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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

चतुर्थोऽध्यायः ॥

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शिवेन देवानां सान्त्वनम्
उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना


ब्रह्मोवाच
इत्थं देवैः स्तुता देवी दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी ।
आविर्बभूव देवानां पुरतो जगदम्बिका ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार देवताओंके द्वारा स्तुति किये जानेपर दुर्ग नामक राक्षसके द्वारा उत्पन्न संकटका नाश करनेवाली जगन्माता देवी दुर्गा देवताओंके समक्ष प्रकट हुई ॥ १ ॥

रथे रत्नमये दिव्ये संस्थिता परमाद्‌भुते ।
किङ्‌किणीजालसंयुक्ते मृदुसंस्तरणे वरे ॥ २ ॥
वे रलोंसे जटित, दिव्य, परम अद्‌भुत, किंकिणीजालसे युक्त, कोमल बिछौनेवाले तथा श्रेष्ठ रथपर विराजमान थीं ॥ २ ॥

कोटिसूर्याधिकाभास रम्यावयवभासिनी ।
स्वतेजोराशिमध्यस्था वररूपा समच्छविः ॥ ३ ॥
अनूपमा महामाया सदाशिवविलासिनी ।
त्रिगुणा निर्गुणा नित्या शिवलोकनिवासिनी ॥ ४ ॥
त्रिदेवजननी चण्डी शिवा सर्वार्तिनाशिनी ।
सर्वमाता महानिद्रा सर्वस्वजनतारिणी ॥ ५ ॥
तेजोराशेः प्रभावात्तु सा तु दृष्टा सुरैः शिवा ।
तुष्टुवुस्तां पुनस्ते वै सुरा दर्शनकाङ्‌क्षिणः ॥ ६ ॥
करोड़ों सूर्योंसे भी अधिक प्रभायुक्त, रम्य अंगोंसे भासित, अपनी तेजोराशिके बीच विराजमान, सुन्दर रूपवाली, अनुपम छविसे सम्पन्न, अतुलनीय, महामाया, सदाशिवके साथ विलास करनेवाली, त्रिगुणात्मिका, गुणोंसे रहित, नित्या, शिवलोकमें निवास करनेवाली, त्रिदेवजननी, चण्डी, शिवा, सभी कष्टोंका नाश करनेवाली, सबकी माता, महानिद्रा, सभी स्वजनों (भक्तों)-को मोक्ष प्रदान करनेवाली उन भगवती शिवाको तेजोराशिकी प्रभाके रूपमें देवताओंने देखा, किंतु उनके प्रत्यक्ष दर्शनकी अभिलाषा-वाले देवताओंने पुनः उनकी स्तुति की । ३-६ ॥

अथ देवगणाः सर्वे विष्ण्वाद्या दर्शनेप्सवः ।
ददृशुर्जगदम्बां तां तत्कृपां प्राप्य तत्र हि ॥ ७ ॥
बभूवानन्दसन्दोहः सर्वेषां त्रिदिवौकसाम् ।
पुनः पुनः प्रणेमुस्तां तुष्टुवुश्च विशेषतः ॥ ८ ॥
इसके बाद [भगवतीके] दर्शनके अभिलाषी देवगण उन जगदम्बाकी कृपा प्राप्त करके ही उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर सके । [देवीके दर्शनसे] सभी देवगणोंको महान् आनन्द प्राप्त हुआ । उन्होंने बारबार उनको प्रणाम किया और वे विशेष रूपसे उनकी स्तुति करने लगे- ॥ ७-८ ॥

देवा ऊचुः
शिवे शर्वाणि कल्याणि जगदम्ब महेश्वरि ।
त्वां नताः सर्वथा देवा वयं सर्वार्तिनाशिनीम् ॥ ९ ॥
देवता बोले-हे शिवे ! हे शर्वाणि हे कल्याणि ! हे जगदम्ब ! हे महेश्वरि ! हम सभी देवता सबके दुःखोंका नाश करनेवाली आपको सदा प्रणाम करते हैं ॥ ९ ॥

न हि जानन्ति देवेशि वेदाः शास्त्राणि कृत्स्नशः ।
अतीतो महिमा ध्यानं तव वाङ्‌मनसोः शिवे ॥ १० ॥
अतद्‌व्यावृत्तितस्तां वै चकितं चकितं सदा ।
अभिधत्ते श्रुतिरपि परेषां का कथा मता ॥ ११ ॥
हे देवेशि ! वेद एवं शास्त्र भी आपको पूर्णरूपसे नहीं जानते हैं । हे शिवे ! आपका ध्यान एवं महिमा वाणी एवं मनसे अगोचर है । श्रुति भी चकित होकर सदा अतद्व्यावृत्तिसे (नेति नेति कहते हुए) आपका वर्णन करती है, तो फिर दूसरॉकी बात ही क्या है ! ॥ १०-११ ॥

जानन्ति बहवो भक्तास्त्वत्कृपां प्राप्य भक्तितः ।
शरणागतभक्तानां न कुत्रापि भयादिकम् ॥ १२ ॥
[हे शिवे !] भक्तिसे आपकी कृपा प्राप्त करके बहुत-से भक्त आपकी महिमाको जानते हैं । आपके शरणागत भक्तोंको कहीं भी भय आदि नहीं होता ॥ १२ ॥

विज्ञप्तिं शृणु सुप्रीता यस्या दासाः सदाम्बिके ।
तव देवि महादेवि हीनतो वर्णयामहे ॥ १३ ॥
हे अम्बिके ! हम सब आपके दास हैं, अत: अब आप प्रेमयुक्त होकर हमारी प्रार्थना सुनें । हे देवि ! हमलोग आपकी महिमाका थोड़ा-सा वर्णन करते हैं ॥ १३ ॥

पुरा दक्षसुता भूत्वा सञ्जाता हरवल्लभा ।
ब्रह्मणश्च परेषां वा नाशयत्वमकं महत् ॥ १४ ॥
आप पहले दक्षकी पुत्री होकर शिवजीकी प्रिया बनी थीं, आपने [उस समय] ब्रह्मा तथा अन्य लोगोंके महान् दुःखको दूर किया था ॥ १४ ॥

पितृतोऽनादरं प्राप्यात्यजः पणवशात्तनुम् ।
स्वलोकमगमस्त्वं वा लभद्दुःखं हरोऽपि हि ॥ १५ ॥
न हि जातं प्रपूर्णं तद्देवकार्यं महेश्वरि ।
व्याकुला मुनयो देवाः शरणं त्वां गता वयम् ॥ १६ ॥
आपने अपने पितासे अनादर प्राप्तकर अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अपने शरीरका त्याग किया और आप अपने धामको चली गयी थी, जिसके कारण महादेवजीने दुःख पाया था । किंतु हे महेश्वरि ! देवताओंका वह कार्य पूरा नहीं हुआ । इसीलिये हम समस्त देवता एवं मुनिगण आपकी शरणमें आये हुए ॥ १५-१६ ॥

पूर्णं कुरु महेशानि निर्जराणां मनोरथम् ।
सनत्कुमारवचनं सफलं स्याद्यथा शिवे ॥ १७ ॥
हे महेशानि ! आप देवताओंके मनोरथको पूर्ण कीजिये, जिससे हे शिवे ! सनत्कुमारका [कहा हुआ] वचन सफल हो ॥ १७ ॥

अवतीर्य क्षितौ देवि रुद्रपत्नी पुनर्भव ।
लीलां कुरु यथायोग्यं प्राप्नुयुर्निर्जराः सुखम् ॥ १८ ॥
सुखी स्याद्देवि रुद्रोऽपि कैलासाचलसंस्थितः ।
सर्वे भवन्तु सुखिनो दुःखं नश्यतु कृत्स्नशः ॥ १९ ॥
हे देवि ! आप पृथ्वीपर अवतरित होकर पुनः शिवजीकी पत्नी बनें और यथायोग्य लीला करें, जिससे देवगण सुखी हो जाय, हे देवि कैलासपर्वतपर स्थित भगवान् शिवजी भी सुखी हो जायें, सभी लोग सुखी हो जायें और पूर्णरूपसे दुःखका विनाश हो जाय ॥ १८-१९ ॥

ब्रह्मोवाच
इति प्रोच्यामराः सर्वे विष्ण्वाद्याः प्रेमसङ्‌कुलाः ।
मौनमास्थाय सन्तस्थुर्भक्तिनम्रात्ममूर्तयः ॥ २० ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] विष्णु आदि सब देवता यह कहकर प्रेमसे मग्न हो गये और वे भक्तिपूर्वक विनम्रतासे सिर झुकाये मौन खड़े हो गये ॥ २० ॥

शिवापि सुप्रसन्नाभूदाकर्ण्यामरसंस्तुतिम् ।
आकलय्याथ तद्धेतुं संस्मृत्य स्वप्रभुं शिवम् ॥ २१ ॥
उवाचोमा तदा देवी सम्बोध्य विबुधांश्च तान् ।
विहस्य मापतिमुखान्सदया भक्तवत्सला ॥ २२ ॥
शिवा भी देवताओंकी स्तुति सुनकर प्रसन्न हो गयीं । अपनी स्तुतिके कारणका विचारकर तथा प्रभु शिवजीका स्मरणकर भक्तवत्सला तथा दयामयी उमादेवी विष्णु आदि उन देवताओंको सम्बोधित करके हँसकर कहने लगी- ॥ २१-२२ ॥

उमोवाच
हे हरे हे विधे देवा मुनयश्च गतव्यथाः ।
सर्वे शृणुत मद्वाक्यं प्रसन्नाऽहं न संशयः ॥ २३ ॥
चरितं मम सर्वत्र त्रैलोक्यस्य सुखावहम् ।
कृतं मयैवं सकलं दक्षमोहादिकं च तत् ॥ २४ ॥
उमा बोलीं-हे हरे ! हे विधे ! हे देवताओ ! हे मुनिगण ! अब आप सभी लोग दुःखरहित हो जाइये और मेरी बात सुनिये । मैं [आपलोगोंपर] प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह नहीं है । मेरा चरित्र त्रैलोक्यको सर्वत्र सुख प्रदान करनेवाला है । दक्ष आदिको जो मोह उत्पन्न हुआ, वह सब मेरे द्वारा ही किया गया था ॥ २३-२४ ॥

अवतारं करिष्यामि क्षितौ पूर्णं न संशयः ।
बहवो हेतवोऽप्यत्र तद्वदामि महादरात् ॥ २५ ॥
पुरा हिमाचलो देवा मेना चातिसुभक्तितः ।
सेवां मे चक्रतुस्तात जननीवत्सतीतनोः ॥ २६ ॥
। मैं पृथिवीपर पूर्ण अवतार ग्रहण करूँगी, इसमें सन्देह नहीं है । इसमें बहुत से हेतु हैं, उन्हें मैं आदरपूर्वक कह रही हूँ । हे देवताओ ! पूर्व समयमें हिमाचल और मेनाने बड़े भक्तिभावसे मुझ सतीशरीरधारिणीकी माता-पिताके समान सेवा की थी ॥ २५-२६ ॥

इदानीं कुरुतः सेवां सुभक्त्या मम नित्यशः ।
मेना विशेषतस्तत्र सुतात्वे नात्र संशयः ॥ २७ ॥
इस समय भी वे नित्यप्रति मेरी भक्तिपूर्वक सेवा कर रहे हैं और मेना विशेषकर अपनी पुत्रीरूपमें सेवा करती हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७ ॥

रुद्रो गच्छतु यूयं चावतारं हिमवद्‌गृहे ।
अतश्चावतरिष्यामि दुःखनाशो भविष्यति ॥ २८ ॥
अतः रुद्र तथा आपलोग [अपने-अपने धामको] जायें, मैं हिमालयके घर अवतार लूँगी, इससे सभी लोगोंका दुःख दूर हो जायगा ॥ २८ ॥

सर्वे गच्छत धाम स्वं स्वं सुखं लभतां चिरम् ।
अवतीर्य सुता भूत्वा मेनाया दास्य उत्सुखम् ॥ २९ ॥
आप सब लोग अपने-अपने घर जायें और चिरकालतक सुखी रहें । मैं मेनाकी पुत्रीके रूपमें अवतार लेकर सभीको सुख प्रदान करूंगी ॥ २९ ॥

हरपत्नी भविष्यामि सुगुप्तं मतमात्मनः ।
अद्‌भुता शिवलीला हि ज्ञानिनामपि मोहिनी ॥ ३० ॥
यह मेरा अत्यन्त गुप्त मत है कि मैं शिवजीकी पत्नी बनूँगी । भगवान् शिवकी लीला अद्‌भुत है, वह ज्ञानियोंको भी मोहमें डालनेवाली है ॥ ३० ॥

यावत्प्रभृति मे त्यक्ता स्वतनुर्दक्षजा सुराः ।
पितृतोऽनादरं दृष्ट्‍वा स्वामिनस्तत्क्रतौ गता ॥ ३१ ॥
तदाप्रभृति स स्वामी रुद्रः कालाग्निसञ्ज्ञकः ।
दिगम्बरो बभूवाशु मच्चिन्तनपरायणः ॥ ३२ ॥
है देवगणो ! जबसे मैंने दक्षके यज्ञमें जाकर पिताद्वारा अपने स्वामीका अनादर देखकर दक्षोत्पन्न अपने शरीरको त्याग दिया है, उसी समयसे वे कालाग्निसंज्ञक स्वामी रुद्रदेव दिगम्बर होकर मेरी चिन्तामें संलग्न हैं ॥ ३१-३२ ॥

मम रोषं क्रतौ दृष्ट्‍वा पितुस्तत्र गता सती ।
अत्यजत्स्वतनुं प्रीत्या धर्मज्ञेति विचारतः ॥ ३३ ॥
योग्यभूत्सदनं त्यक्त्वा कृत्वा वेषमलौकिकम् ।
न सेहे विरहं सत्या मद्‌रूपाया महेश्वरः ॥ ३४ ॥
मेरे रोषको देखकर अपने पिताके यज्ञमें गयी हुई धर्मज्ञ सतीने [मेरी] प्रौतिके कारण अपना शरीर त्याग दिया । यही सोच करके वे घर छोड़कर अलौकिक वेष धारणकर योगी हो भटक गये । वे महेश्वर मेरे सतीरूपका वियोग सहन नहीं कर पा रहे हैं ॥ ३३-३४ ॥

मम हेतोर्महादुःखी स बभूव कुवेषभृत् ।
अत्यजत्स तदारभ्य कामजं सुखमुत्तमम् ॥ ३५ ॥
उन्होंने उसी समयसे कामजन्य उत्तम सुखका परित्याग कर दिया है और मेरे निमित्त कुवेष धारणकर वे अत्यन्त दुखी हो गये हैं ॥ ३५ ॥

अन्यच्छृणुत हे विष्णो हे विधे मुनयः सुराः ।
महाप्रभोर्महेशस्य लीलां भुवनपालिनीम् ॥ ३६ ॥
विधाय मालां सुप्रीत्या ममास्थ्नां विरहाकुलः ।
न शान्तिं प्राप कुत्रापि प्रबुद्धोऽप्येक एव सः ॥ ३७ ॥
हे विष्णो ! हे विधे ! हे देवगणो ! हे मुनिगणो ! आपलोग महाप्रभु महेश्वरकी भुवनपालिनी अन्य लीला भी सुनें । ज्ञानी होते हुए भी विरहमें व्याकुल वे मेरी अस्थियोंकी माला बनाकर धारण किये रहते हैं, फिर भी उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिलती है ॥ ३६-३७ ॥

इतस्ततो रुरोदोच्चैरनीश इव स प्रभुः ।
योग्यायोग्यं न बुबुधे भ्रमन्सर्वत्र सर्वदा ॥ ३८ ॥
इत्थं लीलां हरोऽकार्षीद्दर्शयन् कामिनां प्रभुः ।
ऊचे कामुकवद्वाणीं विरहव्याकुलामिव ॥ ३९ ॥
। वे प्रभु अनाथके समान इधर-उधर घूमते हुए ऊँचे स्वरमें रोते रहते हैं, उन्हें उचित तथा अनुचितका ज्ञान भी नहीं है । इस प्रकार वे प्रभु सदाशिव कामियोंकी गति दिखाते हुए लीला करते फिरते हैं और कामुककी भाँति विरहाकुल वाणी बोलते रहते हैं ॥ ३८-३९ ॥

वस्तुतोऽविकृतोऽदीनोऽस्त्यजितः परमेश्वरः ।
परिपूर्णः शिवः स्वामी मायाधीशोऽखिलेश्वरः ॥ ४० ॥
वे शिव वस्तुतः निर्विकार तथा दीनतासे रहित. अजित, परमेश्वर, परिपूर्ण, स्वामी, मायाधीश तथा सबके अधिपति हैं ॥ ४० ॥

अन्यथा मोहतस्तस्य किं कामाच्च प्रयोजनम् ।
विकारेणादिकेनाशु मायालिप्तो न स प्रभुः ॥ ४१ ॥
वे तो लोकानुसरणकर ही लीला करते हैं; अन्यथा उन्हें मोह तथा कामसे प्रयोजन ही क्या है, वे प्रभु न तो किसी विकारसे अथवा मायासे ही लिप्त रहनेवाले हैं ॥ ४१ ॥

रुद्रोऽतीवेच्छति विभुः स मे कर्तुं करग्रहम् ।
अवतारं क्षितौ मेनाहिमाचलगृहे सुराः ॥ ४२ ॥
वे सर्वव्यापी रुद्र मेरे साथ विवाह करनेकी प्रबल इच्छा रखते हैं । अतः हे देवगणो ! मैं पृथ्वीपर मेना-हिमाचलके घरमें अवतार ग्रहण करूँगी ॥ ४२ ॥

अतश्चावतरिष्यामि रुद्रसन्तोषहेतवे ।
हिमागपत्न्यां मेनायां लौकिकीं गतिमाश्रिता ॥ ४३ ॥
मैं रुद्रके सन्तोषके लिये लौकिक गतिका आश्रय लेकर हिमालयपत्नी मेनामें अवतार ग्रहण करूँगी ॥ ४३ ॥

भक्ता रुद्रप्रिया भूत्वा तपः कृत्वा सुदुःसहम् ।
देवकार्यं करिष्यामि सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ४४ ॥
गच्छत स्वगृहं सर्वे भव भजत नित्यशः ।
तत्कृपातोऽखिलं दुःखं विनश्यति न संशयः ॥ ४५ ॥
कठोर तपस्या करके रुद्रकी भक्त तथा प्रिया होकर मैं देवताओंका कार्य करूँगी, यह सत्य है, सत्य है-इसमें सन्देह नहीं है । आप सभी लोग अपने घर जाइये और रुद्रका भजन कीजिये, उन्हींकी कृपासे समस्त दु:ख दूर हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४४-४५ ॥

भविष्यति कृपालोस्तु कृपया मंगलं सदा ।
वन्द्या पूज्या त्रिलोकेऽहं तज्जायेति च हेतुतः ॥ ४६ ॥
उन कृपालुकी कृपासे सर्वदा मंगल ही होगा और मैं उनकी प्रिया होनेके कारण त्रिलोकमें वन्दनीय तथा पूजनीय हो जाऊँगी ॥ ४६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा जगदम्बा सा देवानां पश्यतां तदा ।
अन्तर्दधे शिवा तात स्वं लोकं प्राप वै द्रुतम् ॥ ।४७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे तात ! इस प्रकार कहकर वे जगदम्बा देवताओंके देखते-देखते अन्तर्धान हो गयों और शीघ्रतासे अपने लोकको चली गयीं ॥ ४७ ॥

विष्ण्वादयः सुराः सर्वे मुनयश्च मुदान्विताः ।
कृत्वा तद्दिशि संनामं स्वस्वधामानि संययुः ॥ ४८ ॥
[तदनन्तर] विष्णु आदि समस्त देवता और मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न होकर उस दिशामें प्रणामकर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ४८ ॥

इत्थं दुर्गासुचरितं वर्णितं ते मुनीश्वर ।
सर्वदा सुखदं नॄणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥ ४९ ॥
य इदं शृणुयान्नित्यं श्रावयेद्वा समाहितः ।
पठेद्वा पाठयेद्वापि सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ ५० ॥
हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने दुर्गाके उत्तम चरित्रका आपसे वर्णन किया, जो सर्वदा मनुष्योंको सुख, भोग तथा मोक्ष देनेवाला है । जो एकाग्र होकर इस चरित्रको नित्य सुनता अथवा सुनाता है, पढ़ता अथवा पढ़ाता है, वह सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ॥ ४९-५० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
तृतीये पार्वतीखण्डे देवसान्त्वनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें देवसान्वनवर्णन नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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