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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥

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दक्षयज्ञानुसंधानम्
भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य


ब्रह्मोवाच
इति स्तुतो रमेशेन मया चैव सुरर्षिभिः ।
तथान्यैश्च महादेवः प्रसन्नः सम्बभूव ह ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! इस प्रकार रमापति विष्णु, मेरे, देवताओं, ऋषियों तथा अन्य लोगोंके द्वारा स्तुति करनेपर महादेवजी बड़े प्रसन्न हो गये ॥ १ ॥

अथ शम्भुः कृपा दृष्ट्या सर्वान् ऋषिसुरादिकान् ।
ब्रह्मविष्णू समाधाय दक्षमेतदुवाच ह ॥ २ ॥
तब वे शम्भु कृपादृष्टिसे सभी ऋषियों एवं देवताओंको देखकर तथा मुझ ब्रह्मा और श्रीविष्णुका समाधान करके दक्षसे इस प्रकार कहने लगे- ॥ २ ॥

महादेव उवाच
शृणु दक्ष प्रवक्ष्यामि प्रसन्नोऽस्मि प्रजापते ।
भक्ताधीनः सदाहं वै स्वतन्त्रोऽप्यखिलेश्वरः ॥ ३ ॥
महादेव बोले-हे प्रजापते ! हे दक्ष ! मैं [जो कुछ] कह रहा हूँ, सुनिये, मैं प्रसन्न हूँ । यद्यपि मैं सबका ईश्वर हूँ और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी सदा भक्तोंके अधीन रहता हूँ ॥ ३ ॥

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनः सदा ।
उत्तरोत्तरतः श्रेष्ठास्तेषां दक्षप्रजापते ॥ ४ ॥
चार प्रकारके पुण्यात्मा मेरा भजन करते हैं । हे दक्ष ! हे प्रजापते ! उनमें पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ॥ ४ ॥

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चैव चतुर्थकः ।
पूर्वे त्रयश्च सामान्याश्चतुर्थो हि विशिष्यते ॥ ५ ॥
उनमें आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है । पहलेके तीन तो सामान्य [भक्त] हैं और चौथा विशिष्ट महत्त्वका है ॥ ५ ॥

तत्र ज्ञानी प्रियतर ममरूपश्च स स्मृतः ।
तस्मात्प्रियतरो नान्यः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ६ ॥
उनमें चौथा ज्ञानी ही मुझे अधिक प्रिय है और वह मेरा रूप माना गया है । उससे बढ़कर दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है, मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ ॥ ६ ॥

ज्ञानगम्योहमात्मज्ञो वेदान्तश्रुतिपारगैः ।
विना ज्ञानेन मां प्राप्तुं यतन्ते चाल्पबुद्धयः ॥ ७ ॥
वेद-वेदान्तके पारगामी विद्वान् ही मुझ आत्मज्ञानीको जानके द्वारा जान सकते हैं, अल्प बुद्धिवाले ही ज्ञानके बिना मुझे प्राप्त करनेका प्रयत्न करते हैं ॥ ७ ॥

न वेदैश्च न यज्ञैश्च न दानैस्तपसा क्वचित् ।
न शक्नुवन्ति मां प्राप्तुं मूढाः कर्मवशा नराः
कर्मके वशीभूत मूढ़ मानव न वेदोंसे, न यज्ञोंसे, न दानोंसे और न तपस्यासे ही मुझे पा सकते हैं ॥ ८ ॥

केवलं कर्मणा त्वं स्म संसारं तर्तुमिच्छसि ।
अत एवाभवं रुष्टो यज्ञविध्वंसकारकः ॥ ९ ॥
इतः प्रभृति भो दक्ष मत्वा मां परमेश्वरम् ।
बुद्ध्या ज्ञानपरो भूत्वा कुरु कर्म समाहितः ॥ १० ॥
आप केवल कर्मके द्वारा ही इस संसारको पार करना चाहते थे, इसीलिये रुष्ट होकर मैंने इस यज्ञका विनाश किया है । अतः हे दक्ष ! आजसे आप बुद्धिके द्वारा मुझे परमेश्वर मानकर ज्ञानका आश्रय लेते हुए सावधान होकर कर्म कीजिये ॥ ९-१० ॥

अन्यच्च शृणु सद्‌बुद्ध्या वचनं मे प्रजापते ।
वच्मि गुह्यं धर्महेतोः सगुणत्वेऽप्यहं तव ॥ ११ ॥
प्रजापते ! आप उत्तम बुद्धिके द्वारा मेरी दूसरी बात भी सुनिये, मैं अपने सगुण स्वरूपके विषयमें भी धर्मकी दृष्टिसे गोपनीय बात आपसे कहता हूँ ॥ ११ ॥

अहं ब्रह्मा च विष्णुश्च जगतः कारणं परम् ।
आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्वयंदृगविशेषणः ॥ १२ ॥
जगत्का परम कारणरूप में ही ब्रह्मा और विष्णु हूँ । मैं सबका आत्मा, ईश्वर, साक्षी, स्वयंप्रकाश तथा निर्विशेष हूँ ॥ १२ ॥

आत्ममायां समाविश्य सोऽहं गुणमयीं मुने ।
सृजन् रक्षन् हरन् विश्वं दधे सञ्ज्ञाः क्रियोचिताः ॥ १३ ॥
हे मुने ! अपनी [त्रिगुणात्मिका] मायामें प्रवेश करके मैं ही जगत्का सृजन, पालन और संहार करता हुआ क्रियाओंके अनुरूप [ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र] नामोंको धारण करता हूँ ॥ १३ ॥

अद्वितीये परे तस्मिन् ब्रह्मण्यात्मनि केवले ।
अज्ञः पश्यति भेदेन भूतानि ब्रह्मचेश्वरम् ॥ १४ ॥
उस अद्वितीय (भेदरहित), केवल (विशुद्ध) मुझ परब्रह्म परमात्मामें अज्ञानी पुरुष ही ब्रह्म, ईश्वर तथा अन्य समस्त जीवोंको भिन्न रूपसे देखता है ॥ १४ ॥

शिरः करादिस्वाङ्‌गेषु कुरुते न यथा पुमान् ।
पारक्यशेमुषीं क्वापि भूतेष्वेवं हि मत्परः ॥ १५ ॥
जैसे मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अंगोंमें [ये मुझसे भिन्न हैं, ऐसी] परकीय बुद्धि कभी नहीं करता, उसी तरह मेरा भक्त सभी प्राणियोंमें भेदबुद्धि नहीं रखता ॥ १५ ॥

सर्वभूतात्मनामेकभावनां यो न पश्यति ।
त्रिसुराणां भिदां दक्ष स शान्तिमधिगच्छति ॥ १६ ॥
हे दक्ष ! सभी भूतोंके आत्मास्वरूप तथा एक ही भाववाले [ब्रह्मा, विष्णु और मुझ शिव]-इन तीनों देवताओंमें जो भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है ॥ १६ ॥

यः करोति त्रिदेवेषु भेदबुद्धिं नराधमः ।
नरके स वसेन्नूनं यावदाचन्द्रतारकम् ॥ १७ ॥
जो नराधम तीनों देवताओंमें भेदबुद्धि रखता है, वह निश्चय ही जबतक चन्द्रमा और तारे रहते हैं, तबतक नरक में निवास करता है ॥ १७ ॥

मत्परः पूजयेद्देवान् सर्वानपि विचक्षणः ।
स ज्ञानं लभते येन मुक्तिर्भवति शाश्वती ॥ १८ ॥
मुझमें परायण होकर जो बुद्धिमान् मनुष्य सभी देवताओंकी पूजा करता है, उसे इस प्रकारका ज्ञान हो जाता है, जिससे उसकी शाश्वती मुक्ति हो जाती है ॥ १८ ॥

विधिभक्तिं विना नैव भक्तिर्भवति वैष्णवी ।
विष्णुभक्तिं विना मे न भक्तिः क्वापि प्रजायते ॥ १९ ॥
विधाताकी भक्तिके बिना विष्णुकी भक्ति नहीं हो सकती और विष्णुको भक्तिके बिना मेरी भक्ति कभी नहीं हो सकती है ॥ १९ ॥

इत्युक्त्वा शंकरः स्वामी सर्वेषां परमेश्वरः ।
सर्वेषां शृण्वतां तत्रोवाच वाणीं कृपाकरः ॥ २० ॥
ऐसा कहकर कृपालु, सबके स्वामी परमेश्वर शिव सबको सुनाते हुए फिर यह वचन बोले ॥ २० ॥

हरिभक्तो हि मां निन्देत्तथा शैवोभवेद्यदि ।
तयोः शापा भवेयुस्ते तत्त्वप्राप्तिर्भवेन्न हि ॥ २१ ॥
यदि कोई विष्णुभक्त मेरी निन्दा करेगा और मेरा भक्त विष्णुकी निन्दा करेगा, तो आपको दिये हुए समस्त शाप उन्हीं दोनोंको प्राप्त होंगे और निश्चय ही उन्हें तत्त्वज्ञानको प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ २१ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य महेशस्य वचनं सुखकारकम् ।
जहर्षुः सकलास्तत्र सुरमुन्यादयो मुने ॥ २२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! भगवान् महेश्वरके इस सुखकर वचनको सुनकर वहाँ [उपस्थित] सभी देवता, मुनि आदि अत्यन्त हर्षित हुए ॥ २२ ॥

दक्षोऽभवन्महाप्रीत्या शिवभक्तिरतस्तदा ।
सकुटुम्बः सुराद्यास्ते शिवं मत्वाखिलेश्वरम् ॥ २३ ॥
शिवको अखिलेश्वर मानकर दक्ष कुटुम्बसहित प्रसन्नतापूर्वक शिवभक्तिमें तत्पर हो गये और वे देवता आदि भी शिवभक्तिपरायण हो गये ॥ २३ ॥

यथा येन कृता शम्भोः संस्तुतिः परमात्मनः ।
तथा तस्मै वरो दत्तः शम्भुना तुष्टचेतसा ॥ २४ ॥
जिसने जिस प्रकारसे परमात्मा शम्भुकी स्तुति की थी, उसे उसी प्रकार सन्तुष्टचित्त हुए शम्भुने वर दिया ॥ २४ ॥

ज्ञप्तः शिवेनाशु दक्षः शिवभक्तः प्रसन्नधीः ।
यज्ञं चकार सम्पूर्णं शिवानुग्रहतो मुने ॥ २५ ॥
हे मुने ! उसके बाद भगवान् शिवकी आज्ञा पाकर प्रसन्नचित्त हुए शिवभक्त दक्षने शिवजीकी कृपासे यज्ञ पूरा किया ॥ २५ ॥

ददौ भागान्सुरेभ्यो हि पूर्णभागं शिवाय सः ।
दानं ददौ द्विजेभ्यश्च प्राप्तः शम्भोरनुग्रहः ॥ २६ ॥
उन्होंने देवताओंको यज्ञभाग दिया और शिवजीको पूर्ण भाग दिया । साथ ही उन्होंने ब्राह्मणोंको दान भी दिया । इस तरह उन्हें शम्भुका अनुग्रह प्राप्त हुआ ॥ २६ ॥

अथो देवस्य सुमहत्तत्कर्म विधिपूर्वकम् ।
दक्षः समाप्य विधिवत्सहर्त्विग्भिः प्रजापतिः ॥ २७ ॥
इस प्रकार महादेवजीके उस महान् कर्मका विधिपूर्वक वर्णन किया गया । प्रजापति दक्षने ऋत्विजोंके सहयोगसे उस यज्ञकर्मको विधिवत् समाप्त किया ॥ २७ ॥

एवं दक्षमखः पूर्णोऽभवत्तत्र मुनीश्वरः ।
शंकरस्य प्रसादेन परब्रह्मस्वरूपिणः ॥ २८ ॥
हे मुनीश्वर ! इस प्रकार परब्रह्मस्वरूप शंकरकी कृपासे दक्षका यज्ञ पूरा हुआ ॥ २८ ॥

अथ देवर्षयः सर्वे शंसन्तः शाङ्‌करं यशः ।
स्वधामानि ययुस्तुष्टाः परेऽपि सुखतस्तदा ॥ २९ ॥
तदनन्तर सब देवता और ऋषि सन्तुष्ट होकर भगवान् शिवके यशका वर्णन करते हुए अपने-अपने स्थानको चले गये । दूसरे लोग भी उस समय वहाँसे सुखपूर्वक चले गये ॥ २९ ॥

अहं विष्णुश्च सुप्रीतावपि स्वंस्वं परं मुदा ।
गायन्तौ सुयशः शम्भोः सर्वमंगलदं सदा ॥ ३० ॥
मैं और भगवान् विष्णु भी अत्यन्त प्रसन्न हो भगवान् शिवके सदा सर्वमंगलदायक सुयशका निरन्तर गान करते हुए अपने-अपने स्थानको सानन्द चल दिये ॥ ३० ॥

दक्ष संमानितः प्रीत्या महादेवोपि सद्‌गतिः ।
कैलासं स ययौ शैलं सुप्रीतः सगणो निजम् ॥ ३१ ॥
सत्पुरुषोंको आश्रय देनेवाले महादेवजी भी दक्षसे प्रीतिपूर्वक सम्मानित हो प्रसन्नताके साथ गणोंसहित अपने निवासस्थान कैलास पर्वतपर चले गये ॥ ३१ ॥

आगत्य स्वगिरिं शम्भुः सस्मार स्वप्रियां सतीम् ।
गणेभ्यः कथयामास प्रधानेभ्यश्च तत्कथाम् ॥ ३२ ॥
अपने पर्वतपर आकर शम्भुने अपनी प्रिया सतीका स्मरण किया और प्रधान गणोंसे वह कथा कही ॥ ३२ ॥

कालं निनाय विज्ञानी बहु तच्चरितं वदन् ।
लौकिकीं गतिमाश्रित्य दर्शयन् कामितां प्रभुः ॥ ३३ ॥
विज्ञानमय भगवान् शंकरने लौकिक गतिका अवलम्बनकर अपने सकामभावको प्रकट करते हुए तथा सतीचरित्र वर्णन करते हुए बहुत समय व्यतीत किया ॥ ३३ ॥

नानीतिकारकः स्वामी परब्रह्म सतां गतिः ।
तस्य मोहः क्व वा शोकः क्व विकारः परो मुने ॥ ३४ ॥
हे मुने ! वे सजनोंके शरणदाता, सबके स्वामी, अनीति न करनेवाले तथा परब्रह्म हैं, उन्हें मोह, शोक अथवा अन्य विकार कहाँसे हो सकता है ! ॥ ३४ ॥

अहं विष्णुश्च जानीवस्तद्‌भेदं न कदाचन ।
के परे मुनयो देवा मनुषाद्याश्च योगिनः ॥ ३५ ॥
जब मैं और विष्णु भी उनके भेदको कभी नहीं जान पाये, तो अन्य देवता, मुनि, मनुष्य आदि तथा योगिजनकी बात ही क्या है ! ॥ ३५ ॥

महिमा शाङ्‌करोनन्तो दुर्विज्ञेयो मनीषिभिः ।
भक्तज्ञातश्च सद्‌भक्त्या तत्प्रसादाद्विना श्रमम् ॥ ३६ ॥
भगवान् शंकरकी महिमा अनन्त है, जिसे बड़ेबड़े विद्वान् भी जानने में असमर्थ हैं, किंतु भक्तलोग उनकी कृपासे बिना श्रमके ही उत्तम भक्तिके द्वारा उसे जान लेते हैं ॥ ३६ ॥

एकोऽपि न विकारो हि शिवस्य परमात्मनः ।
सन्दर्शयति लोकेभ्यः कृत्वा तां तादृशीं गतिम् ॥ ३७ ॥
यत्पठित्वा च संश्रुत्य सर्वलोकसुधीर्मुने ।
लभते सद्‌गतिं दिव्यामिहापि सुखमुत्तमम् ॥ ३८ ॥
परमात्मा शिवमें एक भी विकार नहीं है, किंतु लोकपरायण वे सगुणरूप धारणकर अपना चरित्र लोगोंको दिखाते हैं । हे मुने ! जिसे पढ़कर और सुनकर सभी लोगोंमें बुद्धिमान् वह व्यक्ति इस लोकमें उत्तम सुख एवं [अन्तमें] दिव्य सद्‌गति प्राप्त कर लेता है ॥ ३७-३८ ॥

इत्थं दाक्षायणी हित्वा निजदेहं सती पुनः ।
जज्ञे हिमवतः पत्न्यां मेनायामिति विश्रुतम् ॥ ३९ ॥
इस प्रकार दक्षकन्या सती [यज्ञमें] अपने शरीरको त्यागकर फिर हिमालयकी पत्नी मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुईं, यह बात प्रसिद्ध ही है ॥ ३९ ॥

पुनः कृत्वा तपस्तत्र शिवं वव्रे पतिं च सा ।
गौरी भूत्वाऽर्द्धवामाङ्‌गी लीलाश्चक्रेऽद्‌भुताः शिवा ॥ ४० ॥
तत्पश्चात् वहाँ तपस्या करके गौरी शिवाने भगवान् शिवका पतिरूपमें वरण किया । वे उनकी वाम-अधर्धागिनी होकर अद्‌भुत लीलाएँ करने लगीं ॥ ४० ॥

इत्थं सतीचरित्रं ते वर्णितं परमाद्‌भुतम् ।
भुक्तिमुक्तिप्रदं दिव्यं सर्वकामप्रदायकम् ॥ ४१ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार मैंने आपसे सतीके परम अद्‌भुत चरित्रका वर्णन किया, जो भोग मोक्षको देनेवाला, दिव्य तथा सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है ॥ ४१ ॥

इदमाख्यानमनघं पवित्रं परपावनम् ।
स्वर्ग्यं यशस्यमायुष्यं पुत्रपौत्रफलप्रदम् ॥ ४२ ॥
यह आख्यान कालुष्यरहित, पवित्र, दूसरोंको पवित्र करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और पुत्र-पौत्ररूप फल प्रदान करनेवाला है ॥ ४२ ॥

य इदं शृणुयाद्‌भक्त्या श्रावयेद्‌भक्तिमान्नरान् ।
सर्वकर्मा लभेत्तात परत्र परमां गतिम् ॥ ४३ ॥
हे तात ! जो भक्तिमान् पुरुष भक्तिभावसे इसे सुनता है और अन्य मनुष्योंको सुनाता है । वह [इस लोकमें] सम्पूर्ण कर्मोका फल पाकर परलोकमें परमगति प्राप्त करता है । ४३ ॥

यः पठेत्पाठयेद्वापि समाख्यानमिदं शुभम् ।
सोपि भुक्त्वाऽखिलान् भोगानन्ते मोक्षमवाप्नुयात् ॥ ४४ ॥
जो इस शुभ आख्यानको पढ़ता है अथवा पढ़ाता है, वह भी समस्त सुखोंका उपभोग करके अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
द्वितीये सतीखण्डे दक्षयज्ञानुसन्धानवर्णनं
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें दक्षयज्ञके अनुसन्धानका वर्णन नामक तैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४३ ॥

नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥ श्रीः ॥
समाप्तोयं रुद्रसंहितान्तर्गतसतीखण्डो द्वितीयः ॥ २ ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवार्पणमस्तु ॥
॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयरुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डः समाप्तः ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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