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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

द्वादशोऽध्यायः ॥

शिवहिमवत्संवादः -
हिमवानका पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा माँगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना -


ब्रह्मोवाच
अथ शैलपतिर्हृष्टः सत्पुष्पफलसञ्चयम् ।
समादाय स्वतनयासहितोऽगाद्धरान्तिकम् ॥ १ ॥
स गत्वा त्रिजगन्नाथं प्रणम्य ध्यानतत्परम् ।
अर्थयामास तनयां कालीं तस्मै हृदाद्‌भुताम् ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद !] तदनन्तर शैलराज हर्षित होकर उत्तम फल-फूलका समूह लेकर अपनी पुत्रीके साथ भगवान् हरके समीप गये । वहाँ जाकर उन्होंने ध्यानपरायण त्रिलोकीनाथको प्रणाम करके अपनी अद्‌भुत कन्या कालीको हदयसे उन्हें अर्पित कर दिया ॥ १-२ ॥

फलपुष्पादिकं सर्वं तत्तदग्रे निधाय सः ।
अग्रे कृत्वा सुतां शम्भुमिदमाह च शैलराट् ॥ ३ ॥
सब फल-फूल आदि उनके सामने रखकर और पुत्रीको आगे करके वे शैलराज शम्भुसे यह कहने लगे- ॥ ३ ॥

हिमगिरिरुवाच
भगवंस्तनया मे त्वां सेवितुं चन्द्रशेखरम् ।
समुत्सुका समानीता त्वदाराधनकाङ्‌क्षया ॥ ४ ॥
हिमगिरि बोले-हे भगवन् ! मेरी पुत्री आप चन्द्रशेखरकी सेवा करनेके लिये बड़ी उत्सुक है, अतः आपकी आराधनाकी इच्छासे मैं इसको लाया हूँ ॥ ४ ॥

सखीभ्यां सह नित्यं त्वां सेवतामेव शंकरम् ।
अनुजानीहि तां नाथ मयि ते यद्यनुग्रहः ॥ ५ ॥
यह अपनी दो सखियोंके साथ सदा आप शंकरकी ही सेवा करेगी । हे नाथ ! यदि आपका मुझपर अनुग्रह है, तो इसे [सेवाके लिये] आज्ञा दीजिये ॥ ५ ॥

ब्रह्मोवाच
अथ तां शंकरोऽपश्यत्प्रथमारूढयौवनाम् ।
फुल्लेन्दीवरपत्राभां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ॥ ६ ॥
समस्तलीलासंस्थानशुभवेषविजृम्भिताम् ।
कम्बुग्रीवां विशालाक्षीं चारुकर्णयुगोज्ज्वलाम् ॥ ७ ॥
मृणालायतपर्य्यन्तबाहुयुग्ममनोहराम् ।
राजीवकुड्मलप्रख्यौ घनपीनौदृढौस्तनौ ॥ ८ ॥
बिभ्रतीं क्षीणमध्यां च त्रिवलीमध्यराजिताम् ।
स्थलपद्मप्रतीकाशपादयुग्मविराजिताम् ॥ ९ ॥
ध्यानपञ्जरनिर्बद्धमुनिमानसमप्यलम् ।
दर्शनाद्‌भ्रंशने शक्तां योषिद्‌गणशिरोमणिम् ॥ १० ॥
ब्रह्माजी बोले-तब शंकरने यौवनकी प्रथमावस्थामें वर्तमान, पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली, विकसित नीलकमलके पत्रके समान आभावाली, समस्त लीलाओंकी स्थानरूप, सुन्दर वेषसे सुसज्जित, शंखके समान ग्रीवावाली, विशाल नेत्रोंवाली, सुन्दर कर्णयुगलसे शोभित, मृणालके समान चिकनी एवं लम्बी दो भुजाओंसे मनोहर प्रतीत होनेवाली, कमलकलीके समान घने, मोटे तथा दृढ़ स्तनोंको धारण करनेवाली, पतले कटिप्रदेशवाली, त्रिवलीयुक्त मध्यभागवाली, स्थलपद्मके समान चरणयुगलसे सुशोभित, अपने दर्शनसे ध्यानरूपी पिंजड़ेमें बन्द मुनियोंके मनको भी विचलित करने में समर्थ और स्त्रियोंमें सर्वश्रेष्ठ उस [कन्या]-को देखा ॥ ६-१० ॥

दृष्ट्‍वा तां तादृशीं तात ध्यानिनां च मनोहराम् ।
विग्रहे तन्त्रमन्त्राणां वर्द्धिनीं कामरूपिणीम् ॥ ११ ॥
न्यमीलयदृशौ शीघ्रं दध्यौ स्वं रूपमुत्तमम् ।
परतत्त्वं महायोगी त्रिगुणात्परमव्ययम् ॥ १२ ॥
ध्यानियोंके भी मनका हरण करनेवाली, विग्रहसे तन्त्र-मन्वोंको बढ़ानेवाली तथा कामरूपिणी वैसी उस कन्याको देखकर उन महायोगीने शीघ्र दोनों नेत्र बन्द कर लिये और वे अपने उत्तम, परमतत्त्वमय, तीनों गुणोंसे परे तथा अविनाशी स्वरूपका ध्यान करने लगे ॥ ११-१२ ॥

दृष्ट्‍वा तदानीं सकलेश्वरं विभुं
    तपोजुषाणं विनिमीलितेक्षणम् ।
कपर्दिनं चन्द्रकलाविभूषणं
    वेदान्तवेद्यं परमासने स्थितम् ॥ १३ ॥
ववन्द शीर्ष्णा च पुनर्हिमाचलः
    स संशयं प्रापददीनसत्त्वः ।
उवाच वाक्यं जगदेकबन्धुं
    गिरीश्वरो वाक्यविदां वरिष्ठः ॥ १४ ॥
उस समय सर्वेश्वर, सर्वव्यापी, तप करते हुए, बन्द नेत्रोंवाले, चन्द्रकलारूप आभूषणवाले, जटा धारण करनेवाले, वेदान्तके द्वारा जाननेयोग्य तथा उत्तम आसनमें स्थित शिवको देखकर महात्मा हिमालयने उन्हें प्रणाम किया, वे पुनः संशयमें पड़ गये । इसके बाद वाक्यवेत्ताओंमें श्रेष्ठ गिरीश्वर जगत्के एकमात्र बन्धु शंकरसे यह वचन कहने लगे- ॥ १३-१४ ॥

हिमाचल उवाच
देवदेव महादेव करुणाकर शंकर ।
पश्य मां शरणं प्राप्तमुन्मील्य नयने विभो ॥ १५ ॥
हिमालय बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणाकर ! हे शंकर ! हे विभो ! आँखें खोलकर मुझ शरणागतको देखिये ॥ १५ ॥

शिव शर्व महेशान जगदानन्दकृत्प्रभो ।
त्वां नतोऽहं महादेव सर्वापद्‌विनिवर्तकम् ॥ १६ ॥
न त्वां जानन्ति देवेश वेदाः शास्त्राणि कृत्स्नशः ।
अतीतो महिमाध्वानं तव वाङ्‌मनसोः सदा ॥ १७ ॥
हे शिव ! हे शर्व ! हे महेशान ! हे जगत्को आनन्द प्रदान करनेवाले प्रभो ! हे महादेव ! मैं सम्पूर्ण आपत्तियोंको दूर करनेवाले आपको प्रणाम करता हूँ । हे देवेश ! वेद और शास्त्र भी आपको पूर्णरूपसे नहीं जानते हैं क्योंकि आपकी महिमा वाणी तथा मनके मार्गसे भी सर्वथा परे है ॥ १६-१७ ॥

अतद्व्यावृत्तितस्त्वां वै चकितं चकितं सदा ।
अभिधत्ते श्रुतिः सर्वा परेषां का कथा मता ॥ १८ ॥
सभी श्रुतियाँ भी आपकी महिमाका पार न पा सकनेके कारण चकित होकर नेति-नेति कहते हुए सदा आपका वर्णन करती हैं, फिर दूसरोंकी क्या बात कही जाय ! ॥ १८ ॥

जानन्ति बहवो भक्तास्त्वत्कृपां प्राप्य भक्तितः ।
शरणागत भक्तानां न कुत्रापि भ्रमादिकम् ॥ १९ ॥
बहुत-से भक्त ही भक्तिके द्वारा आपकी कृपा प्राप्त करके उसे जान सकते हैं । क्योंकि [आपकी] शरणमें आये हुए भक्तोंको कहीं भी भ्रम आदि नहीं होता ॥ १९ ॥

विज्ञप्तिं शृणु मत्प्रीत्या स्वदासस्य ममाधुना ।
तव देवाज्ञया तात दीनत्वाद्वर्णयामि हि ॥ २० ॥
सभाग्योहं महादेव प्रसादात्तव शंकर ।
मत्वा स्वदासं मां नाथ कृपां कुरु नमोऽस्तु ते ॥ २१ ॥
अब आप दया करके इस समय मुझ अपने दासका निवेदन सुनें । हे देव ! हे तात ! मैं आपकी आज्ञासे दीन होकर उसका वर्णन कर रहा हूँ ॥ २० ॥

प्रत्यहं चागमिष्यामि दर्शनार्थं तव प्रभो ।
अनया सुतया स्वामिन्निदेशं दातुमर्हसि ॥ २२ ॥
हे महादेव ! हे शंकर ! मैं आपकी कृपासे भाग्यशाली हो गया हूँ । हे नाथ ! मुझे अपना दास समझकर मुझपर कृपा करें, आपको नमस्कार है । हे प्रभो ! मैं आपके दर्शनके लिये प्रतिदिन इस कन्याके साथ आया करूँगा । हे स्वामिन् ! मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ २१-२२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्योन्मील्य नेत्रे महेश्वरः ।
त्यक्तध्यानः परामृश्य देवदेवोऽब्रवीद्वचः ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी बोले-उनका यह वचन सुनकर अपने नेत्र खोलकर ध्यान त्यागकर और कुछ सोच विचारकर देवदेव महादेव यह वचन कहने लगे- ॥ २३ ॥

महेश्वर उवाच
आगन्तव्यं त्वया नित्यं दर्शनार्थं ममाचल ।
कुमारीं सदने स्थाप्य नान्यथा मम दर्शनम् ॥ २४ ॥
महेश्वर बोले-हे भक्त ! [अपनी] कन्याको घरपर ही छोड़कर नित्य मेरे दर्शनके लिये आप आ सकते हैं । अन्यथा मेरा दर्शन नहीं होगा ॥ २४ ॥

ब्रह्मोवाच
महेशवचनं श्रुत्वा शिवातातस्तथाविधम् ।
अचलः प्रत्युवाचेदं गिरिशं नतकंधरः ॥ २५ ॥
ब्रह्माजी बोले-महेशके इस प्रकारके वचनको सुनकर पार्वतीके पिता हिमालय सिर झुकाकर शिवजीसे यह कहने लगे- ॥ २५ ॥

हिमाचल उवाच
कस्मान्मयानया सार्द्धं नागन्तव्यं तदुच्यताम् ।
सेवने किमयोग्येयं नाहं वेद्म्यत्र कारणम् ॥ २६ ॥
हिमाचल बोले-[हे प्रभो !] इस कन्याके साथ [आपके दर्शनके लिये किस कारणसे मुझे नहीं आना चाहिये, इसे बताइये । क्या यह आपकी सेवा करनेमें अयोग्य है ? मैं इसका कारण नहीं समझ पा रहा हूँ ॥ २६ ॥

ब्रह्मोवाच
ततोऽब्रवीद्‌गिरिं शम्भुः प्रहसन्वृषभध्वजः ।
लोकाचारं विशेषेण दर्शयन्हि कुयोगिनाम् ॥ २७ ॥
ब्रह्माजी बोले-तत्पश्चात् वृषभध्वज शंकर विशेषतः कुयोगियोंका लोकाचार दिखाते हुए हँसकर हिमालयसे कहने लगे- ॥ २७ ॥

शम्भुरुवाच
इयं कुमारी सुश्रोणी तन्वी चन्द्रानना शुभा ।
नानेतव्या मत्समीपे वारयामि पुनः पुनः ॥ २८ ॥
शम्भु बोले-[हे शैलराज !] मनोहर नितम्बवाली, तन्वी, चन्द्रमुखी तथा सुन्दरी इस कन्याको मेरे सन्निकट मत लाइयेगा, इसके लिये मैं बार-बार मना करता हूँ ॥ २८ ॥

मायारूपा स्मृता नारी विद्वद्‌भिर्वेदपारगैः ।
युवती तु विशेषेण विघ्नकर्त्री तपस्विनाम् ॥ २९ ॥
वेदोंके पारगामी विद्वानोंने स्त्रीको मायारूपा कहा है, उसमें भी विशेष रूपसे युवती स्त्री तो तपस्वियोंके लिये विघ्नकारिणी होती है ॥ २९ ॥

अहं तपस्वी योगी च निर्लिप्तो मायया सदा ।
प्रयोजनं युवत्या वै स्त्रिया किं मेस्ति भूधर ॥ ३० ॥
एवं पुनर्न वक्तव्यं तपस्विवरसंश्रित ।
वेदधर्मप्रवीणस्त्वं यतो ज्ञानिवरो बुधः ॥ ३१ ॥
हे भूधर ! मैं तपस्वी, योगी तथा सदा मायासे निर्लिप्त रहनेवाला हूँ । अतः मुझे युवती स्त्रीसे क्या प्रयोजन है ? हे तपस्वियोंके श्रेष्ठ आश्रय ! आपको पुनः ऐसा नहीं कहना चाहिये; क्योंकि आप वेदधर्ममें प्रवीण, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ तथा विद्वान् हैं ॥ ३०-३१ ॥

भवत्यचल तत्सङ्‌गाद्विषयोत्पत्तिराशु वै ।
विनश्यति च वैराग्यं ततो भ्रश्यति सत्तपः ॥ ३२ ॥
अतस्तपस्विना शैल न कार्या स्त्रीषु सङ्‌गतिः ॥
महाविषयमूलं सा ज्ञानवैराग्यनाशिनी ॥ ३३ ॥
हे पर्वत ! उनके संगसे शीघ्र ही विषयवासना उत्पन्न हो जाती है, वैराग्य नष्ट हो जाता है और उससे श्रेष्ठ तपस्या नष्ट हो जाती है । अतः हे शैल ! तपस्वियोंको स्त्रियोंका संग नहीं करना चाहिये; वह [स्त्री] महाविषयका मूल तथा ज्ञान-वैराग्यका नाश करनेवाली होती है । ३२-३३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याद्युक्त्वा बहुतरं महायोगी महेश्वरः ।
विरराम गिरीशं तं महायोगिवरः प्रभुः ॥ ३४ ॥
एतच्छ्रुत्वा वचनं तस्य शम्भो-
    र्निरामयं निःस्पृहं निष्ठुरं च ।
कालीतातश्चकितोऽभूत्सुरर्षे
    तद्वत्किञ्चिद्‌व्याकुलश्चास तूष्णीम् ॥ ३५ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! इस प्रकारकी बहुतसी बातें उन गिरिराजसे कहकर महान् योगियोंमें श्रेष्ठ महायोगी प्रभु महेश्वर चुप हो गये । ३४ ॥

तपस्विनोक्तं वचनं निशम्य
    तथा गिरीशं चकितं विचार्य्य ।
अतः प्रणम्यैव शिवं भवानी
    जगाद वाक्यं विशदन्तदानीम् ॥ ३६ ॥
हे देवर्षे ! उन शम्भुका यह स्पृहारहित, निरामय तथा निष्ठुर वचन सुनकर कालीके पिता [हिमालय] विस्मयमें पड़ गये और वे कुछ-कुछ व्याकुल-से होकर चुप हो गये । उस समय तपस्वीके द्वारा कही गयी बातको सुनकर और गिरिराजको आश्चर्यमें पड़ा हुआ विचार करके शिवजीको प्रणामकर भवानी उनसे विशद वचन कहने लगीं ॥ ३५-३६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे शिवहिमाचल संवादवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें शिव-हिमाचल संवादवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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