेवके गणोंने शिवप्रिया सतीका भी उत्सव मनाया । महावीर तथा शिवप्रिय वे गण कौतूहलपूर्ण कार्य करने तथा सती और शिवके यशको गाने लगे और बलपूर्वक उछल-कूद करने लगे ॥ ४१-४२ ॥

सर्वथाऽऽसीन्महाशोभा गमने जागदम्बिके ।
सुखारावःसम्बभूव पूरितं भुवनत्रयम् ॥ ४३ ॥
जगदम्बाके यात्राकालमें सब प्रकारसे महान शोभा हो रही थी । उस समय जो सुखद [जय-जयकार आदि] शब्द उत्पन्न हुआ, उससे तीनों लोक गूंज उठे ॥ ४३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे सतीयात्रावर्णनं नामाष्टाविंशोध्यायः ॥ २८ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीयात्रावर्णन नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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