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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

पञ्चमोऽध्यायः ॥

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मेनकया वरप्राप्तिः
मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म


नारद उवाच
अन्तर्हितायां देव्यां तु दुर्गायां स्वगृहेषु च ।
गतेष्वमरवृन्देषु किमभूत्तदनन्तरम् ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे तात ! जब देवी दुर्गा अन्तर्धान हो गयीं और देवगण अपने-अपने धामको चले गये, उसके बाद क्या हुआ ? ॥ १ ॥

कथं मेनागिरीशौ च तेपाते परमं तपः ।
कथं सुताऽभवत्तस्य मेनायां तात तद्वद ॥ २ ॥
हे तात ! मेना तथा हिमाचलने किस प्रकार कठोर तप किया और भगवती किस प्रकार मेनाके गर्भसे उत्पन्न होकर उन हिमाचलकी कन्या हुई, उसे कहिये ॥ २ ॥

ब्रह्मोवाच
विप्रवर्य सुतश्रेष्ठ शृणु तच्चरितं महत् ।
प्रणम्य शंकरं भक्त्या वच्मि भक्तिविवर्द्धनम् ॥ ३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे विप्रवर्य ! हे सुतश्रेष्ठ ! मैं शिवजीको भक्तिपूर्वक प्रणामकर उनके भक्तिवर्धक महान् चरित्रको कह रहा हूँ ॥ ३ ॥

उपदिश्य गते तात सुरवृन्दे गिरीश्वरः ।
हर्यादौ मेनका चापि तेपाते परमंतपः ॥ ४ ॥
उपदेश देकर विष्णु आदि देवसमुदायके चले जानेपर पर्वतराज हिमाचल तथा मेनका कठोर तप करने लगे ॥ ४ ॥

अहर्निशं शिवां शम्भुं चिन्तयन्तौ च दम्पती ।
सम्यगारेधतुर्नित्यं भक्तियुक्तेन चेतसा ॥ ५ ॥
गिरिप्रियातीव मुदानर्च देवीं शिवेन सा ।
दानं ददौ द्विजेभ्यश्च सदा तत्तोषहेतवे ॥ ६ ॥
वे पति-पत्नी भक्तियुक्त चित्तसे दिन-रात शम्भु और शिवाका चिन्तन करते हुए उनकी सम्यक् रीतिसे नित्य आराधना करने लगे । गिरिप्रिया वे मेना प्रसन्नतापूर्वक शिवजीके साथ देवीका पूजन करती थीं और उन्हें प्रसन करनेके लिये नित्य ब्राह्मणोंको दान देती थीं ॥ ५-६ ॥

चैत्रमासं समारभ्य सप्तविंशतिवत्सरान् ।
शिवां सम्पूजयामासापत्त्यार्थिन्यन्वहं रता ॥ ७ ॥
सन्तानकी कामनासे मेनाने चैत्रमाससे आरम्भ करके सत्ताईस वर्षातक प्रतिदिन तत्परतापूर्वक शिवाकी पूजा की ॥ ७ ॥

अष्टम्यामुपवासं तु कृत्वाऽदान्नवमीतिथौ ।
मोदकैर्बलिपिष्टैश्च पायसैर्गन्धपुष्पकैः ॥ ८ ॥
वे अष्टमीको उपवास करके नवमी तिथिको लडु, पीठी, खीर, गन्ध, पुष्प आदि अर्पण करती थीं ॥ ८ ॥

गङ्‌गायामौषधिप्रस्थे कृत्वा मूर्तिं महीमयीम् ।
उमायाः पूजयामास नानावस्तुसमर्पणैः ॥ ९ ॥
कदाचित्सा निराहारा कदाचित्सा धृतव्रता ।
कदाचित्पवनाहारा कदाचिज्जलभुग्ह्यभूत् ॥ १० ॥
वे गंगाके औषधिप्रस्थमें उमादेवीकी मिट्टीकी प्रतिमा बनाकर अनेक प्रकारकी वस्तुएँ समर्पितकर उनकी पूजा किया करती थीं । वे कभी निराहार रहती थीं, कभी व्रत धारण करती थी, कभी जल पीकर ही रहती थीं और कभी हवा पीकर ही रह जाती थीं ॥ ९-१० ॥

शिवाविन्यस्तचेतस्का सप्तविंशतिवत्सरान् ।
निनाय मेनका प्रीत्या परं सा मृष्टवर्चसा ॥ ११ ॥
इस प्रकार विशुद्ध तेजसे दीप्तिमती मनाने प्रेमपूर्वक शिवामें चित्त लगाते हुए सत्ताईस वर्ष व्यतीत किये ॥ ११ ॥

सप्तविंशतिवर्षान्ते जगन्माता जगन्मयी ।
सुप्रीताभवदत्यर्थमुमा शंकरकामिनी ॥ १२ ॥
सत्ताईसवें वर्षकी समाप्तिपर जगन्मयी जगज्जननी शंकरकामिनी उमा अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ॥ १२ ॥

अनुग्रहाय मेनायाः पुरतः परमेश्वरी ।
आविर्बभूव सा देवी सन्तुष्टा तत्सुभक्तितः ॥ १३ ॥
मेनाकी उत्तम भक्तिसे सन्तुष्ट होकर परमेश्वरी देवी उनपर अनुग्रह करनेके लिये उनके सामने प्रकट हुईं ॥ १३ ॥

दिव्यावयवसंयुक्ता तेजोमण्डलमध्यगा ।
उवाच विहसन्ती सा मेनां प्रत्यक्षतां गता ॥ १४ ॥
तेजोराशिके बीचमें विराजमान तथा दिव्य अवयवोंसे संयुक्त उमादेवी प्रत्यक्ष होकर मेनासे हँसती हुई कहने लगीं- ॥ १४ ॥

देव्युवाच
वरं ब्रूहि महासाध्वि यत्ते मनसि वर्तते ।
सुप्रसन्ना च तपसा तवाहं गिरिकामिनि ॥ १५ ॥
देवी बोलीं-हे महासाध्वि ! जो तुम्हारे मनमें हो, वह वर माँगो । हे गिरिकामिनि ! मैं तुम्हारी तपस्यासे बहुत प्रसन्न हूँ ॥ १५ ॥

यत्प्रार्थितं त्वया मेने तपोव्रतसमाधिना ।
दास्ये तेऽहं च तत्सर्वं वाञ्छितं यद्यदा भवेत् ॥ १६ ॥
हे मेने ! तुमने तपस्या, व्रत और समाधिके द्वारा जो प्रार्थना की है, वह सब मैं तुम्हें प्रदान करूंगी और जब भी तुम्हारी जो इच्छा होगी, वह भी दूंगी ॥ १६ ॥

ततःसा मेनका देवीं प्रत्यक्षां कालिकान्तदा ।
दृष्ट्‍वा च प्रणनामाथ वचनं चेदमब्रवीत् ॥ १७ ॥
तब उन मेनाने प्रत्यक्ष प्रकट हुई कालिका देवीको देखकर प्रणाम किया और यह वचन कहा- ॥ १७ ॥

मेनोवाच
देवि प्रत्यक्षतो रूपं दृष्टन्तव मयाऽधुना ।
त्वामहं स्तोतुमिच्छामि प्रसन्ना भव कालिके ॥ १८ ॥
मेना बोलीं-हे देवि ! इस समय मुझे आपके रूपका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है, अतः मैं आपकी स्तुति करना चाहती हूँ । हे कालिके ! आप प्रसन्न हों ॥ १८ ॥

ब्रह्मोवाच
अथ सा मेनयेत्युक्ता कालिका सर्वमोहिनी ।
बाहुभ्यां सुप्रसन्नात्मा मेनकां परिषस्वजे ॥ १९ ॥
ब्रह्माजी बोले-[नारद !] मैनाके ऐसा कहनेपर सर्वमोहिनी कालिकाने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर अपनी दोनों बाँहोंसे मेनाका आलिंगन किया ॥ १९ ॥

ततः प्राप्तमहाज्ञाना मेनका कालिकां शिवम् ।
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिर्भक्त्या प्रत्यक्षतां गताम् ॥ २० ॥
तत्पश्चात् मेनकाको महाज्ञानकी प्राप्ति हो गयी और वे प्रिय वचनोंद्वारा भक्तिभावसे प्रत्यक्ष हुई शिवा कालिकाकी स्तुति करने लगीं- ॥ २० ॥

मेनोवाच
महामायां जगद्धात्रीं चण्डिकां लोकधारिणीम् ।
प्रणमामि महादेवीं सर्वकामार्थदायिनीम् ॥ २१ ॥
मेना बोलीं-मैं महामाया, जगत्का पालन करनेवाली, चण्डिका, लोकको धारण करनेवाली तथा सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थोंको देनेवाली महादेवीको प्रणाम करती हूँ ॥ २१ ॥

नित्यानन्दकरीं मायां योगनिद्रां जगत्प्रसूम् ।
प्रणमामि सदा सिद्धां शुभसारसमालिनीम् ॥ २२ ॥
नित्य आनन्द प्रदान करनेवाली, माया, योगनिद्रा, जगज्जननी, सिद्धस्वरूपिणी तथा सुन्दर कमलोंकी माला धारण करनेवाली देवीको सदा प्रणाम करती हूँ ॥ २२ ॥

मातामहीं सदानन्दां भक्तशोकविनाशिनीम् ।
आकल्पं वनितानां च प्राणिनां बुद्धिरूपिणीम् ॥ २३ ॥
मातामही, नित्य आनन्द प्रदान करनेवाली, भक्तोंके शोकको सर्वदा विनष्ट करनेवाली तथा नारियों एवं प्राणियोंकी बुद्धिस्वरूपिणी देवीको मैं प्रणाम करती हूँ ॥ २३ ॥

सा त्वं बन्धच्छेदहेतुर्यतीनां
     कस्ते गेयो मादृशीभिः प्रभावः ।
हिंसा या वाऽथर्ववेदस्य सा
     त्वं नित्यं कामं त्वं ममेष्टं विधेहि ॥ २४ ॥
आप यतियोंके बन्धनके नाशकी हेतुभूत [ब्रह्मविद्या] हैं, तो मुझ-जैसी नारियाँ आपके प्रभावका क्या वर्णन कर सकती हैं । अथर्ववेदकी जो हिंसा है, वह आप ही हैं । [हे देवि !] आप मेरे अभीष्ट फलको सदा प्रदान कीजिये ॥ २४ ॥

नित्यानित्यैर्भावहीनैः परास्तै-
     स्तत्तन्मात्रैर्योज्यते भूतवर्गः ।
तेषां शक्तिस्त्वं सदा नित्यरूपा
     काले योषा योगयुक्ता समर्था ॥ २५ ॥
भावहीन तथा अदृश्य नित्यानित्य तन्मात्राओंसे आप ही पंचभूतोंके समुदायको संयुक्त करती हैं । आप उनकी शक्ति हैं और सदा नित्यरूपा हैं । आप समय-समयपर योगयुक्त एवं समर्थ नारीके रूपमें प्रकट होती हैं ॥ २५ ॥

योनिर्धरित्री जगतां त्वमेव
     त्वमेव नित्या प्रकृतिः परस्तात् ।
यथा वशं क्रियते ब्रह्मरूपं
     सा त्वं नित्या मे प्रसीदाद्य मातः ॥ २६ ॥
आप ही जगत्की उत्पादिका और आधारशक्ति हैं, आप ही सबसे परे नित्या प्रकृति हैं । जिसके द्वारा ब्रह्मके स्वरूपको वशमें किया जाता है, वह नित्या [विद्या] आप ही हैं । हे मातः ! आज मुझपर प्रसन्न होइये ॥ २६ ॥

त्वं जातवेदोगतशक्तिरुग्रा
     त्वं दाहिका सूर्यकरस्य शक्तिः ।
आह्लादिका त्वं बहुचन्द्रिका या
     तां त्वामहं स्तौमि नमामि चण्डीम् ॥ २७ ॥
आप ही अग्निके भीतर व्याप्त उग्र शक्ति हैं । आप ही सूर्यकिरणोंकी प्रकाशिका शक्ति हैं । चन्द्रमामें जो आह्लादिका शक्ति है, वह भी आप ही हैं, उन आप चण्डी देवीका मैं स्तवन और वन्दन करती हूँ ॥ २७ ॥

योषाणां सत्प्रिया च त्वं नित्या त्वं चोर्ध्वरेतसाम् ।
वाञ्छा त्वं सर्वजगतां माया च त्वं यथा हरेः ॥ २८ ॥
आप स्त्रियोंको बहुत प्रिय हैं । ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारियोंकी नित्या ब्रह्मशक्ति भी आप ही हैं । आप सम्पूर्ण जगत्की वांछा हैं तथा श्रीहरिकी माया भी आप ही हैं ॥ २८ ॥

या चेष्टरूपाणि विधाय देवी
    सृष्टिस्थितिर्नाशमयी च कर्त्री ।
ब्रह्माच्युतस्थाणुशरीरहेतुः
    सा त्वं प्रसीदाद्य पुनर्नमस्ते ॥ २९ ॥
जो देवी इच्छानुसार रूप धारण करके सृष्टि, स्थिति, पालन तथा संहारमयी होकर उन कार्योंका सम्पादन करती हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्रके शरीरकी भी हेतुभूता हैं, वे आप ही हैं । आप मुझपर प्रसन्न हों । आपको पुनः मेरा नमस्कार है ॥ २९ ॥

ब्रह्मोवाच
तत इत्थं स्तुता दुर्गा कालिका पुनरेव हि ।
उवाच मेनकां देवीं वाञ्छितं वरयेत्युत ॥ ३० ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] मेनाके इस प्रकार स्तुति करनेपर दुर्गा कालिकाने पुनः मेना देवीसे कहा-तुम अपना मनोवांछित वर माँग लो ॥ ३० ॥

उमोवाच
प्राणप्रिया मम त्वं हि हिमाचलविलासिनी ।
यदिच्छसि ध्रुवं दास्ये नादेयं विद्यते मम ॥ ३१ ॥
उमा बोलीं-हे हिमाचलप्रिये ! तुम मुझे प्राणोंसे अधिक प्रिय हो, तुम जो भी चाहती हो, उसे मैं निश्चय ही दूंगी, तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है ॥ ३१ ॥

इति श्रुत्वा महेशान्याः पीयूषसदृशं वचः ।
उवाच परितुष्टा सा मेनका गिरिकामिनी ॥ ३२ ॥
महेश्वरीका अमृतके समान यह मधुर वचन सुनकर हिमगिरिकामिनी मेना अत्यधिक सन्तुष्ट होकर कहने लगीं- ॥ ३२ ॥

मेनोवाच
शिवे जयजय प्राज्ञे महेश्वरि भवाम्बिके ।
वरयोग्यास्महं चेत्ते वृणे भूयो वरं वरम् ॥ ३३ ॥
मेना बोलीं-हे शिवे ! आपकी जय हो, जय हो, हे प्राज्ञे ! हे महेश्वरि ! हे भवाम्बिके ! यदि मैं वर पानेके योग्य हैं, तो आपसे पुनः श्रेष्ठ वर माँगती हूँ ॥ ३३ ॥

प्रथमं शतपुत्रा मे भवन्तु जगदम्बिके ।
बह्वायुषो वीर्यवन्त ऋद्धिसिद्धिसमन्विताः ॥ ३४ ॥
हे जगदम्बिके ! पहले तो मुझे सौ पुत्र हों, वे दीर्घ आयुवाले, पराक्रमसे युक्त तथा ऋद्धि-सिद्धिसे सम्पन्न हों ॥ ३४ ॥

पश्चात्तथैका तनया स्वरूपगुणशालिनी ।
कुलद्वयानन्दकरी भुवनत्रयपूजिता ॥ ३५ ॥
उन पुत्रोंके पश्चात् मेरी एक पुत्री हो, जो स्वरूप और गुणोंसे युक्त, दोनों कुलोंको आनन्द देनेवाली तथा तीनों लोकोंमें पूजित हो ॥ ३५ ॥

सुता भव मम शिवे देवकार्यार्थमेव हि ।
रुद्रपत्नी भव तथा लीलां कुरु भवाम्बिके ॥ ३६ ॥
हे शिवे ! आप ही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मेरी पुत्री हों । हे भवाम्बिके ! आप रुद्रदेवकी पत्नी हों और लीला करें ॥ ३६ ॥

ब्रह्मोवाच
तच्छ्रुत्वा मेनकोक्तं हि प्राह देवी प्रसन्नधीः ।
स्मितपूर्वं वचस्तस्याः पूरयन्ती मनोरथम् ॥ ३७ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] मेनकाकी वह बात सुनकर प्रसन्नहृदया देवी उमा उनके मनोरथको पूर्ण करती हुई मुसकराकर यह वचन कहने लगीं- ॥ ३७ ॥

देव्युवाच
शतपुत्राः संभवन्तु भवत्या वीर्यसंयुताः ।
तत्रैको बलवान्मुख्यः प्रथमं सम्भविष्यति ॥ ३८ ॥
देवी बोलीं-तुम्हें सौ बलवान् पुत्र होंगे । उनमें एक बलवान् और प्रधान होगा, जो सबसे पहले उत्पन्न होगा ॥ ३८ ॥

सुताहं सम्भविष्यामि सन्तुष्टा तव भक्तितः ।
देव कार्यं करिष्यामि सेविता निखिलैःसुरैः ॥ ३९ ॥
तुम्हारी भक्तिसे सन्तुष्ट मैं [स्वयं] पुत्रीके रूपमें अवतीर्ण होऊँगी और समस्त देवताओंसे सेवित होकर उनका कार्य सिद्ध करूँगी ॥ ३९ ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्त्वा जगद्धात्री कालिका परमेश्वरी ।
पश्यन्त्या मेनकायास्तु तत्रैवान्तर्दधे शिवा ॥ ४० ॥
ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर जगद्धात्री परमेश्वरी कालिका शिवा मेनकाके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ ४० ॥

मेनकापि वरं लब्ध्वा महेशान्या अभीप्सितम् ।
मुदं प्रापामितां तात तपःक्लेशोऽप्यनश्यत ॥ ४१ ॥
हे तात ! महेश्वरीसे अभीष्ट वर पाकर मेनकाको भी अपार हर्ष हुआ और उनका तपस्याजनित क्लेश नष्ट हो गया ॥ ४१ ॥

दिशि तस्यां नमस्कृत्य सुप्रहृष्टमनाःसती ।
जयशब्दं प्रोच्चरन्ती स्वस्थानं प्रविवेश ह ॥ ४२ ॥
अत्यन्त प्रसन्नचित्त साध्वी मेना उस दिशामें नमस्कारकर जय शब्दका उच्चारण करती हुई अपने स्थानको चली गयीं ॥ ४२ ॥

अथ तस्मै स्वपतये शशंस सुवरं च तम् ।
स्वचिह्नबुद्धमिव वै सुवाचा पुनरुक्तया ॥ ४३ ॥
ऐसे तो मेनाके प्रसन्न मुखमण्डलसे ही हिमवान्को सारी बातोंकी जानकारी हो गयी, फिर भी मेनाने अपने मुखसे वरदानकी सारी बात पुनरुक्त वचनोंके समान हिमालयसे पुनः कह दीं ॥ ४३ ॥

श्रुत्वा शैलपतिर्हृष्टोऽभवन्मेनावचो हि तत् ।
प्रशशंस प्रियां प्रीत्या शिवाभक्तिरतां च ताम् ॥ ४४ ॥
मेनाका वचन सुनकर पर्वतराज हिमालय] प्रसन्न हुए और उन्होंने शिवामें भक्ति रखनेवाली [अपनी] उन प्रियाकी प्रेमपूर्वक प्रशंसा की ॥ ४४ ॥

कालक्रमेणाऽथ तयोः प्रवृत्ते सुरते मुने ।
गर्भो बभूव मेनाया ववृधे प्रत्यहं च सः ॥ ४५ ॥
हे मुने ! तत्पश्चात् कालक्रमसे उन दोनोंके सहवासमें प्रवृत्त होनेपर मेनाको गर्भ रह गया और वह प्रतिदिन बढ़ने लगा ॥ ४५ ॥

असूत सा नागवधूपभोग्यं सुतमुत्तमम् ।
समुद्रबद्धसत्सख्यं मैनाकाभिधमद्‌भुतम् ॥ ४६ ॥
समयानुसार उन्होंने एक उत्तम पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम मैनाक था । उसने समुद्रके साथ उत्तम मैत्री की । वह अद्‌भुत पर्वत नागवधुओंके विहारका स्थल है ॥ ४६ ॥

वृत्रशत्रावपि क्रुद्धो वेदनाशं सपक्षकम् ।
पविक्षतानां देवर्षे पक्षच्छिदि वराङ्‌गकम् ॥ ४७ ॥
हे देवर्षे ! जिस समय इन्द्रने पर्वतोंपर क्रोधित होकर उनके पंख काटना प्रारम्भ किया, उस समय वजद्वारा कटे हुए पर्वतोंके पंखोंको देखकर वह मैनाक वेदनासे अनभिज्ञ ही रहा और पंखयुक्त ही रहा ॥ ४७ ॥

प्रवरं शतपुत्राणां महाबलपराक्रमम् ।
स्वोद्‌भवानां महीध्राणां पर्वतेन्द्रे प्रतिष्ठितम् ॥ ४८ ॥
हिमालयके सौ पुत्रोंमें मैनाक सबसे श्रेष्ठ और महाबल तथा पराक्रमसे युक्त था । अपने आप प्रकट हुए समस्त पर्वतोंमें एकमात्र मैनाक ही पर्वतराजके पदपर अधिष्ठित हुआ ॥ ४८ ॥

आसीन्महोत्सवस्तत्र हिमाचलपुरेऽद्‌भुतः ।
दम्पत्योः प्रमुदाधिक्यं बभूव क्लेशसङ्‌क्षयः ॥ ४९ ॥
उस समय हिमालयके नगरमें महान् उत्सव हुआ । दोनों पति-पत्नी अत्यधिक प्रसन्नताको प्राप्त हुए और उनका क्लेश नष्ट हो गया ॥ ४९ ॥

दानन्ददौ द्विजातिभ्योऽन्येभ्यश्च प्रददौ धनम् ।
शिवाशिवपदद्वन्द्वे स्नेहोऽभूदधिकस्तयोः ॥ ५० ॥
उन्होंने ब्राहाणोंको दान दिया तथा अन्य लोगोंको भी धन प्रदान किया । शिवाशिवके चरणयुगलमें उन दोनोंका अत्यधिक स्नेह हो गया ॥ ५० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे मेनावरलाभवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें मेनाकी वरप्राप्तिका वर्णन नामक पाँचवा अध्याय पूर्ण हुआ-५



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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