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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥

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वीरभद्रोत्पत्तिः शिवोपदेशश्च
सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ-विध्वंस करनेकी आज्ञा देना


नारद उवाच
श्रुत्वा व्योमगिरं दक्षः किमकार्षीत्तदाऽबुधः ।
अन्ये च कृतवन्तः किं ततश्च किमभूद्वद ॥ १ ॥
नारदजी बोले-[हे ब्रह्मन् !] आकाशवाणीको सुनकर अज्ञानी दक्षने क्या किया तथा अन्य उपस्थित लोगोंने क्या किया और उसके बाद क्या हुआ ? इसे बताइये ॥ १ ॥

पराजिताः शिवगणा भृगुमन्त्रबलेन वै ।
किमकार्षुः कुत्र गतास्तत्त्वं वद महामते ॥ २ ॥
हे महामते ! भृगुजीके मन्त्रबलसे पराजित होकर शिवजीके गणोंने क्या किया तथा वे कहाँ गये-यह सब आप मुझसे कहिये ॥ २ ॥

ब्रह्मोवाच
श्रुत्वा व्योमगिरं सर्वे विस्मिताश्च सुरादयः ।
नावोचत्किञ्चिदपि ते तिष्ठन्तस्तु विमोहिताः ॥ ३ ॥
पलायमाना ये वीरा भृगुमन्त्रबलेन ते ।
अवशिष्टाः शिवगणाः शिवं शरणमाययुः ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] आकाशवाणी सुनकर समस्त देवता आदि आश्चर्यचकित हो गये, वे मोहित होकर [जहाँ-तहाँ] खड़े हो गये और कुछ भी न बोल सके । भृगुजीके मन्त्रबलसे जो वीर शिवगण बच गये थे, वे भागते हुए शिवकी शरणमें गये ॥ ३-४ ॥

सर्वं निवेदयामासू रुद्रायामिततेजसे ।
चरित्रं च तथाभूतं सुप्रणम्यादराच्च ते ॥ ५ ॥
वे महातेजस्वी शिवजीको आदरपूर्वक प्रणाम करके जो चरित्र हुआ था, वह सब बताने लगे ॥ ५ ॥

गणा ऊचुः
देवदेव महादेव पाहि नः शरणागतान् ।
संशृण्वादरतो नाथ सती वार्तां च विस्तरात् ॥ ६ ॥
गण बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! शरणमें आये हुए हमलोगोंकी रक्षा कीजिये और हे नाथ ! आदरपूर्वक सतीजीका चरित्र विस्तारसे सुनिये ॥ ६ ॥

गर्वितेन महेशान दक्षेण सुदुरात्मना ।
अपमानः कृतःसत्याऽनादरो निर्जरैस्तथा ॥ ७ ॥
हे महेश्वर ! अभिमानसे युक्त दुरात्मा दक्षने तथा देवताओंने सतीका अपमान तथा अनादर किया ॥ ७ ॥

तुभ्यं भागमदान्नः स देवेभ्यश्च प्रदत्तवान् ।
दुर्वचांस्यवदत्प्रोच्चैर्दुष्टो दक्षःसुगर्वितः ॥ ८ ॥
महाभिमानी दुष्ट दक्षने [अपने यज्ञमें] आपको भाग नहीं दिया । देवताओंको भाग दिया, किंतु [आपके विषयमें] उच्च स्वरसे दुर्वचन भी कहा ॥ ८ ॥

ततो दृष्ट्‍वा न ते भागं यज्ञेऽकुप्यत्सती प्रभो ।
विनिन्द्य बहुशस्तातमधाक्षीत्स्वतनुं तदा ॥ ९ ॥
गणास्त्वयुतसङ्‌ख्याका मृतास्तत्र विलज्जया ।
स्वाङ्‌गान्याछिद्य शस्त्रैश्च क्रुध्याम ह्यपरे वयम् ॥ १० ॥
हे प्रभो ! उसके बाद यज्ञमें आपका भाग न देखकर सतीजी कुपित हो गयीं और उन्होंने अपने पिताकी बार-बार निन्दा करके [योगमार्गका अवलम्बनकर] अपने शरीरको भस्म कर लिया । [यह देखकर] दस हजार गण लज्जावश शस्त्रोंसे अपने अंगोंको काटकर वहीं मर गये, [बचे हुए] हमलोग दक्षपर कुपित हो उठे ॥ ९-१० ॥

तद्यज्ञे ध्वंसितुं वेगात्सन्नद्धास्तु भयावहाः ।
तिरस्कृता हि भृगुणा स्वप्रभावाद्विरोधिना ॥ ११ ॥
हमलोग भयानक रूप धारणकर वेगपूर्वक यज्ञका विध्वंस करनेको उद्यत हो गये, परंतु विरोधी भृगुने अपने मन्त्रबलके प्रभावसे हमारा तिरस्कार कर दिया ॥ ११ ॥

ते वयं शरणं प्राप्तास्तव विश्वम्भर प्रभो ।
निर्भयान् कुरु नस्तस्माद्दयमान भवाद्‌भयात् ॥ १२ ॥
हे विश्वम्भर ! हे प्रभो ! अब हमलोग आपकी शरणमें आये हुए हैं, आप [हमारे ऊपर दया करते हुए इस उत्पन्न भयसे हमलोगोंको निर्भय कीजिये ॥ १२ ॥

अपमानं विशेषेण तस्मिन् यज्ञे महाप्रभो ।
दक्षाद्यास्तेऽखिला दुष्टा अकुर्वन् गर्विता अति ॥ १३ ॥
हे महाप्रभो ! दक्ष आदि सभी दुष्टोंने अत्यन्त गर्वित होकर उस यज्ञमें आपका बहुत अपमान किया है ॥ १३ ॥

इत्युक्तं निखिलं वृत्तं स्वेषां सत्याश्च नारद ।
तेषां च मूढबुद्धीनां यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १४ ॥
हे शंकर ! इस प्रकार हमने अपना, सतीका और उन मूखौंका सारा वृत्तान्त आपसे कह दिया, अब आप जैसा चाहते हों, वैसा कीजिये ॥ १४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्यवचस्तस्य स्वगणानां वचः प्रभुः ।
सस्मार नारदं सर्वं ज्ञातुं तच्चरितं लघु ॥ १५ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] अपने गणोंका यह वचन सुनकर प्रभु शिवने उनका सम्पूर्ण चरित्र जाननेके लिये शीघ्रतापूर्वक आप नारदका स्मरण किया ॥ १५ ॥

आगतस्त्वं द्रुतं तत्र देवर्षे दिव्यदर्शन ।
प्रणम्य शंकरं भक्त्या साञ्जलिस्तत्र तस्थिवान् ॥ १६ ॥
हे देवर्षे ! [भगवान के स्मरण करनेपर दिव्य दर्शनावाले आप वहाँ शीघ्रतासे पहुँच गये और भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर शिवजीको प्रणामकर वहाँ खड़े हो गये ॥ १६ ॥

त्वां प्रशस्याथ स स्वामी सत्या वार्त्तां च पृष्टवान् ।
दक्षयज्ञगताया वै परं च चरितं तथा ॥ १७ ॥
पृष्टेन शम्भुना तात त्वयाऽऽश्वेव शिवात्मना ।
तत्सर्वं कथितं वृतं जातं दक्षाध्वरे हि यत् ॥ १८ ॥
उसके बाद स्वामी शंकरजीने आपकी प्रशंसा करके दक्षयज्ञमें गयी हुई सतीका समाचार एवं अन्य दूसरी घटनाओंके सम्बन्धमें पूछा । हे नारद ! शिवजीके पूछनेपर शिवस्वरूप आपने शीघ्र ही जो कुछ भी दक्षयज्ञमें घटित हुआ था, वह सब समाचार कह दिया ॥ १७-१८ ॥

तदाकर्ण्येश्वरो वाक्यं मुने तत्त्वमुखोदितम् ।
चुकोपातिद्रुतं रुद्रो महारौद्रपराक्रमः ॥ १९ ॥
उत्पाट्यैकां जटां रुद्रो लोकसंहारकारकः ।
आस्फालयामास रुषा पर्वतस्य तदोपरि ॥ २० ॥
हे मुने ! आपके मुखसे कही हुई बातको सुनकर महारौद्र पराक्रमी भगवान् शंकर शीघ्र ही अत्यन्त क्रोधित हो उठे । लोकका संहार करनेवाले रुद्रने उसी समय एक जटा उखाड़कर क्रोधसे उसे पर्वतके ऊपर पटक दिया ॥ १९-२० ॥

तोदनाच्च द्विधा भूता सा जटा च मुने प्रभोः ।
सम्बभूव महारावो महाप्रलयभीषणः ॥ २१ ॥
हे मुने ! भगवान् शंकरद्वारा जटा पटके जानेके फलस्वरूप वह जटा दो टुकड़ोंमें विभक्त हो गयी और उससे महान् प्रलयंकारी भयंकर शब्द उत्पन्न हुआ ॥ २१ ॥

तज्जटायाः समुद्‌भूतो वीरभद्रो महाबलः ।
पूर्वभागेन देवर्षे महाभीमो गणाग्रणीः ॥ २२ ॥
हे देवर्षे ! उस जटाके पूर्वभागसे महाभयंकर, महाबली सभी गणोंमें अग्रणी वीरभद्र उत्पन्न हुए ॥ २२ ॥

स भूमिं विश्वतो वृत्य चात्यतिष्ठद्दशाङ्‌गुलम् ।
प्रलयानलसङ्‌काशः प्रोन्नतो दोःसहस्रवान् ॥ २३ ॥
वे चारों ओरसे पृथिवीको घेरकर दस अंगुलपर्यन्त पृथिवीसे ऊपर स्थित हो गये । वे प्रलयाग्निके समान थे और एक हजार भुजाओंसे युक्त थे ॥ २३ ॥

कोपनिश्वासतस्तत्र महारुद्रस्य चेशितुः ।
जातं ज्वराणां शतकं संनिपातास्त्रयोदश ॥ २४ ॥
उन महारुद्र महेश्वरके क्रोधयुक्त निःश्वाससे सौ प्रकारके ज्वर तथा तेरह सन्निपात उत्पन्न हुए ॥ २४ ॥

महाकाली समुत्पन्ना तज्जटापरभागतः ।
महाभयङ्‌करा तात भूतकोटिभिरावृता ॥ २५ ॥
हे तात ! उस जटाके दूसरे भागसे महाकाली उत्पन्न हुई, जो बड़ी भयंकर थीं और करोड़ों भूतोंसे घिरी हुई थीं ॥ २५ ॥

सर्वे मूर्त्तिधराः क्रूराः ज्वरा लोकभयङ्‌कराः ।
स्वतेजसा प्रज्वलन्तो दहन्त इव सर्वतः ॥ २६ ॥
मूर्तिधारी वे सभी ज्वर क्रूर तथा संसारको भयभीत करनेवाले थे और अपने तेजसे ऐसे प्रज्वलित हो रहे थे, मानो सबको जला देंगे ॥ २६ ॥

अथ वीरो वीरभद्रः प्रणम्य परमेश्वरम् ।
कृताञ्जलिपुटः प्राह वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ २७ ॥
तदनन्तर वाक्यविशारद महावीर वीरभद्र हाथ जोड़कर शिवजीको प्रणाम करके कहने लगे- ॥ २७ ॥

वीरभद्र उवाच
महारुद्र महारौद्र सोमसूर्याग्निलोचन ।
किं कर्तव्यं मया कार्यं शीघ्रमाज्ञापय प्रभो ॥ २८ ॥
वीरभद्र बोले-हे महारुद्र ! हे महारौद्र ! सूर्य, सोम तथा अग्निरूप नेत्रवाले हे प्रभो ! मैं कौन-सा कार्य करूँ ? शीघ्र ही आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ २८ ॥

शोषणीयाः किमीशान क्षणार्द्धेनैव सिन्धवः ।
पेषणीयाः किमीशान क्षणार्द्धेनैव पर्वताः ॥ २९ ॥
क्षणेन भस्मसात्कुर्यां ब्रह्माण्डमुत किं हर ।
क्षणेन भस्मसात्कुर्यां सुरान्वा किं मुनीश्वरान् ॥ ३० ॥
व्याश्वासः सर्वलोकानां किमु चार्यो हि शंकर ।
कर्तव्यं किमुतेशान सर्वप्राणिविहिंसनम् ॥ ३१ ॥
हे ईशान ! क्या मैं आधे ही क्षणमें समुद्रोंको सुखा + अथवा हे ईशान ! क्या आधे ही क्षणमें पर्वतोंको चूरचूर कर दूँ अथवा हे हर ! क्या मैं क्षणभरमें सारे ब्रह्माण्डको भस्म कर दूँ अथवा क्या मैं क्षणभरमें देवताओं एवं मुनीश्वरोंको भस्म कर दूँ अथवा हे शंकर ! क्या मैं सभी लोगोंका श्वास रोक , अथवा हे ईशान ! क्या मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका विनाश कर डालूँ ? ॥ २९-३१ ॥

ममाशक्यं न कुत्रापि त्वत्प्रसादान्महेश्वर ।
पराक्रमेण मत्तुल्यो न भूतो न भविष्यति ॥ ३२ ॥
हे महेश्वर ! आपकी कृपासे कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जो मैं न कर सकूँ, पराक्रममें मेरे समान न तो कोई हुआ है और न तो होगा ॥ ३२ ॥

यत्र यत्कार्यमुद्दिश्य प्रेषयिष्यसि मां प्रभो ।
तत्कार्यं साधयाम्येव सत्वरं त्वत्प्रसादतः ॥ ३३ ॥
हे प्रभो ! आप मुझे जिस कार्यके लिये जहाँ भी भेजेंगे, मैं आपकी कृपासे उस कार्यको शीघ्र ही सिद्ध करूंगा ॥ ३३ ॥

क्षुद्रास्तरन्ति लोकाब्धिं शासनाच्छङ्‌करस्य ते ।
हरातोऽहं न किं तर्तुं महापत्सागरं क्षमः ॥ ३४ ॥
हेहर ! आप शिवकी आज्ञासे क्षुदजन भी इस संसारसागरको पार कर जाते हैं, तो क्या मैं इस महान् विपत्तिरूपी समुद्रको पार करने में समर्थ नहीं हो सकता ? ॥ ३४ ॥

त्वत्प्रेषिततृणेनापि महत्कार्यमयत्नतः ।
क्षणेन शक्यते कर्तुं शंकरात्र न संशयः ॥ ३५ ॥
हे शंकर ! आपके द्वारा भेजे गये तणसे भी क्षणमात्रमें ही बिना प्रयत्नके बहुत बड़ा कार्य किया जा सकता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ३५ ॥

लीलामात्रेण ते शम्भो कार्यं यद्यपि सिद्ध्यति ।
तथाप्यहं प्रेषणीयस्तवैवानुग्रहो ह्ययम् ॥ ३६ ॥
हे शम्भो ! यद्यपि सारा कार्य आपके लीलामात्रसे ही सिद्ध हो सकता है, फिर भी यदि आप मुझे भेज दें, तो यह आपकी [बहुत बड़ी] कृपा होगी ॥ ३६ ॥

शक्तिरेतादृशी शम्भो ममापि त्वदनुग्रहात् ।
विना शक्तिर्न कस्यापि शंकर त्वदनुग्रहात् ॥ ३७ ॥
हे शम्भो ! हे शंकर ! आपकी कृपासे मुझमें ऐसी शक्ति है, जैसी कि आपकी कृपाके बिना अन्य किसीमें भी नहीं हो सकती ॥ ३७ ॥

त्वदाज्ञया विना कोपि तृणादीनपि वस्तुतः ।
नैव चालयितुं शक्तः सत्यमेतन्न संशयः ॥ ३८ ॥
आपकी कृपाके बिना कोई एक तण भी हिलानेमें समर्थ नहीं है, यह सत्व है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३८ ॥

शम्भो नियम्याः सर्वेऽपि देवाद्यास्ते महेश्वर ।
तथैवाहं नियम्यस्ते नियन्तुःसर्वदेहिनाम् ॥ ३९ ॥
हे शम्भो ! हे महेश्वर ! सभी देवता आपके नियन्त्रणमें हैं, उसी प्रकार मैं भी समस्त प्राणियोंके नियामक आपके नियन्त्रणमें ही हूँ ॥ ३९ ॥

प्रणतोस्मि महादेव भूयोपि प्रणतोस्म्यहम् ।
प्रेषय स्वेष्ट सिद्ध्यर्थं मामद्य हर सत्वरम् ॥ ४० ॥
हे महादेव ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ । हे हर ! आज मुझे अपनी इष्टसिद्धिके लिये आप शीघ्र ही भेजिये ॥ ४० ॥

स्पन्दोपि जायते शम्भो सव्याङ्‌गानां मुहुर्मुहुः ।
भविष्यत्यद्य विजयो मामतः प्रेषय प्रभो ॥ ४१ ॥
हे शम्भो ! मेरे दाहिने अंगोंमें बार-बार स्पन्दन हो रहा है । हे प्रभो ! आज मेरी विजय होगी । अतः आप मुझे भेजिये ॥ ४१ ॥

हर्षोत्साहविशेषोऽपि जायते मम कश्चन ।
शम्भो त्वत्पादकमले संसक्तश्च मनो मम ॥ ४२ ॥
भविष्यत्यति प्रतिपदं शुभसन्तानसन्ततिः ॥ ४३ ॥
हे शम्भो ! इस समय मुझे विशेष हर्ष तथा उत्साह हो रहा है और मेरा मन आपके चरणकमलमें लगा हुआ है । अत: पग-पगपर [मेरे लिये] शुभ परिणामका विस्तार होगा ॥। ४२-४३ ॥

तस्यैव विजयो नित्यं तस्यैव शुभमन्वहम् ।
यस्य शम्भौ दृढा भक्तिस्त्वयि शोभनसंश्रये ॥ ४४ ॥
हे शम्भो ! उत्तम आश्रय-स्वरूप आप शिवमें जिसकी सुदृढ़ भक्ति है, उसीकी सदा विजय होती है और उसीका प्रतिदिन कल्याण होता है ॥ ४४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्तं तद्वचः श्रुत्वा सन्तुष्टो मंगलापतिः ।
वीरभद्र जयेति त्वं प्रोक्ताशीः प्राह तं पुनः ॥ ४५ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] उनके द्वारा कहे गये इस वचनको सुनकर मंगलापति [सदाशिव] अत्यन्त प्रसन्न हो गये और हे वीरभद्र ! तुम्हारी जय हो, यह आशीर्वाद देकर उनसे पुनः कहने लगे - ॥ ४५ ॥

महेश्वर उवाच
शृणु मद्वचनं तात वीरभद्र सुचेतसा ।
करणीयं प्रयत्नेन तद्द्रुतं मे प्रतोषकम् ॥ ४६ ॥
महेश्वर बोले-हे तात ! हे वीरभद्र ! शान्त मनसे मेरी बात सुनो और शीघ्र ही प्रयत्नपूर्वक उस कार्यको करो, जिससे मुझे प्रसन्नता हो ॥ ४६ ॥

यागं कर्तुं समुद्युक्तो दक्षो विधिसुतः खलः ।
मद्विरोधी विशेषेण महागर्वोऽबुधोऽधुना ॥ ४७ ॥
इस समय ब्रह्माका पुत्र दक्ष यज्ञ करनेके लिये तत्पर है । वह महाभिमानी, दुष्ट तथा अज्ञानी विशेष रूपसे मेरा विरोध कर रहा है ॥ ४७ ॥

तन्मखं भस्मसात्कृत्वा सयागपरिवारकम् ।
पुनरायाहि मत्स्थानं सत्वरं गणसत्तम ॥ ४८ ॥
हे गणश्रेष्ठ ! तुम यज्ञको तथा यज्ञमें सम्मिलित सभीको भस्म करके शीघ्र ही मेरे स्थानको पुन: लौट आओ ॥ ४८ ॥

सुरा भवन्तु गन्धर्वा यक्षा वान्ये च केचन ।
तानप्यद्यैव सहसा भस्मसात्कुरु सत्वरम् ॥ ४९ ॥
देवता, गन्धर्व, यक्ष अथवा अन्य कोई भी जो वहाँ हों, उन्हें आज ही शीघ्र सहसा भस्म कर डालना ॥ ४९ ॥

तत्रास्तु विष्णुर्ब्रह्मा वा शचीशो वा यमोऽपि वा ।
अपि चाद्यैव तान्सर्वान्पातयस्व प्रयत्नतः ॥ ५० ॥
वहाँ ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, यम कोई भी हो, तुम उन सबको प्रयत्नपूर्वक आज ही गिरा दो ॥ ५० ॥

सुरा भवन्तु गन्धर्वा यक्षा वान्ये च केचन ।
तानप्यद्यैव सहसा भस्मसात्कुरु सत्वरम् ॥ ५१ ॥
देवता, गन्धर्व, यक्ष अथवा अन्य कोई भी जो वहाँ हों, उन्हें आज ही शीघ्र सहसा भस्म कर डालना ॥ ५१ ॥

दधीचिकृतमुल्लङ्‌घ्य शपथं मयि तत्र ये ।
तिष्ठन्ति ते प्रयत्नेन ज्वालनीयास्त्वया ध्रुवम् ॥ ५२ ॥
दधीचिकी दिलायी हुई मेरी शपथका उल्लंघन करके जो भी वहाँ ठहरे हुए हैं, उन्हें निश्चय ही तुम प्रयत्नपूर्वक जला देना ॥ ५२ ॥

प्रमथाश्चागमिष्यन्ति यदि विष्ण्वादयो भ्रमात् ।
नानाकर्षणमन्त्रेण ज्वालयानीय सत्वरम् ॥ ५३ ॥
यदि भ्रमवश प्रमथगण और विष्णु आदि वहाँ आ जाये तो शीघ्र ही अनेक आकर्षण मन्त्रोंसे खींचकर उन्हें भस्म कर देना ॥ ५३ ॥

ये तत्रोल्लङ्‌घ्य शपथं मदीयं गर्विताः स्थिताः ।
ते हि मद्द्रोहिणोऽतस्तान् ज्वालयानलमालया ॥ ५४ ॥
जो मेरी शपथका उल्लंघन करके गर्वित हो वहाँ ठहरे हुए हैं, वे मेरे द्रोही हैं, अत: उन्हें अग्निकी लपटोंसे भस्म कर देना ॥ ५४ ॥

पत्नीकानससारांश्च दक्षयागस्थलस्थितान् ।
प्रज्वाल्य भस्मसात्कृत्वा पुनरायाहि सत्वरम् ॥ ५५ ॥
दक्षके यज्ञस्थलमें स्थित लोगोंको उनकी पत्नियों तथा सामग्रीसहित जलाकर भस्म करके शीघ्रतासे पुनः चले आओ ॥ ५५ ॥

तत्र त्वयि गते देवा विश्वाद्या अपि सादरम् ।
स्तोष्यन्ति त्वां तदाप्याशु ज्वालया ज्वालयैव तान् ॥ ५६ ॥
तुम्हारे वहाँ जानेपर विश्वेदेव आदि देवगण भी यदि [सामने आकर] सादर स्तुति करें, तो भी तुम उन्हें शीघ्र ही आगकी ज्वालासे जला डालना ॥ ५६ ॥

देवानपि कृतद्रोहान् ज्वालामालासमाकुलैः ।
ज्वालय ज्वलनैः शीघ्रं माध्यायाध्यायपालकम् ॥ ५७ ॥
इस प्रकार जो भी मुझसे द्रोह करनेवाले देवतागण वहाँ उपस्थित हों, उन्हें शीघ्र ही अग्निकी ज्वालामें जलाकर मेरे समीप लौट आना । मन्त्रपालक समझकर उनकी उपेक्षा कदापि न करना ॥ ५७ ॥

दक्षादीन्सकलांस्तत्र सपत्नीकान्सबान्धवान् ।
प्रज्वाल्य वीर दक्षं नु सलीलं सलिलं पिब ॥ ५८ ॥
हे वीर ! पत्नियों तथा बन्धुओंसहित वहाँ उपस्थित दक्ष आदि सभीको लीलापूर्वक भस्म करनेके बाद ही तुम जल ग्रहण करना अर्थात् कार्य पूर्ण होनेके अनन्तर ही पूर्ण विश्राम करना ॥ ५८ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्तो रोषताम्राक्षो वेदमर्यादपालकः ।
विरराम महावीरं कालारिः सकलेश्वरः ॥ ५९ ॥
ब्रह्माजी बोले-वेदमर्यादाका पालन करनेवाले, कालके भी शत्रु तथा सर्वेश्वर शिवजीने रोषसे आँखें लाल-लालकर महावीर [वीरभद्र]-से इस प्रकार कहकर मौन धारण कर लिया ॥ ५९ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे वीरभद्रोत्पत्तिशिवोपदेशवर्णनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें वीरभद्रकी उत्पत्ति और उन्हें शिवका उपदेशवर्णन नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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