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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥

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यज्ञवाटे देवानां दुःशकुनदर्शनम्
दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पातसूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना


ब्रह्मोवाच
एवं प्रचलिते चास्मिन् वीरभद्रे गणान्विते ।
दुष्टचिह्नानि दक्षेण दृष्टानि विबुधैरपि ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार गणोंसहित वीरभद्रके प्रस्थान करनेपर दक्ष तथा देवताओंको अनेक प्रकारके अशुभ लक्षण दिखायी पड़ने लगे ॥ १ ॥

उत्पाता विविधाश्चासन् वीरभद्रे गणान्विते ।
त्रिविधा अपि देवर्षे यज्ञविध्वंससूचकाः ॥ २ ॥
गणोंसहित वीरभद्रके चल देनेपर वहाँ अनेक प्रकारके उत्पात होने लगे और हे देवर्षे यज्ञविध्वंसकी सूचना देनेवाले तीनों प्रकार (आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक) के अपशकुन होने लगे ॥ २ ॥

दक्षवामाक्षिबाहूरुविस्पन्दः समजायत ।
नानाकष्टप्रदस्तात सर्वथाऽशुभसूचकः ॥ ३ ॥
हे तात ! दक्षकी बायाँ आँख, बाँयीं भुजा और बाँयी जाँघ फड़कने लगी, जो अनेक प्रकारके कष्ट देनेवाली तथा सर्वथा अशुभकी सूचक थी ॥ ३ ॥

भूकम्पः समभूत्तत्र दक्षयागस्थले तदा ।
दक्षोपश्यच्च मध्याह्ने नक्षत्राण्यद्‌भुतानि च ॥ ४ ॥
दिशश्चासन्सुमलिनाः कर्बुरोऽभूद्दिवाकरः ।
परिवेषसहस्रेण सङ्‌क्रान्तश्च भयङ्‌करः ॥ ५ ॥
उस समय दक्षके यज्ञस्थलमें भूकम्प उत्पन्न हो गया । दक्षको दोपहरमें अनेक अद्‌भुत नक्षत्र दीखने लगे । दिशाएँ मलिन हो गयीं, सूर्य चितकबरा हो गया । सूर्यपर हजारों घेरे पड़ गये, जिससे वह भयंकर दिखायी पड़ने लगा ॥ ४-५ ॥

नक्षत्राणि पतन्ति स्म विद्युदग्निप्रभाणि च ।
नक्षत्राणामभूद्वक्रा गतिश्चाधोमुखी तदा ॥ ६ ॥
गृध्रा दक्षशिरःस्पृष्ट्‍वा समुद्‌भूताः सहस्रशः ।
आसीद्‌गृध्रपक्षच्छायैः सच्छायो यागमण्डपः ॥ ७ ॥
बिजली तथा अग्निके समान दीप्तिमान् तारे टूटकर गिरने लगे । नक्षत्रोंकी गति टेढ़ी और नीचेकी ओर हो गयी । हजारों गीध दक्षके सिरको छूकर उड़ने लगे और उन गीधोंके पंखोंकी छायासे यज्ञमण्डप बैंक गया ॥ ६-७ ॥

ववाशिरे यागभूमौ क्रोष्टारो नेत्रकस्तदा ।
उल्कावृष्टिरभूत्तत्र श्वेतवृश्चिकसम्भवा ॥ ८ ॥
खरा वाता ववुस्तत्र पांशुवृष्टिसमन्विताः ।
शलभाश्च समुद्‌भूता विवर्तानिलकम्पिताः ॥ ९ ॥
यज्ञभूमिमें सियार तथा उल्लू शब्द करने लगे । [आकाशमण्डलसे] श्वेत बिच्छुओंकी उल्कावृष्टि होने लगी । धूलिकी वर्षाके साथ तेज हवाएं चलने लगी और विवर्त [घूमती हुई] वायुसे कम्पित होकर टिड़ियाँ सब जगह उड़ने लगीं ॥ ८-९ ॥

नीतश्च पवनैरूर्ध्वं स दक्षाध्वरमण्डपः ।
दैवान्वितेन दक्षेण यः कृतो नूतनोद्‌भुतः ॥ १० ॥
वेमुर्दक्षादयःसर्वे तदा शोणितमद्‌भुतम् ।
वेमुश्च मांसखण्डानि सशल्यानि मुहुर्मुहुः ॥ ११ ॥
दक्षने देवताओंके साथ जिस नवीन तथा अद्‌भुत यज्ञमण्डपका निर्माण किया था, उसे वायुने ऊपरकी ओर उड़ा दिया । दक्ष आदि सभी लोग अद्‌भुत प्रकारसे रक्तका वमन करने लगे और हड्डीसे समन्वित मांसखण्ड बार-बार उगलने लगे ॥ १०-११ ॥

सकम्पाश्च बभूवुस्ते दीपा वातहता इव ।
दुःखिताश्चाभवन्सर्वे शस्त्रधाराहता इव ॥ १२ ॥
तदा निनादजातानि बाष्पवर्षाणि तत्क्षणे ।
प्रातस्तुषारवर्षीणि पद्मानीव वनान्तरे ॥ १३ ॥
वे सभी लोग वायुके झोंकेसे हिलते हुए दीपकके समान काँपने लगे और शस्त्रोंसे आहत हुए प्राणियोंके समान दुःखित हो गये । जिस प्रकार वनमें प्रात:कालके समय कमलपुष्पोंपर तुषार (ओस)-की वर्षा हुई हो, उसी प्रकार शब्द करते हुए वाष्पकी वर्षा होने लगी ॥ १२-१३ ॥

दक्षाद्यक्षीणि जातानि ह्यकस्माद्विशदान्यपि ।
निशायां कमलाश्चैव कुमुदानीव सङ्‌गवे ॥ १४ ॥
जिस प्रकार रात्रिमें कमल तथा दिनमें कुमुद बन्द हो जाते हैं, उसी प्रकार दक्ष आदिकी विशाल आँखें भी अचानक बन्द हो गयीं ॥ १४ ॥

असृग्ववर्ष देवश्च तिमिरेणावृता दिशः ।
दिग्दाहोभूद्विशेषेण त्रासयन् सकलाञ्जनान् ॥ १५ ॥
आकाशसे रक्तकी वर्षा होने लगी, दिशाएँ अन्धकारसे ढंक गयीं तथा सभी प्राणियोंको सन्त्रस्त करता हुआ दिग्दाह होने लगा ॥ १५ ॥

एवं विधान्यरिष्टानि ददृशुर्विबुधादयः ।
भयमापेदिरेऽत्यन्तं मुने विष्ण्वादिकास्तदा ॥ १६ ॥
हे मुने ! जब विष्णु आदि देवताओंने इस प्रकारके उत्पात देखे, तब वे अत्यन्त भयभीत हो उठे ॥ १६ ॥

भुवि ते मूर्छिताः पेतुर्हाहताः स्म इतीरयन् ।
तरवस्तीरसञ्जाता नदीवेगहता इव ॥ १७ ॥
हाय, अब हमलोग मारे गये-इस प्रकार कहते हुए वे मूच्छित होकर पृथिवीपर इस प्रकार गिर पड़े, जैसे नदीके वेगसे किनारेपर वृक्ष गिर जाते हैं ॥ १७ ॥

पतित्वा ते स्थिता भूमौ क्रूराः सर्पा हता इव ।
कन्दुका इव ते भूयः पतिताः पुनरुत्थिताः ॥ १८ ॥
ततस्ते तापसन्तप्ता रुरुदुः कुररी इव ।
रोदनध्वनिसङ्‌क्रातोरुक्तिप्रत्युक्तिका इव ॥ १९ ॥
वे पृथिवीपर इस प्रकार गिरकर अचेत हो जाते थे जैसे काटनेके बाद विषैला सर्प अचेत हो जाता है और कभी गेंदके समान पृथिवीपर गिरकर पुनः उठ जाते थे । तदनन्तर वे तापसे व्याकुल होकर कुररी पक्षीकी भाँति विलाप करते थे एवं उक्ति तथा प्रत्युक्तिका शब्द करते हुए रो रहे थे ॥ १८-१९ ॥

सवैकुण्ठास्ततः सर्वे तदा कुण्ठितशक्तयः ।
स्वस्वोपकण्ठमाकण्ठं लुलुठुः कमठा इव ॥ २० ॥
उस समय विष्णुसहित सभी लोगोंकी शक्ति कुण्ठित हो गयी और वे आपसमें एक-दूसरेके समीप कण्ठपर्यन्त कहुएके समान लोटने लगे ॥ २० ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र सञ्जाता चाशरीरवाक् ।
श्रावयत्यखिलान् देवान्दक्षं चैव विशेषतः ॥ २१ ॥
इसी बीच वहाँ समस्त देवताओं और विशेषकर दक्षको सुनाते हुए आकाशवाणी हुई ॥ २१ ॥

आकाशवाण्युवाच
धिक् जन्म तव दक्षाद्य महामूढोसि पापधीः ॥
भविष्यति महद्दुःखमनिवार्यं हरोद्‌भवम् । २२ ॥
आकाशवाणी बोली-हे दक्ष ! तुम्हारे जन्मको धिक्कार है । तुम महामूढ़ और पापात्मा हो । शिवजीके कारण आज तुम्हें महान् दुःख प्राप्त होगा, जिसका निवारण नहीं हो सकता ॥ २२ ॥

हा हापि नोऽत्र ये मूढास्तव देवादय स्थिताः ।
तेषामपि महादुःखं भविष्यति न संशयः ॥ २३ ॥
यहाँ जो तुम्हारे सहायक मूर्ख देवता उपस्थित हैं, उन्हें भी महान् दुःख होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥

ब्रह्मोवाच
तच्छ्रुत्वाऽऽकाशवचनं दृष्ट्‍वारिष्टानि तानि च ।
दक्षः प्रापद्‌भयं चाति परे देवादयोपि ह ॥ २४ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे मुने !] उस आकाशवाणीको सुनकर और उन उपद्रवोंको देखकर दक्ष तथा अन्य देवता आदि भी अत्यन्त भयभीत हो उठे ॥ २४ ॥

वेपमानस्तदा दक्षो विकलश्चाति चेतसि ।
अगच्छच्छरणं विष्णोः स्वप्रभोरिन्दिरापतेः ॥ २५ ॥
उस समय दक्ष मन-ही-मन अत्यन्त व्याकुल हो काँपने लगे और अपने प्रभु लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुको शरणमें गये ॥ २५ ॥

सुप्रणम्य भयाविष्टः संस्तूय च विचेतनः ।
अवोचद्देवदेवं तं विष्णुं स्वजनवत्सलम् ॥ २६ ॥
भयभीत तथा बेसुध वे दक्ष उन स्वजनवत्सल देवाधिदेव विष्णुको प्रणाम करके तथा उनकी स्तुति करके कहने लगे- ॥ २६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे दुः शकुनदर्शनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें अपशकुन-दर्शन नामक चौंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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