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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

प्रथमोऽध्यायः ॥

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हिमाचलविवाहवर्णनम्
पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन


नारद उवाच
दाक्षायणी सती देवी त्यक्तदेहा पितुर्मखे ।
कथं गिरिसुता ब्रह्मन्बभूव जगदम्बिका ॥ १ ॥
कथं कृत्वा तपोऽत्युग्रं पतिमाप शिवं च सा ।
एतन्मे पृच्छते सम्यक्कथय त्वं विशेषतः ॥ २ ॥
नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! अपने पिताके यज्ञमें शरीरका त्यागकर दक्षकन्या सती देवी जगदम्बा किस प्रकार हिमालयकी पुत्री बनीं और किस तरह अत्यन्त उग्र तपस्या करके उन्होंने शिवजीको पतिरूपमें प्राप्त किया ? मैं यह आपसे पूछ रहा हूँ, आप विशेष रूपसे बताइये ॥ १-२ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु त्वं मुनिशार्दूल शिवाचरितमुत्तमम् ।
पावनं परमं दिव्यं सर्वपापहरं शुभम् ॥ ३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! आप शिवाके परम पावन, दिव्य, सभी पापोंको दूर करनेवाले, कल्याणकारी तथा उत्तम चरित्रको सुनिये ॥ ३ ॥

यदा दाक्षायणी देवी हरेण सहिता मुदा ।
हिमाचले शुचि क्रीडेल्लीलया परमेश्वरी ॥ ४ ॥
मत्सुतेयमिति ज्ञात्वा सिषेवे मातृवर्चसा ।
हिमाचलप्रिया मेना सर्वर्द्धिभिरनिर्भरा ॥ ५ ॥
दक्षकन्या सती देवी जब प्रसन्नचित्त होकर शिवजीके साथ हिमालय पर्वतपर लीलापूर्वक क्रीड़ा करती थीं, उस समय मातृप्रेमसे भरी हुई हिमालयकी प्रिया मेना' सम्पूर्ण सिद्धियोंसे युक्त यह मेरी पुत्री है'ऐसा समझकर उनकी सेवामें संलग्न रहती थीं ॥ ४-५ ॥

यदा दाक्षायणी रुष्टा नादृता स्वतनुं जहौ ।
पित्रा दक्षेण तद्यज्ञे सङ्‌गता परमेश्वरी ॥ ६ ॥
तदैव मेनका तां सा हिमाचलप्रिया मुने ।
शिवलोकस्थितां देवीमारिराधयिषुस्तदा ॥ ७ ॥
हे मुने ! दक्षकन्या सती देवीने जब पिता दक्षके द्वारा अपमानित होकर क्रोधित हो यज्ञमें अपना शरीर त्याग दिया, उस समय हिमालयप्रिया मेना शिवलोकमें स्थित उन भगवती सतीकी आराधना करना चाह रही थीं ॥ ६-७ ॥

तस्यामहं सुता स्यामित्यवधार्य सती हृदा ।
त्यक्तदेहा मनो दध्रे भवितुं हिमवत्सुता ॥ ८ ॥
उन्होंके गर्भसे मैं पुत्रीके रूपमें उत्पन्न होऊँ-ऐसा हृदयमें विचार करके शरीरका त्याग करनेवाली सतीने हिमालयकी पुत्री होनेके लिये मनमें निश्चय किया ॥ ८ ॥

समयं प्राप्य सा देवी सर्वदेवस्तुता पुनः ।
सती त्यक्ततनुः प्रीत्या मेनकातनयाऽभवत् ॥ ९ ॥
देहत्यागके अनन्तर समय आनेपर सभी देवताओंके द्वारा स्तुत वे भगवती सती प्रसन्नतापूर्वक मेनका (मेना)-की पुत्रीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ ९ ॥

नाम्ना सा पार्वती देवी तपः कृत्वा सुदुःसहम् ।
नारदस्योपदेशाद्वै पतिं प्राप शिवं पुनः ॥ १० ॥
उन देवीका नाम पार्वती हुआ । उन्होंने नारदके उपदेशसे अत्यन्त कठोर तपस्याकर पुन: शिवजीको पतिरूपमें प्राप्त किया ॥ १० ॥

नारद उवाच
ब्रह्मन् विधे महाप्राज्ञ वद मे वदतां वर ।
मेनकायाः समुत्पत्तिं विवाहं चरितं तथा ॥ ११ ॥
। नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाप्राज्ञ ! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! आप मुझसे मेनकाकी उत्पत्ति, उनके विवाह तथा चरित्रका वर्णन कीजिये ॥ ११ ॥

धन्या हि मेनका देवी यस्यां जाता सुता सती ।
अतो मान्या च धन्या च सर्वेषां सा पतिव्रता ॥ १२ ॥
जिनसे भगवती सतीने पुत्रोके रूपमें जन्म लिया, वे मेनका देवी धन्य हैं । इसीलिये वे पतिव्रता मेना सभी लोगोंकी मान्य और धन्य हैं ॥ १२ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु त्वं नारद मुने पार्वतीमातुरुद्‌भवम् ।
विवाहं चरितं चैव पावनं भक्तिवर्द्धनम् ॥ १३ ॥
अस्त्युत्तरस्यां दिशि वै गिरीशो हिमवान्महान् ।
पर्वतो हि मुनिश्रेष्ठ महातेजाः समृद्धिभाक् ॥ १४ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! हे मुने ! आप पार्वतीकी माताके जन्म, विवाह एवं अन्य भक्तिवर्धक पावन चरित्रको सुनिये । हे मुनिश्रेष्ठ ! उत्तर दिशामें पर्वतोंका राजा हिमालय नामक महान् पर्वत है । जो महातेजस्वी और समृद्धिशाली है ॥ १३-१४ ॥

वैरूप्यं तस्य विख्यातं जङ्‌गमस्थिरभेदतः ।
वर्णयामि समासेन तस्य सूक्ष्मस्वरूपकम् ॥ १५ ॥
पूर्वापरौ तोयनिधी सुविगाह्य स्थितो हि यः ।
नानारत्नाकरो रम्यो मानदण्ड इव क्षितेः ॥ १६ ॥
जंगम तथा स्थावरभेदसे उसके दो रूप प्रसिद्ध हैं, मैं उसके सूक्ष्म स्वरूपका संक्षेपमें वर्णन कर रहा हूँ । वह पर्वत रमणीय एवं अनेक प्रकारके रत्नोंका आकर (खान) है, जो पूर्व तथा पश्चिम समुद्रके भीतर प्रवेश करके पृथ्वीके मानदण्डकी भाँति स्थित है ॥ १५-१६ ॥

नानावृक्षसमाकीर्णो नानाशृङ्‌गसुचित्रितः ।
सिंहव्याघ्रादिपशुभिःसेवितःसुखिभिःसदा ॥ १७ ॥
वह नाना प्रकारके वृक्षों से व्याप्त है, अनेक शिखरोंके कारण विचित्र शोभासे सम्पन्न है और सुखी सिंह, व्याघ्र आदि पशुओंसे सदा सेवित रहता है ॥ १७ ॥

तुषारनिधिरत्युग्रो नानाश्चर्यविचित्रितः ।
देवर्षिसिद्धमुनिभिः संश्रितः शिवसम्प्रियः ॥ १८ ॥
वह हिमका भण्डार है, अत्यन्त उग्र है, अनेक आश्चर्यजनक दृश्योंके कारण विचित्र है; देवता, ऋषि, सिद्ध और मुनि उसपर रहते हैं तथा वह भगवान् शिवको बहुत ही प्रिय है ॥ १८ ॥

तपस्थानोऽतिपूतात्मा पावनश्च महात्मनाम् ।
तपःसिद्धिप्रदोऽत्यन्तं नानाधात्वाकरः शुभः ॥ १९ ॥
स एव दिव्यरूपो हि रम्यः सर्वाङ्‌गसुन्दरः ।
विष्ण्वंशोऽविकृतः शैलराजराजः सतां प्रियः ॥ २० ॥
वह तप करनेका स्थान है, अत्यन्त पावन है, महात्माओंको भी पवित्र करनेवाला है, तपस्यामें अत्यन्त शीघ्र सिद्धि प्रदान करता है, अनेक प्रकारकी धातुओंकी खान है और शुभ है । वह दिव्य रूपवाला है, सर्वागसुन्दर है, रमणीय है, शैलराजोंका भी राजा है, विष्णुका अंश है, विकाररहित एवं सज्जन पुरुषोंका प्रिय है ॥ १९-२० ॥

कुलस्थित्यै च स गिरिर्धर्मवर्द्धनहेतवे ।
स्वविवाहं कर्तुमैच्छत्पितृदेवहितेच्छया ॥ २१ ॥
तस्मिन्नवसरे देवाः स्वार्थमाचिन्त्य कृत्स्नशः ।
ऊचुः पितृन्समागत्य दिव्यान्प्रीत्या मुनीश्वर ॥ २२ ॥
उस पर्वतने अपनी कुलपरम्पराकी स्थितिके लिये, धर्मकी अभिवृद्धिके लिये और देवताओं तथा पित्तरोंका हित करनेकी अभिलाषासे अपना विवाह करनेकी इच्छा की । हे मुनीश्वर ! उसी समय देवतागण अपने पूर्ण स्वार्थका विचार करके दिव्य पितरोंके पास आकर उनसे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे- ॥ २१-२२ ॥

देवा ऊचुः
सर्वे शृणुत नो वाक्यं पितरः प्रीतमानसाः ।
कर्त्तव्यं तत्तथैवाशु देवकार्येप्सवो यदि ॥ २३ ॥
देवता बोले-हे पितरो ! आप सभी प्रसन्नचित्त होकर हमारी बात सुनें और यदि आपलोगोंको देवताओंका कार्य करना अभीष्ट हो, तो शीघ्र वैसा ही करें ॥ २३ ॥

मेना नाम सुता या वो ज्येष्ठा मंगलरूपिणी ।
ताम्विवाह्य च सुप्रीत्या हिमाख्येन महीभृता ॥ २४ ॥
एवं सर्वमहालाभः सर्वेषां च भविष्यति ।
युष्माकममराणां च दुःखहानिः पदे पदे ॥ २५ ॥
आपलोगोंकी मेना नामक जो ज्येष्ठ पुत्री प्रसिद्ध है, वह मंगलरूपिणी है, उसका विवाह आपलोग अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक हिमालय नामक पर्वतसे कर दीजिये । ऐसा करनेपर सभी लोगोंका महान् लाभ होगा और आपलोगोंके तथा देवताओंके दुःखोंका निवारण भी पग-पगपर होता रहेगा ॥ २४-२५ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्यामरवचः पितरस्ते विमृश्य च ।
स्मृत्वा शापं सुतानां च प्रोचुरोमिति तद्वचः ॥ २६ ॥
ब्रह्माजी बोले-देवताओंकी यह बात सुनकर पितरोंने परस्पर विचार करके कन्याओंके शापका स्मरण करके इस बातको स्वीकार कर लिया ॥ २६ ॥

ददुर्मेनां सुविधिना हिमागाय निजात्मजाम् ।
समुत्सवो महानासीत्तद्विवाहे सुमंगले ॥ २७ ॥
उन लोगोंने अपनी कन्या मेनाका विवाह विधिपूर्वक हिमालयके साथ कर दिया । उस मंगलमय विवाहमें महान् उत्सव हुआ ॥ २७ ॥

हर्य्यादयोऽपि ते देवा मुनयश्चापरेऽखिलाः ।
आजग्मुस्तत्र संस्मृत्य वामदेवं भवं धिया ॥ २८ ॥
वामदेव शंकरका स्मरणकर विष्णु आदि देवता तथा समस्त मुनिगण उस विवाहमें आये ॥ २८ ॥

उत्सवं कारयामासुर्दत्त्वा दानान्यनेकशः ।
सुप्रशस्य पितृन्दिव्यान्प्रशशंसुर्हिमाचलम् ॥ २९ ॥
उन लोगोंने अनेक प्रकारके दान देकर उत्सव करवाया, तदनन्तर वे दिव्य पितरोंकी प्रशंसा करके हिमालयकी प्रशंसा करने लगे ॥ २९ ॥

महामोदान्विता देवास्ते सर्वे समुनीश्वराः ।
सञ्जग्मुः स्वस्वधामानि संस्मरन्तः शिवाशिवौ ॥ ३० ॥
इसके बाद परम आनन्दसे युक्त वे सभी देवता तथा मुनीश्वर शिवा एवं शिवका स्मरण करते हुए अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ॥ ३० ॥

कौतुकं बहु सम्प्राप्य सुविवाह्य प्रियां च ताम् ।
आजगाम स्वभवनं मुदमाप गिरीश्वरः ॥ ३१ ॥
उधर, पर्वतराज हिमालय भी अनेक प्रकारके उपहार प्राप्तकर उस प्रिया मेनाके साथ विवाह करके अपने घर आये और परम प्रसन्न हुए ॥ ३१ ॥

ब्रह्मोवाच
मेनया हि हिमागस्य सुविवाहो मुनीश्वर ।
प्रोक्तो मे सुखदः प्रीत्या किम्भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! मैंने मेनाके साथ हिमालयके सुखद पवित्र विवाहका वर्णन कर दिया । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ३२ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे हिमाचलविवाहवर्णनं नाम प्रथमोध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें हिमाचलविवाह-वर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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