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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
एकादशोऽध्यायः ॥ शिवहिमवत्समागमः -
भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप ब्रह्मोवाच वर्द्धमाना गिरेः पुत्री सा शक्ति लोकपूजिता । अष्टवर्षा यदा जाता हिमालयगृहे सती ॥ १ ॥ तज्जन्म गिरिशो ज्ञात्वा सतीविरहकातरः । कृत्वा तमद्भुतामन्तर्मुमोदातीव नारद ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-हिमालयकी वह लोकपूजित पुत्री पार्वती उनके घरमें बढ़ती हुई जब आठ वर्षकी हो गयी, तब हे नारद ! उसका जन्म [हिमालयके घरमें] जानकर सतीके विरहसे दुखी हुए शंकरजी सतीकी इस अद्भुत लीलासे मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो उठे ॥ १-२ ॥ तस्मिन्नेवान्तरे शम्भुर्लौकिकीं गतिमाश्रितः । समाधातुं मनःसम्यक्तपः कर्त्तुं समैच्छत ॥ ३ ॥ उसी समय लौकिक गतिका आश्रय लेकर शम्भुने अपने मनको एकाग्र करनेके लिये तप करनेका विचार किया ॥ ३ ॥ कांश्चिद्गणवराञ्छान्तान्नन्द्यादीनवगृह्य च । गङ्गावतारमगमद्धिमवत्प्रस्थमुत्तमम् ॥ ४ ॥ यत्र गङ्गा निपतिता पुरा ब्रह्मपुरात्स्रुता । सर्वाघौघविनाशाय पावनी परमा मुने ॥ ५ ॥ नन्दी आदि कुछ शान्त, श्रेष्ठ पार्षदोंको साथ लेकर वे हिमालयके गंगावतार नामक उत्तम शिखरपर गये, हे मुने ! जहाँ पूर्वकालमें ब्रह्मधामसे प्रवाहित होकर समस्त पापराशिका विनाश करनेके लिये परम पावनी गंगा गिरी थीं ॥ ४-५ ॥ तपःप्रारम्भमकरोत्स्थित्वा तत्र वशी हरः । एकाग्रं चिन्तयामास स्वमात्मानमतन्द्रितः ॥ ६ ॥ चेतो ज्ञानभवं नित्यं ज्योतीरूपं निरामयम् । जगन्मयं चिदानन्दं द्वैतहीनं निराश्रयम् ॥ ७ ॥ जितेन्द्रिय हरने वहीं रहकर तपस्या आरम्भ की, वे आलस्यका त्यागकर चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य, ज्योतिर्मय, निरामय, जगन्मय, चिदानन्दस्वरूप, द्वैतहीन तथा आश्रयरहित अपने आत्मभूत परमात्माका एकाग्रभावसे चिन्तन करने लगे ॥ ६-७ ॥ हरे ध्यानपरे तस्मिन्प्रमथा ध्यानतत्पराः । अभवन्केचिदपरे नन्दिभृङ्ग्यादयो गणाः ॥ ८ ॥ भगवान् हरके ध्यानपरायण होनेपर नन्दी, श्रृंगी आदि कुछ अन्य पार्षदगण भी ध्यानमें तत्पर हो गये ॥ ८ ॥ सेवां चक्रुस्तदा केचिद्गणाः शम्भोः परात्मनः । नैवाकूजंस्तु मौना हि द्वारपाः केचनाभवन् ॥ ९ ॥ उस समय कुछ गण परमात्मा शम्भुकी सेवा करते थे और कुछ द्वारपाल हो गये । वे सब-के-सब मौन रहते थे और कुछ नहीं बोलते थे ॥ ९ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र जगाम हिमभूधरः । शङ्करस्यौषधिप्रस्थे श्रुत्वागमनमादरात् ॥ १० ॥ इसी समय गिरिराज हिमालय उस औषधिशिखरपर भगवान् शंकरका आगमन सुनकर आदरपूर्वक वहाँ गये ॥ १० ॥ प्रणनाम प्रभुं रुद्रं सगणो भूधरेश्वरः । समानर्च च सुप्रीतस्तुष्टाव स कृताञ्जलिः ॥ ११ ॥ अपने गणोंसहित गिरिराजने प्रभु रुद्रको प्रणाम किया, उनकी पूजा की और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर [वे शिवजीकी] स्तुति करने लगे ॥ ११ ॥ हिमालय उवाच देवदेव महादेव कपर्दिच्छङ्कर प्रभो । त्वयैव लोकनाथेन पालितं भुवनत्रयम् ॥ १२ ॥ हिमालय बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे कपर्दिन् । हे प्रभो ! हे शंकर ! आप लोकनाथने ही तीनों लोकोंका पालन किया है ॥ १२ ॥ नमस्ते देवदेवेश योगिरूपधराय च । निर्गुणाय नमस्तुभ्यं सगुणाय विहारिणे ॥ १३ ॥ कैलासवासिने शम्भो सर्वलोकाटनाय च । नमस्ते परमेशाय लीलाकाराय शूलिने ॥ १४ ॥ परिपूर्णगुणाधानविकाररहिताय ते । नमोऽनीहाय वीहाय धीराय परमात्मने ॥ १५ ॥ योगीरूप धारण करनेवाले हे देवदेवेश ! आपको नमस्कार है, निर्गुण, सगुण तथा विहार करनेवाले आपको नमस्कार है । हे शम्भो ! आप कैलासवासी, सभी लोकोंमें विचरण करनेवाले, लीला करनेवाले, त्रिशूलधारी परमेश्वरको नमस्कार है । [सभी प्रकारसे] परिपूर्ण गुणोंके आकर, विकाररहित, सर्वथा इच्छारहित होते हुए भी इच्छावाले तथा धैर्यवान् आप परमात्माको नमस्कार है ॥ १३-१५ ॥ अबहिर्भोगकाराय जनवत्सलते नमः । त्रिगुणाधीश मायेश ब्रह्मणे परमात्मने ॥ १६ ॥ विष्णुब्रह्मादिसेव्याय विष्णुब्रह्मस्वरूपिणे । विष्णुब्रह्मैकदात्रे ते भक्तप्रिय नमोऽस्तु ते ॥ १७ ॥ हे जनवत्सल ! हे त्रिगुणाधीश ! हे मायापते ! बाहरी भोगोंको ग्रहण न करनेवाले आप परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है । हे भक्तप्रिय ! आप ब्रह्मा, विष्णु आदिके द्वारा सेव्य, ब्रह्मा-विष्णुस्वरूप तथा विष्णु-ब्रह्माको सुख प्रदान करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है ॥ १६-१७ ॥ तपोरत तपस्थान सुतपः फलदायिने । तपःप्रियाय शान्ताय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे ॥ १८ ॥ हे तपोरत ! हे तपःस्थान ! आप उत्तम तपस्याका फल प्रदान करनेवाले, तपस्यासे प्रेम करनेवाले, शान्त तथा ब्रह्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है ॥ १८ ॥ व्यवहारकरायैव लोकाचारकराय ते । सगुणाय परेशाय नमोस्तु परमात्मने ॥ १९ ॥ व्यवहार तथा लोकाचार करनेवाले आप सगुण, परेश परमात्माको नमस्कार है ॥ १९ ॥ लीला तव महेशानावेद्या साधुसुखप्रदा । भक्ताधीनस्वरूपोऽसि भक्तवश्यो हि कर्मकृत् ॥ २० ॥ हे महेश्वर ! आपकी लीलाको कोई जान नहीं सकता और यह साधुओंको सुख देनेवाली है । आप भक्तोंके अधीन स्वरूपवाले तथा भक्तोंके वशमें होकर कर्म करनेवाले हैं ॥ २० ॥ मम भाग्योदयात्तत्र त्वमागत इह प्रभो । सनाथ कृतवान्मां त्वं वर्णितो दीनवत्सलः ॥ २१ ॥ अद्य मे सफलं जन्म सफलं जीवनं मम । अद्य मे सफलं सर्वं यदत्र त्वं समागतः ॥ २२ ॥ हे प्रभो ! मेरे भाग्यके उदय होनेसे ही आप यहाँ आये हैं । आपने मुझे सनाथ कर दिया, इसीलिये आप दीनवत्सल कहे गये हैं । आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरा जीवन सफल हो गया, आज मेरा सब कुछ सफल हो गया, जो आप यहाँ पधारे हैं ॥ २१-२२ ॥ ज्ञात्वा मां दासमव्यग्रमाज्ञां देहि महेश्वर । त्वत्सेवां च महाप्रीत्या कुर्यामहमनन्यधीः ॥ २३ ॥ हे महेश्वर ! मुझे अपना दास समझकर नि:संकोच आज्ञा दीजिये, मैं अनन्य बुद्धि होकर बड़े प्रेमसे आपकी सेवा करूँगा ॥ २३ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्य गिरीशस्य महेश्वरः । किञ्चिदुन्मील्य नेत्रे च ददर्श सगणं गिरिम् ॥ २४ ॥ सगणं तं तथा दृष्ट्वा गिरिराजं वृषध्वजः । उवाच ध्यानयोगस्थः स्मयन्निव जगत्पतिः ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] गिरिराजका यह वचन सुनकर महेश्वरने थोड़ी-सी आँखें खोलकर सेवकोंसहित हिमालयको देखा । सेवकोंसहित गिरिराजको [उपस्थित] देखकर ध्यानयोगमें स्थित हुए जगदीश्वर वृषभध्वज मुसकराते हुए कहने लगे- ॥ २४-२५ ॥ महेश्वर उवाच तव पृष्ठे तपस्तप्तुं रहस्यमहमागतः । यथा न कोऽपि निकटं समायातु तथा कुरु ॥ २६ ॥ महेश्वर बोले-[हे शैलराज !] मैं आपके शिखरपर एकान्तमें तपस्या करनेके लिये आया हूँ, आप ऐसा प्रबन्ध कीजिये, जिससे कोई भी मेरे निकट न आ सके ॥ २६ ॥ त्वं महात्मा तपोधामा मुनीनां च सदाश्रयः । देवानां राक्षसानां च परेषां च महात्मनाम् ॥ २७ ॥ आप महात्मा, तपस्याके धाम तथा मुनियों, देवताओं, राक्षसों और अन्य महात्माओंको सदा आश्रय देनेवाले हैं ॥ २७ ॥ सदा वासो द्विजादीनां गङ्गापूतश्च नित्यदा । परोपकारी सर्वेषां गिरीणामधिपः प्रभुः ॥ २८ ॥ अहं तपश्चराम्यत्र गङ्गावतरणे स्थले । आश्रितस्तव सुप्रीतो गिरिराज यतात्मवान् ॥ २९ ॥ आप द्विज आदिके सदा निवासस्थान, गंगासे सर्वदा पवित्र, दूसरोंका उपकार करनेवाले तथा सम्पूर्ण पर्वतोंके सामर्थ्यशाली राजा हैं । हे गिरिराज ! मैं चित्तको नियममें रखकर यहाँ गंगावतरणस्थलमें -आपके आश्रित होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ तपस्या करूँगा । २८-२९ ॥ निर्विघ्नं मे तपश्चात्र हेतुना येन शैलप । सर्वथा हि गिरिश्रेष्ठ सुयत्नं कुरु साम्प्रतम् ॥ ३० ॥ हे शैलराज ! हे गिरिश्रेष्ठ ! जिस साधनसे यहाँ मेरी तपस्या बिना किसी विघ्नके हो सके, उसे इस समय आप सर्वथा यत्नपूर्वक कीजिये ॥ ३० ॥ ममेदमेव परमं सेवनं पर्वतोत्तम । स्वगृहं गच्छ सत्प्रीत्या तत्सम्पादय यत्नतः ॥ ३१ ॥ हे पर्वतप्रवर ! मेरी यही सबसे बड़ी सेवा है, आप अपने घर जाइये और उसका उत्तम प्रीतिसे यत्नपूर्वक प्रबन्ध कीजिये ॥ ३१ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा जगतां नाथस्तूष्णीमास स सूतिकृत् । गिरिराजस्तदा शम्भुं प्रणयादिदमब्रवीत् ॥ ३२ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता वे जगदीश्वर चुप हो गये, तब गिरिराजने शम्भुसे प्रेमपूर्वक यह बात कही- ॥ ३२ ॥ हिमालय उवाच पूजितोऽसि जगन्नाथ मया त्वम्परमेश्वर । स्वागतेनाद्य विषये स्थितं त्वाम्प्रार्थयामि किम् ॥ ३३ ॥ हिमालय बोले-हे जगन्नाथ ! हे परमेश्वर ! आज मैंने आपका स्वागतपूर्वक पूजन किया है, [यही मेरे लिये महान् सौभाग्यकी बात है । ] अब मैं अपने देशमें उपस्थित आपसे क्या प्रार्थना करूँ ? ॥ ३३ ॥ महता तपसा त्वं हि देवैर्यत्नपराश्रितैः । न प्राप्यसे महेशान स त्वं स्वयमुपस्थितः ॥ ३४ ॥ हे महेश्वर ! बड़े-बड़े यत्नका आश्रय ले लेनेवाले देवतालोग महान् तपके द्वारा भी आपको नहीं पाते, वे आप स्वयं उपस्थित हो गये हैं ॥ ३४ ॥ मत्तोऽप्यन्यतमो नास्ति न मत्तोऽन्योऽस्ति पुण्यवान् । भवानिति च मत्पृष्ठे तपसे समुपस्थितः ॥ ३५ ॥ मुझसे बढ़कर कोई सौभाग्यशाली नहीं है और मुझसे बढ़कर कोई पुण्यात्मा नहीं है जो आप मेरे पृष्ठभागपर तपस्याके लिये उपस्थित हुए हैं ॥ ३५ ॥ देवेन्द्रादधिकं मन्ये स्वात्मानं परमेश्वर । सगणेन त्वयाऽगत्य कृतोऽनुग्रहभागहम् ॥ ३६ ॥ हे परमेश्वर ! मैं अपनेको देवराज इन्द्रसे भी बढ़कर समझता हूँ क्योंकि गणोंसहित आपने [यहाँ] आकर मुझे अनुग्रहका भागी बना दिया ॥ ३६ ॥ निर्विघ्नं कुरु देवेश स्वतन्त्रः परमं तपः । करिष्येऽहं तथा सेवां दासोऽहं ते सदा प्रभो ॥ ३७ ॥ हे देवेश ! आप स्वतन्त्र होकर बिना किसी विघ्नके उत्तम तपस्या कीजिये । हे प्रभो ! मैं आपका दास हूँ, अतः सदा आपकी सेवा करूँगा ॥ ३७ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा गिरिराजोऽसौ स्वं वेश्म द्रुतमागतः । वृत्तान्त्तं तं समाचख्यौ प्रियायै च समादरात् ॥ ३८ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] ऐसा कहकर वे गिरिराज तुरंत अपने घर आ गये और उन्होंने अपनी प्रियाको बड़े आदरसे वह सारा वृत्तान्त सुनाया ॥ ३८ ॥ नीयमानान्परीवारान् स्वगणानपि नारद । समाहूयाखिलाञ्छैलपतिः प्रोवाच तत्त्वतः ॥ ३९ ॥ तत्पश्चात् शैलराज साथ जानेवाले परिजनोंको तथा अपने समस्त गोंको बुलाकर उनसे भलीभाँति कहने लगे- ॥ ३९ ॥ हिमालय उवाच अद्य प्रभृति नो यातु कोऽपि गङ्गावतारणम् । मच्छासनेन मत्प्रस्थं सत्यमेतद्ब्रवीम्यहम् ॥ ४ ० ॥ गमिष्यति जनः कश्चित्तत्र चेत्तं महाखलम् । दण्डयिष्ये विशेषेण सत्यमेतन्मयोदितम् ॥ ४१ ॥ हिमालय बोले-मेरी आज्ञासे आजसे कोई भी गंगावतरण नामक मेरे शिखरपर न जाय, यह मैं सत्य कह रहा हूँ । यदि कोई व्यक्ति वहाँ जायगा तो मैं उस महादुष्टको विशेष रूपसे दण्ड दूंगा, यह मैंने सत्य कहा है । ४०-४१ ॥ इति तान्स नियम्याशु स्वगणान्निखिलान्मुने । सुयत्नं कृतवाञ्छैलस्तं शृणु त्वं वदामि ते ॥ ४२ ॥ हे मुने ! इस प्रकार अपने समस्त गणोंको शीघ्र ही नियन्त्रित करके हिमवान्ने [विघ्ननिवारणके लिये] जो सुन्दर प्रयत्न किया, उसे आपको बता रहा हूँ, आप सुनिये ॥ ४२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे शिवशैलसमागमवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें शिवशैलसमागमवर्णन नामक ग्यारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |